अर्जुन का शोक || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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अर्जुन का शोक || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके। हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान्तधिरप्रदिग्धान् ।।५।।

“मैं तो महानुभाव गुरुओं को न मारकर, इस लोक में भिक्षान्न भोजन करना कल्याणकर मानता हूँ, क्योंकि गुरुओं का वध करके मैं रक्त से सने हुए अर्थ और काम रूपी भोगों को ही तो भोगूँगा।“

~ श्रीमद्भगवद्गीता, श्लोक ५, अध्याय २, सांख्य योग

आचार्य प्रशांत: कह रहे हैं कि गुरुओं को मारने की अपेक्षा भिक्षाटन करना श्रेष्ठ समझते हैं क्योंकि गुरुओं को अगर मारेंगे भी तो जो सुख भोगेंगे वह रक्तिम होगा, स्वजनों की रक्त से सना हुआ।

फिर आगे कहा, तर्क पर विचार करियेगा, "फिर हम यह भी तो नहीं जानते हैं कि हमलोगों के लिए श्रेयस्कर क्या है!" हम माने? ‘न मैं जानता हूँ, न आप जानते हैं।‘

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः । यानेव हत्वा न जिजीविषाम स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।६।।

“फिर हम यह भी तो नहीं जानते हैं कि हम लोगों के लिए श्रेयस्कर क्या है। हम उन्हें जीत लें या वे हमें जीत लें। जिन लोगों को मारकर हम जीना नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र सामने खड़े हैं।“

~ श्रीमद्भगवद्गीता, श्लोक ६, अध्याय २, सांख्य योग

आचार्य: हमें तो यह भी पता नहीं कि ज़्यादा उचित बात क्या होगी। धर्म किस तरफ़ है, अभी कुछ तय नहीं। यह भी हो सकता है कि वही लोग धर्म की तरफ़ हों और हम अधर्म की तरफ़ हों। हो सकता है उचित भी यही हो कि विजय दुर्योधन की हो।

देखिए ऐसे खेल चलता है – ग़ौर करिएगा पूरी प्रक्रिया पर। लंबा-चौड़ा वक्तव्य दिया अर्जुन ने पहले अध्याय में। पोल खोल दी कृष्ण ने एक ही वाक्य में, "अर्जुन! तुम मोहग्रस्त हो।" और जैसे ही पोल खुली अर्जुन अनायास ही स्वीकार भी कर बैठे कि "हाँ, यह बात तो सही है। मैं कैसे मार दूँ अपने गुरुओं, पितामह को?"

लेकिन फिर जैसे यकायक याद आया कि, "अरे! इतनी जल्दी समर्पण थोड़े ही कर देना है! यह तो धोबी पाट हो गया, यह तो नॉक-आउट हो गया। यह नहीं होने देना है।" तो कुतर्क का दौर फिर से जारी है। अर्जुन वापस वहीं आ गए जहाँ पहले अध्याय में थे; बल्कि और ज़्यादा अब अड़ गए हैं अपनी पुरानी ही स्थिति पर, क्योंकि दिख गया है कि जो सामने शत्रु है वो प्रबल है। कौन है सामने शत्रु? कृष्ण। कह रहे हैं कि इस शत्रु ने तो एक बार में ही भाँप लिया कि मेरी समस्या मोह है, तो अब इसे और बड़े तर्क देने पड़ेंगे, और घातक तर्क देने पड़ेंगे।

तो इस बार देखिए क्या तर्क दिया है! बोल रहे हैं ‘मैं कैसे लड़ूँ, मुझे तो यही नहीं पता कि अधर्मी हम हैं या वो हैं।‘ और 'हम' में कृष्ण को भी शामिल कर लिया। ‘क्या पता कृष्ण आप ही अधर्मी हों? मैं लड़ाई कैसे कर लूँ? क्योंकि मैंने तो यही सुना है कि गुरुओं, स्वजनों, वरिष्ठों, पितामह, इनसे युद्ध आदि करना कोई धर्म की बात नहीं होती। मुझे कैसे पता कि आप ही धर्म की तरफ़ हैं? आप तो उल्टा धर्म बता रहे हैं। हमारी संस्कृति तो यह सिखाती है जो भी हो जाए अपनों पर शस्त्र न चलाओ। अपने तो अपने हैं। आप कह रहे हैं शस्त्र चला दो, तो मुझे तो लग रहा है, कृष्ण, अधर्म कहीं आप ही तो नहीं कर रहे?’

