प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी, पूछने से पहले एक चीज़ बोलना चाहूँगा बस — जब भी आपके सामने मैं आता हूँ, धड़कन बहुत तेज़ हो जाती है, ऐसे एकदम नर्वस हो जाता हूँ बहुत ज़्यादा।
आचार्य प्रशांत: उम्र ही ऐसी है तुम्हारी “आग का दरिया है, डूब के जाना है।” यहाँ वो लॉलीपॉप और टैडी बियर वाला नहीं है, कि चॉकलेट से काम चल जाएगा। यहाँ कौन सा वाला है?
श्रोता: आग का दरिया।
प्रश्नकर्ता: जी, मैं ये पूछ रहा था कि, जैसे आपने कहा कि — जो रिश्ते होते हैं अपने क़रीबी, उनके पास ले के जाइए, उनसे मांगिए या उनको दुख दिखाइए। तो मैं जब जाता हूँ उनसे बात करने, जो भी मेरे क़रीब हैं, कि चलिए ज़रा हम इन पर बात करते हैं — कि समाज में क्या हो रहा है? या फिर आप जिनको रिश्तेदार बोलते हैं, जिनको प्यार बोलते हैं, या फिर जो आपका काम है, इन सब चीज़ों को कैसे देखते हैं, इस पर आपका क्या ओपिनियन है? — तो डिस्कशन होता है बहुत ज़्यादा, घंटे-दो घंटे-तीन घंटे।
तो वो कहते हैं कि — तुम बाहर की बहुत बातें करते हो, कि इधर-उधर, ये-वो, जानवर, क्लाइमेट, पॉलिटिक्स। और तुम बाहर की तरफ़ ज़्यादा हो, अंदर की तरफ़ नहीं देखते। इसलिए तुम बेचैन हो बहुत ज़्यादा। तो मुझे कहीं न कहीं ऐसा लगता है कि — ये तर्क तो सही भी हो सकता है शायद, कि हाँ मैं इसलिए तुमसे बाहर की बातें कर रहा हूँ, कि मुझे अपने अंदर ना झांकना पड़े। या फिर एक ये तर्क भी वो देते हैं कि — तुम हमारे पास ये सारी बातें करने इसलिए आते हो कि तुम्हें ख़ुद को ना देखना पड़े।
मतलब दूसरों की मदद करने का जो ये एक बहाना ही है। जैसे मैं आपको सुनता हूँ तो कहते हैं — जैसे आचार्य जी पहले उन्होंने ख़ुद अपनी मदद करी, उसके बाद वो दूसरों की मदद करने निकले ना। तुम अभी से कैसे निकल रहे हो? पहले ख़ुद को तो देख लो। ये मुझे समझ में नहीं आता कि — कहाँ ख़ुद को देखने वाली बात है, और कहाँ वो बात है कि — मैं जो बोलने की कोशिश कर रहा हूँ, उनको ले के नहीं कर रहा हूँ या सिर्फ़ हम दोनों के लिए कर रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: शब्द सब गड़बड़ा देते हैं। ख़ुद को देखना माने क्या? आचार्य जी ने ख़ुद की मदद करी, माने क्या? ख़ुद की मदद करी, माने स्वयं को जानना भी हो सकता है और डिग्री और नौकरी भी हो सकता है। उनका आशय क्या है?
प्रश्नकर्ता: स्वयं को जानना — कि जैसे वो जानते हैं, उन्होंने इतना कुछ पढ़ा है।
आचार्य प्रशांत: तो स्वयं को जानना और बाहर मदद का होना — ये तो हमने कहा, सब एक साथ है। तुम्हारा लक्ष्य होता है स्वयं को जानना, तुम इधर को देखते हो लेकिन बाहर की मदद अपने आप होनी शुरू हो जाती है। वो कोई एक अलग काम थोड़ी है जो करना है। असल में तुम्हें मुझसे बात करने से पहले उनसे और पूछना था कि — समझाइए, आप कहना क्या चाहते हैं?
