प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रेम की कसौटी क्या है?
आचार्य प्रशांत: प्रेम की कसौटी यह है कि दूसरे के लिए जो हम कर रहे हैं, वह वास्तव में उसके हित का है कि नहीं। और बड़ा मुश्किल होता है निरपेक्ष आँखों से देख पाना कि दूसरे का हित कहाँ पर है। हम तो अपने में ही उलझे रहते हैं न। हमारी तो गुत्थी अपनी ही नहीं सुलझी है। तो दूसरे पर ध्यान दे पाएँ, इसकी सम्भावना नगण्य हो जाती है। जो अपनी ही मुसीबतों से परेशान हो, अपनी ही झंझटों से उबर न पाता हो, वह कैसे जानेगा कि किसी दूसरे की ज़िन्दगी में क्या चल रहा है और उसकी वास्तविक ज़रूरत क्या है? और इसके विपरीत, जितना आप अपने साथ सहज और सन्तुष्ट होते जाएँगे, उतना आप समझते जाएँगे कि दूसरा कौन है, कैसा है और इसीलिए उसके लिए क्या उचित है।
आग लगी हुई हो। तो अधिकांश लोगों को तो यही ख़याल आएगा न कि किसी तरह अपनी जान बचाओ। और हम सबके आग लगी ही रहती है। तो हम तो अपनी ही जान बचाने में परेशान हैं। अब होगा कोई प्यारा, जब लपटें शरीर को खाने लगती हैं तो प्यारे का हित फिर पीछे हो जाता है। और इनकार नहीं किया जा रहा कि आप जिसको प्यारा कह रहे हैं, वह आपको प्यारा है, निश्चित रूप से है। लेकिन लपटें अभी खा रही हैं आपको, आप विवश हो जाते हैं।
दूसरे के लिए ज़रूर करिए जो भी करना चाहते हैं, बड़ी मीठी बात है, लेकिन दूसरे को समझने के बाद, उसका वास्तविक हित देखने के बाद। हम अगर डरे हुए हैं, हमें अगर अभी ख़ुद सुरक्षा की ज़रूरत है, तो हमारे तो अब मन में ख़याल ही एक ही आएगा कि उसका हित इसी में है कि वह मुझे सुरक्षा दिये जाए। हमें साफ़ दिखाई ही नहीं पड़ेगा कि उसे क्या चाहिए।
और अक्सर दूसरे के लिए आपको जो करना होता है, वो कोई बहुत बड़े काम नहीं होते। आवश्यक नहीं है कि धरती-आसमान एक कर दिये जाएँ। छोटे-छोटे ही सही पर उचित क़दम उठाने होते हैं। कभी ‘क’ की जगह ‘ख’ बोलना होता है। कभी इस बटन की जगह यह बटन दबाना होता है। दूसरे के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि बड़े काम किये जाएँ, ‘सही काम’ किये जाएँ।
एक आदमी बीमार पड़ा है। और उसके पचास रिश्तेदार उसे घेरकर बैठ गये हैं। और हफ़्ते भर से घेरकर बैठे हैं, डेरा ही डाल दिया उसके घर में। और वे उसके लिए बड़े-बड़े काम कर रहे हैं। कोई गया हिमालय से एक चट्टान उठा लाया उसके लिए, बड़े काम! और हफ़्तों से करे जा रहे हैं। कोई उस बीमार को उठाकर के एक शहर से दूसरे शहर दौड़ गया है। कोई उसको गदा की तरह घुमा रहा है। अब, बड़े काम हैं! कोई उसके पास हफ़्ते भर से बैठकर के गीत गाये जा रहा है। चौबीसों घंटे, अहर्निश (दिन-रात) वह गीत गाता है। प्यार करते हैं भाई, कुछ तो करेंगे न। और यह बीमार है तो इसके लिए जितना ज़्यादा करें उतना अच्छा। और लोग करे ही जा रहे हैं उसके लिए। एक को यही पता है कि सफ़ाई बड़ी बात है तो वह उसे हफ़्ते भर में पचास बार नहला चुका है, बीमार आदमी को। और बड़ी मेहनत की है नहलाने में, पचास बार नहलाना बच्चों का खेल नहीं। अब ये सब प्यार में बड़े-बड़े काम करने वाले लोग हैं।
