प्रश्नकर्ता: सर, यहाँ पर बोल रहे हैं कि;
बाय हिज़ कमांड बॉडीज़ आर क्रिएटेड; हिज़ कमांड कैन नॉट बी डिसक्राइब्ड।
(उसके आदेश से शरीर बनाया गया है; उसके आदेशों का विवरण नहीं किया जा सकता है)
सर, तो जो आदेश आपके शरीर को बना रहा है…
आचार्य प्रशांत: आपका शरीर नहीं, आकार मात्र। जो कुछ भी आकार रूप में है, दृश्य रूप में है, वो उसने बनाया नहीं है, वो ही उसका हुक्म है।
बनाना तुम्हारी दुनिया में होता है। बनाना तुम्हारी दुनिया में होता है क्योंकि तुम्हारी दुनिया भेद की, विभाजन की दुनिया है। तुम्हारी दुनिया में तुम बैठ कर के कुछ बनाते हो। तुम्हारी दुनिया में अलग-अलग सत्व हैं। उसकी दुनिया में कोई भेद नहीं है न, तो बनाने का सवाल ही नहीं पैदा होता। बस मर्ज़ी है, कोई उत्पादन नहीं। उत्पादन तुम्हारी दुनिया में होता है; वहाँ सिर्फ़ मर्ज़ी है।
प्र: सर, हमारा मन सीमित है, हम उसके हुक्म का विवरण नहीं कर सकते।
आचार्य: तुम वही करोगे विवरण करते समय। अपनी दुनिया के तरीकों से उसकी दुनिया का विवरण करने की कोशिश करोगे, और ये बिलकुल फ़ज़ीहत की बात है, जैसे कि कोई दो डायमेंशनल प्लेन (आयाम विषयक) में एक्स-वाई तल में ज़ेड आयाम का विवरण करना चाहता हो। और वो बड़ी-से-बड़ी इक्वेशन (समीकरण) लिख दे। बड़ी-से-बड़ी समीकरण लिख दे एक्स-वाई आयाम में, क्या वो ज़ेड आयाम को छू सकता है? नहीं छू सकता न, तो ये बस यही है, उसी को कह रहे हैं कि क्यों फ़ालतू कोशिश कर रहे हो।
प्र२: कृष्ण कहते हैं कि जो है वो मैं ही हूँ—यह माया भी मैं ही हूँ, कमांड एंड द कमांडर इज़ वन (हुक्म और हुक्म देने वाला एक ही है)।
आचार्य: एक ही हैं। कमांडर कमांड के अलावा और कुछ है नहीं। (हुक्म हुक्म देने वाले के अलावा और कुछ नहीं है।)
प्र३: सर, ये जो अभी हमने उक्ति पढ़ी, यह बात उसके विपरीत है:
‘*लिसनिंग - द अनरीचेबल कम्स विदिन योर ग्रास्प*’।
(सुनने भर से वो, जो अगम्य है, वो जो अप्राप्य है, वो तुम्हारी मुट्ठी में आ जाएगा।)
आचार्य: अब तो ये फँस गई बात। (हँसते हुए)
एक तरफ़ तो कह रहे हैं कि उसकी महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता, और दूसरी तरफ़ कह रहे हैं कि सुन भर लो तो वो, जो अगम्य है, वो जो अप्राप्य है, वो तुम्हारी मुट्ठी में आ जाएगा। यहाँ पर शब्दों की सीमा को खींचा जा रहा है, समझो बात को। जब वो कह रहे हैं कि सुन भर लो तो अगम्य तक पहुँच जाओगे, अप्राप्य को पा लोगे, तो सुनने का अर्थ समझो। वो सुनना वो है जिसमें मुट्ठी क्या, हाथ क्या, तुम भी मौजूद नहीं हो। वहाँ पर वो तुम्हें मिल तो जाएगा पर वैसे ही मिलेगा जैसे;
“बूँद समानी समुंद में, जानत है सब कोई”। (गुरु कबीर की एक पंक्ति का उच्चारण करते हुए)
वो मिल तो तुम्हें जाएगा पर जिसे मिलेगा वो तुम नहीं होगे, अनुराधा (श्रोता को इंगित करते हुए) को नहीं मिलेगा। मिल तो जाएगा पर तुम्हें नहीं मिलेगा, तुम अपने-आप को खोजोगी तो नहीं पाओगी, उसको तो पा लोगी पर फिर कहोगी, "मैं कहाँ गई?"
