अपनी आदतों के सिवा मैं कुछ और नहीं || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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अपनी आदतों के सिवा मैं कुछ और नहीं || आचार्य प्रशांत (2013)

वक्ता: मन का ये बड़ा ही शातिर खेल होता है कि जिस भी चीज़ से उसे डर लगता है, वो उसे इमप्रैक्टिकल लेबल कर देता है और फिर कहता है कि, ‘’ये कार्य किया नहीं जा सकता क्योंकि ये इमप्रैक्टिकल है’’ कार्य इमप्रैक्टिकल है या तुमने उसे ऐसा लेबल दे दिया? कि आया था पहले?

श्रोतागण: लेबल।

वक्ता: पहले आप किसी चीज़ कोइमप्रैक्टिकल कहो और फिर कह दो कि ये किया नहीं जा सकता।

श्रोता१: वो बुरे आदमी है।

वक्ता: तुम उसके पास क्यूँ नहीं जाते? ‘’क्यूँकी वो बुरा आदमी है,’’ अब ये तुमने उसे लेबल दिया है या वो सच में बुरा है।

श्रोतागण: लेबल।

श्रोता२: सर, हम अपने आदतों को छोड़ना नहीं चाहते क्यूँकी हमें डर लगता है और फिर हम कहते हैं कि डर हटाओ। ये समझ नहीं आता।

वक्ता: आदतें जानते हो आप, जो कुछ भी जानकारी के दायरे में आता है, अतीत से आता है, जो भी आप जानते हो और बार-बार करना चाहते हो, जो बार-बार दोहराना चाहते हो, जिसमें मन को सुरक्षा की भावना मिलती है – वो आदत है। मन कहता है, ‘’मैं एक राह पर चल रहा था पिछले 20 सालों से और मेरा कुछ ख़ास बिगड़ नहीं गया , तो अब मैं इसी राह पर और 20 साल चल लेता हूँ। जब आज तक नहीं कुछ हुआ तो अब क्या होगा’’ – यही आदत है। और मैं हूँ कौन? उस राह पर चलने वाला। तो ये राही मर जाएगा अगर?

श्रोता२: राह बदल गई।

वक्ता: अगर उसकी राह बदल जाए। तो आदत तो हमेशा बढ़ते ही रहना चाहेगी क्यूँकी अब आदत आपकी पहचान बन गयी है। मैं कौन हूँ? उस राह पर चलने वाला। और ये राही मर जाएगा अगर इसकी राह बदल दी गई तो।

श्रोता२: सर, क्या हम ये कह सकते हैं कि अगर कोई हमसे पूछे कि, ‘कौन हो तुम’ तो हम ये जवाब दे सकते हैं कि, ‘’मैं आदतों का समूह हूँ।‘’

वक्ता: हाँ, ये बढ़िया तरीका है इसको कहने का।

श्रोता३: वो है न, एक तरीके का आर्डर रेस्टोरेंट में, एक तरह के कपड़े।

वक्ता: “तो मैं कौन हूँ? वो जो इस भाषा का उपयोग करता है, वो जो रेस्टोरेंट में ये सब ऑर्डर करता है। अगर मैंने जो ऑर्डर किया है, वो बदल गया तो मैं मर जाऊँगा। पर ये होने नहीं देना चाहता। मुझे अपनी सुरक्षा की परवाह है।’’ इसीलिए उसने कहा कि ‘’आदत और डर एक साथ जाते हैं।‘’

श्रोता१: आपने फेसबुक पर एक स्टेटस डाला हुआ था ‘नथिंग विल हैपन, इफ यू ट्राय।’ उस पर अनंत का एक क्वेश्चन आया था कि, “कृपया समझाएं?” तो उसमें यही था एक ज़वाब कि, ‘अनंत के लिए अनंत के होने का मतलब है ओरेटर, अच्छा बच्चा आदि और एक ओरेटर कभी काऊ नहीं बन सकता।

वक्ता: जब काऊ आता है, तब ओरेटर मर जाता है लेकिन ओरेटर मरना चाहता नहीं। बस यही फ़र्क है अहंकार और आत्मा में। अहंकार कभी मरना नहीं चाहता और आत्मा के लिए जीवन-मरण जैसा कुछ होता नहीं। अहंकार के लिए हर पल मौत का खतरा है, और वो मरना नहीं चाहता ,जबकि आत्मा के लिए जीना-मरना का कोइ खतरा ही नहीं क्योंकि वो मर ही नहीं सकती।

श्रोता३: सर, हम ये लेबल कैसे लगाते हैं?

