अपने अंदर से डर कैसे हटाएँ?

Acharya Prashant

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अपने अंदर से डर कैसे हटाएँ?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी मेरे अंदर डर बहुत है। अपने सामाजिक स्तर की वजह से मैं सबके सामने अच्छा बन कर दिखाना चाहता हूँ और यह भी मुझे लगता है कि अगर मैंने डर हटाया तो अहम् बड़ा हो जाएगा। मैं डर को हटाना भी चाहता हूँ और मैं ही उसे सुरक्षा भी देता हूँ, अब करूँ क्या?

आचार्य प्रशांत: क्या बात कही है तुमने, कि अगर डर हटाया तो अहम् बड़ा हो जाएगा?

प्र: ‘अह्म’ मतलब जैसे मैं ही सब कुछ हूँ, ऐसी फीलिंग (भावना) आ जाएगी।

आचार्य: ये क्यों आएगी? तुम दस छोटे-छोटे बच्चों के साथ हो, वो बहुत छोटे हैं, निर्बल हैं; तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते, तुम्हें डरा नहीं सकते, तुम्हें उनसे डर नहीं लग रहा तो क्या उन बच्चों के सामने तुममें अहम् जग जाता है? ऐसा होता है क्या? आप लोगों के सामने जब छोटे बच्चे आते हैं तो आपके भीतर अहंकार प्रबल हो जाता है क्या?

देखा तो ये गया है कि छोटे, मासूम, अशक्त बच्चे आपके सामने जब आते हैं तो अक्सर आपके भीतर वात्सल्य आ जाता है। या ऐसा है कि अगर डर नहीं होगा तो अहंकारी ही हो जाओगे? डर का विपरीत अहंकार होता है या प्रेम होता है? ये तुम्हें किसने सिखा दिया कि या तो डरोगे या डराओगे? ये किसने सिखा दिया तुम्हें? ये तुम्हें डर ने सिखाया है।

डर को बने रहने के लिए कोई तो युक्ति चाहिए न, अपने पक्ष में कुछ तो तर्क देगा। तो डर कहता है कि डर अच्छा है क्योंकि अगर डर नहीं है तो डराओगे। डर के अनुसार दुनिया में दो ही तरह के लोग होते हैं: या तो डरे हुए या डरावने। या तो वो हैं जो डर रहे हैं या वो हैं जो डरा रहे हैं। तो ज़ाहिर सी बात है कि तुमको लगता है कि अभी मैं बाएँ पक्ष में हूँ और बाएँ पक्ष में वो लोग हैं जो डर रहे हैं। और अगर मैं बाएँ पक्ष में नहीं हुआ तो मुझे अनिवार्यतः दाएँ पक्ष में आना पड़ेगा और वहाँ वो लोग हैं जो डरा रहे हैं।

तो तुमने लिखा है कि, "अभी डरता हूँ, डरूँगा नहीं तो कहीं डराना ना शुरू कर दूँ।" नहीं साहब! ऐसा नहीं है। ये दोनों पक्ष अलग-अलग हैं ही नहीं। समझना ध्यान से। ऐसा नहीं है कि कुछ लोग हैं जो डरते हैं, और कुछ लोग हैं जो डराते हैं। ये भेद मत करो, झूठा भेद है। वास्तव में जो डरता है वही डराता है। ये दोनों एक हैं। ये दोनों अलग-अलग पक्ष नहीं हैं। जो डरा है उसी की रुचि होगी दूसरे को डराने में क्योंकि उसी की दृष्टि में डर का मूल्य है। तुम डर रहे हो, मतलब डर को मूल्य दे रहे हो। जब डर को तुम मूल्य दे रहे हो तो तुम डराओगे भी।

किसी सेनाध्यक्ष ने कहा था, “कि अगर तुम जानना चाहते हो कि तुम्हारा दुश्मन डरता किस बात से है, तो ये देख लो कि वो तुम्हें डराता कैसे हैं। जिस बात का उपयोग वो तुमको डराने के लिए कर रहा है वो उसी बात से सबसे ज़्यादा डरता है।”

