अंतर्भाव मात्र अज्ञान || (2015)

Acharya Prashant

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अंतर्भाव मात्र अज्ञान || (2015)

उद्धरण: अपने साथ सहजता से रहो; ये स्वीकार करना बहुत ज़रूरी होता है कि, ‘मैं तो ऐसा ही हूँ।’ जब ये स्वीकार शुरू हो जाता है कि मेरी हालत ऐसी ही है तब फिर बदलाव आने लग जाता है। बड़ी अजीब बात है—जो बदलाव लाने की कोशिश करता है वो पाता है कि सिर्फ उसे अटकाव मिल रहा है, जैसा है वहीं अटक गया और जो स्वीकार कर लेता है अपनी वस्तुस्थिति को उसके जीवन में बदलाव आने लग जाते हैं।

प्रश्नकर्ता: सर, आपने बताया कि आध्यात्मिकता में हम चीज़ों को वैसा देखते हैं जैसी वो होती हैं। जब हम चीज़ों को वैसा देखते हैं जैसी वो हैं तो हम कह रहे हैं कि जो भी मैं हूँ उन नज़रों से देख रहा हूँ। तो अगर कोई लाल रंग हैं और मैं उसको बचपन से काला बोलता आया हूँ, तो मैं उसको काला ही बोलूँगा न?

आचार्य प्रशांत: ये अनिवार्य नहीं है। अगर तुम इतनी कल्पना कर सकते हो कि, "मैं तो हमेशा से काला ही बोलता आ रहा था तो आगे भी काला ही बोलूँगा।" इसकी कल्पना भी अगर कर सकते हो तो इतना तो तुमको भास हो ही रहा है कि ये गड़बड़ होती है। हो रहा है न? तो जैसे अभी हो रहा है, वैसे देखते वक़्त भी ख्याल रखो।

ऐसी कोई गड़बड़ तुम्हारे साथ नहीं हो रही है जिसका तुम्हें गहरे में पता ना हो इसीलिए आध्यात्मिकता संभव है, इसीलिए आदमी के लिए कोई उम्मीद है।

तुम्हारे साथ कुछ भी ऐसा नहीं हो रहा है, जिसको जानने में तुम पूर्णतया असमर्थ हो। कुछ बातें सतह पर होती हैं तो वो तुमको जल्दी दिख जाएँगी, जैसे, मेरे हाथ पर मान लो यहाँ घाव है तो वो मुझे जल्दी से दिख जाएगा। तुम्हारे मन में घाव है, तुम सोच रहे हो किसी ने तुम्हें नुकसान पहुँचा दिया, चोट दी है, तुम बदला लेना चाहते हो— वो ज़रा सा ध्यान दोगे तो दिख जाएगा। इसपर तो ध्यान नहीं भी दोगे तो भी जब मैं तुमसे बात कर रहा हूँ, हाथ ऐसे किया, घाव दिख गया, बिना ध्यान दिए ही दिख गया।

वैचारिक तल पर जो घाव है, वो थोड़ा ध्यान दोगे तो दिख जाएगा। वृत्ति के तल पर जो घाव है, वो और गहरा ध्यान दोगे तो दिख जाएगा। पर तुम्हारे पास ऐसा कुछ भी नहीं है जो ध्यान देने पर तुम्हें दिख न जाए और इसीलिए ध्यान का इतना महत्व है! ये जो बार-बार, लगातार इतने लोगों ने, इतने ग्रंथों में, इतने समय से, कहा है, “ध्यान! ध्यान! ध्यान!” वो इसीलिए कहा है क्योंकि वो कारगर है! वो काम करता है। देखोगे तो दिखेगा! कोई ये ना कहे कि ‘मुझे पता ही नहीं’, तुम्हें पता नहीं है तो फिर तुम्हारी अभी नीयत नहीं है।

सब दिख जाता है, कहीं-न-कहीं हम सब वाक़िफ़ हैं, हम सब जानते हैं। मैडीटेटिव अंडरस्टैंडिंग (ध्यानतत्पर समझ) यही तो होती है। जो ये बार-बार कहा जाता है कि 'अन्दर से ज्ञान उठा', वो और क्या होता है? वो यही तो होता है कि पता तो सभी को है, ये कोई नयी बातें नहीं है। पता तो सभी को है, ये कोई आप तापमान का डेटा (जानकारी) तो इकट्ठा कर नहीं रहे हो कि आपको दस जगह से जा करके प्रयोगात्मक परिणाम लेने पड़ेंगे। ये तो जीवन की बात है और आप जीव हो। जीव को जीवन के बारे में पता नहीं होगा तो किसको पता होगा?

चुनाव के नतीजे आ रहे हैं, तो वो आपको आँख बंद करके नहीं पता चल सकते। उसके लिए तो इंटरनेट , टी.वी ही देखना पड़ेगा। लेकिन जीवन तो पता है न? क्योंकि जीने वाले तो तुम ही हो। इसलिए ध्यान का इतना महत्व है, देखोगे ग़ौर से तो दिखेगा। चुनाव का नतीजा नहीं दिखेगा, वो कभी नहीं दिखेगा तुम कितनी कोशिश कर लो, कितना गहरा ध्यान लगा लो, तुम्हें नहीं पता चल सकता। लेकिन चुनावों के नतीजों से ज़्यादा कीमती जो है वो तुम्हें पता चल जाएगा।

प्र२: सर, जो आम बोलचाल की भाषा है उसमें मैडीटेटिव अंडरस्टैंडिंग (ध्यानतत्पर समझ) को लोगों को मैंने इंटयूशन (अंतर्बोध) से प्रतिस्थापित करते हुए देखा है। वो इंटयूशन कह करके उल्लेख मैडीटेटिव अंडरस्टैंडिंग को ही करना चाहते हैं और यहाँ बड़ी गड़बड़ होती है।

