असंबद्धता स्वभाव है तुम्हारा || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

7 min
57 reads
असंबद्धता स्वभाव है तुम्हारा || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न: ‘असंबद्ध’ होने का भाव महसूस होने लगा है। चाहे वो किसी जगह से हो, लोगों से हो, या अपने ही मन के भावों से हो। खोया-खोया सा महसूस करती हूँ। कहीं भी अपनेपन का भाव नहीं महसूस नहीं होता। अपने आप को कहीं से, या किसी भी चीज़ से संबद्ध नहीं महसूस करती हूँ। ऐसा क्यों?

वक्ता: अब तुम किसी चीज़ से संबद्ध नहीं हो पाती हो, यह तो साधारण-सी बात है। पहले तो यह बताओ कि पहले संबद्ध कैसे महसूस कर लेती थीं? वो ज़्यादा बड़ा चमत्कार है।

श्रोता १: कटा-कटा सा होने का भाव तो था, लेकिन इस बात से इतना बुरा नहीं लगता था ।

वक्ता: जिस दुनिया में हम रहते हैं, इसकी तो प्रकृति ही यह है कि ये किसी की सगी नहीं है। ‘संबद्धता’ जैसी कोई चीज़ हो ही नहीं सकती इस दुनिया में ।

आज मैं जिस दफ़्तर में गया था, वहाँ मैंने सैंकड़ों लोग देखे, बड़ा दफ़्तर था। वहाँ एक भी ऐसा नहीं था, जो वहाँ बिलौन्ग करता हो, वहाँ से संबद्ध हो। लोग अपने साधे-सधाय रस्ते से चल रहे थे, आ रहे थे, जा रहे थे। किसी का किसी और चीज़ से मतलब ही नहीं था।

ये तो प्रकृति ही है, कि कोई बिलौन्ग करता ही नहीं यहाँ किसी को। बिलौन्ग करने का अर्थ ही यही है, नज़दीकी या निकटता। वो तो है ही नहीं कहीं। यह बताओ कि बिलौन्ग करने का भ्रम कहाँ से आ जाता है? यह तो तय ही है कि कोई किसी को बिलौन्ग नहीं करता, पर ये भ्रम कहाँ से आ जाता है? कौन किसको बिलौन्ग करता है?

बिलौन्गिन्ग्नेस , संबद्धता, तो बड़ी असली बात होती है। तुम्हें ये लगता भी कैसे था, कभी भी, कि तुम्हारा उनसे कोई रिश्ता भी है? कोई मुझसे, एक दिन आकर कहता है कि, “पहले जिनके साथ रहते थे, उनके साथ अब रहना नकली-सा लगता है”। तो मैंने कहा, “नकली तो था ही हमेशा से, तुम मुझे समझाओ कि तुम्हें असली कैसे लग गया था?”

हमारे रिश्ते आज नकली नहीं हुए हैं, वो तो हमेशा से नकली थे। उनकी प्रकृति ही है – नकलीपन। तुम्हें असली कैसे लग गए? तुम ये बताओ। और वही महत्त्वपूर्ण सवाल है, क्योंकि वही बीमारी है। उसको जानना ज़रूरी है कि- वो बीमारी क्या है, और कैसे लग जाती है? इस पर विचार करना कि – धोखा कैसे हो गया था?

अभी जो हो रहा है, वो बहुत साधारण बात है, वो तो आँख खोल कर देख रही हो, तो दिख रहा है कि क्या कैसा है। साफ़-साफ दिख रहा है। विचार ये करो कि – पहले धोखा कैसे हो गया था? क्यों ऐसा लगता था कि, “ये सब हैं, और मेरे हैं, और असली हैं”? यहाँ कोई किसी का नहीं है। बाद में उदास हो कर न खड़े हो जाया करो कि, “मैं सालों तक इन लोगों को, इन जगहों को, इन संस्थानों को, इन विचारों को, इन भावनाओं को ‘अपना’ समझता था, ये सब तो झूठे निकले, नकली निकले, मेरे नहीं हैं”।

वो कभी नहीं थे तुम्हारे, अभी ऐसा नहीं है कि कोई नई ताज़ा घटना घटी है। वो कभी नहीं थे, किसी के नहीं हुए। तुम्हारे क्या, किसी के कभी नहीं हुए। यूँ ही नहीं कह रहे थे कबीर, “ये संसार कांटन की झाड़ी, उलझ उलझ मार जाना है। ये संसार कागज़ की पुड़िया, बूँद पड़े घुल जाना है”। ये दुनिया किसकी है?

