अपने कर्मों का परिणाम देखा है? || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर : आइ.आइ.टी खड़गपुर सत्र (2020)

Acharya Prashant

5 min
52 reads
अपने कर्मों का परिणाम देखा है? || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर : आइ.आइ.टी खड़गपुर सत्र (2020)

प्रश्नकर्ता: श्रीमद्भगवद्गीता के निष्काम कर्म ने मुझे काफ़ी प्रभावित किया है और उसे बहुत समय से अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न कर रहा हूँ, पर निष्काम कर्म के सिद्धान्तों पर चलना मुझे दुष्कर लगता है। कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: निष्काम कर्म का अर्थ हमारे लिए है कि कामना पर आधारित कर्म करोगे तो और दुख पाओगे। और कामना पर आधारित कर्म तो आजीवन करते ही आये हो न। तभी अब गीता पढ़कर निष्काम कर्म को नया-नया जीवन में उतारने का प्रयास कर रहे हो।

ये तो नहीं कहते कि मैं सकाम कर्म को जीवन में उतारने का प्रयास कर रहा हूँ, वो तो उतरा ही हुआ है। ज़िन्दगी भर सकाम कर्म ही करा है। सकाम कर्म माने ऐसा कर्म जो अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए किया जाए। मेरे पास कोई कामना है, वो मुझे उपलब्ध हो सके, इसके लिए मैं कुछ करूँगा। ये सकाम कर्म है।

वो तो कर चुके हो न खूब। उससे क्या मिला, और कितना सुखदायी था वो कि अब उसकी तुलना में कह रहे हो कि निष्काम कर्म दुष्कर लगता है?

निष्काम कर्म का कोई विशेष मार्ग नहीं है। देखते नहीं हो नाम ही निष्-काम। ये नहीं बता रहा यह शब्द कि किसके लिए काम करना है, हाँ ये बहुत स्पष्टता के साथ बता रहा है कि किसके लिए काम नहीं करना है। किसके लिए काम नहीं करना है? कामना के लिए नहीं करना है।

हाँ, गीता है तो ये भी कह दिया गया है कि श्रीकृष्ण के लिए करो, जो भी कुछ करो श्रीकृष्ण के लिए करो, श्रीकृष्ण को अर्पित कर दो, श्रीकृष्ण को प्रयोजन मानकर करो, इत्यादि। पर श्रीकृष्ण तो अमूर्त हैं, निराकार हैं। श्रीकृष्ण के लिए कुछ क्या करोगे और कैसे अर्पित करने जाओगे श्रीकृष्ण को, कहाँ बैठे हैं, कहाँ पाओगे?

तो इसीलिए निष्काम कर्म को तो नकारात्मक तरीक़े से ही समझना पड़ेगा। निष्-काम — अपनी कामना के लिए कर्म मत करो क्योंकि आज तक तुमने अपनी कामना का ही पीछा किया है और पछताये हो। और पछताये अगर न होते तो निष्काम कर्म की ओर क्यों आते, जैसे चल रहा था चलने देते।

यहीं पर तुम्हें कुछ इशारा मिल रहा होगा। निष्काम कर्म सिर्फ़ उनके लिए है जो सकाम कर्म से पहले ऊब चुके हों। जिनको अभी सकाम कर्म में ही रुचि लग रही है, रस आ रहा है, मज़े हैं खूब, वो निष्काम कर्म की ओर आएँगे तो उनको निष्काम कर्म वैसा ही लगेगा जैसा कि तुमको लग रहा है, दुष्कर, मुश्किल। और वो मुश्किल तो है ही। मुश्किल न होता तो श्रीकृष्ण अर्जुन को इतना समझाते क्यों? इतना ही आसान होता निष्काम कर्म तो ज़रा से इशारे से बात बन गयी होती, इतना क्यों समझाना पड़ता?

तो निष्काम कर्म में जो कठिनाई निहित है, उसको तो तुम तभी झेल पाओगे और पार कर पाओगे जब पहले सकाम कर्म से तुम्हारा मन ऊब चुका हो। तो मैं तुम्हारी इस बात को बिलकुल चुनौती नहीं दूँगा कि निष्काम कर्म दुष्कर है। मैं तो तुमसे ये पूछूँगा, सकाम कर्म कैसा लगता था आज तक? निष्काम कर्म को बता रहे हो कि मुश्किल है, तो बताओ सकाम कर्म के साथ अनुभव कैसा रहा है तुम्हारा। उसकी बात करो न। उसमें प्रवेश करो, बार-बार पूछो अपनेआप से, ‘आजतक क्या खोया, क्या पाया?’ कोई भी कामना वास्तव में पूरी हुई है क्या? दिया उसने तुम्हें क्या, और सारी जीवन और ऊर्जा ले गयी।

निष्काम कर्म वास्तव में कोई सिद्धान्त नहीं है। निष्काम कर्म तो एक हारे हुए आदमी के जीने का तरीक़ा है। निष्काम कर्म उसी को उपलब्ध हो पाता है जो पहले ये स्वीकार करता है कि हाँ मैं जीवन से हारा हुआ हूँ।

कामना के मार्ग पर तो जीत प्रतीत होती है न। जिसको दिखाई दे कि कामना के मार्ग पर जीत नहीं खूब हार मिली है, निष्काम कर्म सिर्फ़ उसके लिए है। और फिर वो निष्काम कर्म की ओर स्वतः आ जाएगा, और जाएगा कहाँ! कामना हटी कि निष्कामता अपनेआप आ गयी। तो जब निष्काम कर्म मुश्किल लगे, जब कामनाओं को छोड़ना मुश्किल लगे, तो बस ये याद कर लेना कि कामनाओं से कैसे-कैसे दुख पाये हैं।

एक दुख है कामना का पीछा करने में, कामना की प्राप्ति में और एक दुख है कामना का त्याग करने में। ख़ुद ही तय कर लो कि दोनों में से बड़ा दुख कौन सा है। जब देख लोगे कि बड़ा दुख किधर है तो छोटा दुख फिर दुख नहीं लगेगा। फिर समझ जाओगे कि ये जो छोटा दुख है ये वास्तव में मुक्ति का रास्ता है। फिर अपनेआप जीवन में निष्कामता आ जाएगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
Categories