प्रश्नकर्ता: परिस्थितियाँ प्रतिकूल हों, मन आहत हुआ हुआ हो, संवाद के लिए तैयार न हो, इसमें इन सभी के प्रति कोई क्रिया न करना तभी सम्भव हो पाएगा अगर उसी समय, उसी परिस्थिति में देख सकें कि ये सच्चा नहीं है। लेकिन उसको सच्चा न देख पाना तब हो पाता है जब वो परिस्थिति बदल जाती है।
आचार्य प्रशांत: अभ्यास की भी बात होती है, अभ्यास क्या कर रखा है। किसी को तुमने ज़्यादा सम्मान कब दे दिया है, जब वो मूर्खता कर रहा हो और तुम उसको प्रतिक्रिया देना शुरू कर दो, या वो मूर्खता कर रहा हो और तुम अपना काम करते रहो, जल्दी बोलो।
ये अभ्यास की भी बात होती है। जिसने इस सिद्धांत का अभ्यास कर लिया कि मन, विचार, भावनाएँ, उत्तेजनाएँ, आवेग, ये तो पराये हैं उसको फिर बार-बार अपनी हर भावना, अपने हर आवेग का पुनर्मूल्यांकन या नव मूल्यांकन नहीं करना पड़ता कि क्या ये भी पराई है, क्या ये भी पराई है, क्या ये भी पराई है। उसके लिए तो बात सिद्धांत जैसी हो जाती है — ’ए स्क्वेयर प्लस बी स्क्वेयर इज़ इक्वल टू सी स्क्वेयर, फॉर ऑल ए बी सी, इन अ राइट एंगल्ड ट्राएंगल।’ (जैसे पाइथागोरस प्रमेय के अनुसार, हर समकोण त्रिभुज में कर्ण का वर्ग, आधार और लम्ब के वर्ग के योग के बराबर होता है।)
अब वो ये हर त्रिकोण पर नया-नया थोड़े ही आज़माएगा कि क्या इसमें भी हो रहा है, क्या इसमें भी हो रहा है, क्या इसमें भी हो रहा है। उसे पता है कि अब ये क्या है। ये एक थ्योरम (प्रमेय) है, ये एक प्रमेय हो चुका है, एक एक्ज़ियम (स्वयंसिद्ध कथन) हो गया है। इसको बार-बार अब आज़माने की ज़रूरत नहीं है। तीन, चार और पाँच में भी यही चलेगा — थ्री स्क्वेयर प्लस फोर स्क्वेयर बराबर फाइव स्क्वेयर। और छः, आठ और दस में भी यही चलेगा, और बारह, पाँच और तेरह में भी यही चलेगा।
बार-बार क्या आज़मा रहा हूँ मैं अब इसमें! कि कहा कि देखो पिछली भावना उठी थी मोह की, तो उसको मैंने आज़माया और आधे घंटे तक विचार करने पर पाया कि ये भावना तो पराई है। और अब भावना उठी है क्रोध की, और अब मैं इसको फिर से आज़मा रहा हूँ आधे घंटे तक और फिर नया-नया पाऊँगा। अरे, आज़माना क्या है, तुम्हें तो बस ये देखना है कि सामने जो तुम्हारे त्रिकोण है उसमें नब्बे डिग्री का अंश है कि नहीं है। अगर राइट एंगल्ड (समकोण) है तो बात ख़त्म हो गयी। हर बार नया-नया उसमें तुम प्रयोग करोगे क्या, और कहोगे कि जब तक प्रयोग करा तब तक बात बिगड़ चुकी थी और ज़्यादा? ये तो बात एक अभ्यास की है ताकि भीतर एक डिफॉल्ट तैयार हो जाए जो स्वयं को गंभीरता से लेता ही नहीं।
