अंधविश्वास, बाबागिरी और पैसा

Acharya Prashant

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अंधविश्वास, बाबागिरी और पैसा
एक बार को ज़िंदगी में चोर आ रहा हो, लुटेरा आ रहा हो, भ्रष्टाचारी आ रहा हो तो मजबूरी में उसको स्वीकार कर लेना, हालत ऐसी बने तो। पर ज़िंदगी में अगर अंधविश्वासी आ रहा हो, पलटकर भागना। आपने कभी सोचा ये डर क्या है? ये अहंकार है, ये अज्ञान है जो मानता ही नहीं कि तुम पूरे तरीके से कंडीशन्ड (संस्कारित) हो। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा सबसे करीबी मित्र था। उसकी उम्र २८ साल थी, वो अभी एक हॉस्पिटल में डॉक्टर था। उसको रात में सोते समय कार्डियक अरेस्ट आया और उसकी मृत्यु हो गई। वहाँ जाकर पता चला तो उसने कोई स्पिरिचुअल एक्सपीरियंस (आध्यात्मिक अनुभव) देने वाले ड्रग्स (नशीली दवा) का सेवन किया था और अब वो नहीं रहा। हम दोनों आचार्य जी सैनिक स्कूल रीवा मध्य प्रदेश से साथ में पढ़ाई किए, फिर कोटा में तैयारी करने के बाद वो एमबीबीएस करके डॉक्टर बना और मैं भी आईआईटी बीएचयू से पीएचडी कर रहा हूँ। हम दोनों को शुरू से आध्यात्मिक मार्ग में चलना है ऐसा हम लोग सोचते थे और यही सब पढ़ते और डिस्कस (चर्चा) करते थे।

और इसी में खोजते-खोजते कोई किताब मिली उसको जिसमें ये सब बताया गया था कि ब्रेन (मस्तिष्क) के अलग-अलग सेक्शन होते हैं जिसमें वो खुलते हैं तो इनलाइटेनमेंट होता है और उसमें कंपेयर (तुलना) करके भी बताया गया था कि हठयोग में पाँच एक्स की स्पीड रहती है, ज्ञान योग में दस एक्स की स्पीड रहती है, भक्तियोग में पंद्रह एक्स की स्पीड रहती है।

और जो इस बुक में योग बताया जा रहा है इसमें मैक्सिमम स्पीड है एनलाइटेनमेंट के लिए। इस वजह से उसका विश्वास और बढ़ गया और आजकल यूट्यूब और सोशल मीडिया पर ऐसे बहुत सारे पॉडकास्टर , इनफ्लुएंसर और गुरु भी हैं जो ऐसे स्पिरिचुअल एक्सपीरियंस देने वाले ड्रग्स के बारे में बताते हैं।

आचार्य जी, आज भारत के हर छोटे से लेकर बड़े कॉलेज में ये नशे करने वालों की संख्या ३० से ४० पर्सेंट है और वो किसी-न-किसी नशे की गिरफ्त में है। और उसमें काफ़ी सारा प्रतिशत उन लोग का भी है जो स्पिरिचुअल एक्सपीरियंस के लिए भी नशे कर रहे हैं। और मैंने खुद छ:-सात राज्यों में पढ़ाई की है तो मैंने खुद भी ये देखा है आचार्य जी। आचार्य जी, क्या नशे का कोई आध्यात्मिक कोण हो सकता है?

आचार्य प्रशांत: सारा अध्यात्म होश में आने के लिए होता है। सारा अध्यात्म इसलिए होता है ताकि आप अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी की व्यर्थता से रूबरू हो सको। ऐसा कौन-सा नशा करोगे कि तुम्हें चीज़ें बेहतर दिखाई देने लगे, साफ दिखाई देने लगे। कोई बहुत दूर की लंबी-चौड़ी बात करने की ज़रूरत नहीं है, नशा करके गाड़ी तक तो चला नहीं पाओगे, सड़क तक साफ नहीं दिखाई देगी, तो ज़िंदगी कैसे साफ दिखाई देगी।