वक्ता: नज़दीक न जाकर। जब आप किसी के असल में नज़दीक जाते हैं, तो फिर लेबल करने की आवश्यकता ही नहीं होती। ये लेबल करना स्मृति के लिए होता है। अगर मैं तुम्हें लेबल कर दूँ कि तुम ख़राब हो, तो क्या मैंने उस शब्द का अविष्कार किया है?

श्रोता२: वो पहले से ही मन में था।

वक्ता: वो पहले से ही मेरे मन में एक ख़ास छवि लिए हुए था। तो अब अगर मैं कुछ भी समझने में मेहनत नहीं करना चाहता हूँ , तो मैं क्या करूँगा ? मैं अतीत में से कुछ उठाकर आगे रख़ दूँगा। तमो गुण यही है, “मेहनत कौन करे, लेबल लगा दो न। ‘’आह! बंदी है यह क्या काम करेगी?’’ लेबल लगा दो। मेहनत कौन करे जानने की कि कर भी सकती है या नहीं, ये मेहनत कौन करे! ‘’यार, ये तो इस कॉलेज का है, इसे क्या ये बात समझ में आएगी? मेहनत कौन करे जानने की, लेबल लगा दो; ये इस कॉलेज का है।” तो लेबल करना अच्छा बहाना होता है न समझने का।

श्रोता१: और ये तब और ख़तरनाक बन जाता है जब आप दूसरों को नहीं, खुद को ही लेबल करना शुरू कर दें।

वक्ता: तो साल में यही सम्बन्ध है आदतों और प्रेम का। जहाँ प्रेम है, वहाँ लेबल नहीं कर सकते। और हर एक रिश्ता लेबल ही होता है। प्रेम में आप सारी हदें पार कर जाते हो। आदतों में सिर्फ़ हदें होती हैं; हमारे सारे रिश्ते आदत मात्र हैं बस।

श्रोता४: सर, अभी तो हमें अटेंटिव होने की आदत बनानी होगी।

वक्ता: ये वर्ड प्ले है यहाँ पर, अटेंटिव आदत नहीं, अटेंटिव होना आदत नहीं हो सकती। ये वैसी ही बात है कि तुम कहो कि “*स्क्वायर सर्किल।*”

अटेंशन तो आदत को नष्ट कर देता है, अटेंशन की आदत नहीं डाली जाती, होश की कोई आदत नहीं होती।

श्रोता४: शुरुआत में तो मुझे ये आदत बने होगी न कि मैं कोई आदत नहीं बनाऊंगा?

वक्ता: इसको आदत कहना नहीं चाहिए, ये होश है। ये ढर्रा नहीं, ये होश है।

श्रोता४: होश होता तो निरंतर होता न।

वक्ता: देखो, अगर तुम इसको आदत कहोगे न, एक आदत कभी दूसरी आदत को काटती नहीं है, सिर्फ़ नाम बदल देती है, उसका, तरीका बदल देती है। तुम मुझे उदाहरण दो कि कैसे एक आदत दूसरी आदत को काट सकती है, वो सिर्फ उसका तरीका बदल देगी। “मैं देर से सो के उठता था” आदत, “मैं जल्दी सो के उठने लगा” एक और आदत; अभी भी सिर्फ़ नाम बदला है। एक गुड एक बैड दिखने में लग रहा है, पर अभी भी वही पुराना काम चल रहा है।