यह भारी बाण चलाना पड़ गया है अर्जुन को क्योंकि दिख गया है कि दुश्मन में बड़ा दम है, शत्रु प्रबल है। इस पर तद्नुसार किसी भारी अस्त्र का उपयोग करना पड़ेगा, तो सीधे-सीधे कह दिया, “क्या पता धर्म किधर है! मैं आपको यह कहने की भी सहूलियत नहीं दूँगा कि, ‘अर्जुन, धर्म और अधर्म की लड़ाई में देखो तुम अधर्म की ओर जा रहे हो।‘ आप अगर यह कह लेते हैं तो आप का पलड़ा भारी हो जाता है, तो मैं क्यों आपको यह सुविधा दूँ?”

“तो मैं कह देता हूँ, मुझे क्या पता धर्म किधर है? मैं आपसे दूर जा रहा हूँ, मैं धर्म से दूर थोड़े ही जा रहा हूँ। मैं आपकी बात काट रहा हूँ, मैं धर्म को थोड़े ही काट रहा हूँ। क्या पता धर्म दुर्योधन की तरफ़ हो? अरे! ये इतने जो सामने महानुभाव खड़े हुए हैं, ये सब विधर्मी हैं क्या? पूरी दुनिया विधर्मी है, बस एक, कृष्ण, आप ही धर्म जानते हैं?”

यह सब सुने-सुनाए तर्क लग रहे हैं कि नहीं लग रहे हैं? पैंतरा समझिए! ‘क्यों मैं कृष्ण को अनुमति दे दूँ मुझ पर आरोप लगाने की कि धर्म और अधर्म के संघर्ष में देखो अर्जुन तुम अधर्म की ओर जा रहे हो। इससे पहले कि कृष्ण ऐसा कुछ कहें मैं घोषित किए देता हूँ कि मैं जानता ही नहीं कि धर्म किधर है, अधर्म किधर है।‘

‘मैं क्यों कृष्ण को धर्म पर स्वामित्व घोषित करने दूँ? मैं क्यों स्वीकार करूँ कि धर्म पर कृष्ण का एकाधिकार है? तो मैं उस बात को ज़रा संदेह के घेरे में ला देता हूँ कि, क्या पता धर्म किधर है। हो सकता है धर्म उधर हो, कौरवों की तरफ़। अगर कृष्ण बोलेंगे भी कि, ‘अर्जुन तुम ग़लत कर रहे हो, अर्जुन तुम बात नहीं मान रहे’, तो मैं क्या कह पाऊँगा? मैं कहूँगा मैं आपकी बात नहीं मान रहा हूँ इसका मतलब यह नहीं है कि मैं धर्म की बात नहीं मान रहा। धर्म किधर है, न आपको पता है न मुझे पता है। और देखिए! कोई व्यक्ति तो पूजनीय होता नहीं, पूजनीय तो धर्म होता है। मैं आपकी बात काट रहा हूँ, मैं धर्म को थोड़े ही काट रहा हूँ। व्यक्तियों में क्या है, व्यक्ति तो सब मिट्टी के पुतले होते हैं!’

अर्जुन ने बड़ी बढ़िया बाज़ी चली है, हम सब चलते हैं। अर्जुन की बातों को समझिए ताकि आप समझ पाएँ कि हम सब किस तरीके से कृष्ण विरुद्ध जाने के लिए अपने ही खिलाफ़ षड्यंत्र-दर-षड्यंत्र रचते रहते हैं। "जिन लोगों को मारकर हम जीना नहीं चाहते वही धृतराष्ट्र के पुत्र सामने खड़े हैं।" कितना प्रेम छलछला रहा है। ‘जिनको मारकर हम जीना नहीं चाहते, वे धृतराष्ट्र पुत्र सामने खड़े हैं।' कितना प्रेम है अर्जुन में। तब भी यही प्रेम था जब इतनी बड़ी सेना इकट्ठा करी थी?

