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असफलता मिले तो न घबराना, न लजाना || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी. गुवाहाटी में (2023)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
22 min
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प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मैं आपको काफ़ी समय से सुन रहा हूँ, और आपको सुनने के बाद आपसे खुश नहीं हूँ। जब से मैंने आपको सुनना शुरू किया है, तब से मेरा पूरा जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। (दर्शकों की हँसी और तालियाँ)

मैं पहले जैसा जीवन जीता था और आपको सुनने के बाद मुझे जो कुछ सीखने को मिला है, मैं हमेशा उन दोनों के बीच में एकदम ऑसिलेट्‌ -सा (डोलता) करता रहता हूँ। कई बार तो ऐसा हुआ है कि मुझे पता है कि ये ग़लत है, ये नहीं करना चाहिए, फिर भी मैं उनको करता हूँ।

आचार्य जी, मुझे कई-कई बार ऐसा लगता है कि कहीं मैं आपको फ़ेल (असफल) तो नहीं कर रहा? कहीं मैं आपके प्रति अनादर-असम्मान तो नहीं कर रहा? आपसे शान्ति मिलने की जगह मेरा मन इतना विरोध क्यों करता है आपका?

आचार्य प्रशांत: देखो, ये जो भी कुछ आप बता रहे हो, ये तो बड़ी बढ़िया बात है। ज़्यादा चिन्ता मुझे उनको देखकर होती है जो कहते हैं कि जबसे आपको सुना है, मौज ही मौज है। मैं कहता हूँ ख़ुद को सुनकर मुझे आज तक मौज नहीं आयी, तुम्हें कैसे आ गयी? (तालियाँ)

यहाँ तो जो सारा काम है, वही सड़ी-गली इमारतों को गिराने का और मलबा साफ़ करने का है। उसमें विध्वंस तो होगा ही न? चोट तो लगेगी न? और चोट नहीं सह सकते तो जवान काहे के लिए हो?

बार-बार मैं बोला करता हूँ कि मुझे युवाओं से बात करनी है। और कुछ अगर बुज़ुर्ग, बूढ़े लोग भी आ जाते हैं, मैं उनसे कहता हूँ कि दिल से तो जवान हो न, तभी मुझे सुनना, क्योंकि जो हम काम करने जा रहे हैं वो कमज़ोरों के लिए नहीं है।

ज़िन्दगी ही कमज़ोरों के लिए नहीं है। जो सबसे ऊँचा काम है वो कमज़ोर लोगों के लिए कैसे हो सकता है?

तो, जीवन अस्त-व्यस्त न हुआ होता तो ये समस्या की बात होती। अस्त-व्यस्त हो गया है तो खुशी मनाओ न! कोई पुरानी चीज़ है जो यूँही पड़ी हुई है, जंगल से उठाकर उसको हम ले आये हैं और अभी भी ज़िन्दगी में मौजूद है। उसको सहेज के रखने में लाभ क्या है? हाँ, ये अलग बात है कि चूँकि वो पुरानी है इसलिए उससे आसक्ति है। जो चीज़ इतनी पुरानी होगी उससे मोह बैठ जाता है न, आदतों में शुमार हो जाती है। आदमी उसको पकड़कर रखता है, जब वो चीज़ जाने लगती है तो दो आँसू तो टपकते ही हैं, खलबली बहुत मचती है। और जिसने तुमको प्रेरणा दी होती है कि पुराने-सड़े माल से तौबा करो, हटाओ, वो आदमी बुरा भी बहुत लगता है।

मेरे ख़याल से शायद ज़ेन में है, जापान में है, या कहीं और, होगा कहीं। किसी मास्टर ने कहा था कि "वो डिसाइपल (शिष्य), डिसाइपल है ही नहीं, जिसके मन में कम-से-कम एक बार मास्टर की हत्या का ख़याल न आया हो।" क्योंकि अगर तुम पर सही में काम हो रहा है, तो वो जो काम है न जो तुम पर हो रहा है, वो सर्जरी जैसा है, शल्यक्रिया, जिसमें सीधे दिल पर छुरी चलायी जाती है। तो उसमें ये हो कैसे जाएगा कि तुमको गुस्सा आएगा नहीं, या कि भीतर सब छितर-बितर होगा नहीं। वो तो होना ही होना है। तुम्हारा काम है उसको सहना, बर्दाश्त करना भई।