प्रश्नकर्ता: मैंने पूछा है उनसे, लेकिन वो कहते हैं — फिर तुम आर्गुमेंट बहुत करते हो, बहस बहुत करते हो।
आचार्य प्रशांत: तो मत करो बहस, सत्र सुना करो। क्यों वहाँ जाकर बहस कर रहे हो? इतनी रिकॉर्डिंग है, वो सुन लो पहले। ख़ुद को देखो माने क्या? और ख़ुद को देखने से क्या होगा? ज्ञान बढ़ जाएगा? ख़ुद को देखोगे तो सही कर्म ही तो उठेगा ना। ज्ञान से क्या आता है? — सही कर्म आता है। और वो, हमने कहा निरुद्देश्य आता है, वो तो होगा ना।
स्वयं को देखने से इतना ही थोड़ी होगा कि ज्ञानी हो गए। स्वयं को देखोगे तो निष्काम कर्म भी फलीभूत होगा — और स्वयं होगा, अनिवार्य होगा।
उसको कैसे रोक लोगे? हाँ योजना से नहीं होगा, कामना से नहीं होगा, पर होगा तो सही। या जो स्वयं को जानता है, कहता है — बढ़िया जान लिया हो गया, आज बहुत जान लिया, लाओ लस्सी ले कर आओ? ये करोगे? आत्मज्ञान क्या बना देता है — अजगर? कि आत्मज्ञानी हैं अब पढ़े हुए हैं, या योद्धा?
श्रोता: योद्धा।
आचार्य प्रशांत: हम जो बातें कर रहे हैं ना, वो इतनी ज़्यादा अलग हैं, कि दूसरे की भाषा में इनके लिए शब्द भी नहीं हैं। ये बात इसीलिए जब कहीं ले जाओगे तो उसको एक झटके में बताना बड़ा मुश्किल होगा। हमारी सब परिभाषाएँ ही अलग हैं ना — असली हैं। वहाँ पर तो सब परिभाषाएँ वो हैं, जो ऋषि सुन लें उन परिभाषाओं को, तो कहें — कि तुमने एक बार भी नहीं पढ़ा, हम क्या कहना चाहते थे? ये परिभाषा कहाँ से ले आए तुम?
उनके लिए गीता उनके सब तरह के अंधविश्वासों का समर्थन करती है, और जितनी उन्होंने झूठी कहानियाँ खड़ी कर रखी हैं, उनके हिसाब से गीता उनका प्रमाण है — कि गीता तो हमारे पक्ष में है। और —
गीता तो सचमुच एक डायनामाइट है, जो हर उस चीज़ को उड़ा देती है, जिसके लिए लोक-संस्कृति बड़ी आतुर है।
अच्छा, एक बात बताओ — गीता सत्रों से पहले भी गीता के बारे में कुछ तो जानते ही होंगे? ऐसा तो नहीं कि "गीता" शब्द पहली बार सुना? जानते थे। ये भी कुछ पता था कि गीता का उपदेश दिया क्यों गया? तो क्या पता था — गीता का उपदेश क्यों दिया गया? अर्जुन की स्थिति के बारे में आपको क्या बताया था लोकधर्म ने? हाँ, कहिए।
श्रोता: जब गीता पढ़ी थी तो यही समझ में आया था, समझाया गया था — कि अर्जुन ने श्री कृष्ण को चुना, भगवान को चुना। तो सारी कामनाएँ छोड़ के अगर आप उच्चतम भगवान को समझोगे, तो आपको वो मिलेंगे। दुर्योधन की तरह अगर सेना माँगोगे उनकी।
आचार्य प्रशांत: नहीं, ये तो आगे की बात है। मैं कह रहा हूँ कि — पूरे उपदेश, दूसरे अध्याय से अठारहवें तक, पूरे उपदेश की ज़रूरत ही क्यों पड़ी? अर्जुन क्या थे? मोहित थे। तो अर्जुन युद्ध से मना कर रहे थे — इतना तो बताया गया होगा। अच्छा, क्या बताया गया? क्यों मना कर रहे थे युद्ध से?
श्रोता: "मेरे लोग हैं, इनको कैसे मारूँ?"