वह जो पाण्डवों की तरफ़ सेना खड़ी हुई है वह कोई पाण्डवों भर की नहीं है। उसमें और दुनिया भर के राजा लोग हैं जो पाण्डवों के समर्थन में आकर खड़े हो गए हैं। और दौड़-दौड़ कर, घूम-घूम कर बाक़ायदा उन राजाओं का समर्थन हासिल किया गया था। एक गठबंधन है, एक कोअलिश्‌न्‌ है, आसानी से नहीं बन जाता। राजाओं के पास गए होंगे उनकी माँगे मानी होंगी, समझाया होगा, बुझाया होगा। ये राजा लोग भी अपना समय निकाल कर, अपने संसाधन जुटाकर और अपनी जान खतरे में डालकर ऐसे ही थोड़े ही मैदान में आ गए होंगे पाण्डवों के पक्ष में।

तब अर्जुन को याद नहीं था कि धृतराष्ट्र के पुत्र तो हमें जान से भी ज़्यादा प्यारे हैं? तब तो वहाँ जाकर कहा होगा कि “दुर्योधन महापतित, महापापी है!” और अभी कृष्ण से क्या कह रहे हैं? “अरे! दुर्योधन जैसों को मारकर तो मैं जीना भी नहीं चाहता, मेरा हृदय है दुर्योधन।“ अधर्म की रक्षा के लिए हम कोई भी तर्क गढ़ सकते हैं! अभी इस क्षण अर्जुन ऐसी स्थिति उत्पन्न कर रहे हैं कि, "देखिए कृष्ण! दुर्योधन इत्यादि मेरे जिगर के टुकड़े हैं। आप ज़रा दूर के हैं, आप मुझे क्यों भड़का रहे हैं, क्यों गृहयुद्ध करवा रहे हैं?" चाल देख रहे हैं?

यह चाल हम सब चलते हैं। जब सत्य सामने आता है, तो उसका अपमान करने में हम कोई कमी नहीं छोड़ते। सत्य को अपमानित किया नहीं जा सकता इसीलिए सत्य को अपमानित करने के लिए हम तरह-तरह के झूठ गढ़ते हैं। कितना हास्यास्पद है, और कितना त्रासद। कितनी बार स्वयं अर्जुन ने प्रतिज्ञा करी, भीम ने शपथ उठाई है कि कौरवों को मारे बिना जीएँगे नहीं, शांति नहीं पाएँगे। और अभी देखो क्या कह रहे हैं कि अगर कौरव नहीं रहे तो हम भी जीना नहीं चाहेंगे। इतना प्यार उमड़ आया।

सच इतना ख़तरनाक होता है कि उससे बचने के लिए हम किसी भी तरह की गंदगी से प्यार कर सकते हैं। सच से बचने के लिए हम गंदी-से-गंदी चीज़ के प्रति प्रेम घोषित कर सकते हैं। दुर्योधन के प्रति प्रेम घोषित करना बुरा है, लेकिन कृष्ण के प्रति समर्पण घोषित करना और ज़्यादा अस्वीकार्य है। तो कृष्ण को समर्पित होने से बेहतर यह लग रहा है कि यही घोषित कर दो कि ‘दुर्योधन तो मुझे प्राणों से प्यारा है। दुर्योधन चलेगा, सच नहीं चलेगा।‘ या ऐसे कह दो ‘सच के अतिरिक्त कुछ भी चलेगा।‘

अर्जुन ने बात कुछ ऐसी कह दी, कृष्ण की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया आवश्यक है और वह कड़ी प्रतिक्रिया तत्काल आयी है, कृष्ण की भाव-भंगिमा से आयी है। अर्जुन ने कोई ऐसी बात कह दी है जिससे अर्जुन और कृष्ण का संबंध ही ख़तरे में पड़ गया है। अर्जुन ने कृष्ण पर लगभग यह आरोप लगा दिया है कि ‘आप मुझे अधर्म की ओर ले जा रहे हैं’। अर्जुन ने कृष्ण के समक्ष लगभग यह घोषित कर दिया है कि ‘आपकी अपेक्षा मुझे दुर्योधन कहीं ज़्यादा प्यारा है’।