हम कहते हैं, फैक्ट्स आर द डोर टू ट्रुथ (तथ्य सत्य का द्वार होते हैं।) नशा करके फैक्ट समझ में आता है, नशा करके किताब पढ़ो समझ में आएगी, कोई डॉक्टर नशा करके बैठा हो, उससे सर्जरी करवाओगे? फ्लाइट में चढ़ रहे हो, पता चल जाए कि वो अंदर पायलट कुछ सूंघ रहा है, चढ़ोगे क्या? आध्यात्मिक सत्य छोड़ दो, जो साधारण जीवन के भौतिक तथ्य हैं वही नहीं दिखाई पड़ते। हम तो वो लोग हैं न जिनसे सीधी, प्रकट सच्चाई भी छुपी रहती है। हमारी आँखों पर तो वैसे ही पर्दे पड़े रहते हैं, नशा करके कौन-सा पर्दा हट जाएगा ये बता दो न। कौन-सा पर्दा हट जाना है?

लेकिन ये एक बहुत लंबी परंपरा रही है साइकेडेलीक एक्सपीरियंस (मनोविकृतिकारी अनुभवों) की, ये खा लो तो ये हो जाता है। और अध्यात्म में तो ये खूब चला, आज भी चलता है। ये विधि ही बन गई है एक, कि जिनका न ज्ञान से काम हो रहा है, न प्रेम से काम हो रहा है, उनको कहा जाता है ये फ़लानी पत्तियाँ हैं तुम इनको चबाओ तो तुम्हारी चेतना घूमने लगेगी और तुमको जो अनुभव होंगे, वो अनुभव ही तो अध्यात्म कहलाते हैं। और इसमें तो कोई शक नहीं कि वो सब अनुभव होते हैं।

आम चेतना की जैसी स्थिति होती है जब आप वो पत्तियाँ खा लेते हो या वो सूंघ लेते हो या पी लेते हो तो जैसा अभी आपको प्रतीत हो रहा है वैसा नहीं प्रतीत होता। ठीक? जिन लोगों ने कभी कुछ करा नहीं उनको समझना मुश्किल हो रहा होगा। उनको समझना मुश्किल हो रहा होगा तो उन्हें नींद का तो अनुभव हुआ है न? नींद का हुआ है? बहुत निद्रा में होते हो तो कैसा लगता है? सर घूम रहा है, समझ में नहीं आ रहा। ये सब होता है न? या कई बार होता है कि कच्ची नींद में ही किसी ने जगा दिया, तीन घंटे ही सोए जगा दिया। तो दो-तीन मिनट तक कैसा रहता है सर? कोई आपसे कुछ बोल रहा है वो ठीक-ठीक समझ में नहीं आता।

समझ लीजिए लगभग यही नशे की स्थिति होती है ऊपर-नीचे, बहुत अलग-अलग तरीके होते हैं; किसी में कुछ, किसी में कुछ, लेकिन मोटे तौर पर यही होता है कि जैसे आप होश में होते हो वैसे आप नशे में नहीं होते। ऐसे डगमग-डगमग, देखा नहीं शराबी ऐसे-ऐसे चलता है, उसके देखे वही है सीधी रेखा। अब अगर आपकी साधारण चेतना की ये स्थिति है और इसमें दुख है तो तर्क ये दिया जाता है कि आपको इससे हटा दिया न, तो देखो दुख थोड़ी देर के लिए हट गया न। साहब दुख तो तब भी हट सकता है न जब आप जिस तल पर थे, आपको उससे भी नीचे गिरा दिया जाए। सारा दुख हट जाता है उसका जिसको बेहोश कर दो, आदमी बहुत दुखी है उसको सुला दो, दुख बचता है क्या उतनी देर के लिए?

नशा यही काम करता है, आपको सुला देता है। तो थोड़ी देर के लिए ऐसा एहसास होता है जैसे दुख बचा नहीं। और फिर कोई गुरु आकर के दावा कर सकता है कि देखा मेरी बताई हुई बूटी से तुम्हारा दुख दूर हो गया न। और आपको उसके दावे पर यकीन भी हो जाएगा क्योंकि थोड़ी देर के लिए ही सही लेकिन जो चेतना की सामान्य दुखद स्थिति है, आप उससे मुक्त हो पाए।

