आपकी सत्य से जो दूरी है उसे समय कहते हैं || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

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आपकी सत्य से जो दूरी है उसे समय कहते हैं || आचार्य प्रशांत (2016)

उद्धरण: जो हो रहा है और जो आपको प्रतीत हो रहा है वो हमेशा अलग-अलग होते हैं। इसका अर्थ ये नहीं है बिलकुल भी कि जो हो रहा है वो उससे थोड़ा ही भिन्न है, जो आपको लग रहा है—ये बात मन को बड़ी सुहाती है। ये बात मन को बड़ी सांत्वना देती है कि मुझे जो लग रहा है वो शायद १०-२० प्रतिशत मिलावटी है। मुझे दिखाई पड़ रहा है कि ‘पांच पक्षी हैं, शायद चार या छः ही हैं।’ नहीं, मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि आपको पाँच उँगलियाँ दिख रही हैं और उँगलियाँ चार या छः हैं; मैं आपसे कह रहा हूँ उँगलियाँ हैं हीं नहीं, पक्षी हैं हीं नहीं! सब समय का घोटाला है। सब इन्द्रियों का खेल है।

प्रश्न: सर, जब समझ में आता है कि करने के लिए कुछ है नहीं तो भी मन को कुछ न कुछ चाहिए होता है। जो चीज़ ज़्यादा पूर्ती करती है , उदाहरण के रूप में: अभी मैंने संगीत सीखा हुआ है तो मैं जब भी अच्छा संगीत सुनता हूँ तो मैं खुद वो करना चाहता हूँ। ऐसे ही खाली नहीं बैठ सकता हूँ और अगर थोड़ी देर भी बैठ जाऊं तो उसके बाद ऐसा लगता है कि अब चलो थोड़ा संगीत सुन लेते हैं, ऐसा क्यों होता है?

वक्ता: “ऐसा क्यों होता है”, ये बाद की बात है। “ऐसा होता है”— इस पर गौर करो; कि ऐसा होता है, ऐसा फिर हुआ, ऐसा हो रहा है। अभी तो तुम जो भी कुछ कह रहे हो वो स्मृति से आ रहा है। जब हुआ तब जाना क्या? पर ये हमारी बड़ी भूल है कि हम स्मृति को बोध समझ लेते हैं। सिर्फ़ इसलिए कि कुछ तुम्हारे मन में अंकित हो गया है, तुम तुरंत ये निष्कर्ष निकाल लेते हो कि वो घटना घटी ज़रूर होगी। अभी तुमको यहाँ बैठे-बैठे ये लग रहा है कि मन कहीं रुकता नहीं! मन कहीं ठहरता नहीं! एक नए तरीके का संगीत आता है, मन उसकी ओर भाग जाता है। इन्टरनेट पर बैठते हो तो मन ये करता है, मन वो करता है। ईमानदारी से बताना कि ये सब कुछ भी क्या उस क्षण पता होता है जब घटित हो रहा है?

सच तो ये है कि उस क्षण तुम्हें कुछ भी पता नहीं होता। बाद में स्मृति उठती है और स्मृति कोई प्रमाण नहीं है । तुम्हारे मस्तिष्क के साथ कुछ रासायनिक खिलवाड़ करके उसमें से स्मृतियाँ हटायीं भी जा सकती हैं और विचित्र स्मृतियाँ डालीं भी जा सकती हैं। स्मृति किसी भी चीज़ का कोई प्रमाण नहीं है। मिले होगे तुम ऐसे लोगों से जो दावा करते रहते हैं कि ‘मैंने तो सुना था! मैंने तो देखा था!’ और तुम वहीं मौजूद थे और तुम कह रहे हो कि, ‘न सुना, न देखा, घटना घटी ही नहीं।’ और हमारी ये आदत लग गयी है कि हम स्मृतियों को बड़ा सम्मान देते हैं। जानते हो ये कहाँ से आदत आई है? इसकी छान-बीन करते हैं। तुम में से कोई ऐसा है जिसे ये याद हो कि वो पैदा हुआ? बोलो जल्दी?

श्रोतागण: नहीं

वक्ता: तुम हो ये भावना तुम में बहुत गहरी है। अगर तुम हो तो तुम्हें पैदा भी होना चाहिए। किसी को अपने पैदा होने का बोध है? पैदा होने के बहुत समय बाद किसी ने तुम्हें बताया कि तुम पैदा हुए थे। तुम्हें कैसे पता कि तुम पैदा हुए थे? ये बात अभी तुम्हें बड़ी अजीब लगेगी। तुम्हें लगेगा कि, ‘पैदा तो देखिये हुए ही थे, सब बच्चे पैदा होते हैं, वैसे ही हम पैदा हुए थे।’ पर ठीक-ठीक बताओ तुम्हें कैसे पता? कोई अपनी मौत देखता है खुद? पर तुम्हें मरने का भी पक्का है कि मरोगे। तुम्हें कैसे पता है?