श्रोता५: हो सकती है, अगर एक बंदा है, वो एक ही बेंच पर आ के हमेशा, एक ही इंसान के साथ बैठता है रोज़ाना। अब वो इस बात का पैटर्न या आदत बना ले कि “हर दिन अब मैं अलग सीट पर अलग इन्सान के साथ ही बैठूँगा।”

वक्ता: उसको ये याद रखना पड़ेगा।

श्रोता५: नहीं, मगर याद रखना पड़ेगा, वो तो हल्का सा लगेगा।

वक्ता: आदत हमेशा पुराने को कायम रखता है, तुम्हारी कुछ नया करने की आदत नहीं बन सकती। जो नया होगा, उसमें कुछ भी पुराना नहीं होगा। मैं तुम्हें यकींन दिला रहा हूँ, तुम ये आदत नहीं बना सकते कि, ‘’मैं रोज एक नये बन्दे के साथ बैठूँगा।‘’

श्रोता: नहीं, उस पर फ़ोर्स करना पड़ेगा आप को।

वक्ता: फ़ोर्स भी कर लो, तो भी नहीं बनेगी। मैं बताऊँ क्या होगा? एक बार, दो बार, किसी के साथ बैठेगा नए के साथ, जो पसंद आ गया उसके साथ चिपक जाएगा फिर से, जो पसंद आ गया, नयों में, उसके साथ चिपक जाएगा। नया कभी आदत का हिस्सा नहीं हो सकता, तुम जिसकी बात कर रहे हो, उसको होश बोलो आदत नहीं। मैं समझ रहा हूँ क्या है, पर वो होश है, आदत नहीं है।

श्रोता५: पर आपका मन बहुत कर रहा है मगर आपने कुछ ऐसा कर लिया, आपने फ़ोन पर स्क्रीन सेवर ऐसा लगा लिया या किसी ऐसे को अपॉइंट कर दिया कि “तू मेरे को रिमाइंड कराएगा।”

वक्ता: वो स्क्रीन सेवर आदत नहीं है, वो होश जगा रहा है, वो होश जगा रहा है।

आदत का अर्थ है: सोए रहना, होश का अर्थ है जगना।

देखो प्रक्रिया क्या हुई है? जब तुमने स्क्रीन सेवर लगाया था, तुम तब भी जगे हुए थे, जब स्क्रीन सेवर देखा तब फिर से जग गए, इन दोनों के बीच में जो था, वो आदत थी। दो ही घटनाए हुई हैं ना; स्क्रीन सेवर लगाया और फिर कभी स्क्रीन सेवर देखा, ये दोनों ही काम जाग्रति में हैं, इनके बीच में जो है, वो आदत है। ये दोनों आदत से बाहर हैं, ये दोनों आदत से बाहर हैं।

ऐसे समझ लो जैसे एक गिलास में पानी भरा हुआ है, इस तरफ़ भी पानी है और इस सिरे पर भी पानी है, पर गिलास के दोनों सिरे पानी से बाहर हैं। बीच में आदत घुसी हुई है, पर यह जो हो रहा है, यह आदत का हिस्सा नहीं है। अच्छी आदतें वाकई नहीं होती हैं, आदत ही बुरी है।

श्रोता६: सर, जैसे बतया जाता है थोड़ा कम्फर्ट रहो, अपनेआप को टाइम दो और इवन मेडिटेट करो। मैडीटेशन भी तो हम लोग पहले आदत की तरह शुरू करते हैं, फिर धीरे-धीरे रोज़ाना करने लगते हैं।

वक्ता: वही बात यहाँ भी लागू हो रही है न, जिस क्षण पर फैसला किया कि मैडिटेशन अच्छा है, क्या वो एक आदत का क्षण था? क्या उससे पहले भी मेडिटेट करते थे? कुछ नया घट रहा है न जीवन में कि, “आज मैंने क्या फैसला किया?” तो ये एक आदत तो नहीं थी, ये एक नया होशमंद क्षण है, ठीक। फिर एक क्षण मैडिटेशन का भी आया, वहाँ पर आदत कंटिन्यू हो रही है क्या?