फिर आता है एक चिकित्सक। वह दस मिनट को आता है और दो गोलियाँ लिख जाता है। ये बैठे हैं हफ़्तों से, और बड़े-बड़े काम कर रहे हैं। और चिकित्सक आया है दस मिनट को और दो गोलियाँ लिख गया और काम हो गया।
बड़े कामों की ज़रूरत नहीं हैं, उचित काम की ज़रूरत है। जिससे प्यार करते हों, उसके प्रति उचित काम करें।
बड़ा करना तो कई बार अहंकार की शरणस्थली बन जाता है। अहंकार कहता है, ‘मैंने तेरे लिए इतने बड़े-बड़े काम किये। वह जो चट्टान है, कौन लेकर आया था हिमालय से? मैं।‘ और आप एहसान न मानो उसका तो वह वही चट्टान उठाकर आपके सिर पर पटकेगा।
चिकित्सक कौन? जो बीमारी समझता हो। जो बीमारी समझे और जो बीमारी का उपचार जाने सो चिकित्सक। आप वैसे हो जाइए। मन को समझिए। जब मन को आप समझेंगे तो किसी की भी बीमारी हल कर सकते हैं। भूलिएगा नहीं कि चिकित्सक मरीज़ की व्यक्तिगत बीमारी मिटाने नहीं आया था, वह बीमारी मिटाने आया था। वह बीमारी समझता है, उसको पता है कॉलरा (हैजा) क्या चीज़ है। उसको पता है कि कॉलरा क्या चीज़ है, अब कॉलरा किसी को भी हो, उसे पता है क्या हुआ है।
आप ‘मन’ समझिए। अब मन किसी का भी हो, आप उपचार कर पाएँगे। क्योंकि आप जान गये हैं — मन क्या है, प्रकृति क्या है, वृत्ति क्या है, प्रभाव क्या हैं। आप जान चुके हैं इन बातों को। आप कॉलरा को, आप डायबिटीज़ (मधुमेह) को, आप मलेरिया (दुर्वात) को, आप टीबी (क्षयरोग) को समझ चुके हैं। अब फ़र्क नहीं पड़ता कि बीमार का नाम क्या है, आप जानते हो दवाई क्या देनी है। या बीमार का नाम बदलने से दवाई बदल जाती है मलेरिया की?
तो बात इसकी नहीं है कि प्रेम कितना गहरा है, सर्वप्रथम बात इसकी है कि कुछ समझते भी हो। बिना समझे तो प्रेम के नाम पर पता नहीं क्या हो जाएगा। और समझते हो अगर तो बहुत श्रम नहीं करना पड़ेगा, चिकित्सक की तरह आओगे, दस मिनट में दो गोलियाँ लिखकर के अशान्ति को, बीमारी को भगाकर चले जाओगे।
जैसे कबीर के वचन हों, जैसे उपनिषदों के उद्घोष हों। उन्होंने बस कह दिया, और पता नहीं कब कह दिया, आपके आज भी काम आ रहे हैं। वे ऋषि नहीं आ रहे हैं आपके घर में बसने। या आ रहे हैं? याज्ञवल्क्य यह नहीं कह रहे हैं कि तुम्हारी पीड़ा मैं दूर करूँगा चौबीस घंटे और पाँच साल तुम्हारे साथ रहकर। अष्टावक्र कह रहे हैं क्या कि तुम मेरे साथ-साथ चलो, मैं तुम्हारी पीड़ा दूर करूँगा? वह दो बातें बोल गये हैं। वह दो बातें समझदारी के साथ बोल गये हैं। ज़माने भर के काम आएँगी, अनन्त समय तक काम आएँगी।
समझदारी ज़रूरी है। समझदारी से आपने जो कुछ किया, उससे पता नहीं कितनों का कल्याण हो जाएगा। यह ‘महाप्रेम’ है। समझदारी से आपने जो कुछ किया, उससे पता नहीं कितनों का कल्याण हो जाएगा। सोचिए, इसमें कितनी गहराई है प्रेम की!