खेलों में भी होता है। तुम्हारे जिस पक्ष पर तुम्हारा प्रतिद्वंदी सबसे ज्यादा आक्रमण करे, तुम समझ लेना कि तुम्हारे प्रतिद्वंदी का भी, संभावना यही है, कि वही पक्ष कमजोर होगा। चूँकि वह जानता है कि उस पक्ष की कमज़ोरी बहुत खलती है। इसीलिए वो तुम्हारे उसी पक्ष पर आक्रमण कर रहा है। बात समझ रहे हो? तुम कोई खेल खेलते हो जिसमें तुम्हारा बैक हैंड कमजोर है, तुम पाओगे कि तुम प्रतिद्वंदी के बैक हैंड पर ही आक्रमण कर रहे हो। क्योंकि तुम जानते हो न कि कितना बुरा लगता है जब बैक हैंड पर कुछ पड़ता है। तुम वही दु:ख उसको देना चाहते हो। तुम खुद डरे हुए हो कि तुम्हारे बैक हैंड पर कुछ ना आ जाए इसीलिए प्रतिद्वंदी के बैक हैंड पर बार-बार आक्रमण करोगे।

डरा हुआ ही डराता है। डरने और डराने के आगे एक और जहाँ है। कबीर साहब उसको प्रेम नगर बोलते हैं, कभी अमरपुर बोलते हैं। समझ रहे हो? वहाँ न कोई डर रहा है और वहाँ न कोई डरा रहा है। अरे भाई! ये दोनों तो वैसे भी एक ही थे न, डरने वाला और डराने वाला।

दृष्टि अपनी साफ करो। जब भी किसी को देखो कि आक्रामक या हिंसक हो रहा है, थोड़ी करुणा करना, वो बहुत डरा हुआ है। जो जितना डरेगा वो उतना खूंखार हो जाएगा। आज जो डरा हुआ है वो कल का आक्रांता है और आज जो आक्रमण और अन्याय कर रहा है वो कल का डरा हुआ आदमी है। इन दोनों में बड़ा परस्पर संबंध है।

कब तक डरोगे? डरते-डरते एक दिन ऐसा आता है कि तुम आक्रमण करने लग जाते हो। और चूँकि तुमको पता है कि डरने में बड़ा कष्ट होता है तो वही कष्ट तुम सामने वाले को देना चाहते हो, डरा करके।

अहम् चाहता है कि वो महत्वपूर्ण बना रहे। इसीलिए वो डरता भी है और डराता भी है। कुछ महत्वपूर्ण होता है तभी तो उसके छिनने की आशंका में तुम कहते हो कि मैं डर गया। तुम्हारे घर में घाँस के कुछ तिनके पड़े हों, कोई उनको उठा कर ले जाता हो, तुम नहीं डरोगे। तुम कहोगे, बाहर तिनके पड़े हैं, पड़े रहें, कोई ले जाता हो, ले जाए। इसमें डरना क्या है। क्यों? क्योंकि तुम उस बात को महत्वपूर्ण नहीं समझते।

डर और महत्व साथ-साथ चलते हैं। जहाँ तुमने किसी चीज को महत्व दिया, तहाँ वो डर के साथ जुड़ी। और अहम् को महत्व बहुत अच्छा लगता है। अहम् इसी बात को लेकर तो मरा जाता है कि कोई ये कह दे कि ‘मैं’ कुछ हूँ। इसी बात का तो उसको भरोसा नहीं आता कि वो कुछ है। उसको बार-बार किसी दूसरे से प्रमाण चाहिए इस बात का कि मैं कुछ हूँ। डर करके अहम् अपने-आपको प्रमाण देता है कि वो कुछ है।

एक भिखारी जिसकी कोई औकात नहीं, वो रात में डरा-डरा घूमता हो—आजकल चोर बहुत बढ़ गए हैं, लूट ही लेते हैं—उसके इस डर में कोई तुक नहीं, कोई तर्क नहीं पर फिर भी उसके डर में एक बात है। डर करके वो अपने-आपको जता रहा है कि मेरी भी कुछ हैसियत है। मैं भी कम-से-कम इतना बड़ा हूँ कि कोई चोर मुझे आकर लूट लेगा।