दो शब्द हैं भगवद्गीता के, बहुत मुझे पसन्द हैं। पहला, तितिक्षस्व। तितिक्षस्व माने जानते हो? तितिक्षा माने क्या होता है? जो इंसान ज़िन्दगी में बेहतर हो सकता है, मुक्त हो सकता है, ऊँचा बढ़ सकता है, उसके लिए अद्वैतवाद के आचार्य शंकर, भारत के अग्रणी चिन्तक, उन्होंने चार शर्तें रखी थीं। उन चार शर्तों को कहते हैं साधन चतुष्टय। ठीक है? उन साधन चतुष्टय में एक शर्त होती है — षड् सम्पत। षड् सम्पत मतलब छ: तरीक़े की सम्पदा, माने छ: गुण। उनमें से एक होता है तितिक्षा।

तितिक्षा माने होता है सहने की क़ाबिलियत, झेल पाने का दम। अपनी भाषा में कहें तो सह जाने का जिगरा। जिसके पास वो नहीं है, उसके लिए मैं कह रहा हूँ जीवन ही नहीं है, मुक्ति तो बहुत दूर की बात है। ऐसा इंसान क्या जिएगा?

और जो दूसरा शब्द है गीता का जो मुझे बहुत पसन्द है, और ये दोनों एकसाथ चलते हैं। पहला हमने कहा तितिक्षस्व। दूसरा, युद्धयस्व। भिड़े रहो, पीछे नहीं हटना है। पीछे नहीं हटना है, और इसलिए गीता का इतना महत्व और इतना ऊँचा स्थान है।

नहीं तो वेदान्त के साथ ही हूँ, पूरा उसी में आप्लावित हूँ। मैं जानता हूँ कि अगर बिलकुल दर्शन के तल पर शुद्धता की बात करोगे तो गीता से आगे भी दो-चार ग्रन्थ हैं। अष्टावक्र गीता में जो मेरे साथ है, वो जानता होगा, अगर बिलकुल सिर्फ़ शुद्धता की बात करनी है तो अष्टावक्र आगे हैं। लेकिन फिर भी गीता बहुत ऊँची है।

इसलिए ऊँची है गीता क्योंकि उसमें जो बात कही जा रही है न, वो इंसान से इंसान के जीवन के सन्दर्भ में और जीवन की रणभूमि पर कही जा रही है और कहा जा रहा है — ख़ून बहाओ। ख़ून बहाओ, वो भी किसका? अपना ही ख़ून बहाओ। हम कहते हैं न कि भाई का ख़ून तो मेरा ही ख़ून है, कि बाप कहता है बेटे का ख़ून मेरा ख़ून है। तो अर्जुन से कहा जा रहा है अपना ही ख़ून बहाओ। क्योंकि वो जितने हैं सामने वो भी सब तुम्हारा ही तो ख़ून हैं, और तुम्हारा अपना जो ख़ून बहेगा वो तो है ही तुम्हारा। ख़ून बहाने का दम नहीं, तो इंसान कहलाने की कोशिश क्यों?

एक ख़ून है जो शरीर से बहता है, वो बहाने की जब नौबत आये तो पीछे नहीं हटना चाहिए, 'तितिक्षस्व।' और एक ख़ून होता है जो मन के टूटने पर बहता है, उससे भी पीछे नहीं हटना चाहिए। धर्मयुद्ध है अगर, तो पीछे हटने का सवाल नहीं पैदा होता न। सारी गीता ही यही है।

अर्जुन कह रहे हैं, ‘मै नहीं लड़ सकता भाई, मुझे जाने दीजिए।‘ वो (कृष्ण) कह रहे हैं, "धर्मयुद्ध है, तुम पीछे हट नहीं सकते, जाने का क्या सवाल है? कहीं नहीं जाना है, लड़ो! चोट बहुत लगेगी। मर भी सकते हो। अपनों को मारना है। अपने लिए नहीं लड़ो। निष्काम युद्ध करो।"

