अपनों से झगड़ा होने पर शांति वापस कैसे लाएँ?

Acharya Prashant

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अपनों से झगड़ा होने पर शांति वापस कैसे लाएँ?
अब अशांति है तो है, काम करो।अशांतियाँ आती रहेंगी, परेशान रहोगे पचास तरह की चीज़ रहेगी पर प्रेम है तो बात खत्म। न तो ये कहना की तकलीफ़ नहीं है; कोई पूछे की तकलीफ़ है तो कहना भयंकर तकलीफ़ है, पर काम तो चलता रहे और हम नाटक करेंगे नहीं, छुपाएँगे नहीं और हम ये भी बताये देते हैं कि तकलीफ़ बहुत है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जब कभी अपनों से झगड़ा हो जाता है तो मन अशांत तो हो जाता है फिर शांति पाने के लिए बहुत प्रयास क्यों करना पड़ता है?

आचार्य प्रशांत: अब अशांति है तो है, काम करो, है तो है इंसान का जन्म लिया है; देने वाला शांति दे रहा है तो ले लो ये तेरे हक की बात है कि तू क्या देगा हमें, हमारे हक में तो एक चीज़ है हम तेरी तरफ़ बढ़ते रहेंगे। देने वाले की मर्ज़ी वो परेशानियाँ दे रहा है तुम ले लो, क्या करोगे और क्या करोगे बताओ मैं चाहूँ तो तुम्हें कुछ टुटपुजिया (साधारण सा) उपाय बता सकता हूँ।

पर क्यों व्यर्थ बुद्धू बनना है तुम्हें तकलीफ़ मिलती है तुम ले लो, ठीक है दो, तेरी महफिल में किस्मत आज़माकर हम भी देखें, देखें तेरा दिल कितना कड़ा है कितनी तकलीफ़ें दे सकता है। बस एक काम मत करना किसी तकलीफ को इतना बड़ा मत मान लेना कि वो तुम्हें धर्म से विमुख कर दे, किसी डर को, किसी लालच को इतना बड़ा मत मान लेना कि वो तुम्हारा प्यार ही तोड़ दे।

अशांतियाँ आती रहेंगी, परेशान रहोगे पचास तरह की चीज़ रहेगी पर प्रेम है तो है बात खत्म। न तो ये कहना की तकलीफ़ नहीं है कोई पूछे की तकलीफ़ है तो कहना भयंकर तकलीफ़ है, तो कहे अच्छा तकलीफ़ बहुत है तो इसका मतलब काम नहीं करोगे? तुम कहना अजी! हटिए काम तो चलता रहे और हम नाटक करेंगे नहीं, छुपाएँगे नहीं और हम ये भी बताये देते हैं कि तकलीफ़ बहुत है।

अध्यात्म इसमें नहीं है कि तुम्हारी सारी तकलीफ़ मिट जाए, अध्यात्म इसमें है कि तकलीफ़ों के रहते हुए भी तुम डटे रहो। कमज़ोर लोग होते हैं जो माँगते हैं की तकलीफ़ें हटा दो, तकलीफ़ें हटा दो – कलेजे वाला आदमी तो कहता है कि लाओ कितनी तकलीफ़ें हैं लाओ, तोड़ दो हमें ज़र्रा-ज़र्रा कर दो चुरा-चुरा कर दो, देखो उसके बाद भी हम डटे रहते हैं कि नहीं!

हम ये नहीं कह रहे कि हमें तोड़ा नहीं जा सकता, हम ये नहीं कह रहे कि हमारा खून नहीं बहेगा, हम ये नहीं कह रहे कि हमें चोट नहीं लगेगा वो सब तुम कर सकते हो तुम्हारे हक की बात है, हमें एक बात पता है हम डटे रहेंगे। चोट खाकर भी जो लड़ता रहे उसकी लड़ाई में जो शान है आ हा हा! यही बात आँसुओं के लिए कह रहा था आँसू ने अगर तुमको बेबस कर दिया तो आँसू बन्धन हो गये और आँसू बहते जा रहे हैं लेकिन तुम्हारी यात्रा, तुम्हारी लड़ाई रुक नहीं रही तो आँसुओं में क्या शान है।