मैं अभी यहाँ तुमसे बात कर रहा हूँ। मुझे ऊपर बड़ा विचित्र लगा, सत्र से पहले मैं थोड़ी देर के लिए लेट गया था। अब जो हुआ हो, मैं बस एक बनियान पहन कर लेट गया था। ये जो कम्बल था, रजाई थी, हट गयी, तो मैं उठता हूँ और मेरे पूरा यहाँ (माथे) से लेकर के यहाँ गर्दन तक दर्द हो रहा है, और मेरी आँखें जल रही हैं। तो मैं अन्दर गया, मैंने तेल-वेल लगाया सिर पर, और मैं बाहर आता हूँ तो ये पहाड़ी मुझसे बोलता है, ‘आचार्य जी, तबियत बहुत ज़्यादा ख़राब है।’ मैंने कहा, ‘क्या हो रहा है?’ बोलता है, ‘सिर दर्द है और आँखें जल रही हैं।’
अभ्यास की बात है न। मेरा अभ्यास है कि ये सब होता रहेगा, मैं अपना काम करूँगा। इसका अभ्यास है कि कुछ भी हो जाए तो शोर मचाना है, शिकायत करनी है कि अरे-अरे, तबियत बहुत ख़राब हो गयी। ये तो अभ्यास की बात है। कोई सिर को, शरीर को, दर्द को, जलन को अपना मानता है, कोई इनको पराया मानता है। अनुभव देखो दोनों को होता है; ये तुम पर निर्भर करता है कि तुम इन्हें किस हद तक प्रश्रय देते हो, तुम इन्हें कितनी गंभीरता से लेते हो, तुम इन्हें भाव कितना देते हो। ख़ुद को ज़्यादा भाव देना ही अहंकार कहलाता है। अपनेआप को भाव देना कम करो। तुम कुछ नहीं हो।
प्र: अगर इस नियम में अपवाद नहीं होगें तो व्यावहारिक काम कैसे हो पाएँगे? क्योंकि इसी मन से बहुत सारी चीज़ें ऐसी भी करनी हैं जो.…
आचार्य: जब अपवाद होने होगें तो स्वयं हो जाएँगे। जब सिरदर्द इतना बढ़ जाएगा कि चलने लायक नहीं रहोगे तो ख़ुद ही रुक जाओगे।
प्र: शरीर वाली चीजें तो समझ में आती हैं, मन में से कोई बात क्लियर हो रही है वो…
आचार्य: नहीं, मन में कोई अपवाद नहीं होता। वो तो तुम्हारे अभ्यास के बल पर निर्भर करता है कि बल कितना है। अभ्यास में अगर पर्याप्त बल है तो कोई अपवाद नहीं रहेगा। क्रोध हो, काम हो, मोह हो, ईर्ष्या हो, संशय हो, तुम्हें पता है कि ये सब क्या हैं, ये मन के आवेग हैं। कोई लहर छोटी होती है, कोई लहर लगता है पहाड़ जितनी ऊँचाई की हो गयी; लहर तो लहर है, अपवाद क्या है उसमें?
अभ्यास करना सीखो, अभ्यास। अपने प्रति परायेपन का अभ्यास करो और ये अभ्यास बचपन से ही आरम्भ हो जाना चाहिए। विचित्र बात ये है कि अपने प्रति प्रेम और कल्याण का इससे ऊँचा प्रदर्शन नहीं हो सकता — अपने प्रति निर्मम वैराग्य। अपने प्रति निर्मम वैराग्य ही आत्मप्रेम है।
प्र२: आचार्य जी, मुक्ति के जो उपाय हम ढूँढ़ लेते हैं उससे हमारे अन्दर अहम् का ही पोषण होता है। इन उपायों को हम ख़ुद से कैसे बचायें? ये बार-बार मन में ख़ुद से उपाय आ जाते हैं, इनको ख़ुद से कैसे बचायें बार-बार?