तो ये सब जो तुम्हारे साथ हो रहा है ये शुभ ही है। और एक खुशखबरी बता दूँ कि अभी चलेगा बहुत समय तक। और ये और बता दूँ, कि जितना आगे बढ़ोगे, चोट उतनी गहरी पड़ेगी, और चोट तब तक पड़ती रहेगी जब तक चोट खाने वाला ही मिट न जाए। और यही लक्ष्य है पूरे आत्मज्ञान का। ये जो बैठा है न भीतर जो बार-बार चोट खाता रहता है, "अरे! आइ गॉट हर्ट! (मैं चोटिल हो गया!) ओफेंडेड (अपमानित) हो गये।"

आपमें भी बहुत लोग होंगे जिन्हें बहुत जल्दी से चोट लग जाती होगी। मार्क्स (अंक) अच्छे नहीं आये, चोट लग गयी। किसी ने कुछ बोल दिया, बुरा लग गया। ये सब होता है न? या बहुत जल्दी से खुश हो जाते होंगे। किसी ने तारीफ़ कर दी, प्रसन्न हो गये।

ये जो भीतर बैठा है जो चोट खाता है, इसको मिटाना ही आत्मज्ञान का लक्ष्य होता है। चोट लगनी ही बन्द हो जाए। ऐसे हो जाओ तुम कि चोट का पता ही न लगे। तुम कहो चोट जिसको लगती होगी, लगती होगी, जो मेरा काम है वो मैं करूँगा न? यही ज़िन्दगी है।

अगर ऐसे हो जिसको दुनिया चोट दे सकती है, अतीत चोट दे सकता है, परिस्थितियाँ चोट दे सकती हैं, तो ये सब मिलकर तुमको ग़ुलाम भी तो बनाएँगे न? अगर कोई तुमको घाव दे सकता है तो वो तुम्हारा मालिक बन जाएगा कि नहीं बन जाएगा? और अगर कोई तुम्हारी बहुत तारीफ़ कर सकता है, तुम्हें बहुत खुश कर सकता है तो वो भी तुम्हारा मालिक बन जाएगा। ग़ुलामी करनी हो तो बताओ।

चोट खाते चलो और झेलते चलो। जितना झेलोगे, उतना ज़्यादा चोट खाने वाले को ये सन्देश दे रहे हो कि मैं तेरी परवाह नहीं करता। तुझे चोट लग भी रही है तो भी मैं अपना काम करूँगा। और जितना तुम उसकी परवाह कम करोगे, उतना वो मिटता जाएगा। जितना वो मिटता जाएगा, उतना मौत पीछे हटती जाएगी और ज़िन्दगी शुरू होती जाएगी।

प्र२: प्रणाम आचार्य जी। मैं पूछना चाहता हूँ, जब आप ये बोलते हैं कि हमें चीज़ों को ड्रॉप करते जाना है, फिर आप ये भी बताते हैं कि बहुत सारे महान लोग भी, अगर स्वामी विवेकानंद जी के बारे में भी बोलें, तो वो भी एज़ अ ह्युमन बींग (बतौर इंसान), कुछ-न-कुछ, ऐसी चीज़ों से रह गये थे अटैच्ड (आसक्त), वैदर इट इज़ ईटिन्ग हैबिट ऑर समथिन्ग (चाहे भोजन के प्रलोभन से या किसी और चीज़ से)। तो हम अपनेआप को ऐसा बहाना दे देते हैं कि अगर बड़े लोग भी कुछ-न-कुछ इम्प्योरिटीज़ (अशुद्धियाँ) के साथ रह जाते हैं, तो हम जब ड्रॉप करने के प्रॉसेस (प्रक्रिया) में हैं, तो हम भी ऐसे टाल देते हैं कि हो सकता है कि आगे चलकर, ऐज (उम्र) के साथ, हम हो सकता है इसको ड्रॉप कर दें, और हम इस चीज़ को टालते जाते हैं। कुछ चीज़ें हम ड्राप करते हैं, कुछ अपने कन्वीनिऐन्स (सुविधा) के हिसाब से नहीं करते हैं, बाद में करना चाहते हैं। तो कैसे हम डिसाइड (निर्णय) करें कि ये राइट टाइम (सही समय) है?

