अपनी बेसब्री की वजह जानते हो? || आचार्य प्रशांत,संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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अपनी बेसब्री की वजह जानते हो? || आचार्य प्रशांत,संत कबीर पर (2014)

कांच कथीर अधीर नर, जतन करत हैं भंग।साधु कंचन ताइए, चढ़े सवाया रंग।।– संत कबीर

वक्ता: कांच है या कथीर- जो रांगा है, और अधीर नर- जिसमें धैर्य कम है — ये भंग हो जाते हैं जल्दी। और वही स्थितियाँ, वही ताप, वही परीक्षाएं जो इन्हें भंग कर देती हैं, जब साधु और सोने को मिलती हैं तो वो और निखर जाते हैं। सोना कंचन बन जाता है, और साधु संत बन जाता है।

अंग्रेज़ी में एक कहावत भी है जिसे हिंदी में इस तरह से बोलेंगे कि, ‘वही हवाएं जो एक जहाज़ को डुबो देती हैं, वो दूसरे जहाज़ को दिशा दे देती हैं’। तो तुम्हारा क्या हो रहा है, ये हवाओं पर नहीं बल्कि इस बात पर निर्भर करता है कि तुम्हारा पाल कैसे तना हुआ है।

दुर्जन वही, जो उसको पकड़ ले जिसका जाना पक्का है। दुर्जन की क्या परिभाषा है? दुर्जन वही है जो भोर के तारे को सूरज समझ ले। जिसने भोर के तारे को सूरज समझा, उसका क्या होगा? भोर के तारे को तो जाना है, अब उस आदमी का क्या होगा? उसका तो सूरज ही चला गया, क्या होगा उसका?

वो टूटेगा।

दुर्जन कौन?जो संसार को ही आख़िरी सत्य मान ले।

वो टूटेगा, उसका टूटना पक्का है, क्योंकि तुमने जिस चीज़ को पकड़ा है वो चीज़ तो जायेगी ही। तुमने जहाँ घर बनाया है, वो एक दलदल है, वो घर डूब के रहेगा, और हर घर दलदल पर ही बनता है। कोई घर ऐसा नहीं जो डूब के न रहता हो।

दुर्जन कौन है? दुर्जन वो जो खुद तैयार कर रहा है अपनेआप को धक्का खाने के लिए, चोट पाने के लिए। “मैंने खूब जोड़ लिया अपनेआप को अपने पति से”, अब इसने पूरी तैयारी कर ली है धक्का खाने की। इसकी पूरी दुनिया क्या है? इसका पति। इतनी ज़ोर की दरार लगेगी क्योंकि पति तो जाएगा, और जाने का अर्थ सिर्फ़ यही नहीं है कि मर जाएगा — देहावसान। पति माने पति की छवि, और वो टूटेगी, क्योंकि हर छवि को टूटना ही है — *“*एकही धक्का दरार”।

अधीरजन, दुर्जन ये सब कौन हैं? ये वो हैं जिन्होंने ऐसे से नाता बना लिया है जो हवा-हवाई हैं, जिनका जाना पक्का है।

जिसका जाना पक्का है तुमने उसके साथ ही सब जोड़ दिया तो तुम टूटोगे।

साधु जन कौन है? साधु जन वो है जिसने वहाँ घर बनाया है जहाँ आने-जाने का कोई सवाल नहीं पैदा होता। तुम उसका घर उजाड़ ही नहीं सकते। तुम जितनी बार उसका घर उजाड़ोगे उतनी बार तुम पाओगे कि वो बना ही रखा है, वैसे ही जैसे पानी पर लाठी मारी हो। तुम समुद्र पर लाठियाँ मारोगे तो क्या होगा? कुछ भी नहीं, मारते रहो वो टूटेगा नहीं। “हम वहाँ रहते हैं जहाँ हमारे घर को कोई छू नहीं सकता, खराब नहीं कर सकता।” तुम नहीं भेज पाओगे, कि जा करके इसका घर गिरा दो।

अगर तुम जुड गए हो ईंट-पत्थर के घर से, तो ये घर तो गिरेगा, पक्का गिरेगा। और खूब दुःख पाओगे। तुमने अपने दुःख की पूरी तैयारी कर ली है।

अन्तर समझ में आ रहा है?