वास्तव में भिखारी खुद भी पहुँच जाए किसी चोर के आगे कि, "मुझे लूटो!" तो चोर कहेगा, "चल हट दूसरा काम करने दे, तू ही मिला है लूटने के लिए!" पर भिखारी इस तथ्य की भी नौबत नहीं आने देगा। ऐसा कोई साक्षात्कार वो किसी चोर के साथ होने ही नहीं देगा। कोई चोर आता देखे और भिखारी उसके सामने खड़ा हो जाए कि मुझे लूटो और चोर ना लूटे। तो उसी पल भिखारी की मुक्ति हो जाए, भिखारी को साफ दिख जाए कि मेरी कोई हैसियत नहीं। पर भिखारी को चोर दिखा और भिखारी ने डर के दौड़ना शुरू कर दिया, “चोर आया, चोर आया।” तो भिखारी के मन में ये भावना और दृढ़ हो गई कि, "मैं भी कुछ हूँ, मुझे भी लूटने के लिए देखो लोग आते हैं।"

तो डर तुम्हें इसीलिए लगता है ताकि तुम्हारे भीतर भी ये भावना बनी रहे कि तुम कुछ हो। “हम भी कुछ हैं, हमारा कुछ छिन जाएगा!” तुम्हारे पास है क्या जो छिन जाएगा? और तुम्हारे पास जो है, वो छीनने में रुचि किसकी है? तुम्हारे पास डर है, क्षोभ है, कामना है, क्लेश है, ये तो सबके पास हैं। तुम्हारा कोई लेकर क्या करेगा? तुम्हारे पास शांति होती, बोध होता, मुक्ति होती, प्रेम होता तो तुम्हारे पास कोई विलक्षण वस्तु भी होती जो किसी के पास नहीं है, विरले होते तुम। पर तुम्हारे पास जो है वो तो तुम्हारे पड़ोसी के पास भी है। तुम्हारा शरीर भी बिलकुल पड़ोसी जैसा है। दो आँख उसके भी हैं, नाक उसके भी है, पेट के भीतर मल मूत्र उसके भी है, वो तुमसे क्या छीनेगा?

न बुद्धि बल में विशेष हो, न ज्ञान में विशेष हो, तुमसे कोई क्या छीनेगा? हाँ, विशेष जिनके पास हुई हैं वस्तुएँ, विचित्र बात! उन्हें कभी डर लगा नहीं कि उनकी चीजें छिन जाएँगी। ये तो हमें कुछ और ही दिख गया। जिसके पास कुछ ऐसा होता है जो वास्तव में महत्व का होता है, उस विशेष महत्वपूर्ण वस्तु की पहचान और प्रमाण ही यही होते हैं कि वो छिन नहीं सकती। तो जो छिनने का तुम्हें डर लगता है वो चीज़ दो कौड़ी की है। तुम बेकार में डर रहे हो। और जो चीज वास्तव में मूल्यवान होती है वो छिन नहीं सकती। तो तुम डर काहे को रहे हो?

तो डर का तो दोनों ही स्थितियों में कोई काम नहीं। अगर कुछ ऐसा है जो छिन सकता है, तो छिन ही जाने दो, दो कौड़ी का है। और जिस दिन तुम्हें कुछ मिलेगा ऐसा जो वास्तव में अमूल्य होगा, तुम पाओगे कि वो छिन नहीं सकता। बल्कि कोई उसे छीने तो वो और बढ़ता है। कोई न भी छीने, तुम ही अपनी ओर से उसको बाँट दो तो बाँटने से भी और बढ़ता है। अब बताओ काहे को डरे हुए हो? क्या छिन रहा है?

प्र: कुछ नहीं।

आचार्य: ऐसा तो नहीं है। अभी सम्मान छिनने लगे देखो कैसे प्रतिरोध करोगे। जब भी मन में डर उठे, जब भी कुछ जाता हो और मन विरोध करे, क्रोध आए तो एक बात अपने-आपको सुना देना: अगर कुछ छिन रहा है तो दो कौड़ी का होगा। दो कौड़ी का न होता तो, छिनता क्यों? और फिर छिनने देना, कहना जा ले जा।

परमात्मा की भी हैसियत नहीं कि असली चीज तुमसे छीन सके। परमात्मा ने एक जीव आज तक ऐसा नहीं बनाया जिसमें परमात्मा न हो। तो असली चीज तो स्वयं परमात्मा भी तुमसे नहीं छीन सकता। वो ख़ुद तुम्हारे भीतर बैठा है। वो ख़ुद ये नहीं कर सकता कि तुमको अपने-आपसे अलग कर दे। जब ऊपर वाला भी तुमसे ऊपर वाले को नहीं छीन सकता, तो नीचे वाले तुमसे क्या छीन लेंगे?