आचार्य: जितना कर सकते हो करते चलो न। जितना कर सकते हो करते चलो। स्वामी विवेकानंद ने उदाहरण के लिए, कहा हुआ है, बिलकुल लिखित में है, कि मैं खाता हूँ माँस, लेकिन उसकी वजह ये है कि मैं एक ऐसे क्षेत्र से आता हूँ जहाँ माँस और मछली काफ़ी चलते हैं। तो भले ही मैं खाता हूँ लेकिन मैं स्वीकार करता हूँ कि ये बात ठीक नहीं है। और स्वामी जी तो चालीस वर्ष भी पूरे नहीं कर पाये थे, दस-बीस साल और जीते तो ज़्यादा सम्भावना यही है कि वो इस चीज़ को भी छोड़ देते।

देखो, एक झटके में सब कुछ नहीं कर पाओगे। हालाँकि अधिकतम जितना आगे बढ़ पाओ, बढ़ो। सवाल ये नहीं है कि वो फ़लानी चीज़ है, वो रह गयी है, या फ़लानी चीज़ से अभी मोह रह गया है, आसक्ति रह गयी है, आदत रह गयी है। सवाल ये है कि तुम जितना कर सकते हो उतना करा कि नहीं करा? सब कुछ करने के बाद भी कुछ रह जाएगा। पूर्ण तो हो नहीं गये ना?

परफैक्शन (पूर्णता) जैसी तो कोई बात नहीं है। कुछ रह जाएगा। उसकी बात नहीं करो। कहो उनका भी कुछ रह गया, मेरा भी कुछ रह गया तो ये बात ऐसी सी हो गयी कि एक के निन्यानवे प्रतिशत आये हों अंक, एक के चालीस प्रतिशत आये हों, चालीस वाला कहे, ‘मुझमें और निन्यानवे वाले में कोई अन्तर थोड़े ही है; उसका भी कुछ रह गया, मेरा भी कुछ रह गया। कुछ तो उसका भी रह गया न, एक प्रतिशत तो उसका भी रह गया और कुछ मेरा भी रह गया। साठ प्रतिशत मेरा भी रह गया। तो मैं और वो बराबर हैं क्योंकि हम दोनों का ही कुछ-न-कुछ तो रह ही गया।‘ ये सब बेकार की बातें हैं। ये आपको पता है ये आंतरिक बेईमानी है।

हाँ, बिलकुल ये सही बात है, कुछ न कुछ सबका रह जाता है। कौन कहता है कि कुछ नहीं रह जाता? बुद्ध जब सारी बातें समझ गये थे तो उसको बोलें — निर्वाण। लेकिन जब शरीर से ही मुक्त हो गये तो उसको बोले — महापरिनिर्वाण। ये इस बात की स्वीकृति थी कि कुछ तो बचा ही रह जाता है। जब तक देह है तब तक माया है, और परफैक्शन की उम्मीद करना बिलकुल बेवकूफ़ी है। बिलकुल बेवकूफ़ी है।

आप तो ये देखो कि आप अपनी क्षमता के अनुसार यथाशक्ति कितनी कोशिश कर पाये। आप ये मत पूछो कि मैं सीधे चाँद पर पहुँच गया कि नहीं पहुँच गया, या कि जाकर सूरज पर बैठ गया कि नहीं बैठ गया। आप ये पूछो कि मेरी उड़ान कितनी ऊँची थी। कोई जो उड़ा ही नहीं, वो उड़ने वालों को देखकर के कहे, ‘देखो ये उड़ा तो है पर अभी चाँद पर नहीं पहुँचा।‘ तो ये भद्दी बात है। और कुछ-न-कुछ तो रह ही जाएगा, और जो रह जाएगा उसी के कारण जीने का मज़ा है।

साहब अगर आपकी मंज़िल पूरी हो जाए, तो फिर आप जियोगे ही क्यों? ये साँस क्यों चल रही है? दिल क्यों दौड़ कर रहा है? क्योंकि अभी कुछ बचा हुआ है।