आचार्य प्रशांत: "मेरे लोग हैं, इनको कैसे मारूँ?" देखिए, झूठ बोला गया ना, जो प्राथमिक बात थी छुपा दी गई ना। आपको बताया गया कि — अर्जुन को बड़ी समस्या तो ये थी कि, "सब यहाँ पर क्षत्रिय हैं और क्षत्रिय सब मर जाएँगे तो महिलाओं पर भरोसा नहीं है। जैसे ही यहाँ क्षत्रिय मरेंगे, तो महिलाएँ जाकर के नीचे के वर्णों से सहवास शुरू कर देंगी। उससे बच्चे पैदा हो जाएँगे — वर्णसंकर।" ये सब कभी बताया गया, कि ये वो मुख्य समस्या है जिससे गीता जूझती है? बताया, नहीं बताया? क्योंकि जिस समस्या से गीता जूझती है, वो तो लोकधर्म का आधार है।
समस्या क्या है? अर्जुन का एक नज़रिया है स्त्रियों के प्रति — वो समस्या है। अर्जुन का एक नज़रिया है दूसरे वर्णों के प्रति — वो समस्या है। और अर्जुन के मन में अंधविश्वास है कि — "वर्णसंकर पैदा होगा, वो तर्पण इत्यादि नहीं करेगा, तो जीवात्माएँ भटक रही हैं वो भूखी रह जाएँगी, और फिर उससे दुष्परिणाम होंगे।" ये अंधविश्वास है। ये हैं तीन प्रमुख समस्याएँ, जिनका उत्तर देने के लिए गीता का उपदेश है
और फिर तो शारीरिक समस्या, जो मोह की — वो तो है ही, कि ये सब मेरे रक्त-संबंधी हैं, इनको मारूँ, इनके साथ यादें जुड़ी हुई हैं। पर क्या हमको ये बताया गया? ज़्यादातर लोग कहते हैं — "अरे ये क्या है?" पहले ही अध्याय में है, भाई। तो पहला ही अध्याय ये है, तो गीता तो इसलिए है — ताकि समाज में जो सब फालतू की बातें चल रही हैं, वो हटें। लेकिन उसकी जगह समाज ने गीता को भी लपेट लिया।
अब उदाहरण के लिए — श्रो कृष्ण कहते हैं कि "मैंने ही वर्ण-व्यवस्था रची है।" किस आधार पर? गुण और कर्म के आधार पर। इसको कहा जाता है कि — "देखो, ये तो जो वर्ण-व्यवस्था है, उसको वैध बता रहे हैं श्री कृष्ण। और सिर्फ़ वैध नहीं बता रहे, कह रहे हैं — 'मेरे ही द्वारा आई है'।" जबकि बात बिल्कुल उल्टी है। वो कह रहे हैं कि — वर्ण, जन्मगत किस आधार पर है? — गुण और कर्म, और उसको लोग आकर बताते हैं "वर्ण-व्यवस्था गलत कैसे हो सकती है? स्वयं श्रीकृष्ण कह रहे हैं — मैंने बनाई है वर्ण-व्यवस्था।" और वो क्या कह रहे हैं? कि वर्ण कहाँ से आएगा? जन्म से नहीं आएगा, गुण-कर्म से आएगा।
इसी तरह से जगह-जगह पर, कितनी बार हम बात कर चुके हैं — वो बताते हैं कि — "जीवात्मा वग़ैरह तुम्हारी कुछ नहीं है। आत्मा ही एकमात्र सत्य है।" लेकिन उसकी जगह गीता का इन्होंने उपयोग कर लिया है, दुरुपयोग कर लिया है — यह सिद्ध करने को कि “श्री कृष्ण ने तो कहा है कि देह छोड़ती है, जीवात्मा — जैसे कपड़े त्यागे जाते हैं, और जाकर के..” कहा उससे बिल्कुल उल्टा है। बात समझ रहे हो?
ज़मीन-आसमान का अंतर है — जो अर्थ चल रहे हैं और उस अर्थ की वजह से जो संस्कृति बन गई है, उसमें और जो असली बात है, उसमें। उनसे बोलने जाओगे, कहेंगे — "स्वयं को देखो।" वो "स्वयं को देखो" से उनका पता नहीं क्या मतलब है। लगभग वैसा ही हो जाता है कि — "थोड़ा आप 'काम' देखा करो।" 'काम देखने' से क्या मतलब होता है? कि 'काम इस तरीक़े से करो कि थोड़ा मुनाफ़ा हो।' 'स्वयं को देखो' — जो स्वयं को देखेगा वो कर्म कैसे नहीं करेगा? 'स्वयं को देखो', 'कर्म मत करो' — ये कैसी बात है?
