AP Circle -धर्मं चर धर्मान्न प्रमदितव्यम् (तैत्तिरीय उपनिषद्)

Acharya Prashant

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AP Circle -धर्मं चर धर्मान्न प्रमदितव्यम् (तैत्तिरीय उपनिषद्)

वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति। सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्मा प्रमदः। आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजानन्तुं मा व्यवच्छेसीः। सत्यान्न प्रमदितव्यम्। धर्मान्न प्रमदितव्यम्। कुशलान्न प्रमदितव्यम्। भूत्यै न प्रमदितव्यम्। स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्।।

’वेद के शिक्षण के पश्चात् आचार्य आश्रमस्थ शिष्यों को अनुशासन सिखाता है। सत्य बोलो। धर्मसम्मत कर्म करो। स्वाध्याय के प्रति प्रमाद मत करो। आचार्य को जो अभीष्ट हो वह धन (भिक्षा से) लाओ और संतान-परम्परा का छेदन न करो (यानी गृहस्थ बनकर संतानोत्पत्ति कर पितृऋण से मुक्त होओ)। सत्य के प्रति प्रमाद (भूल) न होवे, अर्थात् सत्य से मुख न मोड़ो। धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए। अपनी कुशल बनी रहे ऐसे कार्यों की अवहेलना न की जाए। ऐश्वर्य प्रदान करने वाले मंगल कर्मों से विरत नहीं होना चाहिए। स्वाध्याय तथा प्रवचन कार्य की अवहेलना न होवे।‘

~ तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक ११, मंत्र १

आचार्य प्रशांत: ‘धर्मं चर, धर्मान्न प्रमदितव्यम्’ तैत्तिरीय उपनिषद् से है। धर्म पर चलो, धर्म का आचरण करो, और धर्म से कभी डिगना नहीं चाहिए।

आमतौर पर उपनिषदों का आचरण से बड़ा कम सम्बन्ध रहता है। उपनिषद् जानने की, बोध की, ज्ञान की बात करते हैं। आचरण कैसा करना है कैसा नहीं, ये बातें जो निम्नतर ग्रंथ हैं उनके लिए छोड़ दी जाती हैं। नीति शास्त्र हो गए, और अन्य तरीके की पुस्तकें हैं जो बताती हैं कि फ़लानी चीज़ अच्छी है, बुरी है, पाप है, पुण्य है, उचित है, अनुचित है। ये सब काम उपनिषद् साधारणतया करते नहीं।

फिर यहाँ पर तैत्तिरीय क्यों कह रहा है, ‘धर्मं चर’, धर्म से डिगो मत? कारण है। हर व्यक्ति की जिज्ञासा तो यही होती है न, ‘करूँ क्या’? तो ऋषि ने अपने ही बड़े सूक्ष्म तरीके से बता दिया है कि धर्म करो! धर्म करो! और साथ-ही-साथ फिर ऋषि बार-बार ज़ोर देते हैं होने पर, कि तुम्हारी जो आंतरिक सत्ता है, जो अहम् की स्थिति है, वो ठीक होनी चाहिए।

इन दोनों बातों को मिलाइए तो क्या आपको पता चलता है? वो कह रहे हैं कि वही तो करोगे जो तुम होओगे। और अगर प्रश्न तुम्हारा ये है कि ‘क्या करूँ? मेरे लिए क्या करना अच्छा है?’ तो ऋषि का उत्तर ये है कि तुम अच्छा कर पाओ इसके लिए पहले तुम्हें अच्छा होना पड़ेगा।

घर्म अच्छा है। तुम्हारे आचरण के लिए धर्म अच्छा है, लेकिन तुम धर्मोचित आचरण कर तभी पाओगे जब भीतर से तुम धार्मिक हो जाओगे। और भीतर की धार्मिकता का क्या मतलब होता है? तमाम तरह की परंपराओं को, कर्मकांडों को, रीति-रिवाज़ों को आत्मस्थ कर लेना?

नहीं!

भीतर की धार्मिकता का मतलब होता है मन का स्पष्टता, बोध, शांति, सत्य, मुक्ति के प्रति अनवरत अनुराग।

ये है भीतर की धार्मिकता। भीतर जो है वो लगातार झुका हुआ है, किसके सामने? सच्चाई के सामने। भीतर जो है उसके प्रेम की धार अटूट है, किसके लिए? मुक्ति के लिए! ये भीतरी धार्मिकता है। जब भीतर ऐसी धार्मिकता होती है तो वो बाहर के आचरण में स्वतः ही परिलक्षित होती है। भीतर अगर है नहीं तो बाहर परिलक्षित क्या होगी! बाहर फिर अधिक-से-अधिक उसका आडम्बर करा जा सकता है।