आप ट्रेन पर चढ़ते हो। आप ट्रेन पर तभी तक तो रहते हो न जब तक मंज़िल नहीं आ गयी। आप घोषणा कर दो कि मेरी तो मंज़िल आ गयी, मेरा तो इमैन्सिपेशन, ऐनलाइटनमेन्ट , मोक्ष, मुक्ति, सब हो गया है, तो आपको तो ट्रेन से लात मारकर उतार देना चाहिए। ट्रेन माने ज़िन्दगी। भाई जिसकी मंज़िल आ गयी है उसको ट्रेन पर क्यों रहना है? तू तो उतर! तेरा तो स्टेशन आ गया। नीचे उतर।

तो जब तक जियोगे तब तक अभी करने को कुछ बचा रहेगा। और क्या करने को बचा रह जाएगा? वही, सफ़ाई करने को बची रहेगी। और भीतर जंगल बहुत पुराना है, उसको साफ़ करने में अनन्तता लगती ही लगती है। तुम्हारा काम है लगे रहना, लगे रहना। उपनिषद् कहते हैं "चरैवेति-चरैवेति", चलते रहो चलते रहो। क्यों कहते हैं चलते रहो? क्योंकि पता है कि जहाँ पहुँचना है उस जगह का नाम है अनन्त। अनन्त तक कोई पहुँच सकता है क्या? चलने का कोई अन्त नहीं होना चाहिए, यही अनन्तता है। यही सत्य है। इसी का नाम मुक्ति है।

तो मुक्ति कोई एक बिन्दु नहीं होती, कोई एक स्टेशन नहीं होती। मुक्ति की ओर लगातार चलते रहने को ही मुक्ति बोलते हैं। इसीलिए विवेकानंद मुक्त हैं। इसलिए नहीं कि वो आख़िरी बिन्दु तक पहुँच गये थे, बल्कि इसलिए क्योंकि वो ईमानदारी से यथाशक्ति, यथासम्भव जीवनभर मुक्ति की ओर चलते रहे। ये जो चलते रहना है न, इसका नाम मुक्ति है। पहुँचने का नाम मुक्ति नहीं है। चलने का नाम मुक्ति है।

प्र२: सबसे पहले तो उत्तर के लिए धन्यवाद, लेकिन जब हम चीज़ों को ड्रॉप जो करना चाहते हैं, नहीं करते हैं, उसके साथ गिल्ट (ग्लानि भाव) चलता है फिर। तो क्या हम उस गिल्ट को लेकर चलें, या फिर और कोई तरीक़ा है कि ठीक है हम इसको बाद में देख लेंगे?

आचार्य: देखो, गिल्ट फ़ायदेमन्द तभी है जब असली हो। ये जो ग्लानि की भावना है न, अपराधबोध की भावना है, ये अच्छी भी हो सकती है। ये अच्छी तब है जब तुम्हें पता हो कि हो सकता था किया नहीं। हो सकता था किया नहीं। वो कहें कि मुझे इस बात की गिल्ट हो रही है कि मैं अभी सात फीट नहीं उछल पाया, तो जानते हो ये गिल्ट कृत्रिम रूप से, आर्टिफिशियली (कृत्रिम) रूप से क्यों पैदा कर रहा है? ताकि उसको तीन फीट भी न उछलना पड़े।

तो गिल्ट के दोनों परिणाम हो सकते हैं। गिल्ट कह सकती है कि तुम गिल्टी हो, गिल्टी हो माने दोषी हो, इसीलिए अपनेआप को बिलकुल बदल दो। ये गिल्ट का सकारात्मक परिणाम होता है, शुभ परिणाम होता है। ठीक है? और गिल्ट का दूसरा परिणाम होता है कि अरे मैं तो महापापी हूँ। अब पाप एक कर ही दिया है, तो चलो और भी करते हैं। एक क़त्ल की सज़ा भी मौत है, सौ की सज़ा भी मौत है, तो अब करते ही करते हैं।

