असली बीमारी है स्वास्थ्य का भ्रम || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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असली बीमारी है स्वास्थ्य का भ्रम || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

वक्ता: मन को आमोद-प्रमोद के अलावा और कुछ अच्छा लगता ही नहीं। मन, सत्य के ऐवज में आमोद-प्रमोद की ओर आकर्षित होता है, सत्य को, प्रेम को नकार सकता है। किसी चीज़ को नकारने में कोई विशेष बात नहीं है। कुछ प्रत्यक्ष हो सकता है, तब भी आप उसके होने से इंकार कर सकते हो। तो सुख़ अपने आप में इतना रमा रहता है, प्रियत्व, प्रिय होने की भावना कि मुझे प्रिय है, यह भावना एक नकली पूरेपन का ऐसा एहसास देती है कि उसके बाद आपको कुछ लगता ही नहीं कि जीवन में कुछ शेष है, कुछ पाने की कोई विशेष इच्छा, महसूस ही नहीं होती है। भई, उस दिन निधि बात कर रही थीं कि जीवन मस्त चल रहा है, तो समस्या क्या है? और ऐसा है ही, यही तो माया है।

माया क्या है?

माया एक झूठा पूरापन है। माया पूरे होने का एक झूठा एहसास है। झूठा इस कारण है कि नित्य नहीं है, टूटता है, अपने विपरीत पर निर्भर रहता है। तो टूटता है। पर ज्यादातर लोग क्यों नहीं आध्यात्मिक होते? क्योंकि मन जिस दुनिया में है, सुख की, संतुष्टि की, उसमें कहीं इस अनुभव के अलावा कुछ है ही नहीं कि जो है सो पूरा है, और जो पूरा नहीं हैँ तो पूरा किया जा सकता है। कहीं हमारी हार है, हमारे तरीके अधूरे हैं, इसका एहसास ही नहीं आता? प्लेज़र डिनाइज़ लव, सुःख प्रेम को नकारता है। प्लेज़र डिनाइज़ ट्रुथ, सुःख सत्य को नकारता है। व्हाट डज़ प्लेज़र एक्सेप्ट प्लेज़र एण्ड दी एजेंट्स ऑफ प्लेज़र? व्हाट विल गिव मी प्लेज़र? मुझे जिसका आकर्षण है, वही मेरी दुनिया है।

दुनिया क्या है?

वो सब कुछ जो मुझे प्रिय लगे, वो सब कुछ जो मुझे रुचे, वो सब कुछ जिसकी ओर मन खिंचे। वो या तो उपलब्ध हैं और अगर उपलब्ध नहीं हैं, तो मेरे पास साधन हैं जिनसे उन्हें उपलब्ध किया जा सकता है, और अगर मेरे पास साधन नहीं हैं तो कम से कम मुझे उन साधनों का ज्ञान है। तो बस सब पूरा है न? अब किसी और चीज़ की क्या ज़रुरत है? मुझे जो कुछ चाहिए वो मुझे मिल तो रहा है, इसीलिए आपको लोग मिलेंगे जो कहेंगे कि समस्या कुछ है ही नहीं। लोग कहते हैं कि विरह की अग्नि, अलग होने की पीड़ा, बोध ना होने का कष्ट, ये कहीं दिखाई देता है क्या? आप सड़क पर चलते हैं, एक आम आदमी-औरत के चेहरे को देखिए, वो बिल्कुल मूढ़ है, पर उस मूढ़ता का कष्ट कहीं उसके चेहरे पर लक्षित है? वो खुश है, वो फर्नीचर खरीद कर खुश है। वो जिस दिन दुखी हो, दो नई कुर्सियाँ खरीद कर घर में रख दो, खुश हो जायेगा। तो अब सत्य के लिए जगह कहाँ है? जब सोफा सेट आपको ख़ुशी दे देता है, तो सत्य की क्या ज़रुरत है? आपके लिए सोफा काफी है। सोफा काफी है?

और है ही ऐसा। आवश्यकता क्या है प्रेम की, मुक्ति की? दो इधर-उधर की बातें करके, आप गहन तृप्ति का अनुभव करते हो। ऐसा नहीं है कि आपका मन आपको कचोटता नहीं है। कचोटता है, पर जब कचोटता है तो आपने उसके लिए बड़ी झूठी दवाइयाँ खोज कर रखी हैं। आप टी.वी. खोल कर बैठ जायेंगे, ताकि अपनी ओर देखना न पड़े। आप फोन उठा कर बैठ जाएँगे, अपने मन से पूछना न पड़े कि तू कितने अंधकार में है, इसीलिए दूसरे की तरफ देखना शुरू कर दो, दूसरे का फोन नंबर डायल कर दो। लोग घंटो बातें करते हैं। जीवन में प्रेम की कमी है तो अपने आपको और व्यर्थ के धंधो में उलझा लो। अपने आपको बौद्धिक स्तर पर कहीं जोड़ लो। राजनीति कि ख़बरों में रस लेना शुरू कर दो, शेयर मार्केट के उतार-चढ़ाव, इनसे अपने आपको भर लो। ये सब क्यों कर रहे हो? कर इसीलिए रहे हो मात्र कि जीवन में प्रेम नहीं है।

लेकिन माया का खेल मज़ेदार है। माया तो ठगनी बड़ी, ठगत फिरत सब देस।

शेयर के भाव में कुछ उछाल आता है, डेढ़ प्रतिशत का और उससे आपको लगता है कि मेरी ज़िन्दगी अब पूरी भर गयी है। आप नहीं जानते हो कि आपका आँगन सूना का सूना ही है। आप दूसरे के घर में जाते हो और वहाँ पर कुछ आतिशबाज़ियाँ छोड़ कर सोचते हो कि हमें कुछ मिल गया। आप दूसरे के घर कि व्यर्थ चर्चाओं में शामिल हो कर सोचते हो कि आपको भी जीवन में कुछ मिल गया। आपको नहीं दिख रहा है कि आपका अपना घर सूना का सूना ही है। और आपको ये दुनिया भर के प्रपंचों का आकर्षण है ही इसीलिए है कि आप बेईमान हो, क्योंकि आप अपनी ओर नहीं देखना चाहते, और आप कमज़ोर हो। आप एक मिथ्या जीवन जी रहे हो और वही जीवन जीने का आपका इरादा है। यही जीने का आपका इरादा है। बस ज़रुरत क्या है ?

