Animal और मेरा देश || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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Animal और मेरा देश || आचार्य प्रशांत (2023)

आचार्य प्रशांत: आप जो चाहो, जिसको चाहो, दिखा सकते हो, कैमरे का मतलब ही होता है झूठ। कैमरे का तो मतलब ही झूठ है।

प्रश्नकर्ता: और ये सब कंटेंट (सामग्री) बनाया भी जा रहा है, फ़्रीडम ऑफ़ स्पीच (अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता)। वो बोल रहे हैं कि ये फ़िल्म बनाना हमारी फ़्रीडम ऑफ़ स्पीच है।

आचार्य: तो वो बात ठीक है लेकिन फ़्रीडम और इक्वालिटी (समानता) फिर एकसाथ चलेंगे न। हम कॉन्स्टीट्यूशन (संविधान) को ही ले लें जहाँ पर फ़्रीडम की बात होती है, वहाँ इक्वालिटी ऑफ़ ऑपर्चुनिटि (बराबरी का अवसर) की भी बात होती है, ठीक है? फ्रेंच रिवॉल्यूशन में तो लिबर्टी (स्वतन्त्रता) और फिर आता है इक्वालिटी , फिर आता है फेर्टर्निटि (पितृत्व), तो लिबर्टी और इक्वालिटी साथ-साथ चलते हैं।

तो वहाँ फ़्रीडम है ये मूवी बनाने की, और मुझे भी फ़्रीडम है इस मूवी पर कुछ बोलने की, बट डू वी हैव ईक्वल ऑपर्चुनिटि टू मेक आरसेल्वस् हर्ड (लेकिन क्या हमारे पास बराबर का अधिकार है सुने जाने का)?

प्र: हाँ।

आचार्य प्रशांत: जब जो जितने भी चैनल्स हैं वॉइस (आवाज़) के, वो मोनोपोलाइज़्ड (एकाधिकार) हैं, तो आपके पास अब लिबर्टी नहीं है, आपके पास मोनोपोली है एक।

प्र: सर, वो मोनॉपॉलाइज़्ड कैसे हैं, अपलोड तो कोई भी कर सकता है?

आचार्य: अच्छा, चलो हम मूवी बनाते हैं, करो किस थियटर में रिलीज करोगे? ओटीटी पर भी कैसे कर लोगे? पहली बात तो बनाओगे कैसे, उसके लिए जो कैपिटल (पूँजी) चाहिए वो कहाँ से लाओगे? चलो पोलिटिकल पार्टी (राजनैतिक पार्टी) बनाते हैं, कैसे बनाओगे? लिबर्टी और इक्वॉलिटी हमेशा साथ-साथ चलेंगे न।

तुम्हें भी कुछ कहने का हक़ है, मुझे भी कुछ कहने का हक़ है, हम दोनों ही भीड़ के सामने खड़े हैं, भीड़ वोटिंग करने जा रही है। हम दोनों एक भीड़ के सामने खड़े हैं, भीड़ वोटिंग करेगी, हमारी स्पीचेस (भाषण) सुनकर। माइक सिर्फ़ तुम्हारे पास है। लिबर्टी दोनों को है बोलने की, दस हज़ार की भीड़ खड़ी है, दोनों को लिबर्टी है बोलने की, लेकिन माइक में इक्वालिटी नहीं है, माइक सिर्फ़ तुम्हारे पास है। मुझे कितने वोट मिलेंगे? कितने मिलेंगे?

प्र: आपका एक।

आचार्य: पता नहीं मेरा अपना भी मिलेगा कि नहीं मिलेगा। तो लिबर्टी तो है पर इक्वालिटी ऑफ़ आपॉर्च्युनिटि कहाँ है? मेरी वॉइस किसी को पहुँचा ही नहीं सकता, माइक पर तो तुम्हारी मोनोपोली है, तो तुम ही तो जीतोगे इलेक्शन (चुनाव)। और कहने को ये भी हो जाएगा कि भई फ़्रीडम ऑफ़ स्पीच तो दोनों के पास है। भाई, फिर फ़्रीडम ऑफ़ माइक भी होना चाहिए न?