बूँद ने समुद्र को तो पा लिया पर वो अपने-आप को कहाँ खोजे? कहाँ गई वो? खोज कर दिखाओ। तो दोनों बातें बोलनी पड़ती हैं। एक तरफ़ तो कहना पड़ता है कि तुम्हें मिल ही नहीं सकता और दूसरी तरफ़ कहना पड़ता है कि तुम्हें मिला ही हुआ है, खोज क्या रहे हो? तो इसीलिए इनको सुनने वाला कान बड़ा समर्पित कान होना चाहिए। तर्क से इन्हें नहीं सुना जाता, तय कर कर के नहीं सुना जाता, परीक्षा लेकर नहीं सुना जाता; बिलकुल शांत हो कर के बहने दिया जाता है, तब समझ में आती है बात और कोई भी बुद्धिजीवी निश्चित रूप से प्रश्न उठाएगा कि, ‘ये क्या आप दो विपरीत बातें करते रहते हैं। एक तरफ़ तो कहते हैं कि मिलना असंभव है और दूसरी तरफ़ कहते हैं कि मिला ही हुआ है, खोजना व्यर्थ है, कि क्या आप दो विपरीत बातें करते रहते हैं।’ बुद्धि से ये बात कभी समझ में नहीं आएगी कि ये दोनों बातें एक ही हैं। इसीलिए पहले भी कहा तर्क मत करना।
प्र५: सर, यह दो वाक्य भी कहे जाते हैं, पहला, ‘तुम पूर्ण हो, तुम में कोई कमी नहीं है’; दूसरा, ‘तुम अहंकार हो’। कृपया सहायता करें इन्हें समझने में।
आचार्य: बिलकुल अब तुम अड़ सकते हो कि, “एक बता दो। या तो यही बोल दो कि मैं गया, गुज़रा, कुत्ता कमीना। या यही बोल दो कि मैं परम, ऊँचे-से-ऊँचा, देवों का देव, पर दोनों में मत फँसा कर रखो।”
तुम ये माँग कर सकते हो।
किससे करोगे? (हँसते हुए)
प्र६: “*यू योरसेल्फ आर स्टैंडिंग बिटवीन यू एंड यू*”—यानी कि सब मिला हुआ है पर फिर भी नहीं मिला है।
(आचार्य जी की एक उक्ति का उच्चारण करते हुए; उक्ति: तुम ख़ुद ही खड़े हो तुम्हारे (आत्मा) और तुम्हारे (अहंकार) बीच।)
आचार्य: हाँ, इसीलिए ब्रह्म विद्या सूक्ष्मतम ज्ञान है। जिसने इसको समझ लिया उसके लिए बाकी सारे काम एकदम आसान हो जाते हैं क्योंकि ये एकदम सूक्ष्म है। जो इसको समझने लग गया उसे बाकी सब बड़ी आसानी से समझ में आ जाता है।
आध्यात्मिक मन दुनिया को जितनी गहराई से समझता है उतना संसारी मन कभी भी नहीं समझ सकता। जिसने सूक्ष्मतम को समझ लिया वो बाकी बातों के लिए बड़ा प्रवीण अपने-आप हो जाता है।
उसको नहीं दिक़्क़त आएगी, बाकी दुनिया के सारे काम उसके लिए सध जाएँगे—‘एक साधे सब सधे’। फिर वो कुछ भी करने निकलेगा, बढ़िया ही करेगा क्योंकि जो भी करने निकल रहे हो वो दुनिया तो मन की ही है न। उसने मन को ही समझ लिया है तो उसे सब समझ में आता है। एक तीव्रता आ जाती है तुम्हारी आँख में, तुम्हें सब दिखाई देने लगता है। तुम सब पढ़ लेते हो कि क्या चल रहा है। अब तुम्हें मूर्ख नहीं बनाया जा सकता।
इसीलिए साल भर पहले करीब वो जो भेजा था आप लोगों को कि;
‘*स्पिरिचुएलिटी इज़ नॉट अबाउट हेवन्स ऑर गॉड, इट्स अबाउट नॉट बीइंग स्टूपिड*’।
(आध्यात्मिकता स्वर्ग या भगवान के बारे में नहीं है, ये मूर्ख ना होने के बारे में है।)
संसारी मन मूर्ख होता है, उसे कुछ समझ में नहीं आता, उसे कुछ दिखाई नहीं देता। बिलकुल व्यर्थ बकवास में लगा रहता है। आध्यात्मिक मन में वो, धार आ गई है जिसमें। जो महीन-से-महीन भेद भी कर लेता है, और वहाँ भी स्थित रहता है जहाँ कोई भेद भी नहीं है।
इसीलिए संत बादशाह होता है।
बादशाह कौन?
जो मालकियत करे पर जिसका कोई मालिक ना हो सके।
बादशाह की यही परिभाषा है न? संत इसीलिए बादशाह होता है क्योंकि उसे सब दिखाई देता है। उसकी आँखों में एक्स-रे मशीन है, कानों में सोनार , सब दिखता है। चश्मा पहनता है तो *नाईट विज़न इन्फ्रा रेड डिवाइस*। (ऐसा चश्मा जिससे रात में भी देखा जा सकता है।)