श्रोता५: एफर्ट तो है न, मैडिटेशन में जैसे एक घंटा अपने लिए निकाला, उस मैडिटेशन के प्रोसेस में जो होगा वो नया होगा, लेकिन ये जो बैठना है बाक़ी चीज़ों को छोड़ के कि, “मुझे अभी बैठना है” ये एक आदत होंगी न?

श्रोता५: जो मैडिटेशन में होगा वो नया होगा, उस पर मेरा हक नहीं है, वो अधिकार नहीं है पर उस प्रोसेस में बैठने के लिए कि इतनी सारी चीज़ों को छोड़ के, सेल्फ़ डिसिप्लिन ही कह लीजिए शुरुआत के लिए; हाँ बाद में वो आदत अपनेआप अंडरस्टैंडिंग से आएगी, पर स्टार्ट में तो मुझे आदत बनानी पड़ेगी।

वक्ता: तुम समझो न उस बात को, जब तुम कह रहे हो, “मैं बैठ रहा हूँ” जिस क्षण में याद आता है कि अब बैठना है।

श्रोता५: नहीं, अभी नहीं याद आ रहा मुझे।

वक्ता: तो फिर कैसे बैठ गए?

श्रोता५: मैंने एक टाइम सेट कर दिया। टाइम सेट किया, अलार्म लगाया।

वक्ता: ठीक है, तो कैसे बैठ गए?

श्रोता५: अभी तो फ़ोर्स कर के ही बैठा हूँ।

वक्ता: फ़ोर्स कैसे कर दिया?

श्रोता१: कुछ काम साइड में कर दिया।

वक्ता: कैसे कर दोगे?

श्रोता५: हो सकता है, उस समय तो होश है पहले टाइम जब आए थे।

वक्ता: अभी काम साइड में कब करा?

श्रोता५: अभी।

वक्ता: अभी कैसे करा? अभी कैसे करा? तुम कुछ कर रहे थे, वो सब अचानक साइड में कर के मैडिटेशन में कैसे बैठ गये?

श्रोता५: वो अलार्म क्लॉक था जो मुझे याद दिला रहा है।

वक्ता: उस अलार्म क्लॉक ने क्या करा?

श्रोता५: मुझे होश में लाया।

वक्ता: बस, वही ज़रूरी है न।

श्रोता५: अब ये रोज़ अलार्म क्लॉक सेट करना है मुझे।

वक्ता: जब सेट कर रहे हो, वो मोमेंट कैसा है?

श्रोता५: होश में।

वक्ता: तो जो भी इम्पोर्टेन्ट है, वो किस में हो रहा है?

श्रोता५: होश में ही हो रहा है।

वक्ता: अलार्म क्लॉक सेट करना भी होश में है और मैडिटेशन भी होश में है। तो असली तो यही है न।

श्रोता५: वही कह रहा हूँ मैं, आदत तो होंगी। लेकिन एक आदत जो होश में की जा रही है और एक बेहोशी में की जा रही है।

वक्ता: बेहोशी में कैसे सेट करोगे?

श्रोता५: बेहोशी में आदत है कि “मैं रोज़ सुबह मुझे पेट क्लियर करने के लिए चाय पीना है।”

वक्ता: रोज़ तुम्हें यह आदत हो सकती है पर होश की आदत कैसे डालोगे?

श्रोता५: फैसिलिटेट करूँगा कि होश उस समय आ सके।

श्रोता२: अलार्म लाया है वहाँ तक मुझे।

वक्ता: अलार्म सेट कैसे किया?

श्रोता२: वो होश में किया था, और उस सिचुएशन के लिए किया था व्हेन आई एम् स्लिपिंग।

वक्ता: व्हेन यू आर स्लिपिंग , राईट? ठीक है। असली काम क्या था? उसको सेट करना?

श्रोता२: सारा प्रॉब्लम तो इस प्लेटफार्म से इस प्लेटफार्म पर आने का था न। जिसमें अलार्म ने वो काम किया जब मैं सोया हुआ था।

वक्ता: वो अलार्म किसने सेट करा?