कृष्ण कोई हल्के योद्धा तो हैं नहीं। इस तरह का प्रहार उन पर होगा तो तत्काल प्रतिकार भी होगा और प्रतिकार हुआ है, शाब्दिक रूप से नहीं, मौन रूप से। वो बात संजय शब्दों में धृतराष्ट्र को अभिव्यक्त नहीं कर पाएँगे। वो बात यहाँ किसी श्लोक में निरूपित नहीं है पर उस बात का प्रमाण उपलब्ध है अर्जुन के अगले ही वक्तव्य में। यह जो कुछ कह गए हैं अर्जुन, उस पर कृष्ण का जो प्रतिसाद है वह अर्जुन की वाणी में इस प्रकार देखने को मिलता है—

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः। यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां' प्रपन्नम् ।।७।।

“अज्ञान-जनित कायरता के दोष से मेरा स्वभाव ढक गया है। धर्म के विषय में मेरा चित्त मोहित हो गया है। मैं तुमसे पूछता हूँ, जो मेरे लिए कल्याणकर हो, वह निश्चय करके बताओ कृष्ण! मैं तुम्हारा शिष्य हूँ, अपनी शरण में आए हुए मुझे (यथायोग्य) उपदेश दो।“

~श्रीमद्भगवद्गीता, श्लोक ७, अध्याय २, सांख्य योग

आचार्य: एकदम पलट गए! "माफ़ कर दीजिए, आपका यह रुष्ट चेहरा मैं झेल नहीं पाऊँगा।" विराट रूप कोई आने वाले अध्यायों में ही थोड़े ही दिखाया जाएगा, उसका आरंभ यहीं से हो जाता है। झूठ के, कुतर्क के बहुत प्राण थोड़े ही होते हैं। सच क्रुद्ध हो जाए और अपनी लाल-लाल आँखें दिखाए तो झूठ के पाँव उखड़ जाते हैं तत्काल। और यह देखिए उखड़ रहे हैं।

कहाँ तो अभी-अभी कह रहे थे कि ‘दुर्योधन मुझे जान से प्यारा है। धर्म किधर है, अधर्म किधर, अभी तो यह निश्चित ही नहीं हुआ है’, और तत्काल पलटना पड़ा। ‘अरे! मुझे कहाँ पता क्या धर्म, क्या अधर्म! मुझे पता ही होता तो मैं थोड़े ही बोल देता कि क्या पता धर्म कौरवों की तरफ़ हो।‘ तो अब पूछने पर आ गए, अभी तक बता रहे थे। कह रहे हैं कि ‘मैं तुमसे पूछता हूँ जो मेरे लिए कल्याणकर हो, वह मुझे बताओ कृष्ण! मैं तुम्हारा शिष्य हूँ, मैं बच्चा हूँ, मुझे शरण में ले लो; मैं तुम्हारा शिष्य हूँ, अपनी शरण में आए हुए मुझे उपदेश दो, मुझे बताओ।‘

अब कोई बात बनी। जब झूठ चरम पर पहुँच जाता है, वहीं अकसर उसे टूटना पड़ता है। अर्जुन ने कुछ ऐसी बातें कह दीं जो इतनी झूठ हैं कि अर्जुन को टूटना पड़ा। अब कह रहे हैं कि ‘शरणागत हूँ, उपदेश दीजिए। धर्म नहीं जानता, चित्त मोहग्रस्त है, अज्ञान-जनित कायरता ने जकड़ लिया है।‘ सारी बातें मान लीं जो कृष्ण इनसे कह रहे थे। बड़े-बड़े कुतर्क, थोड़ी देर के लिए ही सही, पर पीछे छूट गए हैं। और फिर कह रहे हैं कि – बहुत दुःख में हूँ, क्रोध ना करें, रुष्ट ना हों, मेरी स्थिति को समझें, कितना शोकाकुल हूँ सुनिए;

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् । अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ।।८।।