तगड़े जिओ, ताकत के बिना कोई सच नहीं, कोई प्यार नहीं। कमज़ोर बन जाने का मतलब होता है खुद को धोखा देना क्योंकि कमज़ोरी झूठ है। और जो तगड़ा नहीं है वह कोई प्यार वगैरह नहीं कर सकता उसका प्यार झूठ होगा। अगर तुममें ताकत नहीं है तो तुम्हारा प्यार भी टूट जाएगा।

अध्यात्म सिर्फ़ उनके लिए है जो मज़बूत लोग हैं, प्यार भी उन्हीं के लिए है और अध्यात्म और प्यार तो अलग-अलग शायद होते नहीं।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या हम घर पर रहकर भी आध्यात्मिक हो सकते हैं?

आचार्य प्रशांत: घर पर साँस लेते हो? ये कभी क्यों नहीं पूछते कि घर पर रहकर भी साँस ले सकते हैं क्या? अगर साँस लगातार चल सकती है तो सत्य लगातार क्यों नहीं चल सकता? ताकत, ताकत नहीं है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ध्यान का सही समय क्या है?

आचार्य प्रशांत: घड़ी देखो जो भी सही समय हो। ये वही बात है न की साँस का सही समय क्या है? इन चार दिनों में हमारा ज़ोर निरन्तरता पर रहा है और कौन सा समय सही समय है? हर समय।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, दो रास्ते हैं एक पर अकेले चलना है और एक पर कई सारे लोग हैं, पता है वहाँ कुछ नहीं है मगर समझ नहीं आता अकेले चलना चाहिए या सबके साथ?

आचार्य प्रशांत: न अकेलेपन का महत्व है, न कई लोगों के साथ चलने का महत्व है, महत्व है सच्चाई का, महत्व है प्रेम का, तुम सच्चे रास्ते चलो उस रास्ते पर तुम्हें बहुत लोग मिल गये बढ़िया बात है, उस रास्ते पर तुम्हें कोई नहीं मिला तो भी बढ़िया बात है। निर्णायक बात ये नहीं है की भीड़ के साथ जाना है, भीड़ के खिलाफ़ जाना है, अकेले जाना है, दुकेले जाना है ये बात केन्द्रीय नहीं है। इस बात को आधार बनाकर निर्णय नहीं कर सकते।

मूल बात क्या है, निर्धारण कहाँ से होना है, पैमाना क्या है? सच्चाई किधर है? जिधर सच्चाई है उधर चल दो कोई मिल गया तो ठीक।

प्रश्नकर्ता:: आचार्य जी, हमें पता है कि आलसी होना ठीक नहीं है मगर फिर भी आलस नहीं जाता है ऐसा क्यों?

आचार्य प्रशांत: कर्म, सिद्धान्त से नहीं उठ जाएगा। तुम लेटे हुए हो अलसा रहे हो और तुम अपने आप को ये सिद्धान्त बताओ की आलसी होना ठीक नहीं है, तो इस सिद्धान्त मात्र से कर्म जागृत नहीं हो जाएगा। कोई सौ बार आकर तुम्हें बताता रहे देखो, आलस बुरी बात है तुम कहोगे ठीक (चादर ओढ़ने का इशारा करते हुए) ज़रा पंखा तेज कर दो।

और वो तुम्हें बता रहा है आलस बुरी बात है ये सिद्धान्त हुआ न, क्या करोगे? तुम्हें कुछ ऐसा मिलना चाहिए जो तुम्हारे आलस को भारी पड़े तब आदमी आलस छोड़कर के भागता है। आलसी को सिद्धान्त नहीं, सौन्दर्य चाहिए। कुछ उसे दिखाओ जो इतना सुन्दर हो कि बिस्तर छोड़कर, चादर हटाकर बस भाग पड़े। कुछ उतना सुन्दर जीवन में आने दो न फिर आलस अपने आप दूर भाग जाएगा, फिर तो जितनी नींद आम आदमी को आती है उतनी भी नहीं आएगी। अभी तो ये है कि छः घंटे सोना चाहिए तो दस घंटे सोते हो फिर चार घंटे की भी नहीं आएगी, कुछ इतना कीमती आ गया है जीवन में कि अब सोने का जी नहीं करता, लगता है कि सोए भी तो समय व्यर्थ किया।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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