प्र: बट सोशल मीडिया तो फिर एक इक्वलाइजर की तरह काम करता है?

आचार्य: कहाँ से करता है इक्वालाइजर की तरह काम? तुम बनाओ अपने नाम से नया चैनल और डालो उस पर बहुत बढ़िया कंटेंट है, क्या इक्वालाइजर है वहाँ? सबसे बड़ी इनइक्वलिटी (असमानता) जो है न वो ह्यूमन माइंड (इंसान के मन) की है — इट फेवर्स बुल शिट (ये गन्दगी को बढ़ावा देता है), इट गिव्स डिसप्रोपो्शनेट रिस्पेक्ट टू बुल शिट (ये गन्दगी को असंगत सम्मान देता है), इनइक्वालिटी वहाँ है।

तुम नया चैनल बनाकर भी हिट हो सकते हो, तुम ज़बरदस्त तरीक़े का गुड़ डाल दो, तुम हिट हो जाओगे।

प्र: हो ही रहे हैं हर दिन नये-नये लोग।

आचार्य: तो इनइक्वालिटी वहाँ से शुरू हो जाती है न। डेमोक्रेसी (प्रजातन्त्र) में तो आप बोलते हो कि दो बन्दे खड़े हैं; एक बन्दा खड़ा हुआ है, कोई ढंग की बात बोल रहा है और एक बन्दा खड़ा है, नॉनसेन्स ( बेमतलब) बोल रहा है। दोनों को ईक्वल राइट (समान अधिकार) है अपनी बात बोलने का, वो इक्वालिटी है ही नहीं न।

जो नॉनसेंस बोल रहा है, जो नॉनसेंस बोल रहा है, उसके पास एक बहुत बड़ा हिडन माइक (छुपा हुआ माइक) है जो कि सेंसिबल (समझदार) बन्दे के पास नहीं है। उसके पास कौनसा माइक है? उसकी जो बुलशिट है, वही उसका माइक है, बिकॉज़ बुलशिट ऑलवेज अपील्स मोर टू द ह्यूमन माइंड (लोगों के दिमाग को हमेशा गन्दगी ही ज़्यादा प्रभावित करती है)। उसके लिए कोई आपको सिस्टमिक वायस (व्यावस्थित आवाज़) भी क्रिएट (बनाने) करने की ज़रूरत नहीं है।

तो आपको अगर एक्चुअल डेमोग्राफी (वास्तविक जनसांख्यिकी) चाहिए, जिसमें दोनों के पास ईक्वल लाउडनेस (बराबर की आवाज़) का माइक है, तो आपको याद रखना होगा जो बुलशिट बोल रहा है, उसके पास एक इनर माइक है, इनबिल्ट माइक (पहले से बनी हुई आन्तरिक) है उसकी बुलशिट। तो जो बन्दा सेंसिबल (बोधपूर्ण) बात कर रहा है, उसको आपको एक एक्सटर्नल (बाहरी) माइक देना पड़ेगा, सो ट्रुथ विल हैव टू बी सब्सिडाइज़्ड एंड सपोर्टेड एंड इनसेंटिवाइज़्ड (सत्य को अधिक बढ़ावे की ज़रूरत पड़ेगी)।

आप ये नहीं कर सकते कि ट्रुथ (सच) और फॉल्स (झूठ) दोनों को ईक्वल फुटिक (बराबर के मंच) पर खड़ा करके कह दिया कि अब दोनों अपनी-अपनी बात बोलो, द फॉल्स विल आलवेज कैरी एन इनहेरिंट एडवांटेज (झूठ हमेशा ही बिना प्रयास के लाभ पाएगा)।

प्र: लेकिन अन्ततः बात तो फिर वही आ जाएगी न जो जनता है, उनके अन्दर की तो गन्दगी है बिना इस बात की फ़िक्र किये?