साधु को दुःख क्यों नहीं मिलेगा? क्योंकि वो नित्य में वास करता है। क्योंकि वो उससे जुड़ा हुआ है जिसको संसार स्पर्श भी नहीं कर सकता।

जब कुरान पढ़ रहे थे तो याद है न उसमें क्या बात आई थी? — “तुम मुझसे हो, मैं तुमसे नहीं।”

उजाड़ दो, पूरी दुनिया उजाड़ दो, पर उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा। तो जो उसके पास रहता है, तुम उसका क्या बिगाड़ सकते हो? लेकिन जो दुनिया में ही घर बसाए है, उसका तो हश्र पता ही है क्या होना है। बात आ रही है समझ में?

एक का टूटना पक्का है, और दूसरा कभी टूट सकता ही नहीं।

श्रोता: सर, ये जो कहा गया है कि ‘साधु जन टूट जुड़े सौ बार’। सर जब उसके पास टूटने के लिए कुछ है ही नहीं तो क्या जुड़ेगा?

वक्ता: “सौ बार जुड़ रहा है” — इसका अर्थ क्या है? कि टूटा ही नहीं! तोड़ने वाले को ‘प्रतीत’ ज़रूर होगा कि हम तोड़ आए, पर वहाँ तो कुछ टूटा ही नहीं। जैसे तुम आसमान पर गोलियाँ चलाओ और मिसाइलें दागो; क्या कर रहें हैं हम? आसमान को बर्बाद करके मानेंगे। आज आकाश की खैर नहीं, और धरती भर के जितने बम और मिसाइल हैं सब तुमने आकाश में दाग दिए। अपनी ओर से तो तुमने बड़ा काम कर दिया पर आकाश का क्या बिगड़ा? या कुछ बिगड़ गया? साधु बिलकुल वैसा ही होता है कि तुम दाग लो जितना दागना है, वहाँ टूटने के लिए कुछ है ही नहीं। आकाश के पास क्या है जिसे तुम तोड़ सकते हो।

श्रोता: टूटने का अर्थ यहाँ शायद परिस्थितियों से है।

वक्ता: हाँ, बिलकुल। साधु भी एक झोपड़ी में ही रहता है न। तुम उसका झोपड़ा तोड़ दोगे तो तुम्हें क्या लगेगा? — कि हमने तोड़ दिया। पर अगले क्षण तुम उसे फिर हँसता हुआ पाओगे। यही अर्थ है इस बात का — “टूट जुड़े सौ बार”। परिस्थितियाँ तो जो कर सकती हैं वो करेंगी ही। साधु को बीमार कर सकती हैं, जो उसके पास पचास-सौ रूपय हैं, तुम वो भी लूट सकते हो। उसको सज़ा दे सकते हो। वो बुढ़ा भी रहा होगा, कमज़ोर होगा, ये सब काम होंगे। वो कहीं जा रहा हो और तुम रास्ते में खड़े होकर दो-चार झांपड़ मार कर उसको वापस भेज सकते हो। तुम कर सकते हो यह सब कुछ। वो खाना खा रहा हो तो तुम उसका खाना उठा कर फ़ेंक सकते हो। बिलकुल कर सकते हो क्यों नहीं कर सकते। तो तोड़ने के सारे तरीकेतुम अपनी तरफ़ से तो कर ही सकते हो। पर हर ऐसी चेष्ठा के बाद तुम पाओगे क्या? कि- “टूट जुड़े सौ बार”। जितनी बार तोड़ोगे उतनी बार पाओगे कि वो फिर खड़ा हो गया।

मेरे घर में एक खिलौना हुआ करता था। उसकी नाक पर लिखा हुआ था: ‘मारो मुझे(हिट मी)’, और उसका जो पिछवाड़ा था, वो बहुत भारी था। और वो कुछ ऊँचा भी था। तो उसको जितनी बार मारो, वो गिरता था और फिर खड़ा भी हो जाता था। तो कुछ देर तक तो उसके साथ खेलना अच्छा लगता था, फ़िर चिढ़ आती थी। तो उसका एक ही तरीका था कि उसको गिरा कर उसके ऊपर तकिया रख दो। पर जब तकिया हटेगा तो वो फिर खड़ा हो जाएगा।

“टूट जुड़े सौ बार” — ऐसा होता है साधु।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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