“पृथ्वी पर निष्कंटक समृद्ध राज्य तथा देवताओं का साम्राज्य पाकर भी मैं ऐसा कोई उपाय नहीं देखता जो मेरी इंद्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके।“

~श्रीमद्भगवद्गीता, श्लोक ८, अध्याय २, सांख्य योग

आचार्य: ‘मेरी हालत भयानक है कृष्ण! त्राहिमाम! रक्षा करिए, कुछ बोलिए, उपदेश दीजिए!’ और यह कहने के बाद—

संजय उवाच एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेश: परन्तपः। न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तुष्णीं बभूव ह।।९।।

“संजय कह रहे हैं — वह अर्जुन जो शत्रुओं को तापित कर पाते थे, गोविंद से ऐसा कह कर कि युद्ध नहीं करूँगा, एकदम मौन हो गए।“

~श्रीमद्भगवद्गीता, श्लोक ९, अध्याय २, सांख्य योग

आचार्य: बोले, ‘युद्ध नहीं करूँगा, स्थिति नहीं है युद्ध करने की। दुखी बहुत हूँ, अपने ही हठ के कारण दुखी हूँ और चूँकि दुखी हूँ इसीलिए हठ को और पकड़ कर रखूँगा।‘ यह हर शोकाकुल व्यक्ति की कहानी होती है। ‘दुखी बहुत हूँ, ठीक है! और अपने हठ के कारण ही दुखी हूँ और चूँकि बहुत दुखी हूँ इसीलिए हठ को और पकड़ कर रखूँगा।‘

हम जितने दुखी होते जाते हैं, उतना ज़्यादा हम उसी कारण को पकड़ते जाते हैं जिसने हमें दुखी किया। यही वजह है कि आनंद इतना विरल है, इतना अप्राप्य है, और दुःख इतना सार्वजनिक। आनंद स्वभाव है फिर भी इतना विरल क्यों? इतना अप्राप्य क्यों? और दुःख तो झूठ है फिर भी इतना व्यापक क्यों? क्योंकि दुःख में यही विशेषता है कि आप जितने दुखी होओगे आप दुःख के कारण की ओर उतना ज़्यादा बढ़ोगे। हम सोचते हैं कि जब हम दुखी होते हैं तो फिर हम प्रतिक्रिया में सुख की ओर बढ़ते हैं। नहीं, ऐसा नहीं है।

आप दुखी होते हो किसी कारण से, और जब आप दुखी हो तब वो कारण बना हुआ है। आप दुखी हुए हो क्योंकि आप दुःख के कारण की ओर बढ़े। दुःख के कारण की ओर क्यों बढ़े? दुःख पाने के लिए? नहीं, सुख पाने के लिए। आप थोड़े से दुखी थे और आपको कोई बिंदु दिख रहा था जहाँ आपको लग रहा था कि सुख मिलेगा तो आप उसकी ओर बढ़े। जो बात आपको लग रही थी वो बिलकुल उल्टी थी। आप उसकी ओर बढ़े तो आपको और क्या मिल गया? दुःख। आपका दुःख बढ़ गया।

जब आप कम दुखी थे तब आप थोड़ी गति से उस कारण की ओर बढ़े थे, वो कारण जो वादा कर रहा था कि सुख देगा। जब उस कारण की ओर बढ़कर आप और दुखी हो गए तो आप कितनी गति से उस कारण की ओर बढ़ोगे? आप और ज़्यादा गति से बढ़ोगे। और अब आप और दुखी हो जाओगे तो आप दुःख देने वाले कारण की ओर, और त्वरा से बढ़ोगे। दुखी व्यक्ति दुःख का इलाज ठीक वहीं ढूँढ़ता है जहाँ से दुःख आया है। इसीलिए दुःख लगभग अमर है। अन्यथा तो आनंद स्वभाव है, दुःख क्षणभर में मिट जाना चाहिए था, मिटता नहीं।