आचार्य: वो क्लियर करने के लिए भी पहले आपको जो सेंसिबल आदमी है उसको माइक देना पड़ेगा न, वरना कैसे क्लियर होगा? बेसिकली मींस देयर कैन बी नो ईक्वल बैटल बिटवीन द ट्रुथ एंड द फॉल्स, ट्रुथ विल ऑलवेज नीड टू बी सपोर्टेड एंड पेट्रोनाइज़्ड, एंड फॉल्स विल ऑल्वेज हैव हैडस्टार्ट (मूलतः सच को हमेशा सहारे की ज़रूरत होगी और झूठ अपने आप आगे बढ़ेगा), उसमें ये कहना, ‘हाँ, आइए-आइए साहब, आप दोनों अपनी-अपनी बात बोलिए।’ आप दोनों अपनी-अपनी बात बोलिए, तो उसमें ऐसे जो घटिया बात बोल रहा है वही जीतेगा हमेशा, क्योंकि वो रिलेटेबल (सम्बद्ध) होता है।

तो ये जो आप मूवी की बात कर रहे हो, ये जमालू-दमालू, ये तो चलेगी न। इसके सामने आप कोई ढंग की मूवी रख दोगे वो फ्लॉप हो जाती। सोचो, अभी क्या होता है, अभी ये जिस डेट (तारीख़) को रिलीज हुई उसी डेट पर कोई बहुत बढ़िया मूवी रिलीज होती, सत्यजीत रे (फ़िल्म निर्देशक) तरह की होती। उसके पाँच करोड़ कलेक्शन भी नहीं होते। ये जमालू-दमालू, सिर पर दारु रखकर नाचना, ये तो मतलब हज़ार करोड़ क्या पाँच हज़ार करोड़ कर जाए, क्योंकि ये आपके भीतर की बुलशिट से रिलेट कर जाती है।

ये सब जो कॉन्सेप्ट्स हैं फ़्रीडम इक्वालिटी (समानता की स्वतन्त्रता) के, लिबर्टी (आज़ादी) के, डेमोक्रसी (लोकतन्त्र) के, ये अच्छे सिद्धान्त हैं पर इनमें आत्मज्ञान नहीं है। आप समझ ही नहीं रहे हो कि आप जिसको फ़्रीडम दे रहे हो वो कौन है। वो अन्दर से ग़ुलाम है और आपने उसको बाहर से फ़्रीडम दे दी है।

जो व्यक्ति अन्दर से ग़ुलाम हो, उसको जब आप बाहर से फ़्रीडम दे देते हो तो उसकी फ़्रीडम भी उसकी ग़ुलामी की अभिव्यक्ति बन जाती है। वो अपनी फ़्रीडम का इस्तेमाल भी अपनी ग़ुलामी को ही एक्सप्रेस (अभिव्यक्त) करने के लिए और एन्हांस (बढ़ाने) करने के लिए करता है।

तो मतलब ये काफ़ी बच्चों वाली बात है कि आइए, आप दोनों अपनी-अपनी बात कहिए। चाहे वो किसी मूवी थियेटर में हो कि आइए, आप दोनों ही अपनी-अपनी मूवीज लगा दीजिए, चाहे वो यूट्यूब पर हो कि आइए, आप दोनों अपने-अपने चैनल खोल लीजिए, और चाहे वो लोकतन्त्र में हो, ‘आइए, आप दोनों अपनी-अपनी इलेक्ट्रॉरल स्पीचेस (चुनावी भाषण) दीजिए, कैनवासिंग (प्रचार) करिए।’

