अपने निर्णय स्वयं लेना || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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अपने निर्णय स्वयं लेना || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्न: सर, जब जीवन अपना है तो हम कोई भी निर्णय लेते समय दूसरों की मदद क्यों लेते हैं?

श्री प्रशान्त: अभिषेक, जीवन अपना है ही नहीं, इसलिए दूसरों की तरफ़ देखते रहते हो। जीवन अपना बिल्कुल भी नहीं है। ईमानदारी से बताना अभी पहले सेमेस्टर के नतीजे आ चुके हैं; नतीजे आए हैं तो कुछ लोगों की बैक भी लगी होगी, और मैंने अक्सर देखा है कि जिन लोगों की बैक लगी होती है वो बड़े परेशान हो जाते हैं। तो मैं उनसे पूछता हूँ कि यह जो मार्कशीट है, अगर यह किसी को दिखानी ना होती तो भी क्या वो परेशान होते? तुमने परीक्षा दी है, तुम्हें नतीजा मिला है, किसी को दिखानी ना होती और यह संभावना भी ना होती कि कभी भी कोई इसे माँगेगा – बस वो मिलती और उसको ले जाकर एक अलमारी में रख देते – तो क्या तुम तब भी इतने ही उदास होते? कभी किसी के सामने ना इसका ज़िक्र आएगा, ना बात उठेगी; ना कहीं लिखना है, ना बताना है, तो क्या तुम तब भी इतने ही उदास होते?

तब इतने उदास न होते।

इसका अर्थ समझ रहे हो? वो तुम्हारी उदासी, अपने लिए नहीं है; उन लोगों के लिए है जिनको तुम यह दिखाने जा रहे हो। तुम्हें यह माँ-बाप को दिखानी है, तुम्हें यह टीचर्स को दिखानी है, स्टूडेंट्स देखेंगे और साथ-ही-साथ अंततः किसी इम्प्लॉयर (नियोक्ता)को भी दिखानी होगी। तुम्हें उसका डर है।

जीवन अपना है कहाँ? तुम जो कुछ भी कर रहे हो दूसरों के लिए कर रहे हो। तुम्हारी वो मार्कशीट भी आ रही है तो वो तुम्हारे लिए कहाँ आ रही है। वो आ रही है ताकि तुम उसे किसी इम्प्लॉयर को दिखाकर नौकरी ले सको। तुम जो भी कुछ कर रहे हो, अपने लिए कर कहाँ रहे हो? अपने लिए तो वो करे जिसने अपने को जाना हो। तुम्हारा जीवन तो कठपुतली के खेल की तरह है, जो दूसरों के लिए हो रहा है। एक कठपुतली नाचती है तो क्या अपने लिए नाचती है? दूसरों के लिए नाचती है। उसे तो पता भी नहीं कि उसका चल क्या रहा है। नचाने वाला कोई और है और देखने वाला भी कोई और है। तुम भी जो भी कुछ कर रहे हो उसे अपने लिए कहाँ कर रहे हो? मुझे ठीक-ठीक बताओ कि अगर अपने लिए कर रहे होते तो तुम क्या पढ़ाई सिर्फ़ परीक्षा के लिए करते? तुम्हें किताब में रस कहाँ मिलता है, तुम पढ़ते तो सिर्फ़ इसलिए हो कि कोई और तुम्हें मार्क्स दे दे और फिर वो मार्क्स तुम किसी और को जाकर दिखा सको। ध्यान देना अगर आज पता चल जाए कि अब यह मार्क्स वगैरह का झंझट ही ख़त्म हुआ, अब डिग्री मिलनी ही नहीं है; विश्वविद्यालय ने घोषणा कर दी है कि अब डिग्रियाँ नहीं दी जायेंगी तो तुम यहाँ दिखाई ही नहीं दोगे। क्योंकि तुम यहाँ इसलिए हो ही नहीं कि तुम्हें अपने लिए कुछ करना है, तुम यहाँ इसलिए हो ताकि तुम कुछ पा सको जो तुम दूसरों को दिखा सको। दूसरों के कहने पर यहाँ पर हो और दूसरों के लिए यहाँ पर हो।

जीवन में अपना कुछ भी है कहाँ?

जब जीवन में कुछ भी अपना होता है तो फ़िर डर नहीं रह जाता।

तुमने मुझसे पूछा कि हम अपने निर्णय कहाँ से ले लेते हैं। याद रखना, तुम जानकारी बाहर से लोगे। जब जीवन पूर्णतया अपनी समझ पर चलेगा तब भी तुम जानकारी तो बाहर से ही लोगे। लेकिन जानकारी बाहर से ले लेने में और निर्णय बाहर से ले लेने में ज़मीन-आसमान का अन्तर है। तब तुम सिर्फ जानकारी लोगे बाहर से, निर्णय नहीं ले लोगे बाहर से। बात समझ में आ रही है?

जिसे अपना पता होता है वो दूसरों की तरफ़ नहीं देखता कि “मुझे बता दीजिए मैं क्या करूँ”। एक बच्चे के साथ होना यह लाज़मी है क्योंकि बच्चा अभी छोटा है। आवश्यक है कि कोई आए और उसकी ऊँगली थामे, उसे बताए कि सड़क पर इस तरफ़ नहीं उस तरफ़ चलो, कि वो बिजली का सौकेट है, उसमें ऊँगली मत डालो। एक उम्र तक यह ठीक है, आवश्यक है कि बच्चे के जीवन के निर्णय भी बाहर से ही आयें। मान लो आठ साल तक, दस साल तक, पर तुममें से यहाँ कोई भी ना आठ साल का है, ना दस साल का। तुम बच्चे क्यों बने हुए हो मानसिक तौर पर? कोई आवश्यकता ही नहीं है। जीवन इसलिए है कि उसको अपनी दृष्टि से देखा जाए। ज़मीन इसलिए है कि उसपर अपने पाँव से चला जाए।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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