तो सब चीज़ें ठीक हो सकती हैं। अपराधबोध, गिल्ट , ये भी बिलकुल ठीक हो सकता है, अगर तुम्हारी नीयत साफ़ हो। नीयत होनी चाहिए लगातार बेहतर बनने की, आगे बढ़ने की, सुधरने की, उठने की। नीयत ठीक है, तो बीच-बीच में ग़लतियाँ होती रहेंगी, कोई दिक्क़त नहीं हो गयी है। तुमने ठेका नहीं ले रखा है परफैक्शन का।

कोई, किसी ने पूछा था मुझसे आकर के, ये भी कर लिया, ये भी कर लिया, ये भी कर लिया — उनकी उम्र बहुत हो गयी थी — लेकिन अभी तक वो पूर्णता नहीं मिल रही है, वो अन्त नहीं मिल रहा है जिसकी तलाश है। मैंने कहा, पूर्ण होना था तो पैदा काहे के लिए हुए थे? पैदा होने का मतलब ही है कि अपूर्ण ही रहोगे लगातार। उसी अपूर्णता में अपूर्णता से पूर्णता तक यात्रा करनी है। यात्रा अगर चलती रही तो समझ लो कि पूर्ण के प्रति तुम्हारा समर्पण पूरा है। पूर्ण भी जैसे यही देखता है कि भाई, इसने डेडिकेशन , समर्पण पूरा दिखाया है कि नहीं दिखाया है? वो ये नहीं देखता है कि तुम पहुँच पाये हो कि नहीं। वो ये देखता है कि तुमने पहुँचने का प्रयास पूरा करा है कि नहीं करा है।

ये पूरा होना चाहिए — प्र-यत्न। यत्न माने होता है कोशिश करना, और प्रयत्न का अर्थ होता है सही दिशा में कोशिश करना। यही होना चाहिए बस, और यही अंतिम बात है, प्रयत्न। वो देखा जाएगा। ये नहीं देखा जाएगा कि तुमने हासिल क्या कर लिया। तुम्हारी कोशिशों में दम होना चाहिए।

अहम् का सच से रिश्ता यही होता है, कि पास आ नहीं सकते और दूर जा नहीं सकते।

समझ रहे हो बात को?

तो, एक गाना है न फ़िल्मी — ‘मिलो न तुम तो हम घबराएँ, और मिलो तो आँख चुराएँ’ (तालियाँ)

अरे भई, नहीं सुनना, तो जाने का विकल्प था, पर तुम्हें सुनना है वो मैं भी जानता हूँ। तुम्हारा-मेरा एक रिश्ता है वो मैं जानता हूँ। और जब सुनना ही है तो सामने आओ न। पास आओ, बैठें, तुम हमें देखो, हम तुम्हें देखें।

प्र३: नमस्ते सर। बस मेरा ये सवाल था कि हम जो भी बचपन से पैदा होते हैं तो हमारा परसैप्शन (अनुभूति) ही बिल्ड (निर्मित) होता जाता है, ठीक? और मेरी पूरी जो रियैलिटी (वास्तविकता) है वो एक परसैप्शन होती है। आप जो मुझे समझा रहे हो, वो भी, आप भी उसी प्रौसैस (प्रक्रिया) से आये हो जिस प्रौसैस से मैं आया हूँ, तो आपका भी एक परसैप्शन ही हुआ, राइट ? और इस तरीक़े से हम सबका परसैप्शन ही है, और हम लोग सिर्फ़ परसैप्शन में ही कॉमनैलिटी (समानता) ढूँढ रहे हैं, तो इस, और परसैप्शन के अलावा मुझे और कुछ पता नहीं है, राइट ? जो भी मेरी इन्द्रियाँ देखेंगी, जिसके बेसिस (आधार) पर मैंने परसैप्शन बनाया है दिमाग में, वही चलेगा। तो, उसके अलावा और किस पर भरोसा करें? मतलब, यही तो है, और मुझे तो लगता है यही है ज़िंदगी।