आचार्य: बहुत गड़बड़ होती है; ये अहंकार की चाल है एक तरह की। देखिए इंटयूशन आपका होता है, आप जब इंटयूशन कहते हो—अंतर्बोध; जैसे अंतरात्मा कहने लग जाते हैं न लोग; इंटयूशन के लिए जो नाम होता है वो है 'अंतर्बोध'। अब अंतरात्मा क्या होती है? जब आप कहते हो 'अंतरात्मा' तो आपका आशय होता है 'मेरी अंतरात्मा, उसकी अंतरात्मा'।

ना आत्मा अलग-अलग होती है, ना बोध अलग-अलग होते हैं। तो उसी तरीके से अंतर्बोध शब्द ही ग़लत है। जैसे अंतरात्मा शब्द ग़लत है वैसे अंतर्बोध शब्द ही ग़लत है।

लेकिन आदमी को बड़ा अच्छा लगता है क्योंकि ये दावा फिर हो जाता है न कि ‘मेरा बोध!’ समर्पण से बच गए आप। आप बड़े हो गए, बोध छोटा हो गया, 'मेरा बोध!'—अब मेरा कब्ज़ा हो गया बोध पर। समर्पण से बचने के लिए बड़ी-बड़ी ख़ुफ़िया चालें चलता है मन, कभी कहेगा कि इंटयूशन है, मेरी सिक्स्थ सेन्स (छठी इंद्री) है, मेरी अंतरात्मा है— ये सब बेकार की बातें हैं। तुम्हें जाना ही होगा और पूरा जाना होगा, अपना कपड़ा-लत्ता सब लेकर, बोरिया-बिस्तर साफ़ करो तुम!

आदमी की हालत वैसी ही रहती है जैसे कोई जिद्दी किरायेदार कहे कि, “दो दिन और! अच्छा ठीक है पूरा घर छोड़ देंगे वो पीछे नौकरों वाला कमरा तो रहने दीजिए, उसमें हम अपना सामान रख देंगे।” नहीं, पूरा खाली करना पड़ेगा, पूरा खाली करो तब कुछ बात बनेगी।

प्र३: सर, ऐसा होता है कभी-कभी कि कोई भी परिस्थिति हो ज़िन्दगी में तो रिफ्लेक्स–रिएक्शन (पलट-प्रतिक्रिया) होता है, अगर गुस्सा आना है तो वो आ जाता है। क्योंकि हम इतने लिप्त हैं जो दुःख हो रहा है उसमें, कि लग जाता है कभी-कभी आधा घण्टा, एक घण्टा, शायद छह घण्टे, और उसके बाद अचानक से ये विचार आता है, कि ‘क्यों किया?’

आचार्य: जब आया तभी भला, जब आया तभी शुभ।

प्र३: तो, वो जो समय की अवधि है वो कम होनी चाहिए, पीड़ा इतनी नहीं होने चाहिए।

आचार्य: वो माँग करने से नहीं कम होगा, जब समझ में आए तब उसके साथ रहो, तब उसको दबाओ मत, तब जानने की कोशिश करो। उस समय अवधि को कम करने का यही तरीका है। तुम नारे लगा लो कि, "छः घण्टे बाद क्यों मुझे बोध होता है?" तो उससे कुछ नहीं होगा। अस्तित्व का कोई दायित्व नहीं है कि तुम्हारी माँगें माने, तुम माँग करते जाओ वो मानेगा नहीं।

जब मिल रहा है तभी धन्यवाद दो, कि, "ठीक है छः घण्टे बाद समझ में आयी बात पर आयी तो!" और जब समझ में आयी है तो उस समझ के साथ रहो फिर, उसको गहरा होने दो, उसको अपने ऊपर छा जाने दो, उसको अपने ऊपर कब्ज़ा कर लेने दो। फिर अगली बार छह का पाँच घण्टा हो जाएगा। बात आगे बढ़ती है ऐसे, पर धक्का देकर नहीं होगा, धक्का मत देना!

अपने साथ सहजता से रहो; ये स्वीकार करना बहुत ज़रूरी होता है कि, ‘मैं तो ऐसी ही हूँ।’ जब ये स्वीकार शुरू हो जाता है कि, "मेरी हालत ऐसी ही है", तब फिर बदलाव आने लग जाता है। बड़ी अजीब बात है—जो बदलाव लाने की कोशिश करता है वो पाता है कि सिर्फ़ उसे अटकाव मिल रहा है, जैसा है वहीं अटक गया और जो स्वीकार कर लेता है अपनी वस्तुस्थिति को उसके जीवन में बदलाव आने लग जाते हैं।

स्वीकार ना कर पाने का एक ही कारण होता है - नैतिकता।

‘हम मान कैसे लें कि हम इतने गिरे हुए हैं!’ लेकिन, तुम बदलोगे ही तभी जब पहले मानोगे कि गिरे हुए हो। तो जल्दी से मान लो कि, "हाँ हम तो गिरे हुए ही हैं।" मान लो ईमानदारी से, और जो माना है उसके साथ रहो। एक बार तुम मान लेते हो कि ‘ऐसा ही है, कोई विरोध नहीं कर रहा हूँ मैं, ऐसा ही है, स्थिति मेरी ऐसी ही है, और मुझे इसका कोई विरोध नहीं है। मुझे बस जानना है कि मैं ऐसा हूँ’ तो अब तुम चाह नहीं रहे हो कि कोई बदलाव आए, लेकिन बदलाव अपने-आप आएगा। कैसा आएगा? किस दिशा में आएगा? वो तुम नहीं जान सकते। वो तुम्हारी योजना के मुताबिक नहीं आएगा, लेकिन अब आएगा, अपने-आप आएगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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