जो जितना घटिया और गिरा हुआ होगा, वो उतनी तेज़ी से पॉप्युलर (प्रचलित) भी हो जाएगा और एकदम, इट विल बी वैरी-वैरी डिफ़िकल्ट फ़ॉर द ट्रुथ टू विन अ ज़नरल इलेक्शन, रैदर इम्पॉसिबल, इन एनी प्लेस, एट एनी टाइम, एनी कंट्री, एनी काइन्ड ऑफ़ इलेक्शन (चाहे किसी भी जगह, किसी भी देश में, किसी भी समय पर, कोई भी चुनाव हो, सत्य के लिए सामान्य चुनाव जीतना बहुत-बहुत मुश्किल बल्कि असम्भव है)।

डायरेक्ट कॉम्पिटीशन (सीधी प्रतिस्पर्धा) कराओगे सही और ग़लत में, तो जो सही है उसका नो चान्स (कोई मौक़ा नहीं)। सही को तो जिताना पड़ता है बहुत मेहनत से — उसके पीछे से धक्का लगाओ, उसको सब्सिडाइज (रियायती) करो, पैट्रनाइज (संरक्षण) करो, कहा न इंसेंटिवाइज (प्रोत्साहित) करो, जो जो कर सकते हो सब कर लो, तब जाकर बड़ी मुश्किल से सच थोड़ा-थोड़ा खिसकता है, आगे बढ़ता है।

झूठ अपनेआप जीतता है, गन्दगी हमेशा अपनेआप फैलेगी बहुत तेज़ी से। सफ़ाई बहुत मेहनत से धीरे-धीरे करनी पड़ती है।

प्र: आप सत्रों में उदाहरण देते हैं कि घर को अगर दस दिन भी बन्द भी रख दो तो धूल अपनेआप जम जाएगी।

आचार्य: तुम उपनिषदों का कोई श्लोक बता दो न जो आम आदमी को पता हो? सौ लोगों को ले लो, उनसे पूछो कोई श्लोक बता दो। तुम उनसे ऋषियों के नाम पूछो, वो न बता पाएँ। तुम इनसे फिलोसॉफर्स (दार्शनिकों) के नाम पूछ लो, वो न बता पाएँ, तुम उनसे दो-चार अच्छी कोटेशंस (उक्तियाँ) ही से पूछ लो — छोड़ो संस्कृत छोड़ो — हिन्दी, अंग्रेजी में उनसे कहो, ‘दो-चार अच्छी कोटेशनस् बता दो', वो न बता पाएँ।

अब ये सब हुक्ड हैं एक ऐसे गाने से जिसमें बोल भी नहीं है, इन्हें बोल का कोई अर्थ नहीं पता, वो सिर्फ़ साउंड्स हैं। वो साउंड इतनी ज़्यादा एडिक्टिव (नशे की लत) क्यों है? वो वर्ड्स तो है नहीं, वो सिर्फ़ साउंड है। जब आप वर्ड्स को रिस्पॉन्ड करते हो न तो आप मीनिंग को रिस्पॉन्ड करते हो। और जब साउंड आती है, तो उसमें न मीनिंग है, न आप मीनिंग को रिस्पॉन्ड करते हो, आप बस उसको एक केमिकल रिएक्शन देते हो। बेसिकली आपके भीतर जो जानवर है, वो उस साउंड को रिएक्ट कर रहा है और बहुत उस साउंड में खुश हो रहा है।

(एक गाने की धुन गाते हुए) मतलब क्या है, बताओ? मतलब को ‘अर्थ’ बोलते हैं संस्कृत में, और अर्थ से आशय होता है ‘हित’। शब्द में आपकी चेतना इंगेज (सम्मिलित) हो सकती है, उसकी एक मीनिंग होती है, अर्थ। साउंड में आपकी चेतना इंगेज ही नहीं होती, साउंड में तो आप चाहो तो जानवर भी नाच देगा, आप कोशिश करके देखिए।

