वक्ता : इस गुमान में कि हमें वास्तविकता पता है, हम सोचते हैं कि विचार वास्तविकता से अलग चीज़ है। इस बात को समझिये। वास्तविकता एक अधिसमुच्चय है जिसमें विचार भी शामिल है। विचार भी एक वास्तविकता है और वास्तविकता एक अधिसमुच्चय है जिसमें सब आता है। वास्तविकता एक ऐसा अधिसमुच्चय है जिसमें जो अवास्तविक प्रतीत होता है वो भी आता है। तो अवास्तिविक, वास्तविक का विपरीत नहीं है, बल्कि वास्तविक का ही एक भाग है।
इस बात को ध्यान से समझिये। वास्तविक, उस चीज़ से परे की बात है जिसे विचार कैद कर सकें, इसलिए विचार भी वास्तविकता का एक भाग ही है। बात समझ में आ रही है? विचार अवास्तविक नहीं है। विचार वास्तिविकता का हिस्सा हैं, वास्तविकता का छोटा हिस्सा हैं। विचार के बाहर भी वास्तविकता है जिसे विचार पकड़ नहीं सकता। ठीक है न? और ये जो पूरी वास्तविकता है ये अपने आप में भी कोई बड़ी बात नहीं है। ये जहाँ से निकली है, जिस स्रोत से, उसको न वास्तविक कहा जा सकता है, न अवास्तविक कहा जा सकता है। तो इसलिए वास्तविकता को भी बहुत कीमत देने की ज़रूरत नहीं है। वास्तविकता के भी उपासक मत हो जाइएगा कि मुझे वास्तविकता जाननी है और ये वो। पूरी वास्तविकता जहाँ से निकली है, वो न वास्तविक है और न अवास्तविक, क्योंकि जब आप वास्तविक बोलते हो तो वहां एक प्रकार का द्वैत तो आता ही है। समझ रहे हो? वास्तविकता वो है जिसका कोई विपरीत नहीं है। उसका विपरीत उसके भीतर ही है। अवास्तविक वास्तविक का एक हिस्सा है। हर विचार वास्तविकता का हिस्सा है। सब वास्तविक है और वो भी वास्तविक है जिसे वास्तविक नहीं कहा जा सकता।
तुम स्रोत को वास्तविक नहीं कह सकते। तुम स्रोत को अवास्तविक भी नहीं कह सकते। वास्तविकता विचार का विपरीत नहीं है – ये बिलकुल स्पष्ट रख लीजियेगा क्योंकि अगर आप किसी को भी वास्तविक बोलोगे, मुझे बताओ तुम किसको वास्तविक बोलोगे? तुम जिसको भी वास्तविक बोलोगे, वो एक विचार ही होगा। तुम बताओ न किसको वास्तविक बोलना चाहते हो? बोलिए।
श्रोता १ : जो कुछ भी सामने है।
वक्ता : वो विचार ही हुआ। पूरी वास्तविकता जो है आपकी, वो विचार से भिन्न नहीं है। हाँ, विचार से कुछ आगे की हो सकती है, पर भिन्न नहीं हो सकती।
श्रोता २ : इन शब्दों के अतिरिक्त – विचार, वास्तविकता, भेद – इनको जानने का क्या महत्व है, हैं तो यह मात्र शब्द ही? यह सवाल मेरे मन में बार-बार उठता है, आगे भी उठेगा। इन सब प्रश्नों की क्या ज़रुरत है?