प्रश्नकर्ता: मैं उन लोगों को गीता तक भी लाया था, तीन-चार महीने थे वो यहाँ। और फिर वो कहते हैं कि — "आचार्य जी भी बाहर की बातें बहुत करते हैं — कि ये दुनिया में ऐसे-वैसे..." तो फिर उन्होंने छोड़ दिया — कि "नहीं, इतना हम सुन नहीं सकते, ऐसे इतना ओवरलोड हो जाता है बहुत, ऐसे ओवरवेल्म हो जाता है।" ये शब्द मैंने पहली बार सीखे थे।
आचार्य प्रशांत: देखो, कोई तभी टिकेगा जब उसे दुख दिखेगा।
दुख ही वो ज़रूरत है, जो किसी को अध्यात्म तक लाती है। जिसको ज़िन्दगी में दुख प्रतीत ही नहीं हो रहा, वो आ भी गया तो टिकेगा नहीं।
और दुख है — उसके लिए हमने आज क्या कहा? और माँगो। और माँगो, तो पता चलेगा — गाय खूंटे से बँधी हुई है, और उसने संतोष बैठा लिया है कि जितनी लंबी रस्सी है, उतने में ही मैं अपना घूम-फिर लूँगी। थोड़ी-बहुत घास भी मिल जाती है, और टाँगें अकड़ती हैं, थोड़ा-बहुत चलने को भी मिल जाता है, खाना भी है। तो जिस दिन वो और माँगेगी ना — कहेगी "वहाँ तक जाना है" उस दिन अध्यात्म शुरू हो जाएगा उसके लिए।
प्रश्नकर्ता: तब तक के लिए फिर रिकॉर्डिंग देखूँ, मतलब बात करना छोड़ दें सबसे कि डिस्कस करना?
आचार्य प्रशांत: ये भी कर्मकाँडी प्रश्न है ना — "बात छोड़ दो, न छोड़ो" — रिकॉर्डिंग देखोगे तो बात तो होगी। पर प्राथमिक ज़ोर किस पर होना चाहिए? रिकॉर्डिंग पर। हाँ, आप रिकॉर्डिंग देखोगे तो उसके बाद बात होगी, तुम रोक नहीं सकते। लेकिन प्राथमिक चीज़ ये नहीं होनी चाहिए कि इधर-उधर कूद के ऐक्टिविज़्म दिखा रहे हैं, पहली चीज है — अपने ऊपर काम करना। लेकिन अपने ऊपर काम करोगे तो दूसरों की ओर भी काम शुरू हो जाएगा — अनिवार्यता। उसको तुम रोक नहीं पाओगे, वो होगा।
प्रश्नकर्ता: बस एक आख़िरी बात — जैसे तर्क वग़ैरह करना मैंने सीखा, आर्टिकल्स और ये सब पढ़ना — तो जैसे लोग कहते थे कि वीडियोज़ वग़ैरह नहीं समझ में आते, ओवरलोड हो जाते हैं — तो मैंने किताब की कोशिश करी और आर्टिकल्स की कोशिश करी, और भी तरह-तरह से विधियाँ लगाने की कोशिश करी कि शायद ऐसे कुछ समझ में आ जाए, ऐसे समझ में आ जाए।
आचार्य प्रशांत: किसको, उनको?