आचार्य: देखो, ये बात महीन है। मन में जो आ रहा है उसको ये जानते रहना है कि मन का ही है, मानस से उठा है, मानसिक ही है; बस ये जानते रहो। ये भी नहीं तुम्हें करना है कि मैं इससे बचूँगा, क्योंकि जैसे ही बोला इससे बचना है, तुमने निर्णय ही कर रखा है कि इसका तो विरोध ही करना है, ये ग़लत है इसका तो विरोध ही करना है।
मैं जो बात बोल रहा हूँ वो बहुत-बहुत सूक्ष्म है। मैं तुमसे विरोध करने के लिए नहीं बोल रहा हूँ। मैं तुमसे लगातार इस बात के प्रति सतर्क रहने को कह रहा हूँ, जागरूक, क्या? कि जो भी विचार आ रहा है, सुझाव आ रहा है भीतर से वो मन का है, बस ये जान लो, उसके बाद जो होता है हो।
कभी-कभार ऐसा भी होगा कि जानने के बाद भी तुम उस सुझाव पर अमल कर लोगे, कभी-कभार, यदाकदा। वो कोई अपराध नहीं हो गया। कोई अपराध नहीं है न जानने के सिवा। लेकिन प्रबल सम्भावना यही है कि तुम अगर जान रहे हो कि भीतर से जो उठ रहा है वो मात्र भौतिक, जैविक, रासायनिक है, तो जो भीतर से उठ रहा है उसका आवेग शिथिल हो जाएगा और तुम उस पर जस-का-तस अमल नहीं करोगे। क्योंकि देखो, हमारी जो भावनाएँ वगैरह होती हैं न, वो बड़ी पाशविक होती हैं, उनमें बोध जैसा कुछ नहीं होता, मूर्खता से परिपूर्ण होती हैं; उन पर तुम कैसे अमल कर लोगे?
ये कहते हुए भी मैं ये भी कह रहा हूँ कि जो भी भीतर से उठ रहा है, हमारा काम उसका विरोध करना नहीं है। जैसे हमारा काम उसपर तत्क्षण अमल करना नहीं है वैसे ही हमारा काम उसका अनिवार्य विरोध करना भी नहीं है। न तो अनिवार्यतः अमल कर लेना है, न तो अनिवार्यतः विरोध कर लेना है, न ही अनिवार्यतः कोई तीसरी चीज़ कर लेनी है। कुछ भी अनिवार्य नहीं है जानने के सिवा। जानना भर अनिवार्य है।
अब फिर आप अधर में लटक जाते हो, आप पूछते हो, ‘जान कर होगा क्या?’ वो मैं बताऊँगा नहीं, क्योंकि वो मुझे पता नहीं, वो तुम जानो। बस ये है कि जानते हुए जो भी होता है, शुभ होता है; वही कल्याण है। जानते हुए तुम दायें भी जा सकते हो, बायें भी जा सकते हो — जानने में जा रहे हो, किधर को भी जा सकते हो, कोई नियम नहीं है, कोई बाध्यता नहीं है, जिधर भी जाओगे शुभ है।
अब ख़तरा जो है वो बता देता हूँ क्या है, जो मैंने बोला उसमें ख़तरा ये है कि तुम इसका उपयोग करके कहोगे, ‘आचार्य जी, मैं जो कर रहा हूँ जानते-बूझते कर रहा हूँ।’ तो जब तुम कुछ जानते-बूझते करो तो अपने इस जानने-बूझने को भी जानना। जब तुम कहो कि मैं अपनी भावनाओं को जानता हूँ तो फिर तुम ये भी जानना कि तुम अपनी भावनाओं को ये जो जानते हो, उसकी हक़ीक़त क्या है, क्योंकि हम बहुत ख़तरनाक और ख़ुफ़िया और मायावी लोग हैं। अभी मैंने बोल दिया न कि यदाकदा इस बात की भी सम्भावना है कि तुम्हारे भीतर जो आवेग उठ रहा है, तुम जानने के बाद भी उसी पर अमल करो। तुम फट से इस बात को लपक लोगे, और तुम देखना कि तुम्हें ये मेरी बात कितनी प्यारी लगी होगी। तुरन्त तुमने लपक लिया होगा। कई लोगों के तत्काल पेन चलने शुरू हो गये थे कि 'ये बात तो नोट ही कर लो; अब तो आचार्य जी ने भी अनुमति दे दी है, ये भी तो हो सकता है कि हमारी जो भावना उठ रही है, हम जानने के बाद भी उस भावना को समर्थन दे दें। तो लिख लो अभी ये। तो अब देखिए, आपने ही तो बोला था, पीछे मत जाइएगा, फँस गये अब आप।'
प्र३: आचार्य जी, अभी अपने बताया कि हमारे सारे कर्मों के पीछे मोक्ष की एक गहरी इच्छा होती है, परन्तु जैसे हम वैसे ही हमारे तरीक़े। इसीलिए हम यूँ ही भटकते रहते हैं। लेकिन कर्म तो हम करते ही हैं। अब कर्म की गुणवत्ता का पैमाना स्वयं को तो बनाया जा सकता नहीं है। तो क्या पैमाना बनायें कि कर्म भी सही रहे, गुणवत्ता भी बनी रहे और अहंकार हावी न हो?
