असली जीना माने क्या? || (2014)

Acharya Prashant

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असली जीना माने क्या? || (2014)

प्रश्नकर्ता: पंचदशी में वर्णन किया गया है कि इन्द्रियों द्वारा जिन विषयों का ज्ञान होता है उन विषयों की उपेक्षा और अनादर कर देने पर जो ज्ञान-रूपी स्फूर्ति दिखने लगती है वही ब्रह्मतत्व है। तो फिर वस्तुओं के साथ कैसा सम्बन्ध रहे?

आचार्य प्रशांत: किसका कैसा सम्बन्ध रहे? पूछ रहे हो कि वस्तुओं के साथ कैसा सम्बन्ध रहे। जो तुम्हें बता रहा है कि वस्तु है, उसको सम्बन्ध रखने दो वस्तु के साथ। कौन तुमसे आकर कहता है कि वस्तु पड़ी है? कौन तुमसे आकर कहता है कि स्थान है, समय है जहाँ वस्तु का अस्तित्व है? वस्तु के लिए स्थान चाहिए, समय चाहिए न? कौन तुमसे आकर कह रहा है? कौन तुम्हें दिखाता है कि वस्तु है? कौन?

प्र: आँखें।

आचार्य: ठीक है। उनको सम्बंधित रहने दो वस्तु से। वो बेचारी और करेंगी क्या? आँख तुम्हें क्या दिखाएगी? स्मृति तुम्हें कहाँ ले जाएगी? चित्त में क्या संगृहीत रहेगा? बुद्धि क्या करेगी? इन्हें इनका काम करने दो न। इनका तो वस्तुओं से एक तयशुदा सम्बन्ध ही होना है। ये उससे ज़्यादा कुछ कर सकते हैं क्या? तुम्हारी आँख सूँघेगी क्या? तुम्हारी नाक देखेगी क्या? ये तो वही करेंगे जो इन्हें करना है। इन्हें करने दो।

तुम सत्य में रहो, लगातार। तुम उस बिंदु पर बैठो जहाँ समय की नदी चल ही नहीं रही है, जहाँ से तुम सिर्फ़ देख रहे हो इस पूरे प्रवाह को। हाँ, आँख है, वो वस्तुओं को देख रही है। मन है, वो समय से संयुक्त है। हम नहीं संयुक्त हैं। हम तो उस जगह पर बैठे हैं जहाँ पर ये प्रवाह हमको नहीं छू पा रहा। अपने अहम् को, वस्तु से, विषयों से, इन्द्रियों से विच्छिन्न करके अकेला कर दो। केवल अहम्।

अभी अगर उसमें तकलीफ़ आती हो, तो उसे किसी ऐसे से जोड़ दो जो अभी वस्तु ही है, पर ऐसी वस्तु जो बड़ी जल्दी लुप्त हो जाएगी। जिसका स्वभाव ही है अनासक्ति। वो जुड़ी रहेगी नहीं। वो तुम्हें बाकियों से काटकर स्वयं भी लुप्त हो जाएगी। तुम केवल अहम् की स्थिति में रहो, अकेला, अनछुआ।

आँख तुम्हें दीवार के अलावा कुछ और नहीं दिखाएगी, कुछ और नहीं दिखा सकती। किसी की आँख नहीं दिखा सकती। कान से स्पर्श नहीं कर पाओगे। आँख खोलोगे तो ‘व्यक्ति’ ही दिखेगा, ‘वस्तु’ ही दिखेगी। तुम बोध में जीना सीखो। उसी को संतों ने बार-बार ‘सुरति’ कहा है। एक मधुर, सूक्ष्म, पार्श्व संगीत जैसा।

परसों एक बड़ी मज़ेदार घटना हुई थी। हम एक स्थान से आ रहे थे, और मैं मोटरसाइकिल चला रहा था। रात का समय था।मोटरसाइकिल की गति अच्छी थी। अल्मोड़ा के आसपास बारिश होने लगी, और सड़क गीली थी। तभी मैं देवेश जी का गाया हुआ गाना गुनगुना रहा था- ‘नेहरवा’। मैं उस गाने की पंक्तियों को घण्टे-दो-घण्टे से गुनगुनाते हुए मोटरसाइकिल चला रहा था। तो गाड़ी एक जगह फिसल गई, गिरी नहीं, फिसल गई। अच्छी गति में थी, फिसली। उतनी ही गति से पाँव लगा कर रोकने पड़ी, तो एड़ी में कुछ चोट लगी, फिर आगे बढ़ लिए।

आगे बढ़ने के थोड़े समय बाद ख्याल आया कि इतना सब कुछ हो गया, और मैं तब भी गाता रहा। एक क्षण को भी गाना रुका नहीं था, और ये ख्याल भी नहीं आया कि अभी भी गाए ही जा रहा हूँ। बात समझ रहे हो? अब कहाँ तो दो-सौ किलो की मशीन को संभाल रहे हो, और ये रहा है, वो हो रहा है, और कहाँ साथ में गाना गुनगुना रहे हो। जैसे दो अलग-अलग व्यक्ति हों। एक वो जो अपना संसारी कामकाज कर रहा है, और दूसरा जो अपना काम कर रहा है। उस दूसरे को मतलब ही नहीं कि ‘दुनिया’ में क्या हो रहा है।