जानवर भी साउंड पर नाचते हैं, पर जानवर शब्द का अर्थ थोड़े ही समझते हैं। तो वैसे ही हमारे भीतर भी बहुत बड़ा एक जानवर है जो शब्दों के अर्थ को अवॉइड (टालना) करना चाहता है, साउंड पर नाचना चाहता है।

प्र: जिसको एंटरटेनमेंट (मनोरंजन) बोलते हैं, उसकी परिभाषा कई लोग बोलते हैं, ‘समथिंग ह्विच होल्ड्स योर अटेंशन (कुछ ऐसा जो आपके ध्यान को आकर्षित करे)।

आचार्य: हू एम आइ? (मैं कौन हूँ?)। मेरे भीतर एक जानवर भी है, और मेरे भीतर एक कांशियसनेस (चेतना) भी है, तो समथिंग दैट होल्ड्स द अटेंशन ऑफ़ ह्विच वन ऑफ़ दीज़ टू? (कुछ जो इन दोनों में से किसका ध्यान आकर्षित करता है?) जानवर को होल्ड करना है तो गिव द जानवर लॉट्स ऑफ़ साउंडस् (जानवर को कई सारी धुनें दो), वो जानवर खुश हो जाता है। कांशियसनेस (चेतना) को होल्ड करना है तो गिव द कॉन्शियसनेस मीनिंग, अ परपस (चेतना को अर्थ दो, एक उद्देश्य दो), तो वो इंगेज (संलग्न) होती है।

ज़्यादा आसान होता है जानवर को इंगेज करना, तो हमारे जो जानवर है उसको ही इंगेज किया जाता है। और जब उसको इंगेज किया जाता है, तो बेसिकली उसको फिर एनस्लेव (वश में रखना) किया जाता है, एंगेजमेंट इज़ एन्स्लेवमेन्ट, व्हेन इट कम्स टू एंटरटेनमेंट (जब मनोरंजन की बात होती है तो संलग्न होना ग़ुलाम होने की तरह है)।

प्र: इसीलिए मूलतः जितने भी एंटरटेनमेंट के तरीक़े होते हैं वो मार्केटिंग की तरह यूज़ किये जाते हैं, कि अटेंशन (ध्यान) तो पकड़ ली और अब उसको विज्ञापन दिखाओ।

आचार्य: एंटरटेनमेंट के माध्यम से जब आप इंगेज हो रहे हो, तो आप इंगेज नहीं हो रहे, आप एनस्लेव (बंधक) हो रहे हो। दूसरी ओर, किसी भी मीनिंगफुल (अर्थपूर्ण) चीज़ से जब आप एंगेज हो रहे हो, तो वो एंगेजमेंट ही एन्लाइटेनमेंट (प्रबोधन) है। तो एंगेजमेंट कुड मीन एनस्लेवमेंट ऑर एंगेजमेंट कुड मीन एनकेजमेंट एंगेजमेंट जो है एनकेजमेंट (पिंजड़े में क़ैद होने जैसा) भी हो सकता है, या एनलाइटेनमेंट (मुक्त होना) भी हो सकता है, डिपेन्डस् ऑन हू इज़ बीइंग एनगेज़्ड। इफ़ द एनिमल इज़ बीइंग एन्गेज़्ड, द एनिमल इज बीइंग इन्स्लेव्ड ऑर एन्केज़्ड (ये निर्भर करता है कि कौन संलग्न हो रहा है। जानवर सनग्न हो रहा है तो जानवर को ग़ुलाम बनाया जा रहा है, जानवर को क़ैद किया जा रहा है)।

तो हमेशा देखना पड़ेगा न कि जो सामने वाला है वो मेरे किस सेंटर (केन्द्र) से बात कर रहा है। इज़ ही ट्राइंग टू स्पीक टू माई एनिमल? (क्या वो मेरे जानवर से बात कर रहा है?) वो बन्दा अगर आपके एनिमल से बात कर रहा है तो वो आपके एनिमल से सिर्फ़ एक ऑब्जेक्टिव (उद्देश्य) से बात करेगा — ’एनिमल के गले में फन्दा डाल दो।’ एनिमल स्क्रीन पर नहीं है, एनिमल आपके भीतर है, और उसको एंगेज करके एनकेज किया जा रहा है, आपको ग़ुलाम बनाया जा रहा है। और दूसरी ओर आपके एक कॉन्शियसनेस भी है, आपका एक वो सेंटर भी है।