श्रोता२: वो मैंने ही करा था।

वक्ता: तुमने होश में करा था?

श्रोता२: बस वही काफ़ी है।

वक्ता: पर ऐसी स्टेट के लिए किया था जो कि आएगी, आदत है। जो आएगी, आदत है। ये पक्का आदत है उसको रहने दो, तुम अपने होश में अलार्म सेट करते चलो। फोकस इस पर करो।

श्रोता३: अलार्म सेट करना भी तो एक आदत ही है न।

वक्ता: आप आदत में अलार्म नहीं सेट कर पाओगे न। आप आदत में अलार्म कैसे सेट कर पाओगे? आप नाच गा रहे हो, रात के दो बज गया है। आपको पता है रात के ढाई बजे सोओगे और आपको सुबह पाँच बजे उठना है। क्या आप बेहोशी में नाचते-गाते अलार्म सेट कर दोगे? अचानक होश आएगा उठने का फिर अलार्म सेट करोगे, बेहोशी में अलार्म कोई नहीं सेट कर सकता।

श्रोता२: उसमें सुबह पाँच बजे अलार्म सेट नहीं हो सकता।

वक्ता: बेहोशी में नहीं अलार्म सेट कर पाओगे। देखिये जो आप कह रहे हैं वो उतना ही नामुमकिन है जितना कि ये कहना कि जागृति , नींद का हिस्सा है। जागृति कभी नींद का हिस्सा नहीं हो सकती। हाँ सोने से पहले आप ये निर्णय कर सकते हो कि आप जागोगे, पर आपकी आश्वस्ति भी सोने से पहले की ही है।आपने अलार्म क्या सोने के बाद सेट करा था? आपने अलार्म तब सेट किया था, जब जगे थे। अभी जगे हो न?

श्रोतागण: हाँ।

वक्ता: तो अभी से मतलब रखो, अलार्म लगा लो। बस इतना करो। अलार्म लगा लो अपने लिए अभी। और अलार्म अलग-अलग तरह के होते हैं; नींद वाला अलार्म तो बहुत अच्छा होता है, फिज़िकल है, कान में कुछ आवाज़ जाएगी और वो झन-झना देगी ब्रेन को, और ब्रेन तो उठाना पड़ेगा। जीवन के अलार्म तो बड़े विविध होते हैं और बड़े होश से ही निकलेंगे, पूरी टेक्नोलॉजी है वो। तो तुम्हें बहुत सोच समझ के अलार्म बनाने होंगे, बड़ा वो हुनर है। गहरे होश में ही वो अलार्म सेट हो सकता है, वही मैडिटेशन तकनीक कहलाती है, वही सारा गुरु का ज्ञान है। गुरु वही है जिसे ये अलार्म सेट करने आते हों।

श्रोता२: एक विडियो में ओशो ने एक बार कहा था कि दुनिया की सबसे बड़ी कला, सबसे बड़ा आर्ट है, अपने लिए ऐसी तकनीक डेवेलप करना कि तुम होश में दुबारा आ जाओ।

वक्ता: नो डाउट अबाउट इट।

श्रोता१: सर, ये आपने बताया कि ईगो इज़ दा कोन्टिनुएशन, वो चाहती है बने रहना आदत के साथ। सर, बट वी एस ईगो वी वांट कि हमारे आदत कम हो जाए।

वक्ता: वो कभी नहीं हो सकता। एक बार एम्.आई.टी में एक ने पूछा था “मुझे मेरी गर्लफ्रेंड कैसे वापस मिल सकती है?’’ जब तक तुम-तुम हो, तब तक ब्रेक अप के कारण वही रहेंगे। जब तक तुम, तुम हो तुम्हारी आदतें नहीं बदल सकती। पर हम क्या चाहते हैं? “हम वही रहें जो हैं, आदत से मुक्ति पा जाएं” हो नहीं सकता। आदत से मुक्ति पानी है, तो मन का पूरा ढांचा बदलना पड़ेगा। तुम वही रहो आदत, और छूट जाए ये नहीं हो पाएगा। क्योंकि तुम आदत ही हो, तुम आदत के अलावा कुछ हो नहीं। तुम्हारे तुम रहते आदत कैसे बदल जाएगी? आपको पूरा बदलना पड़ेगा, पूरा।

श्रोता१: और सर जो यहाँ पर लिखा है “द फीयर शुड कम आप इफ यू लाइक द फीयर” वो किस सेंस में कहा था?