आप दुखी आदमी से उसका दुःख छुड़वा कर दिखा दीजिए। वह नहीं छोड़ेगा। यह दुनिया के कठिनतम कामों में से एक है, दुखी आदमी से उसका दुःख छुड़वाना। वो दुःख को मुट्ठी भींच कर पकड़ता है। वह अपने दुःख का इलाज स्वयं करना चाहता है, जैसे कोई अंधा अपनी आँखों की सर्जरी स्वयं करना चाहे। और दुःख जितना बढ़ता जाता है उतना ज़्यादा उसकी सोचने-समझने की शक्ति घटती जाती है। वह और अंधे तरीके से, और तेज़ गति के साथ दुःखदायक बिंदु की ओर, स्रोत की ओर, बढ़ता है।

अर्जुन शोक में हैं और जो उन्हें शोक से मुक्ति दिला सकते हैं वो अभी अर्जुन को बहुत भा नहीं रहे। उनकी बातों का अनुकरण करने को अर्जुन का मन सहज ही प्रस्तुत नहीं हो रहा। किसी का भी मन सत्य की तरफ़ सहज प्रस्तुत नहीं होता। तब चाहिए होता है अनुशासन। अनुशासन के अलावा, अध्यात्म में कहा जा सकता है कि, किसी भी बात का कोई महत्व है ही नहीं। मन का काम है सदैव ग़लत दिशा भागना, सत्य के विपरीत भागना। अनुशासन का अर्थ है मन को बाँधकर रखना, सही दिशा में उसे खींच-खींच कर लाना। इसके अलावा अध्यात्म माने क्या, कुछ नहीं।

तो अर्जुन शोकाकुल होकर मौन हो गए हैं, बैठ गए हैं कि ‘मैं तो नहीं लड़ूँगा’। थोड़ी देर पहले हमने कृष्ण की भाव-भंगिमा की बात करी थी। हमने कहा था कि संजय उस विषय में कुछ कह नहीं रहे, पर एकदम स्पष्ट है कि कृष्ण अभी किस भाव से देख रहे हैं अर्जुन को, कि उनकी आँखें हँस भी रही हैं और करूण भी हैं। फिर दो ही श्लोकों बाद, कृष्ण की स्थिति का थोड़ा-सा वर्णन संजय कर देते हैं —

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत । सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥१०॥

“हे राजा धृतराष्ट्र! तब श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में अत्यंत दुःखी अर्जुन से मानो हँसते हुए कहा।“

~ श्रीमद्भगवद्गीता, श्लोक १०, अध्याय २, सांख्य योग

आचार्य: ये बड़ी विशेष हँसी है, बड़ी विशेष हँसी। शोक को देखकर हँस रहे हैं कृष्ण और शोक का निदान भी करेंगे, उपचार भी करेंगे। दया और करुणा में यही अंतर होता है। दया, शोक को देखकर शोकाकुल हो जाती है, करुणा शोक को देखकर हँसती है। दया शोक का उपचार नहीं कर पाती, दया बस शोक को सह-अनुभूत कर पाती है। तुम्हें शोक की अनुभूति हो रही है, उसी शोक की अनुभूति मुझे भी होने लग जाएगी – इसी को दया कहते हैं, पर उपचार कहीं नहीं हो गया इसमें। हाँ, तुम्हें जो बीमारी थी वो संक्रमण मुझे भी लग गया, सहानुभूति हो गई, सह-अनुभुति। तुम्हें दुःख की अनुभूति हो रही थी, मुझे भी होने लग गई। इससे उपचार किसका हुआ? तुम्हारा नहीं, मेरा तो बिलकुल ही नहीं।

करुणा चीज़ दूसरी है। करुणा शोक को देखकर हँसती है, ठीक वैसे, जैसे कृष्ण यहाँ अर्जुन को देखकर हँस दिए। और करुणा चूँकि शोक को देखकर हँसती है, इसीलिए वो फिर गीता प्रस्फुटित कर पाती है। फिर वो शोक का उपचार भी कर पाती है। मैं आपसे नहीं कह रहा हूँ कि कोई दुखी हो, रो रहा हो, आप ठहाका मारने लगें उसके सामने। यहाँ पर हँसने का मतलब है दुःख को गंभीरता से ना लेना। मनुष्य की वृत्ति को, मन की माया को, बहुत गंभीरता, बहुत महत्व ना देना।