प्र: कल मेरे ख़याल से सत्र में भजन के लिए कुछ ऐसी ही बात कर रहे थे कि भजन की धुन बदल ली जाती है तो।

आचार्य: और क्या, फ़िल्मी धुनों पर भजन बना दिया जाता है, वो लोगों को बहुत अच्छा लगता है। तो उनको बोल थोड़े ही पता है भजन के, न उन्हें बोलों से कोई बहुत मतलब है। उनको पता भी नहीं है कि ये उनके भीतर जो एनिमल है, वो उस पुरानी धुन पर फ़िदा है क्योंकि वो जो धुन थी, उसमें लड़की-लड़का, सेक्स , ये सब बातें थीं। पुराना कोई गाना है अब, गाने सारे यही होते है, ‘तू मेरी महबूबा, मैं तेरा प्रियतम’, ये और वो, ‘आ जा झाड़ी में', यही सब रहता है। अब आपको वो सब याद है, उस धुन के, कान में पड़ते ही जो पुरानी मेमोरीज़ (स्मृतियाँ) हैं वो सब-कॉन्शियसली एक्टिव (अर्द्धचेतन रूप से सक्रिय) हो जाती हैं, इसीलिए आपको वो धुन बहुत पसन्द है।

अब उस धुन के ऊपर धार्मिक बोल चढ़ा दिये गये, तो अब आपके लिए वो भजन हो गया और आप कह रहे हो ये भजन मुझे बहुत पसन्द है, और आप जानते भी नहीं कि वो भजन आपको क्यों पसन्द आ रहा है। क्योंकि वो भजन आपके भीतर का जो एनिमल है उसको इंगेज कर रहा है, तो ये बड़ा ख़तरा रहता है।

ये सब न बातें, लेवल प्ले ग्राउंड , डेमोक्रेटिक इक्वॉलिटी , ये सब बिलकुल अज्ञान की बातें हैं, सतही बातें हैं। जब तक आप समझोगे नहीं कि डेमोक्रेसी तो इस पर डिपेंड (निर्भर) करती है न कि मेरा ओपिनियन (मत) क्या है। और मेरा जो ओपिनियन है, जब वो इतनी आसानी से कंडीशन्ड हो जाता है, चेंज हो जाता है, बाहरी प्रभावों के अधीन रहता है मेरा ओपिनियन , तो मेरा कोई फिर इंडिविजुअल (व्यक्तिगत) या फ़्री ओपिनियन तो है ही नहीं न। तो जो मेरा वोट है वो तो पहले से ही रिग्ड (धांधली) है।

डेमोक्रेसी में आप एज़्यूम (मानना) कर रहे हो कि द इंडिविजुअल इज़ अ फ़्री एन्टिटि , फ़्री टू हैव अ माइंड ऑफ़ हिज़ ओन एंड वोट अकॉर्डिंग्ली, बट द इंडिविजुअल इज़ जस्ट अ मास ऑफ़ द कंडिशनिंग, ससेप्स्टिबल टू जस्ट एनीबडी हू वॉन्ट्स टू कंडीशन यू (व्यक्ति एक स्वतन्त्र इकाई है। वो अपनी समझ रखने और उसके अनुसार वोट करने के लिए स्वतन्त्र है, लेकिन एक व्यक्ति सिर्फ़ संस्कारों का पिंड है जो किसी के प्रति संवेदनशील है जो आपको संस्कारित कर दे)। तो आपका वोट आपका वोट है ही नहीं, आपका वोट उसका वोट है जिसने आकर आपके मन पर अधिकार कर लिया है।