प्रश्नकर्ता: जी — जो भी मेरे आसपास लोग होते हैं। तो वो लोग कहते हैं कि — "तुम घेर रहे हो, सब सफोकेट कर रहे हो, घुटन-सी हो रही है, इतना सब कुछ एक ही जैसा देख-देख के, सारे दिन भर। यही-यही नहीं चलता, जीवन दूसरे तरीक़े का भी होता है।" तो मुझे तो समझ में नहीं आता — जैसे, मैं सारे दिन भर, मुझसे कोई मिलता है तो मैं यही बात करता हूँ और कोई बात मुझसे होती नहीं है।
आचार्य प्रशांत: तो ऐसों से ही मिलो ना जिनसे ये बात कर सको, या उनसे तभी ही मिलो जब वो ये बात कर सकें। तुम इतने सारे काम करते होंगे दिन भर, मैं तब तुम्हें थोड़ी ही मिलता हूँ। मैं तुम्हें मिलता ही तब हूँ — जब तुम कहो कि "अब मैं तैयार हूँ कोई ढंग की बात करने के लिए।"
तुम कहीं पिकनिक मनाने जा रहे हो वहाँ मैं तुम्हें थोड़ी मिलूँगा। एक समय निश्चित है, एक मन निश्चित है, एक दृष्टि निश्चित है। उस समय आकर के प्रश्न करोगे तो मुझसे बात हो जाएगी, ये रिश्ते का उच्चतम तल है। कर लो तुम्हें ज़िन्दगी में जो भी तुम्हें लगता है कि ज़रूरी है — तुम कहते हो "ये भी होना चाहिए, ज़िन्दगी में वो भी होना चाहिए" — तुम वो कर लो। और जब लगे कि — "वो बात करनी है जो मैं करना चाहता हूँ" तो मेरे पास आना। स्वागत है।
प्रश्नकर्ता: धन्यवाद, आचार्य जी।
प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आपने जो बताया कि बिना दुख के आत्मज्ञान की यात्रा असंभव है, और ये चैलेंज आता भी है जब हम दूसरे के आगे जाते हैं और आत्मज्ञान की ओर आने को कहते हैं। तो मैंने एक एप्रोच निकाली है, मैं ये जानना चाहता हूँ — वो सही है कि ग़लत है। क्योंकि दुख भी दो जगह का होता है — एक मेरा स्वयं का और एक बाहर का।
तो बाहर अगर दुख मुझे दिख भी रहा है — तो मुझे क्या मतलब? मेरा तो ठीक है, तो मैं आत्मज्ञान की तरफ़ क्यों आऊँ? तो मैंने क्या तरीक़ा निकाला है कि, जैसे अगर किसी के बच्चे हैं, तो मैं उससे कहता हूँ कि: "तुम इन बच्चों के लिए अच्छा जीवन चाहते हो, अच्छा भविष्य चाहते हो पर हक़ीक़त ये है कि 20–30 साल बाद ये जल-जल के मरने की हालत में हो जाएँगे। तो इसलिए तुम आत्मज्ञान के रास्ते पर आओ, ताकि दुनिया रहने लायक बची रहे, और तुम्हारे बच्चे भी जीवन को ठीक तरह से जी पाएँ।"
तो क्या ये एप्रोच ठीक है? या मैं उनको स्वार्थ की तरफ़ ले जा रहा हूँ?
आचार्य प्रशांत: काम कर जाए तो ठीक है, आज़मा लो। जिसमें एक तल का विवेक होगा, उस पर ये तरीक़ा शायद थोड़ा कामयाब हो। नहीं तो मुश्किल है — 20-30 साल बाद क्या होगा? ठीक अभी ही हवा कैसी है, दुनिया कैसी है — के बाद भी लोगों पर क्या फ़र्क़ पड़ रहा है? कुछ लोगों पर ये चीज़ सफल हो सकती है, आज़मा लो। जो ये विधि बोल रहे हैं, वो ये है कि, उनको दिखाना कि तुम्हारा कोई स्वार्थ ख़तरे में है, और उसकी वजह से आत्मज्ञान की ओर आओ।
चलता हो तो चले — अच्छी बात है, चल सकता है। कुछ लोगों पर चल सकता है। मैं क्या बोलूँ? स्वयं श्री कृष्ण को नहीं पता था। 18 योग हैं — कौन-सा चलेगा, उन्हें क्या पता? साफ़-साफ़ उन्हें भी पता होता तो एक अध्याय, बल्कि एक श्लोक काफ़ी होता। वो भी तो यही कर रहे हैं — जाओ, देखो।
प्रश्नकर्ता: जी, धन्यवाद।
आचार्य प्रशांत: मेरे लिए भी तो बहुत आसान होता — सिर्फ़ गीता पढ़ाता। अब गीता भी है, उपनिषद भी है, बुद्ध भी हैं, नागार्जुन हैं, उधर लाओ-त्से हैं, इधर बुल्ले शाह हैं, उधर कबीर साहब हैं, ये सब क्यों? उसमें भी श्लोक भी अलग-अलग हैं, दोहे भी अलग-अलग हैं, ये सब क्यों करना पड़ रहा है? जैसे चूहा इधर भाग रहा है, उधर भाग रहा है, जगह-जगह चूहेदानी रखनी पड़ती है। कहीं तो फँसे। कुछ पक्का नहीं कि अभी वो किधर को भागेगा। और किसी दिन किधर को भागता है, किसी दिन किधर को भागता है। जिस पर जो विधि काम कर जाए — चला लो।