आचार्य: बहुत बढ़िया। भई, आप किसी को कुछ समझाने लगो, हुआ है आपके साथ? तो वो कहेगा, सबके अपने-अपने थॉट्स (विचार) हैं। भई, तुम्हारा एक तरह का थॉट है, हमारा एक तरह का थॉट है। सुना है? भई तुम अपनी बात हमपर क्यों थोप रहे हो? तुम्हारा अपना मन है अपने विचार हैं, मेरा अपना है। वही अभी पूछा कि भई सब कुछ परसैप्शन ही तो है न? नहीं, सब कुछ परसैप्शन नहीं होता। आप जो परसीव करते हो, आप उसको जान सकते हो। सेंसिंग (संवेदन) और नोइंग (जानने) में अन्तर होता है, सोचो।

सेंसिंग और नोइंग में अन्तर होता है। परसीविंग (देखने) और अंडरस्टैन्डिन्ग (जानने) में अन्तर होता है। जो व्यक्ति सिर्फ़ परसैप्शन पर चल रहा है, वो तो ये कह रहा है कि मैं इस कैमरे जैसा हूँ, ये कैमरा भी परसीव कर रहा है। आपकी आँखें भी देख रही हैं, ये कैमरा भी देख रहा है। आप मेरी बात रिकॉर्ड कर रहे हैं, वो भी रिकॉर्ड कर रहा है।

आपके पास कैमरे से कुछ अलग है न? वो चीज़ आपको इंसान बनाती है। जितनी ज़्यादा वो चीज़ आपके पास होगी, आप उतने मस्त इंसान बनोगे। जिसको आप परसैप्शन वगैरह बोलते हो, वो चीज़ मशीनों के पास भी हो सकती है। और एआइ के ज़माने में तो हर काम जो मेकैनिकल (यांत्रिक) है वो मशीन कर ही लेगी। ठीक है न? सॉफ्टवेयर में एआइ और हॉर्डवेयर में एक रोबो खड़ा कर दो, दोनों को मिला दो, तो इंसान ही ख़ड़ा हो गया, एक बहुत परसैप्टिव इंसान।

नहीं, परसैप्शन नहीं। परसैप्शन और अंडरस्टैन्डिंग में अन्तर होता है। मैं उदाहरण बता देता हूँ। मैं यहाँ से कुछ समझाना चाह रहा हूँ। समझाना चाह रहा हूँ न। आप यहाँ जितने लोग बैठे हो जवान लोग हो। सबके पास आँखें हैं। सबके पास कान हैं। और सब मुझसे एक ही दूरी पर बैठे हुए हो। लेकिन मैं जो कह रहा हूँ, वो बात समझ में किसी-किसी को ही आ रही है। तो बताओ क्या अन्तर हुआ फिर? सब आइआइटियन हो, सबने जेईई क्लीयर (उत्तीर्ण) किया होगा, या कोई और माध्यम होगा जिसके थ्रू (माध्यम से) यहाँ आये हुए हो। तो जो बात मैं कह रहा हूँ वो बात किसी-किसी को ही क्यों समझ में आ रही है? वो चीज़ है जो तुम्हारी इंसानियत का सबूत होती है — 'तुम समझ सकते हो कि नहीं?'

अंडरस्टैन्डिंग वो चीज़ है जो किसी कैमेरे के पास नहीं हो सकती, जो एआइ में कभी नहीं आएगी, किसी बहुत बड़े सुपरकम्पयूटर (अतिसंगणक) में भी कभी नहीं आ जानी है। समझ पाने की क्षमता, वो एक बहुत अलग बात है। न वो ट्राँसलेशन है, ना वो डिकोडिंग है, न वो इन्फॉरमेशन गैदरिंग (जानकारी एकत्रित करना) है, ना वो पैटर्न रैकॉगनिशन (प्रीतिरूप पहचान) है, वो बिलकुल एक अलग क्वालिटी (गुण) होती है अंडरस्टैन्डिंग , बोध।

और वो जो बोध है, उसी को समझाने वालों ने कहा है कि वही तुम हो, वही तुम्हारा स्वभाव है। वही तुम हो। तो परसैप्शन ही सब कुछ नहीं होता। परसैप्शन से तो ओपिनीयन (राय) बनता है, मत। जो दूसरी चीज़ होती है समझना, वो बिलकुल अलग बात होती है।