न तुम्हें अपने पैदा होने का पता है न तुम्हें अपने मरने का पता है, तो तुम्हें ये भी कैसे पता है कि तुम हो? तुम देख रहे हो कि तुम पूर्णतया सुनी-सुनाई बात पे चल रहे हो। सुनी-सुनाई बात क्या? *जो अभी की न हो,* *जो तुम्हारी न हो ,* जो कहीं और से आ रही हो। *उसी को स्मृति भी कहते हैं*। हम जो अपनेआप को जानते हैं वो भी मात्र एक स्मृति ही है। हम क्या हैं? वास्तव में हम ये बिलकुल भी नहीं जानते। तुम्हें कैसे पक्का है कि तुम पैदा हुए थे?

तुम्हें कुछ चित्र दिखा दिए गए हैं। कोई ज़्यादा वैज्ञानिक सोच का होगा तो वो कहेगा, “पूरी रिकॉर्डिंग ही करलो पैदा होने की, देखा देंगे!” पर रिकॉर्डिंग भी तो दूर की ही बात है। पता होना तो कोई बिलकुल आंतरिक घटना है। जानना, तत्काल जानना; रिकॉर्डिंग को तुम तत्काल तो देखोगे नहीं—पहली बात और दूसरी बात रिकॉर्डिंग तुम्हें किसी और से मिली। ठीक ऐसे ही जीवन चल रहा है हमारा। सब कुछ ही बाहरी है। सब कुछ ही नकली है।

श्रोता १: सर, जैसे स्मृति का कोई प्रमाण ही नहीं है। फिर भी जो शारीरिक गतिविधियाँ होती हैं, उनका तो पता है अगर उन्हें छोड़ा तो ये शरीर गिरेगा ही गिरेगा। मतलब अंदर से पता है।

वक्ता: नहीं! वो भी उसी समय कभी नहीं पता चलता। उसी समय का मतलब समझ रहे हैं? तत्काल! आप एक गेंद लेते हैं, उसे आप छोड़ते हैं। वो गिर रही है। क्या जो हो रहा है उसमें समय साझी नहीं है? क्या वास्तव में आपको गेंद की स्तिथि का, सिर्फ चलायेमान गेंद ही नहीं, स्थिर गेंद की स्तिथि का भी, उसी समय पता चल सकता है? वहां भी समय बीच में है।

*जहाँ समय बीच में है,* *उसे ही तो स्मृति कहते हैं*।**

आप जो कुछ भी दुनिया में देख रहे हैं उसमें बीच में मन और समय बैठे हुए हैं, इसी कारण उस जानने को जानना कहा नहीं जा सकता। ‘तत्काल’ जो है, वो समय से बहार का है। तत्काल जो है वो इसीलिए आपको विचार द्वारा समझ में नहीं आएगा और यदि आप ऐसे हैं जिसे विचार से ही समझ में आता है, जिसे निष्कर्ष से ही समझ में आता है तो आपका पूरा जीवन सिर्फ छवियों में, स्मृतियों में ही बीतेगा।

श्रोता १: सर, शरीर का ये तो पता है कि यदि छत से गिर गये तो मरेंगे ही तो जैसे मानेलें कि स्तिथि ऐसी आती है जिसमें बचाव करना पड़ता है तो वो तो अपनेआप उसी क्षण हो जाता है। वो क्या है सर? जैसे: अचानक से आग लग गयी तो पता है कि तुरंत वहाँ से उठना है।

वक्ता: क्या शरीर ये नहीं जानता कि उसे किस क्षण क्या करना है? मैं ये जानना चाहता हूँ कि वो जिसे आप शरीर बोलतें हैं, उससे आपका सम्बन्ध क्या है? और आपकी ज़िम्मेदारी क्या है उसके प्रति?

एक मशीन है, वो अपना काम कर रही है। आपकी आसक्ति है उससे, आप खड़े होकर उसे निहारते रहते हैं। आप खड़े उसे चूम रहे हैं, चाट रहे हैं, आपने उसको कोई नाम दे दिया, आप उसकी तस्वीरें उतार रहे हैं, आप उसके साथ सज्जा कर रहे हैं। आपने शरीर से जो सम्बन्ध बैठा रखा है, क्या वास्तव में उसकी ज़रुरत है? कुछ भी क्या ऐसा है जो शरीर नहीं जानता? यही बात फिर मैं मन के लिए कहूँगा।

शरीर और मन एक ही हैं ।जब ज़रा मोटा-मोटा दिखाई दे तो शरीर कहते हैं, जब ज़रा झीना-झीना दिखाई दे तो मन कहते हैं।

मन की भी अपनी एक व्यवस्था है। वो भी एक यन्त्र है। आपकी ज़रूरत क्या है?