आचार्य: कभी कोई भरोसा नहीं दिलाने वाला, कभी कोई आकर कोई आपको प्रमाणपत्र नहीं देने वाला कि आप जो कर्म कर रहे हो, निसंदेह सही कर्म है। मानव जन्म लिया है तो इस अनिश्चय में लगातार डोलना पड़ेगा, अनसर्टेनिटी में। आप अधिक-से-अधिक ये कर सकते हो कि अपनी ओर से जो अधिकतम सजगता है वो प्रदर्शित करते रहो। उसके बाद भी आप पूछो कि क्या जो मैंने करा वो ही बिलकुल सही निर्णय, निश्चय या कर्म था, तो इसका कोई प्रमाण नहीं है। बिलकुल नहीं है।
टेनिस खेलने जैसी बात है। आप अपनी पूरी जान से शॉट मरते हो, वो अधिकतम है जो आप कर सकते हो, आप पूछो, ‘क्या इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता था?’ इसका क्या जवाब दें? हाँ, इससे बेहतर भी शायद कुछ हो सकता था। पर आप तो वही करिए न जो आप कर सकते हैं, ऊँचे-से-ऊँचा, बेहतर-से-बेहतर। आपकी एक स्थिति है, शक्ति है, सामर्थ्य है, उसी अनुसार जो आप अधिकतम कर सकते हैं, करिए। लेकिन ये गौरव कभी भीतर मत बैठा लीजिएगा कि मैंने जो किया वो बिलकुल ठीक था। उससे बेहतर भी कुछ हो सकता है। कभी भी, कोई भी, जो कुछ भी कह रहा है, कर रहा है, सोच रहा है, उससे बेहतर भी कुछ हो सकता है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि अब आपको न कहना है, न करना है, न सोचना है।
आप अपनी ओर से जो अधिकतम कर सकते हैं, आप करिए। जो अधिकतम आपकी सजगता हो सकती है, आप उसको पकड़िए। द्वार से द्वार खुलते हैं, शिखर से शिखर उठते हैं, एक सोपान से अगला स्पष्ट होता है। आप आगे बढ़ते रहिए। पूर्णता की अभिलाषा अहंकार की ही अभिलाषा है कि मैं सत्य को पा ही लूँ बिलकुल और अपनी जेब में रख लूँ। जब आप पूछते हैं कि जो मैंने किया, क्या वो बिलकुल ठीक है, एब्सोल्यूटली राइट (पूर्ण रूप से ठीक) है, तो आप देख रहे हैं न आप क्या पाना चाहते हैं? आप किसको पाना चाह रहे हैं? एब्सोल्यूट (पूर्ण) को।
कुछ भी जो आप करेंगे वो बिलकुल ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि जो बिलकुल ठीक हो गया वो तो आख़िरी हो जाएगा। आप भी कहीं-न-कहीं वही चाह रहे हैं जो न जाने कितने पाखंडियों ने घोषित कर दिया कि उन्होंने चाहा और उन्हें मिला भी, क्या? एब्सोल्यूट (पूर्ण)। उसी को फिर एनलाइटनमेंट (प्रबोधन) कहते हैं न, कि मेरी यात्रा अब ख़त्म हो गयी, मैं अन्तिम बिन्दु पर पहुँच गया, मेरे लिए अब कुछ पाना शेष नहीं।
आप निरन्तर सजग रहें, और ये आशा भी मन में न बैठाएँ कि इस निरन्तर सजगता का कभी कोई अन्तिम बिन्दु आएगा। जब तक साँस चल रही है तब तक सजगता को चलना होगा।