वक्ता: आई एम् नॉट श्योर किस सेंस में बोला है।

श्रोता१: सर, लास्ट में ये कहा था न कि जब भी आप में आदत हो, तो आप इसलिए आदत नहीं छोड़ पाते..

श्रोता३: इट्स फ्लावरिंग दैन वाच इट।

वक्ता: इससे इनका मतलब है कि जब डर पूरा अभिव्यक्त हो रहा हो, ये पूरी बात हुई न। यहाँ पर फ्लावरिंग से मलतब है कि जब वो अपनेआप को व्यक्त कर रहा होता है, तो उसे देखो।

श्रोता२: दुःख के और करीब आओ।

वक्ता: डर को बिना देखे तो तुम ऐसे भी नहीं समझ पाओगे।

श्रोता४: एक चीज़ और पूछना चाहूँगा कि फियर फिजिकल भी है, और सायकोलोजिकल भी है। अलग-अलग नहीं है?

वक्ता: वो वही है कि जब तुम देखते हो..

श्रोता५: हर फियर तो सायकोलोजिकल ही है।

वक्ता: हर फियर तो मानसिक ही है, पर प्रकृति में भय का क्षणिक भी उपयोग है। वही वो कैमरा और साँप वाली बात, जब साँप सामने है तो है फियर ही वो भी पर प्रकृति ने तुम में एक सेल्फ प्रिजर्वेशन, सेल्फ से मतलब ये वाला सेल्फ (शरीर को अंगित करते हुए) बॉडी वाला सेल्फ, उसकी प्रिजर्वेशन की इंस्टिंक्ट डाली है कि यहाँ दिख गया तो खट से पाओं खींच लो, जो कि ठीक है; जब तक कि तुमने तय ही कर लिया है कि शरीर ही खत्म कर देना है।

तो ठीक है, यहाँ तक ठीक है कि शरीर को बचा लो; पर एक दूसरा है, जो मन में बैठा है जिसका शरीर से कोई लेना देना नहीं है। किसी ने सवाल पूछा था एक ज़ेन मोंक से अभी शायद सुजुकी ही थे कि, “मुझे कितना अहंकार की आवश्यकता है?” तो उनका जवाब था, “जितना तुम्ज्हें किसी बस के नीचे आने से बचा ले।” इतनी ईगो रखो कि, “भैया, बॉडी है इसको बचाना है, आई एम् दिस बॉडी बस के नीचे नहीं आ जाना है।” अगर एक दम ही ईगो लेस हो गये तो कहोगे “आई एम् नॉट दा बॉडी” और बस ही के नीचे घुस जाओगे।

तो इतना फियर रखो, इतना फियर ठीक है। हाँ, अब महानिर्वाण का फैसला कर लो, उस दिन अलग बात है पर इतना फियर रखो कि शरीर बचा रहे, बस लेकिन उतना ही उससे एक धेला भी ज़्यादा नहीं। शरीर बचा रहे इतना फियर ठीक।

श्रोता६: सर, जब लोग जल समाधि लेते हैं क्या ईगोलेस हो जाते हैं?