वो कब आती है? समझो।

परसैप्शन माने तुम्हारे विचार और भावनाएँ, और अंडरस्टैंडिंग आती है जब तुम इन विचार और भावनाओं को देख सको। कुछ होना, और उस चीज़ को देख पाना, ये दो बहुत अलग-अलग बात हैं। आपके विचार का एक प्रवाह है। आप उसमें बह गये। कि भई, थॉट्स की एक स्ट्रीम है और आप उसमें साथ में बहे जा रहे हो। वो बिलकुल एक बात है। और ये बिलकुल देख पाना कि ये मेरे थॉट्स आ कहाँ से रहे हैं और ये क्या चीज़ हैं, ये बिलकुल दूसरी बात है।

ये जो दूसरी बात है न, ये होती है बियॉन्ड परसैप्शन (देखने के पार)। ये होती है रियलाइज़ेशन। इसी को अंडरस्टैन्डिंग बोल रहा हूँ।

ये बात अभी कुछ-कुछ ही समझ में आ रही होगी। जितना इसपर विचार करोगे, ध्यान दोगे, उतनी और समझ में आएगी।

प्र३: सर, जैसे हमारी जो बॉडी (शरीर) की अंडरस्टैन्डिंग है वो ये है कि हमारे पास एक मशीन है, करेक्ट ? मशीन में हमारे पास ऐसा समझ लीजिए कि उसमें कुछ परसीव करने का मैथड (प्रक्रिया) है, जो कि हमारी इन्द्रियाँ हैं, सेन्स ऑर्गैन्स हैं, उसके आधार पर हम इन्फॉरमेशन कलेक्ट करते हैं और वो इन्फॉरमेशन का एक रीप्रेज़ैन्टेशन (प्रस्तुतीकरण) बनाते हैं दिमाग में। करैक्ट ? और जो रीप्रेज़ैन्टेशन है, वही हमारी दुनिया होती है। इस सेंन्स में मैं कह रहा हूँ।

आचार्य: जैसे ही तुम इस बात को जान जाते हो वैसे ही अपनी उस दुनिया से आसक्ति कम हो जाती है कि नहीं?

प्र३: सर, कम हुई है।

आचार्य: तो बस यही अंडरस्टैन्डिंग है।

प्र३: लेकिन सर, फ़िज़िक्स (भौतिकी) के सेन्स में, मतलब मैं इसको इसमें (आध्यात्मिकता में) नहीं कह रहा हूँ, मैं फ़िज़िक्स के सेन्स में कह रहा हूँ। कि जैसे, हमारा एक जो ऑबजेक्ट (वस्तु) है आब्ज़रवेबल (अवलोकनीय) जिसकी मेरे पास कोई प्रॉपर्टीज़ (गुण) नहीं है, प्रॉपर्टीलैस (गुणरहित) है, और मैं एक ऑबजेक्ट हूँ, जब मैं उसके साथ इंटरएक्ट करता हूँ तो उसका एक प्रोजेक्शन (प्रक्षेपण) मैं बनाता हूँ। करेक्ट ? और...

आचार्य: और तुम ये सब जान सकते हो न, कि ये हो रहा है?

प्र३: हाँ, ये हो रहा है।

आचार्य: मशीन ये नहीं जान सकती। मशीन अपने इंटरनल प्रॉसेस से इसको कभी जान नहीं सकती। दूसरी बात, मशीन कभी कह नहीं सकती कि मुझे अपने इंटरनल प्रॉसेस (अंदरूनी प्रक्रिया) से अलग होकर ख़ड़े होना है।

प्र३: ओके (ठीक है)। तो ये है अंडरस्टैन्डिंग।

आचार्य: यही अंडरस्टैन्डिंग है। इसी को ही लिबरेशन (मुक्ति) बोलते हैं।

प्र३: ओके सर।

आचार्य: स्टैंडिन्ग नैक्सट टू योरसेल्फ़ (स्वयं के बग़ल में खड़े होना)। स्टैडिन्ग एट अ डिस्टैंस टू योरसेल्फ़ (स्वयं से दूरी बनाकर खड़े होना)। उसी को अनासक्ति और डिटैचमैंट भी बोलते हैं। वो कभी मशीन में नहीं हो सकते।

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