श्रोता २: सर, जैसे कभी-कभी ऐसा होता है कि हम गाड़ी में बैठे हैं और ऊपर एक पुल होता है तो गाड़ी जब पुल से निकलती है तो हम भी अपनी गर्दन झुका लेते हैं, मेरे साथ तो होता है ये, तो हमें ऐसा लगता है की हम ही गाड़ी हों तो इसकी उत्पत्ति क्या है? ये कैसे हो गया कि हम और शरीर एक हुए।

वक्ता: ‘ये कैसे हुआ’- ये मत पूछो, इसलिए नहीं कि इसका कोई उत्तर नहीं है बल्कि इस लिए क्योंकि अगर तुम्हें ये नहीं पता तो तुम अँधेरे में हो और जो अँधेरे में है उसे ये बात समझाई नहीं जा सकती, तो इसका उत्तर उसे कभी नहीं मिलेगा जिसे इसका उत्तर नहीं पता। – ये बात तुम्हें बड़ी अजीब सी लगेगी, तुम कहोगे ‘जिसे नहीं पता उसे नहीं पता।’— हाँ ऐसा ही है! जब तक तुम वो बने रहोगे जिसे नहीं पता और जिसे जानना है और जो सवाल पूछ रहा है तब तक तुम्हें कभी उत्तर नहीं मिलेगा। समझना! जब तक तुम्हारे मन ये प्रश्न है, तुम्हें इसका उत्तर नहीं मिल सकता। उत्तर कब मिलता है? जब ये प्रश्न ही नहीं होता।

सिर्फ उन प्रश्नों के समाधान मिलते हैं जो तुमने कभी पूछे नहीं होते।

जो प्रश्न तुम पूछ रहे हो उसका हर उत्तर नकाफ़ी होगा। उसका कोई उत्तर आखिरी नहीं होगा।आखिरी उत्तर को समाधान कहते हैं। वो तुम्हें नहीं मिलेगा तो ये पूछो मत; जान जाओगे!

कौन जानेगा ? वो नहीं जिसकी सवाल में उक्सुकता रहती है ;कोई और जानेगा जो जानता ही है और जानने के कारण सवाल पूछता नहीं।

उसे इतना पता है उसे सवाल पूछना नहीं। क्या उसका पता होना वैसा ही है जैसे तुम्हारा पता होना? तुम कब कहते हो की तुम्हें पता है? तुम कहते हो कि तुम्हें पता है कि जब कुछ तुम्हारी स्मृति में अंकित होता है। मैं अगर तुमसे पूछूँ कि, ‘क्या तुम राघव जी के घर का पता जानते हो?’ तो तुम तुरन्त जाओगे और अपनी स्मृति को टटोलोगे। वहां तुम ढूँढोगे, ‘राघव-राघव!’ तुम्हें मिल गया तो तुम कहोगे मुझे पता है, तुम्हें राघव नहीं मिला तो तुम कहोगे ‘मुझे नहीं पता!’

मैं जिस जानने कि बात कर रहा हूँ वो स्मृति-सम्बंधित नहीं है, वो कुछ और है। वो एक खालीपन है चूँकि वो एक खालीपन है इसलिए वहाँ प्रश्न भी नहीं पाए जाते—वो उत्तरों से खाली तो है ही, प्रश्नों से भी खाली है। जो जानता है, जिसे शास्त्र “ज्ञानी” कहते हैं अगर उससे तुम कोई सवाल पूछोगे तो ऐसा नहीं कि वो तुम्हें कोई विधियुक्त, तर्कयुक्त उत्तर दे पाएगा। बस इतना ही होगा कि तुम्हारा सवाल कभी उसका सवाल नहीं बनेगा। ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारा प्रभाव कभी उसके मन पर प्रभाव नहीं बनता। कहाँ से आया? ये छोड़ो; ख़त्म हो सकता है कि नहीं? इसपर गौर करो!

ख़त्म हो सकता है।

श्रोता १: सर, क्या गुलामी यही है कि जब कोई कार्य कर रहे हो तब भी कोई कल्पना हावी है उस कार्य की?

वक्ता: बिलकुल! और आप जिसको कर्म कहते हैं अगर आप उसे देखेंगे, जिसे आप घटना कहते हैं, अगर आप देखेंगे तो आप यही पायेंगे कि घटना में और आप में सदा एक दूरी है। दूरी समय कहलाती है। वो दूरी आप हैं। जो हो रहा है और जो आपको प्रतीत हो रहा है वो हमेशा अलग-अलग होते हैं। इसका अर्थ ये नहीं है बिलकुल भी कि जो हो रहा है वो उससे थोड़ा ही भिन्न है जो आपको लग रहा है—ये बात मन को बड़ी सुहाती है। ये बात मन को बड़ी सांत्वना देती है कि मुझे जो लग रहा है वो शायद १०-२० प्रतिशत मिलावटी है। मुझे दिखाई पड़ रहा है कि ‘पांच पक्षी हैं, शायद चार या छः ही हैं।’ नहीं, मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि आपको पांच उँगलियाँ दिख रही हैं और उँगलियाँ चार या छः हैं; मैं आपसे कह रहा हूँ उँगलियाँ हैं हीं नहीं, पक्षी हैं हीं नहीं।

सब समय का घोटाला है। सब इन्द्रियों का खेल है।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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