कोई आकर ये न बोला करे, “मेरे रिश्ते में खटास आ गयी है”, ये बोलो, “रिश्ता कभी था ही नहीं”। था कब? जब तुम बोलते हो, “खटास आ गयी है,” इसका मतलब यह है कि अभी भी तुम जगे नहीं हो, चेते नहीं हो। तुम्हें लग रहा है कि अब खटास आ गयी है, पहले मधुर था। वह पहले भी खट्टा ही था, मधुर कभी नहीं था। हाँ, पहले तुम ज़्यादा ही अंधे थे, एकदम ही नशे में थे, तो तुम्हें पता ही नहीं चल रहा था।

कोई भी वस्तु, व्यक्ति, इकाई, अपनी प्रकृति के विपरीत थोड़े ही जा सकता है। तेल और पानी मिल सकते हैं क्या? अब तेल आकर शिकायत करे कि, “आजकल पानी मुझसे मिलता नहीं,” तो उससे पूछो, “भाई मिलता कब था?” उनकी तो प्रकृति ही यही है – अलग-अलग रहना।

“दोस्तों से धोखा मिल गया,” तुमने कोई और उम्मीद लगाई थी? धोखा मिल गया, ये तो साधारण-सी बात है, ये तो होना ही था। जाँच तो इस बात की होनी चाहिये कि तुमने उम्मीद कैसे लगाई कि धोखा नहीं मिलेगा। जाँच इस बात की होनी चाहिए।

श्रोता २: सर, ऐसे तो हम किसी पर कभी विश्वास कर ही नहीं पाएँगे।

वक्ता: याद है मैंने पहले सवाल पर क्या कहा था? दुनिया से प्रेमपूर्ण सम्बन्ध बनाने के लिए…यहाँ तो जो कुछ है, उसके केंद्र पर ‘वही’ बैठेगा। तुम्हारे केंद्र पर अगर ‘वो’ नहीं बैठा है, तो दुनिया तो काँटों की झाड़ी ही है। याद रखना मैंने कहा था, “दुनिया से प्रेमपूर्ण सम्बन्ध के लिए…”। तो मैंने ‘दुनिया’ तो उसमें केंद्रीय बना दिया। जो विशुद्ध सत्य है, वो यह है कि ‘एक’ को याद रखना पड़ता है, बाकी को भूल जाना पड़ता है। जब बाकी को भूल जाते हो, तब तुम पाते हो कि अकस्मात, संयोगवश, बाकियों से भी प्रेमपूर्ण सम्बन्ध हैं। बाकियों से भी ; एक प्रतिफल की तरह।

केंद्रीय बात तो यह है कि – “मैंने बाकियों को तो याद ही नहीं रखा”। केंद्रीय बात यह है कि – “बाकियों का मेरे लिए कोई महत्त्व ही नहीं, मेरे लिए तो ‘एक’ का महत्त्व है। चूँकि ‘एक’ का महत्त्व रहा, तो बाकियों से भी प्रेमपूर्ण हो गया। पर ये बात संयोग है”। ‘एक’ को जानते नहीं, बाकियों से चिपके हुए हो, तो नतीजा यही होगा की बाकियों से धोखा मिलेगा ।

जो परम को भुला कर संसार की ओर जायेगा, वो संसार में मात्र चोट खायेगा। जो संसार को भूल कर, परम की ओर जायेगा, वो परम को तो पायेगा ही, संसार को भी पा जायेगा।

तुम संसार के गुलाम बने बैठे हो – “ये पा लूँ, वो पा लूँ”। संसार कितना भी हावी हो रहा हो, आँख बंद करो, परमात्मा का नाम लो, और इंकार कर दो। समझ में आ रही है बात? लालच कितना भी सिर चढ़ रहा हो, दिल कड़ा करो, इंकार कर दो। कितना भी डराया जा रहा हो, ज़रा ताकत जुटाओ, और इंकार कर दो। कुछ दिनों में पाओगे कि ताकत जुटाने की ज़रुरत ही नहीं पड़ती।

मन सहज ही इंकारी हो गया। वो कचरे को अब कीमत देगा ही नहीं, उसको इंकार ही कर दिया करेगा। शुरू में ताकत जुटानी पड़ेगी। कितना भी अपने आसपास पाओ कि बड़ा दबाव पड़ रहा है, बहुत हावी हो रही है दुनिया, ज़रा हिम्मत रखो। ये जो लोग तुम पर हावी हो रहें हैं, ये सत्य की ताकत के आगे क्या हैं? इनमें क्या दम है? ये जीतेंगे कभी?

तुम उसके साथ रहो जिसका जीतना पक्का है। आते हैं न ऐसे क्षण, जब हालत बिल्कुल ख़स्ता हो जाती है, जब दुनिया सिर चढ़ कर बोल रही होती है, और कुछ समझ नहीं आता है, जब काँपने लग जाते हो बिल्कुल? बस तब मंत्र की तरह मुट्ठियाँ बंद करो, मन कड़ा करो, और बोलो, “नहीं”।

तुम ताकत माँगो, वो ताकत देगा। तुम माँगो, वो देगा; ताकत मिलती है।

~ ‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं ।

इस विषय पर और लेख पढ़ें:

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
Categories