पर तुमको जब देखो तब यही अंदेशा रहता है कि अब हुआ हमला, अब लगी घात। ले गया रे ले गया! और जब कोई कुछ ले जाता है तुम्हारे मुताबिक तो फिर तुम्हें भी हक मिल जाता है तुम्हारे मुताबिक, किसी और से कुछ लेने का, और चक्र चलता रहता है। “तूने मेरा छीना, मैं तुझे छोड़ दूँगा क्या?” चल रही है छीना-छपटी नकली नोट की, जिसकी कोई हैसियत नहीं। “तू मेरी इज़्ज़त उतार तो मैं तेरी उतारूँगा।" या नकली नोट, बहुत किसी से मोह बढ़ ही गया, तो हम दे भी देते हैं: “तू मुझे इज्जत दे, मैं तुझे दूँगा।” तुम किसी को नकली नोट दे दो कि नकली नोट छीन लो, दोनों बातों में कोई अंतर है?

असली व्यापार में कब उतरोगे? असली का तो हमारा कोई इरादा नहीं। हमारे तो सीख-दाता भी हमें यह बता गए हैं कि देने में यकीन रखो, देने में। छीनना बुरी बात है, देना अच्छी बात है। और ये तुम देख ही नहीं रहे हो कि क्या दे रहे हो। मैं कह रहा हूँ, नकली छीना तो क्या मिल गया? और नकली अगर दे भी दिया तो क्या दे दिया? बात लेने और देने की नहीं है, बात असली और नकली की है। असली कारोबार करो।

यहाँ माँ-बाप बच्चों को सीख दिए जा रहे हैं: सबको आदर दो। अरे वो नकली है! दे भी दिया तो क्या दे दिया? “अंकल जी नमस्ते!” घंटी बजी नहीं कि छुन्नू खड़े हो गए, “अंकल जी नमस्ते!” ये क्या सिखा रहे हो बच्चे को? कुछ असली भी बताओगे उसको?

मुन्नू बुरा है, क्यों? क्योंकि वो अंकल जी को देखता है तो मुँह बिचकाता है और छुन्नू अच्छा है क्योंकि वो अंकल जी को देखते ही बोलता है नमस्ते। दोनों एक हैं। एक नकली चीज़ नहीं दे रहा है और एक नकली चीज़ दे रहा है। दोनों एक ही तल पर हैं। पर तुम दोनों में खूब भेद कर लेते हो। बचपन से ही ठप्पा लगा दोगे: एक बुरा, एक अच्छा। उन दोनों में अभी कोई बुरा, कोई अच्छा नहीं है। दोनों बस अज्ञानी हैं। दोनों अबोध हैं और अबोध माने मासूम नहीं कह रहा हूँ मैं, अबोध माने नासमझ कह रहा हूँ मैं।

शोले पिक्चर में था। असरानी को गाजर जाने मूली लगाकर के अमिताभ और धर्मेंद्र भाग जाते हैं जेल से। ऐसे ही तुम्हें डर लगता है। और यूँ ही नहीं गाजर लगाई थी उसके, पहले पूरा आयोजन किया था। “किसी को कानों-कान खबर नहीं होनी चाहिए, जेल में तमंचा आ चुका है।” तो पहले पूरा माहौल रचा, अब वो तैयार है कि तमंचा तो आ चुका है। और उसके बाद उसको लगाई गाजर और कहा “बस हाथ खड़े कर ले तू!" और दोनों... वैसे ही तुम डरे हुए हो।

और डरा हुआ आदमी तथ्य की ओर आँख करेगा ही नहीं। असरानी ने मुड़ कर पीछे देखा क्या कि गाजर है कि तमंचा? वैसे ही तुम, कभी देखोगे ही नहीं कि डरे किन चीजों से हुए हो, उनकी कोई हैसियत भी है? जो तुम्हें डरा रहा है उसकी भी कोई हैसियत नहीं, जो छिनने के डर से तुम काँपे जा रहे हो, उस वस्तु की भी कोई हैसियत नहीं, पर डर ज़िंदाबाद है।

मजे ले रहे हो और कुछ नहीं, क्यों?