जो कोई चाहे, आपका वोट लेना, उसको बस एक प्रोपगेंडा रन करना है, सोल्ड प्रोपोगेंडा फॉर अ पीरियड ऑफ़ टाइम (बिका हुआ प्रचार जो कि एक छोटे से समय के लिए है) और आपका वोट उसका हो जाएगा आपको पता भी नहीं लगेगा। आपको लगेगा कि वो आपका फ़्री वोट है, आपकी फ़्री चॉइस है। आपके चॉइस में फ़्रीडम जैसी कोई चीज़ ही नहीं है, वो चॉइस करने को आपको मजबूर कर दिया गया है उस प्रोपोगेंडा के माध्यम से।

आप अपना वोट डालने जाओ, वहाँ पर न पहले वो आपकी आइडी वग़ैरह देखते हैं पोलिंग बूथ पर, और वहाँ आपको पता चले आपका वोट किसी और ने डाल दिया है, तो आप कहते हो, ‘फ्रॉड हो गया, फ्रॉड हो गया।’ फैक्ट (तथ्य) ये है कि जितने लोग वोट डाल रहे हैं, उन सबके नाम पर वोट कोई और डाल रहा है!

फैक्ट ये है कि कोई भी अपना वोट ख़ुद नहीं डाल रहा है, हर आदमी का वोट कोई और ही डाल रहा है हमेशा से, चाहे भारत हो, चाहे पूरी दुनिया हो, चाहे आज की बात हो, आज से सत्तर साल पहले की बात हो। वोट तो आपका कोई और ही डाल रहा है, आप तो एक्ज़िस्ट ही नहीं करते हो फ़्रीली अपना वोट डालने के लिए, आप हो कहाँ? आप तो बस एक कंडीशन्ड मास हो, किसी ने आपके खोपड़े में कुछ डाल दिया, आप वैसे सोचने लग गये। कोई और आकर आपके खोपड़े में कुछ और डाल देता आपके जन्म के समय से, तो आज आप बिलकुल ही एक अलग व्यक्तित्व होते, आप कुछ और सोच रहे होते। आपके विचार आपके अपने तो हैं नहीं। तो आपका वोट डाल तो कोई और ही रहा है पर आपको लगता है, ‘मैंने डाला।’

और यही कोई एक बस ऐसा इंसीडेन्स (घटना) हो जाए, जहाँ पर आप वोट डालने गये और पता चला की कोई और उदित बनकर वोट डाल गया था, तो कहोगे, ‘फ्रॉड, फ्रॉड, स्कैंडल स्कैंडल’। एक आदमी का वोट कोई और डाल दे तो वो कहलाता है फ्रॉड , और एक-सौ-चालीस करोड़ लोगों का वोट कोई और डाल दे तो वो कहलाता है लोकतन्त्र। (मुस्कुराते हुए)

इतने लोग जो वो जमालु-दमालू पर झूम रहे हैं — अच्छी बात है, मैंने अभी देखी नही फ़िल्म, पर शायद मैं देख लूँगा। मैं जहाँ कहीं भी कुछ भी देख रहा हूँ तो वही आ रहा है बस — इतने लोग जो वो ईरानी गाना है, एक को भी पता है कि उसका अर्थ क्या है? और अगर सिर्फ़ इंटेलेक्चुअल क्यूरियोसिटी (बौद्धिक जिज्ञासा) से किसी ने उसका अर्थ गूगल कर भी लिया, तो अब बताओ तुम अर्थ पर झूम रहे थे क्या?

पहले तो हज़ार में से नौ-सौ-निन्यान्वे को पता भी नहीं होगा कि वो क्या बोला जा रहा है, और अगर एक ने किसी ने पता कर लिया तो पूछ रहा हूँ, ‘तुम उस अर्थ से झूम रहे थे?’ और मान लो पता चले कि वो जो बोला जा रहा है, वो ये बोला जा रहा है कि इस गाने में जो नाचे हैं वो महामूर्ख हैं, तो अब तुम्हें कैसा लगेगा अगर अर्थ पता चल जाए तो?