उपनिषदों का सारा ज़ोर आंतरिक स्वास्थ्य पर है। वो कह रहे हैं, ‘भीतर से तुम स्वस्थ हो; आगे का काम अपनेआप हो जाएगा।‘ दुनिया में क्या करना है, क्या नहीं, किधर जाना है, किधर नहीं, क्या चुनना है, क्या छोड़ना है – ये सब तुम स्वतः जान जाओगे अगर भीतरी चक्षु तुम्हारे खुले हुए हैं। और भीतर ही अगर अंधेरा है तो बाहर रोशनी करके क्या मिल जाएगा? जिसके पास आँखें नहीं हों, उसको तुम सूरज के नीचे भी खड़ा कर दो तो उसको दिखाई क्या देगा?

फिर आगे हमें ऋषि कह रहे हैं कि धर्म से कभी डिगना मत। ये बात पहले वक्तव्य से ज़्यादा महत्वपूर्ण है। धर्म पर अडिग रहना, ये छोटी बात है। धर्म से डिग मत जाना, ये ज़्यादा उपयोगी, ज़्यादा महत्वपूर्ण बात है। क्योंकि धर्म से डिगाने वाले कारक बहुत हैं, और लगातार मौजूद हैं। उन्हीं के प्रति सतर्क रहना होता है। उन कारकों के प्रति सतर्क रह लो, तो फिर तो धर्म पर अडिग रह ही जाओगे।

मन तो आत्मा को ही चाहता है, और यदि उसको डिगाने वाली, कँपाने वाली, विचलित करने वाली शक्तियाँ, वृत्तियाँ न हों, तो मन तो सीधा आत्मा की ओर ही चला जाएगा। पर जाता नहीं है न! मन को इधर-उधर, दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे खींचने के लिए बहुत सारे विक्षेप मौजूद रहते हैं। उन्हीं विक्षेपों के कारण ऋषि कह रहे हैं – डिगना मत! डिगना मत! तुम बस यह देख लो कि क्या है जो तुमको धर्म के विपरीत खींच रहा है। उसके प्रति सतर्क रहो।

सारी जो प्रक्रिया है वो नकार की है, नेति की है, सावधानी की है, सतर्कता, सजगता की है। जो अच्छा है, जो शुभ है, जो उत्तम है, जो आत्मा है, उसको जीवन में लाने कि ज़रूरत नहीं होती। ज़रूरत होती है उसके विरुद्ध सतर्कता की जो अशुभ है, जो अनात्मा है। उसको ही जानना जैसे समस्त उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय है।

ब्रह्म विद्या – मैं कहा करता हूँ – एक अर्थ में माया का ज्ञान है। क्योंकि ब्रह्म का तो क्या ज्ञान होगा, वो तो अज्ञेय है। तो ज्ञान किसका होना है? ज्ञान अपना होना है। हमारे भीतर जो माया बैठी है, जो हमें लगातार कँपित करने के लिए आतुर रहती है उसका ज्ञान होना है, ताकि उससे बच सको।

जिसको जान गए उससे बच जाओगे। जिसके प्रति अभी अंधेरे में हो, उसके ग्रास बन जाओगे। ये उपनिषदों की शिक्षा है। यही यहाँ पर ऋषि की देशना है। ‘धर्मं चर’, धर्म पर टिके रहो। और धर्म पर टिकने के लिए बाहरी आयोजन बहुत काम नहीं आएँगे। भीतरी स्पष्टता ही काम आती है।

उस भीतरी स्पष्टता के प्रति लगाव को प्रेम कहते हैं। उसी भीतरी स्पष्टता के विरुद्ध जो आंतरिक अंधेरे खड़े रहते हैं, उनको जानने को ज्ञान कहते हैं। वो भीतरी स्पष्टता फिर दुनिया में तुमसे सारे सही काम करा देगी। या ऐसे कह लो कि वो भीतरी स्पष्टता आ गई तो बाहर जो कुछ भी करोगे वो शुभ ही होगा।

फिर शुभ-अशुभ की पहचान इससे हो जाएगी कि आप कर क्या रहे हो। जो आप कर रहे हो – अगर आप भीतरी तौर पर धार्मिक हो – वो फिर शुभ है। जो भी कर रहे हो, शुभ है। इतना आपको आंतरिक सशक्तिकरण और इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी देते हैं उपनिषद्। भीतर से ठीक रहो! भीतर से ठीक रहो!

भीतर से ठीक होना तुम्हारा कर्तव्य है। और भीतर से अगर ठीक हो, तो बाहर स्वेच्छानुसार, मुक्तेछा से विचरण करना तुम्हारा अधिकार है। अब यहाँ सशक्तिकरण भी आ गया, अधिकार भी आ गए, कर्तव्य भी आ गए। सब आ गया!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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