उपनिषदों में इसी बात को बहुत खूबसूरती के साथ कहा गया है, ‘एक डाल पर दो चिड़ियाँ बैठी हैं। एक खाने में मगन है, और दूसरी देखने में।’ बड़ा प्यारा प्रतीक है। एक डाल पर दो पक्षी बैठे हैं। एक खाने में मगन है, और दूसरा सिर्फ़ देख रहा है। जैसे दो अलग-अलग व्यक्ति हों। ऐसे जियो।

और दो तो हैं ही - प्रकृति और पुरुष। प्रकृति को प्रकृति का काम करने दो, तुम पुरुष की भाँति जियो। वो नाद अहर्निश बजता रहे। उसी को मृत्यु के पार होना भी कहते हैं। क्योंकि ‘तुम’ नहीं गा रहे हो उसको, तो तुम्हारी मृत्यु के बाद वो रुक भी नहीं सकता। तुम नहीं रहोगे, वो गीत स्वयं को गुनगुनाता रहेगा।

और याद रखना जब प्रकृति सिर्फ़ अपना काम करती है, तो जीवन से एक चीज़ तुरंत चली जाती है- गंभीरता। तुम्हें यह अहसास होना शनः शनः कम हो जाता है कि कुछ भी महत्वपूर्ण है। आँखें देख रही हैं, हाँ ठीक है, दीवार है। जो महत्वपूर्ण है, वो नाद तो पीछे बज ही रहा है न? वो असली चीज़ है। दीवार है, दुनिया है, संसार है, ठीक है। कामधंधा है, रोज़ी-रोटी है, देखभाल है, ठीक है। मधुर लगे तो कह दो, ‘लीला है’। आढी-तिरछी लगे तो कह दो, ‘प्रपंच है’। जो कहना है कह दो। पर जो भी है, परदे पर चलता खेल है।

प्र: पर सर, दिक़्क़त तब आती है जब वह दूसरी वाली जो चिड़िया है, खाने वाली, मन उससे ज़्यादा जुड़ जाता है कि यह है, प्रकृति है। जब यह है, तो दूसरी वाली पर बात कैसे आएगी?

आचार्य: देखो दो भी तभी तक हैं, जब पहले वाली विचार के भीतर है। क्योंकि अभी पहली वाली का वर्णन किया जा सकता है, इसलिए दूसरी भी है। जिस ऋषि ने ये सूत्र लिखा उसने किसी ऐसे मन के लिए लिखा जो अभी पूर्ण साक्षीभाव को प्राप्त नहीं हुआ है। क्योंकि पूर्ण साक्षित्व में दूसरी चिड़िया को देखने वाला कौन बचेगा? अगर आपने देख ही लिया कि दो चिड़ियाँ हैं, तो तीसरी भी है, जो इन दोनों को देख रही है। तो दो नहीं हैं, एक भी नहीं है। (हँसते हुए) है तो कुछ भी नहीं। न प्रकृति है, न पुरुष है।

तुम्हें समझाने के लिए बोला था पर तुम समझना नहीं चाहते। सत्य तो ऐसा ही है जो शब्दों में आएगा ही नहीं। पर जो शब्दों में नहीं आएगा, उससे तुम्हारी मदद भी नहीं हो पाएगी। दो नहीं हैं, एक भी नहीं है। कहीं कोई चिड़िया नहीं है। पर इससे क्या मिला तुम्हें, बेचारी दोनों चिड़ियाँ की जान चली गई। (हँसते हुए) खाने देते, देखने देते।

प्र: सर एक स्थिति में समझाया जा रहा है, उसे हम सच समझ रहे हैं। अगली स्थिति में जा कर वो भी असत्य हो जा रहा है। फिर ये सत्य भी सत्य नहीं हुआ?

आचार्य: (व्यंग्य करते हुए) सत्य है सवा दो इंच का। निकल तो तुम्हारे मन से ही रहा है न? कैसा होगा ‘आख़िरी’? ‘आख़िरी’ होता, ‘निर्दोष’ होता, ‘विराट’ होता, तो तुम्हारी पकड़ में आ जाता? सत्य ही होता तो तुम जान जाते? कोई आकर कहे, ‘मैं जान गया हूँ सत्य को’, वो असत्य ही होगा। वो कहे, ‘कैसे पता?’ तुम कहो, ‘नहीं तो तुम कैसे जानते?’ (‘तुम’ शब्द पर ज़ोर देते हुए)

प्र: तो इसका मतलब यह हुआ कि हम सत्य को जान ही नहीं सकते कभी, असत्य ही जान सकते हैं?

आचार्य: ऐसे कह लो, ‘मेरा जाना हुआ सब असत्य है।’

प्र: मेरा—जाना—सत्य है, मैं ख़ुद सबसे बड़ा असत्य हूँ।

आचार्य: मेरा जाना हुआ सत्य हो नहीं सकता, पर ‘मेरा जाना‘ सत्य है। (मुस्कुराते हुए) ‘जाना हुआ’ नहीं, ‘जाना’।

प्र: सर जब सब कुछ आत्मा में है, मतलब जब सब आत्मा है, तो हम जा कहाँ सकते हैं?

आचार्य: कहीं नहीं। इतना मत सोचो। उसमें आसमान नहीं समाएगा। (व्यंग्य करते हुए) इतना ज़रूर होगा कि एक कटोरा ज़रूर टूट जाएगा।

प्र: सर एक बार आपने कहा था कि आँखों का भी क्या दोष, उनका काम है देखना, वो देखती हैं। कान का काम है सुनना, सुन लेते हैं। पर सब तो जाकर मन पर रुक जाता है।

आचार्य: मन जो तंत्र है, उसका काम सोचना है, वो सोचता ही है। किसी का कोई दोष नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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