वक्ता: पता नहीं। (सब जोर से हँसते हैं) मैंने तो ली नहीं कभी।

श्रोता३: पर वो जो डर का क्षण होता है, वो बहुत ही क्षणिक होता है।

वक्ता: तभी जब पूर्णतया शारीरिक हो, तब नहीं जब मानसिक हो। मानसिक डर तो चलता रहता है, चलता रहता है।

वक्ता: जब डर असल में होगा तो तुम्हें एहसास भी नहीं होगा कि तुम डरे हुए होगा, तब सीधे कार्य होगा। एक शेर के सामने तुम ये जान नहीं पाओगे कि तुम डरे हुए हो, तुम सिर्फ़ *एक्शन करोगे*। तुम ये बोल भी नहीं पाओगे कि “मैं डरा हुआ हूँ।”

श्रोता२: शॉक्ड आदमी लगेगा।

वक्ता: हाँ, बाद में हो सकता है जब सब कर लो बच गये अगर, तो हो सकता है फिर शॉक से मर जाओ कि “बच कैसे गया।” अहंकार दो तरीके से काम करता है यहाँ पर: एक तो ये कि ये जो परसिस्टेंट फियर है वो तो है ही ईगो कि आपको सोच सोच के अहंकार को अपने तगड़ा कर रहे हो, दूसरा कि एक पूर्णतया फिजिकल चीज़ है अब मैं इसके ये कर दूँ (समझाने के लिए पास बैठे श्रोता के चेहरे की तरफ़ हाथ बढ़ाते हुए, जैसे मारते वक्त करते हैं) और इसकी आँख झपक जाए और ये यूँ कर ले (बचाव के लिए दोनों हाथ उठाते हुए) और फिर ये बाद में कहे कि “मैं कैसा कायर था कि मैं हट गया” ये भी अहंकार है, ये भी अहंकार है।

ये जो था ये वही था बिल्कुल कि सामने से ट्रक आ रहा है अचानक मोड़ से मुड गया वो और आपने एक शार्प कट मारा इसको फियर बोलोगे क्या? इसको फियर बोलोगे? आप जा रहे हो और इधर से एक निकल पड़ा और आप तेजी से कट मारते हो गाड़ी को तो इसको फियर बोलोगे क्या?

श्रोता३: दैत इज़ टोटली फिजिकल।

वक्ता: दैत इज़ प्युरेली फिजिकल एंड वही बात है कि..

श्रोता३: लाइक प्योर सेव ऑफ़ बॉडी..

वक्ता: हाँ, मतलब बॉडी रखनी है तो।

श्रोता५: ये हुआ भी था, शिवपुरी में जो पानी में कूदने वाला था, उस मोमेंट में नहीं हुआ जब बच गये उसके बाद पैर काँप रहे थे, बचने के बाद पैर कॉप रहे थे।

श्रोता१: उसमें एक लाइन बोलते हैं कि समथिंग अबाउट अस दैट इज़ कम्पलीट फ्रीडम हे सेय्स एस इन ही से समथिंग दैन वी शुड क्नो हाउ टू डील विथ पॉसिबल

वक्ता: इनके लिए पॉसिबल का एक ही अर्थ है ‘दा सेल्फ’ दैत इज़ दा ओनली थिंग ही विल कंसीडर एस वर्थ बिग पॉसिबल। डील विथ दा सेल्फ मतलब क्नोविंग दा सेल्फ, डील विथ दा पॉसिबल क्नोविंग दा सेल्फ।

श्रोता६: होप्स, बिलिफ्स ही सय्स दीप एगनी, सो देयर इज़ टू टाइप्स, देयर इज़ फिजिकल आदत एंड दैन देयर इज़ अनैदर दीप रूतिद हैबिट्स व्हिच होप्स एंड बिलीवस।

वक्ता: ये इन्होने बड़े पते की बात बोल दी है यहाँ पर। शरीर की जो आदत है वो तो दिख जाती है कुछ खाने की, कुछ पीने की, ये सब तो दिख जाती है पर मन की आदत नहीं दिखती है। तो कृष्णमूर्ति बड़ा सही कह रहे हैं कि उम्मीद और धारणाए मन की आदते हैं, तो उन्होंने एक लाइन खिंची है शरीर की आदतों और मन की आदतों के बीच में। समझाने के लिए ही है पर कह रहे हैं कि उम्मीद क्या है? मन की आदत है। मन यही करता है हमेशा, धारणाएं पीछे से आती हैं उम्मीद आगे की होती हैं, मन इन्हीं में जीता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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