‘हाँ, तुम शोकाकुल हो मुझे पता है पर तुम्हारे शोक के पीछे अज्ञान मात्र है। मैं उसे गंभीरता से कैसे ले सकता हूँ? तुम्हारा शोक वैसा ही है जैसे कोई छोटा बच्चा खंभे को देखकर के डर जाए और रोने लगे कि राक्षस खड़ा है। क्या मैं भी उस छोटे बच्चे के साथ रोना शुरू कर दूँ? मैं कैसे रो सकता हूँ? मैं तो जानता हूँ न कहीं कोई राक्षस नहीं है। तुम व्यर्थ ही शोकग्रस्त हो।‘ तो कृष्ण हँस देते हैं। वे इस शोक का यथार्थ जानते हैं।

श्री भगवानुवाच। अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे । गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ।।११।।

“परम भगवान ने कहा – तुम शोक के अयोग्य लोगों के लिए शोक कर रहे हो और पंडितों की तरह वाक्य बोल रहे हो। ज्ञानी लोग मृत और जीवित लोगों के लिए शोक नहीं करते।“

~श्रीमद्भगवद्गीता, श्लोक ११, अध्याय २, सांख्य योग

आचार्य: ‘तुम शोक के अयोग्य लोगों के लिए शोक कर रहे हो अर्जुन और पंडितों की तरह बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हो। अरे! अगर तुम ज्ञानी होते तो तुम जानते कि मृत और जीवित लोगों में से किसी के लिए भी शोक नहीं किया जाता।‘ सबसे पहले तो तुम यह समझो कि तुम अज्ञानी हो, बेकार प्रवचन इतना ना बताओ। देखो, समझो। शोक में भी अहंकार होता है, दुःख में भी अहंकार होता है। आप दुखी होते हो किसी कारण से। आपने इतना तो मान लिया न कि आपने जो कारण पकड़ा है वो दुखी होने के लिए पर्याप्त है। क्या आपके पास जो कारण है वो वैध है? आप अपना आत्मविश्वास देख रहे हैं?

जो जिज्ञासु होगा, जिसमें शिष्यत्व होगा, जो साधक होगा, वो दुखी हो ही नहीं पाएगा क्योंकि दुखी होने के लिए बड़ा आत्मविश्वास चाहिए। उदाहरण के लिए, यह (पेन) कोई चीज़ है, ये खो गई और मैं बहुत दुखी हो जाऊँ। तो मेरे इस दुःख में एक मान्यता बैठी हुई है पहले। क्या है मान्यता? कि इस चीज़ का इतना महत्व था कि इसके ना रहने पर मैं दुखी हो जाऊँ। तो दुखी होना भी बड़े अहंकार की बात है। दुःख में पंडिताई छुपी हुई है। बड़े ज्ञानी हो, तुम्हें तो पता है कि फलानी घटना दुःख की है। बड़े ज्ञानी हो, तुम्हें तो पता है कि फलानी घटना सुख की है। तुम्हें कैसे पता, फलानी घटना सुख की है ही? तुम कैसे जानते हो कि फलानी स्थिति में तुम्हारे साथ कुछ बुरा हो गया, तुम्हें अच्छे-बुरे का क्या ज्ञान है बताओ? तुम्हें ज्ञान कुछ नहीं पर तुम मानते हो कि तुम्हें ज्ञान बहुत है। वही ज्ञान तुम्हें सुख-दुःख का झूला झुला रहा है। तो इसीलिए कृष्ण व्यंग्य करते हैं और कहते हैं, ‘क्या पंडित बने बैठे हो अर्जुन, इतने ज्ञानी हो!’

‘अपने शोक को देखो, शोक के लिए तो बड़ा आत्मविश्वास चाहिए। तुम्हें इतना निश्चय आ कहाँ से गया? क्योंकि इतना निश्चित तो सिर्फ़ सत्य होता है। जो अटल है, जो नित्य है, जो अपरिवर्तनीय है उस पर ही पूर्ण विश्वास किया जा सकता है। क्या वाकई तुम सत्य के संपर्क में हो अर्जुन कि तुम्हें इतना विश्वास है? तुम्हारा शोक जितना प्रबल है उतनी प्रबल तो सिर्फ़ सत्य के प्रति निष्ठा ही हो सकती है। तुम्हारे शोक में इतनी प्रबलता आ कहाँ से गई अर्जुन, ये तुम झूठा विश्वास कैसे पाल कर बैठ गए?’