एक चिकित्सक जब अपनी पढ़ाई कर रहा हो और वह बीमारी के बारे में जान रहा है तो उस वक़्त आप उसे बहुत कुछ बोल सकते हैं। जिज्ञासु बोल सकते हैं, विद्यार्थी बोल सकते हैं, साधक बोल सकते हैं। स्वार्थी भी बोल सकते हैं, लेकिन प्रेमी तो नहीं बोलेंगे। या बोलेंगे? एक चिकित्सक बैठकर अपनी पढ़ाई में रत है, उसने किताब खोल रखी है। आपसे कहा जाए, ‘इसको नाम दो एक।‘ आप क्या नाम दोगे? आप कहोगे, ‘विद्यार्थी है।‘ आप कहोगे, ‘ज्ञानी है।‘ थोड़ा अध्यात्म में रुचि है तो कह दोगे, ‘साधक है।‘ और मैंने कहा, यह भी कह सकते हो कि स्वार्थी है। देखो न, ज्ञानार्जन के लिए पढ़ रहा है, ख़ुद का ही तो ज्ञान बढ़ेगा। लेकिन वह जो कर रहा है, वह ‘महाप्रेम’ है। क्योंकि बीमारी को जानने के बाद अब वह किसी की भी बीमारी हटा सकता है। पूरा जगत लाभान्वित होगा।
तो तुम मन को जानो। प्रेम की अनिवार्यता है ‘मन की समझ’। मन को जानो। फिर दुनियाभर का कल्याण कर पाओगे। और जो मन को नहीं जानता, वह किसी का प्रेमी नहीं हो सकता। जो मन के बहकावे में आ जाता है, जो मन के बहाव में बह जाता है, वह किसी का प्रेमी नहीं हो सकता। वह प्रेम के नाम पर बड़ा अत्याचार कर देगा।
प्र: लेकिन सर, कई बार किसी के हित में उठाया गया क़दम आपके ही विरुद्ध बाधा उत्पन्न करता है और आप उसके बहाव में बह भी जाते हो। ऐसी स्थिति में क्या करें?
आचार्य: आप अगर दूसरे का हित जानते हैं तो अपना भी हित जानते हैं न। फिर आपको पता होगा कि दूसरे के हित में कुछ किया और उससे यदि मेरे ऊपर कोई प्रभाव आ रहा है तो मेरा कोई अहित नहीं होगा। जो हित जानता है, वह भलीभाँति जानता है कि हित बँटे हुए नहीं होते। जो शुभ है सो शुभ है, जो सम्यक् है सो सम्यक् है। ऐसा नहीं होता कि एक घटना किसी के लिए शुभ हो और किसी के लिए अशुभ हो।
जीसस ज़माने भर से बात करते हैं। और वह कह रहे हैं कि उन्हें पता है कि उन्हें सलीब (सूली) मिलेगी। उन्हें मृत्युदंड दिया जाएगा। यह वही बात है न जो आप कह रहे हैं कि दुनिया का भला करने निकले हैं और दुनिया पलटकर उन्हें क्या दे रही है? बुराई दे रही है, दंड दे रही है, मौत दे रही है। लेकिन जीसस को पता है कि इसमें उनका कोई नुक़सान नहीं हो जाने वाला।
अगर कोई चीज़ है जो दुनिया के भले के लिए है, तो उसमें मेरी भी भलाई निहित है। तो वह जानते-बूझते मृत्यु का वरण कर लेते हैं। और फिर इसीलिए आपको समझाने के लिए आगे की कथा है कि वह मरकर भी मरते नहीं, तीसरे दिन उठ बैठते हैं। क्योंकि जिसने दूसरों को ज़िन्दगी दी है, उसे मौत कैसे आ सकती है। जो दूसरों को ज़िन्दगी दे रहा है, उसे मौत नहीं आ सकती। इसीलिए जीसस का पुनः उठ बैठना, पुनर्जीवित हो जाना बड़ा आवश्यक था।
आप वह करो जो सही है। जो सही है, उससे आप पर कुछ ग़लत नहीं हो सकता। और अगर सही करके आपको लग रहा है कि आपके साथ ग़लत हो रहा है, तो या तो आपने सही करा नहीं या आपके साथ ग़लत हो नहीं रहा है। भरोसा रखो।