प्रश्न: सर, जीवन में अनुशासन का क्या महत्व है?
वक्ता: कोई भी महत्व नहीं है। बिल्कुल भी महत्व नहीं है। तुम लोग आज सुबह भीतर जाकर अपने प्रशन लिख रहे थे, अपने मन को जान रहे थे की क्या है जो चल रहा है। क्या तुमने गौर किया था कि यहाँ पर कितना सुंदर मौन आ गया था? थोड़ी सी भी आवाज़ नहीं हो रही थी और वो किसी अनुशासन का नतीज़ा नहीं थी। यह तय करना कि हमें नहीं बोलना चाहिए ये अनुशासन की बात है। और तुमने तब न तय किया था कि हमें नहीं बोलना, न तुम्हें डराया, धमकाया गया था, न तुम्हें कोई प्रलोभन दिया गया था। फिर भी एक सुंदर, घना मौन था जो की आता भी नहीं है। कितना भी अनुशासित होने की कोशिश कर लो इतना मौन कभी नहीं आता।
अनुशासन का अर्थ है आचरण को बाहर से थोपना। जिस प्रकार का आचरण उचित है, उसको अपने ऊपर लाद लेना। आचरण तुम्हारी समझ की छाया की तरह होना चाहिए। जब भी कोई कर्म तुम्हारी समझ के फल स्वरूप होता है, तब उसमें एक गहराई होती है, एक असलियत होती है। तब तुम्हें अनुशासन की ज़रुरत नहीं होती, समझ काफ़ी होती है और समझ ही काफ़ी होनी चाहिए। अनुशासन का कोई महत्व नहीं है। तुम्हें अक्सर अनुशासन इसलिए चाहिए होता है क्योंकि तुम समझते नहीं हो। जो समझता हो उसको अनुशासित किया भी नहीं जा सकता। वो वही करेगा जो उसकी समझ उसे बताएगी। तुम्हें अनुशासित किया जा सकता है और तुम्हें ज़रूरत भी है अनुशासन की। तुम्हें आचरणबद्ध नियमों की ज़रूरत है भी क्योंकि तुम्हारे जीवन में अपना कुछ नहीं है। कैसे चलना है वो कोई और बताता है, और तुम वैसे ही चलते हो कि कहीं चाल टेढ़ी न हो जाए। तो किसी को तुम्हें अनुशासित करना पड़ता है। नाक की सीध में चलो, फिर दाएँ मुड़ो, फिर बाएँ, तो अब ये अनुशासन हो गया। तुम्हारी अपनी समझ से जीवन में कुछ नहीं होता इसलिए किसी को तुम्हें बताना पड़ता है की ऐसे बैठो और वैसे बैठो और ऐसे उठो।
जितना विवेक कम होगा, अनुशासन की ज़रूरत उतनी पड़ेगी।
एक छोटे बच्चे को अनुशासित किया जाना पड़ता है और आवश्यकता भी है, नहीं तो वो जा कर बिजली के सॉकेट में उंगली डाल देगा। उसको अनुशासित करना पड़ेगा कि उधर नहीं जाना है और बिना मुझसे पूछे ये सब काम नहीं करने हैं। उसको बताना पड़ेगा, नहीं तो उसकी जान को खतरा है। पर तुम छोटे नहीं हो, तुम बच्चे नहीं हो। तुम्हारे जीवन में एक लयबद्धता होनी चाहिए। तुम्हारे जीवन में अंतस से उठने वाला स्वर-संगीत होना चाहिए और ये परम अनुशासन है, यह अपना है। अब तुम्हारी वो स्थिति चली गयी जब कोई बाहर का आकर तुम पर नियम आरोपित करे, तुम्हारे आचरण को नियमित करे। समझदारी ही सारी व्यवस्था की जड़ है। व्यवस्था समझते हो? वही अनुशासन है। एक व्यवस्थित तरीके से काम करना। वो व्यवस्था अपनी समझ से निकले। तुम्हें खुद पता हो कि अब मेरे लिए क्या उचित है और अब क्या किया जाना चाहिए।
– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।