‘तुम शोक के अयोग्य लोगों के लिए शोक कर रहे हो, शोक के योग्य कोई भी नहीं।‘ यहाँ पर कह रहे हैं कि शोक के अयोग्य लोगों के लिए शोक कर रहे हो। इससे ये भाव पैदा हो सकता है कि कुछ लोग होते हैं जो शोक के योग्य होते हैं। उस भाव का खंडन कृष्ण ज़रा-सा आगे चलकर ही कर देते हैं। कहते हैं ‘ज्ञानी लोग मृत और जीवित लोगों के लिए शोक नहीं करते।‘ कोई नहीं है जिसके लिए शोक किया जाए, शोक का अधिकारी कोई नहीं। झूठ है नहीं, सत्य मरता नहीं, तुम शोक किसके लिए कर रहे हो?

और शोक करने के लिए तो बड़ा समय, बड़ी ऊर्जा चाहिए। जो ऊर्जा सत्य के अनुगमन में लगानी चाहिए थी, तुमने शोक में लगा दी। तुम्हारे पास इस क्षण में कोई कर्तव्य नहीं? तुम्हारे पास करने के लिए कोई काम नहीं, लड़ने के लिए कोई युद्ध नहीं? तुमने इतनी फुर्सत, इतनी गुंजाइश निकाल कहाँ से ली? इतना अवकाश तुमने चुरा कहाँ से लिया कि तुम रथ में पीछे बैठकर, माथे पर हाथ रख कर शोक करो। जीवन तो कर्तव्य-पूर्ति की एक सतत धारा है। उसमें हँसने-रोने के लिए कहाँ से अतंराल मिल गया? बताओ!

शोक की यदि कोई बात हो सकती है तो यही कि शोक मनाना नहीं था, तुमने मना लिया। और शोक मना करके तुमने अपना अवसर गँवा दिया। जीवन आपसे अवसर सिर्फ़ ऐसे ही नहीं छीनता कि आप राग-रंग में डूबे रह गए, आमोद-प्रमोद में बह गए बिलकुल। जीवन जो एक स्वर्णिम अवसर है, वो आपसे ऐसे भी छीनता है कि आप भयग्रस्त या शोकग्रस्त रह गए।

कोई बड़े राग-रंग में डूबा हो और कोई बड़े दुःख-दर्द में डूबा हो, इन दोनों ही व्यक्तियों में एक बात साझी होगी — ये निष्ठापूर्वक अपनी कर्तव्य पूर्ति तो नहीं ही कर रहे होंगे। एक को मज़े से फ़ुर्सत नहीं और दूसरे को आँसुओं से फ़ुर्सत नहीं। एक की हँसी नहीं रुक रही, एक के आँसू नहीं थम रहे। सही कर्म दोनों में से करे तो कौन करे, कैसे करे? दोनों को ही अपने भाव, अपना चित्त, अपना विश्वास ज़्यादा प्यारा है।

ज्ञानी लोग शोक नहीं किया करते, ना उनके लिए जो चले गए, ना उनके लिए जो हैं, ना उनके लिए जो आएँगे। जो ज्ञानी है वो भलीभाँति अपने विषय में ज्ञान रखता है। वो जानता है वो कौन है। वो भलीभाँति जानता है कि उसके पास ज़रा-सा समय है और उस समय का उसे सदुपयोग करना है। समय को किसी भी अन्य भाव में, अन्य प्रयोजन में नहीं निकाल सकता। सारे उपक्रम उसके लिए व्यर्थ और त्याज्य हो जाते हैं। उसे बस एक काम करना है, उसे कृष्ण की ओर बढ़ना है। उसे कृष्ण के पीछे-पीछे, कृष्ण की ओर बढ़ना है।

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