ये काम धर्म में भी खूब किया गया है कि मन्त्र है, मन्त्र का अर्थ मत पूछो, बस मन्त्र तो ध्वनि होता है, वाइब्रेशन होते हैं, वेव्स होती हैं, वो मन्त्र अपनी ध्वनि से काम करता है। अरे! मन्त्र ध्वनि से नहीं करता, मन्त्र में शब्द हैं, उनके अर्थ होते हैं। जहाँ कहीं अर्थपूर्ण शब्द नहीं भी है, वहाँ पर वो जो शब्द हैं या अक्षर हैं, वो प्रतीक हैं किसी के, वो किसके प्रतीक हैं ये आपको पता होना चाहिए, ये तो शब्द हैं तो अर्थ होगा। या फिर अगर कोई अक्षर है, जैसे ‘ह्रीं’ तन्त्र में होता है, तो किसी का प्रतीक होगा, किसका प्रतीक है पता होना चाहिए।

वो कुछ पता नहीं है, आप बस कह रहे हो ध्वनि से काम बन जाता है, तो फिर वैसे ही है जैसे ये जमालू-जमालू गा रहे हो। पता कुछ नहीं है, खुश हुए जा रहे हो। मेरा पूरा लोकतन्त्र एनिमल है, पता कुछ नहीं है, खुश सब हैं। (हँसते हुए)

प्र: वास्तव में ये मैं अभी देख रहा था कि इंडिया में इस वक़्त सबसे ज़्यादा बिकने वाला जो परफ्यूम है, उसका नाम है ‘विलेन’ ; सबसे ज़्यादा बिकने वाली जो ड्रिंक्स है, उसका नाम है ‘स्टिंग’ और एक है मॉन्स्टर ; जो फ़िल्म अभी चल रही है, उसका नाम है ‘एनीमल' , अब लाइन से?

आचार्य: जानवर (शरीर के भीतर बैठे हुए जानवर को इंगित करते हुए कहा)। कितनी अजीब बात है कि जब हम जंगल में थे तो हमने अपने भीतर के जानवर, जंगल के उस जंगली जानवर के ख़िलाफ़ विद्रोह करा, हम जंगल से बाहर आये। हम जंगल से बाहर आये, वो उस एनिमल के ख़िलाफ़ विद्रोह था कि हम जंगल से बाहर आये। हमने कहा, ‘ये जो एनिमल है, ये हमारी गरिमा, हमारी डिग्निटी का दुश्मन है। हमें बेहतर होना है’, हम बाहर आये।

बाहर आकर लगा कि हम उस एनिमल को पीछे छोड़ आये। और हकीक़त ये है कि बाहर आकर के हम ज़्यादा एनिमल हैं बजाय कि तब जब हम जंगल के भीतर थे। जब हम जंगल के भीतर थे तो कम एनिमल थे, जंगल से बाहर आकर हम ज़्यादा एनिमल हो गये हैं। धुन मस्त है लेकिन! (हँसते हुए) सुना है महिलाओं को बहुत पसन्द आ रही है फ़िल्म, क्योंकि महिलाओं को घूसा-मूसा मारा गया है इसमें काफ़ी?

श्रोता बहुत रील्स दिख रही हैं।

आचार्य: क्या?

श्रोता: जहाँ रील्स देखो।

आचार्य: वहाँ महिलाएँ ही नाच रही हैं।

श्रोता: आचार्य जी, कल चलें देखने?

आचार्य: हाँ, देखनी पड़ेगी। मैं नहीं देखूँगा तो इतने सवाल भी पूछेंगे सब, पूछने लग गये हैं, क्या जवाब क्या दूँगा! तो मैं तो जाऊँगा ही देखने!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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