बाजार में खिलौने मिलते हैं: नकली छिपकलियाँ, नकली बिच्छू, नकली साँप। मैंने देखा एक घर में, बच्चे वो सब ले आए थे। जब नया-नया लेकर आए, उन्होंने अपने भाई-बहनों को उससे डराया, वो डरे पहली बार। तो इसमें कोई ताज्जुब नहीं था क्योंकि उनको लगा कि असली साँप या असली छिपकली उनके ऊपर गिर पड़ी है। फिर मैंने देखा कि ये रोज़ होता था। अब सबको पता है कि घर में जो साँप, बिच्छू लाए गए हैं वो रबड़ के हैं, नकली हैं। लेकिन फिर भी कभी उन्हीं का प्रयोग करके कोई उसको डराए, कोई उसको डराए, कोई उसको डराए। जानते सब हैं कि ये पूरा मामला ही नकली है, लेकिन फिर भी सब डरा भी रहे हैं और सब डर भी रहे हैं। तब मुझे पकड़ में आया। मैंने कहा: इन्हें मज़ा आ रहा है।

डर में रस है। ऊब से छुटकारा दिलाता है न डर। कुछ करने को नहीं है तो किसी के ऊपर नकली साँप फेंक दो। अब वो जानता है कि नकली फेंका है, पर हू हू हू करके भागेगा। कुछ तो जीवन में उत्तेजना आई। कुछ तो गर्मी बढ़ी। नहीं तो मुर्दे की तरह ठंडा जीवन। उससे अच्छा डर ही लो, काँप लो, कुछ हुआ। देखा है न जब कँपकपी होती है तो शरीर का तापमान बढ़ जाता है।

डर के और भी फायदे होते हैं। एक मैंने गाना सुना था। गाने में लड़की-लड़का अकेले हैं, अंधेरी रात, बादल गरज रहे, वर्षा (हो रही)। और फिर वो गाते हैं: ‘बादल गरजा सिमट गए हम, बिजली कड़की लिपट गए हम, ये है कितना सुंदर मिलन!’ डरोगे नहीं तो लिपटोगे कैसे? हमारे संबंध ही लिपटा-लिपटी के हैं, डर पर आश्रित होते हैं। “हाय! मैं इतनी डर गई कि तुझसे लिपट गई!” देखते नहीं हो पिक्चरों में? वो दोनों जा रहे हैं, बिजली कड़की ज़ोर से और वो "हाय दईया!" करके उसको चिपक जाएगी। बहाना मिल जाता है नैतिकता, मर्यादा तोड़ने का। नैतिकता, मर्यादा वैसे भी व्यर्थ की चीज़ें हैं, पर तुम्हारे लिए व्यर्थ की नहीं हैं। तो तुम्हें कारण चाहिए फिर उनको तोड़ने का। और कारण क्या मिल गया? डर। “हम तो इतना डर गये थे कि लिपट ही गये।”

जितने व्यर्थ काम करने हों उन सबको करने के लिए डर एक अच्छा तर्क है। किसी को तुम पकड़ो और पूछो, “काहे को की ये बेवकूफी?” बोले “पता नहीं, मैं बहुत डर गया था। बदहवासी में हो गया।” अब तुम उसको दोष नहीं दे पाओगे क्योंकि उसने मार दिया है बाण कि, "हमसे तो बदहवासी में हो गया।" इन सब कारणों से डर बचा रह जाता है। बचा ही नहीं रह जाता, उपयोगी हो जाता है।

डर से ज़्यादा प्यारी कोई दूसरी चीज़ है, उसकी तरफ बढ़ो। डर तो हमारी तरकीब है उस चीज की तरफ न बढ़ने की। वास्तव में तुम उसी चीज़ से डर रहे हो जो सबसे प्यारी है। डर में रस है पर कहीं-कहीं ज्यादा रस ‘उस चीज’ में है। फायदे का सौदा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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