कष्ट, सत्य की वेदना जो बड़े सौभाग्यशाली होते हैं, उनको ही उठती है। भूलियेगा नहीं कि वेदना और वेद शब्द का मूल एक ही है- विद्, और विद्या का भी वही मूल है। विद्या के साथ है वेदना। बिना वेदना के विद्या नहीं। तो महा-अभागे वो हैं जिनको वेदना उठती ही नहीं अपने जीवन को देख कर या, जिनको कुछ अगर अपनी वेदना की झलक मिलती भी है, तो कहते हैं कि चलो कुछ कपड़े खरीद लेते हैं बाज़ार से। वो कपड़े ख़रीद कर खुश हो लेते हैं। नहीं दिखता उनको कि रसहीन, प्रेमहीन, मुक्तिहीन जीवन है और फर्नीचर बर्तन और कपड़े खरीद कर तुम्हारा कुछ नहीं होगा। व्यर्थ गया जीवन। पर वेदना उठती ही नहीं। परम की ऊँची से ऊँची अनुकम्पा होती है जिन्हें वो वेदना उठे। आम आदमी को ऐसी कोई वेदना नहीं उठती, वो मस्त है, खुश है। ठीक है वो। अक्सर उसके साथ प्रयत्न करना भी वयर्थ ही है। वो वैसा ही है जैसा चिड़ियों ने बन्दर को बोला था कि भाई घोंसला बना लेते तुम भी, घर बना लेते, तुम भी तो यूँ ना भीगते। तो क्या किया था बन्दर ने ?

सभी श्रोतागण: घोंसला बनाने लगा था।

वक्ता: तो जो इस तरीके के लोग हैं, जो दीवारें पेंट करा कर ये सोचते हैं कि घर बन गया।

(हंसकर कहते हैं)। घर सूना है, घर ज़हर बराबर है, तो समाधान क्या निकला? अरे, तो घर में पेंट करा लो

(व्यंग कसते हुए)। पर मज़ेदार है माया। प्रेम का विकल्प है पेंट (वक्ता और श्रोता दोनों हँसतें हैं) ।

हिंसा ही हिंसा भरी हुई है जीवन में। ठीक है। कुछ यहाँ हो नहीं सकता। ऐसे लोगों के लिए ही कबीर ने कहा है –

कबीरा तेरी झोपड़ी गल कटियन के पास।

जैसी करनी वैसी भरनी, तू काहे भया उदास।।

अब वो भुगतेगें, अब वो अपना किया भुगतेंगे, तू अपने आप को बचा। ये तो गलकटिये है, ये तो अपना किया भुगतेंगे ही, तू अपनी जान बचा कर रख। जैसी करनी वैसी भरनी, तू इनका कर्मफल नहीं काट पायेगा। जिन्होंने जीवन ही झूठा जिया है, तू उनका कर्मफल नहीं काट पायेगा।

प्रार्थनाएँ की जा सकती हैं। अपना जीवन सत्य में रहे, अपना जीवन प्रेम में रहे, ऐसा ही जिया जा सकता है।

श्रोता: बताया गया है कि खाली दिमाग शैतान का घर है, हमेशा व्यस्त रखो।

वक्ता: इससे आपको ये भी स्पष्ट होना चाहिए कि सिर्फ इसीलिए कि कोई बात परंपरा ने आपको थमा दी है, मुहावरे के तौर पर तो उसको मान ही न लें। देखो बड़े ज़माने से ये बात कही जाती हैं कि खाली दिमाग शैतान का घर है। बहुत झूठी बात है ये, बिल्कुल ही झूठी बात है। वहाँ ज़ेन गुरु समझा-समझा कर थक गए कि दिमाग खाली करो, और यहाँ? खाली दिमाग शैतान का घर होता है। भरा दिमाग है शैतान का घर (वक्ता और श्रोता दोनों हँसतें हैं) और हज़ारों हैं इस तरह कि बातें, मुहावरें हैं। सही बात तो ये है कि थोड़ा खाली हो जाएँ, थोड़ा स्थिर हो जाएँ तो बड़ी बैचैनी उठेगी। ज़रा सा रुककर अगर जीवन को देखें और परखें कि चल क्या रहा है तो ऐसा ताप उठेगा कि उसमें सारे संस्कार जल जाएँगे। पर हम उस ताप को उठने नहीं देते। इसीलिए ज़रूरी है भागते रहना, मन को व्यस्त रखना।

मौन का क्षण उपलब्ध न हो जाए किसी भी तरीके से; मुँह चलता रहे, रेडिओ चलता रहे, टी.वी. चलता रहे, विचार चलतें रहें, क्योंकि मौन रहा तो यथार्थ दिख जाएगा। और जैसा मैं जिया हूँ, वो यथार्थ बड़ा ही कुरूप है। देखते नहीं बनेगा उसकी ओर, इसीलिए कुछ करते रहो। व्यस्त रखो।

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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