वक्ता : इसे जानने की ज़रूरत सिर्फ़ मन की ही है। देखो, जब तुम संकल्पना में जीते हो तो बहुत ज़रूरी हो जाता है कि तुम ये बात समझ सको कि वो सिर्फ़ एक संकल्पना है। अब हम सब ये बिलकुल स्पष्ट रूप से जानते हैं कि विचार एक संकल्पना है। विचार की इतनी चर्चा हुई है कि सबको पता है कि विचार एक संकल्पना है। ये तो सब दिमाग में आ ही जाता है बहुत जल्दी। आ जाता है न? पर जैसे ही विचार दिमाग में आता है, तो तुम उसको क्या बोलते हो कि ये अवास्तविक सी चीज़ है। मैंने इस वास्तविकता और विचार को लेकर पहली चीज़ कही थी कि इस गुमान में मत रहना कि वास्तविकता पता है।
जैसे ही तुम कहते हो कि विचार अवास्तविक है, तुमने ये सोचा कि तुमने साथ में और भी क्या कह दिया है? जब तुम बोलते हो कि ये नकली है, तो तुमने क्या बोल दिया साथ में? ‘कुछ और’ असली है। मैं उसको कह रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ – तुम जिसको असली भी बोलते हो, वो भी नकली ही है। तो सब ही वास्तविक है, तो अलग क्यों करते हो? सब एक ही वर्ग का है। चलो एक कदम और नीचे होगा उससे, क्या फ़र्क पड़ता है? एक ही घर के कई तल हैं। पर है एक ही घर, उसको ये मत मान लेना कि तुम कहीं और चले गए, उसी घर में ही हो। हो सकता है चार मंज़िल का घर हो – कोई तहखाने में बैठा है तो कोई सबसे ऊपर वाले तल पर है। सब उसी घर में हैं। हो सकता है विचार बिलकुल नीचे की चीज़ हो, कल्पना, मायाजाल कतई उससे और नीचे की चीज़ हों, कि कोई मायाजाल में डाल रहा है। पर इस बात का ध्यान रखना कि कोई मायाजाल में डाल रहा है, और कोई कह रहा है कि ये कागज़ है। कोई कतई पागल आदमी आ जाए और वो बैठा हुआ है और वो कह रहा है कि “ये जो है न, ये हूर की परी है” और मैं कह रहा हूँ कि “ये कागज़ है”। तात्विक दृष्टि से दोनों में कोई अन्तर नहीं है। दोनों बिलकुल एक ही बात कह रहे हैं क्योंकि दोनों जो कह रहे हैं वो उनके मन से ही निकल रहा है।
श्रोता ३: नहीं, यहाँ पर अगर कोई किसान बैठा है, और वो कभी विद्यालय नहीं गया, तो वो ये क्यों जानना चाहेगा कि विचार क्या है, वास्तविकता क्या है, इनमें क्या अन्तर है?
वक्ता : तो उसके पास अपने खुद के कुछ सवाल होंगे। तो ये कागज़ हम उसे देंगे और वो अपने सवाल उसपर लिख सकता है। जब मेरी फ़सल बर्बाद हो जाती है तो मुझे डर क्यों लगता है? तो हम उसके बारे में भी बात करेंगे।
श्रोता ४ : सरलता की बात की जाए तो सरल हुआ जाए जितना…
वक्ता : वो ये कह रहें है कि इसकी व्यवहारिक उपयोगिता क्या है? ये जीवन में किस प्रकार काम आती हैं बातें? – तुमने देखा नहीं किस प्रकार काम आती हैं? तुम कक्षा में जाओ, तुम एक शिक्षक हो और तुमने कृष्णमूर्ति का एक पाठ पढ़ लिया है ‘विचारों का संजाल’, और तुम्हें ये पक्का हो गया है कि विचार तो कोई गन्दी सी चीज़ होती है और जैसे ही किसी ने कहा और तुम उसको कितनी हेकड़ी के साथ बोलते हो – ये तो सिर्फ़ एक विचार है। और तुम्हें ये एहसास भी नहीं होता कि जो ये तुम कह रहे हो वो भी एक?
श्रोता ५: विचार है।
वक्ता : तुम ऐसे कहते हो जैसे विचार से आगे क्या है तुम्हें उसका पता है। ये है इसकी व्यवहारिक उपयोगिता कि जो उस बात को समझेगा वो फिर ये समझ जाएगा कि देखो जब तक वो ध्येय नहीं हुआ तब तक भले ही वो एक निचले तल की संकल्पना पे बात कर रहा हो और मैं एक ऊँचे तल की संकल्पना पे बात कर रहा हूँ, हम दोनों एक ही मकान में रहने वाले हैं। वो तहखाने में रहता है और मैं चौथी मंज़िल पर रहता हूँ। हम में से लेकिन कोई भी अभी मुक्त आकाश में नहीं आया। और बहुत बड़ी हेकड़ी है ये इस बात की। हैं अभी दोनों संकल्पना में ही, दोनों में से अभी सरल कोई नहीं हो गया। दोनों में से अभी कोई उसमें नहीं आ गया जो हमने कहा था कि ‘वो दो कमरों वाला फ्लैट छोड़ कर खुले आसमान के नीचे और खुली ज़मीन पर’, कोई नहीं आ गया। दोनों उसी फ्लैट में रहते हैं पर एक थोड़ा ऊपर की मंज़िल पर रहता है और एक थोड़ा नीचे की। तो वो उसको धौंस जमा रहा है कि – अरे ओ, तुझे क्या पता है? तू दूसरे सेमेस्टर का विद्यार्थी है, तू क्या जानता है? और जो उस मैदान में रहता होगा न वो शब्द कम देगा और हल्का कर देगा बिलकुल। उसके होने से हलके हो जाओगे। वो बात होती है।
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।