पर ये कौन-सी मुक्ति है कि सो जाओगे फिर आँख खुलेगी फिर से दुख वापस आ जाएगा। ये कौन-सी मुक्ति है कि जो समय लगा सकते थे मुक्ति में, वो समय नशे में और चरस में खराब हो गया। पहली बात तो जितना दुख था जब नशा उतरेगा तो वो सारा वापस लौट आएगा; दूसरी बात इस प्रयोग में तुमने समय, ऊर्जा, धन, संसाधन भी तो लगा दिया न, वो तो नहीं लौट के आएँगे। ये कौन-सी मुक्ति है? लेकिन ये एक बहुत स्थापित बात है।

विदेशों में कई कल्ट (पंथ) तो ऐसे हैं जहाँ आप अध्यात्म की बात कर ही नहीं सकते ड्रग्स के बिना। वहाँ आप कहो कि आई एम इनटू स्पिरिचुअलिटी (मैं अध्यात्म में हूँ) तो इसका मतलब ही यही होगा कि आई एम इनटू सब्सटेंस , बहुत सारे ऐसे हैं। और वो अलग-अलग अपनी पहचानें रखते हैं इस आधार पर कि यहाँ पर क्या सब्सटेंस , सब्सटेंस माने जो मादक पदार्थ है, यहाँ पर कौन-सा सब्सटेंस होता है और इनसे अलग वो दूसरे वाले में क्या होता है।

और इनके सबके नाम होते हैं, बड़े इनके विचित्र नाम होते हैं सीएफटू। मुझे लगा ये कार्बन के फ्लोराइड की बात हो रही है, कार्बन का तो ऐसा बन नहीं सकता, ये कैसा है। पता चला ये कुछ नहीं है, ये नशा है जो ब्राजील में आजकल बहुत चल रहा है। उन लोगों ने कोई खास जड़ी निर्मित करी है, हम भारत में जड़ी बोलेंगे वहाँ केमिकल कहलाएगा। अब वो उसको बैठते हैं और कहते हैं कि ये हमारा कल्ट (संप्रदाय) है। ये वास्तव में आप बस अपनी हार की घोषणा कर रहे हो, आप कह रहे हो मैं चेतना के इस तल पर हूँ, ऊपर उठने की तो मेरी हिम्मत नहीं और इस तल पर दुख है तो चलो मैं नीचे ही गिर जाता हूँ। चलो मैं नीचे ही गिर लेता हूँ। नीचे गिरकर क्या मिलेगा, फिर से वहाँ आ जाओगे वापस। काश कि ऐसा हो पाता कि आप लगातार बेहोश रह सकते। कर सकते हो ऐसा? लगातार बेहोश नहीं रहोगे न, होश की वही साधारण स्थिति, वही गमगीन स्थिति लौटकर आएगी और ज़्यादा बेबसी लेकर आएगी; कुंठा, ग्लानि, पछतावा, फ्रस्ट्रेशन (निराशा) लेकर के आएगी।

अगली बार उतनी बेहोशी लाने के लिए और ज़्यादा नशा करना पड़ेगा और कितना भी कर लो, होश तो फिर भी वापस आएगा और होश वापस आएगा तो दुख वापस आएगा। बड़े-बड़े गुरुओं ने अपने आश्रमों में ये करा है। वास्तव में, ऐसा बड़ा नाम खोजना मुश्किल है जिसने मादक द्रव्यों के सेवन को प्रोत्साहन न दिया हो। उसको एक लेजिटीमेट (वैध) रास्ता माना गया है कि कई मार्ग होते हैं, उनमें से एक मार्ग ये भी मार्ग है; तुम ये करो, ये भी वैध है। ये सब कुछ नहीं होता है कि फ़लाने मार्ग में आपकी गति ५ एक्स रहेगी, १० एक्स रहेगी फिर भक्ति में १५ एक्स रहेगी, ज्ञान में २० एक्स रहेगी। ये कैसी बातें हो रही है।

अध्यात्म का मतलब होता है अपने ही झूठ को पकड़ना। ये कहीं पहुँचने की दौड़ है क्या कि वहाँ तक जाना है, दिल्ली से बंबई तो कितनी गति से जा सकते हो। कहाँ जाना है! भीतर जो खुराफात चल रही है, खुद को ही जो बुद्धू बना रखा है, उसको देखने के अलावा कुछ भी नहीं होता है अध्यात्म। लेकिन वो चीज़ सीधी-साधी है पर प्रभावी है, इफेक्टिव है, अपना काम कर देती है, और यही समस्या है।

सेल्फ ऑब्जर्वेशन (आत्म-अवलोकन) काम न करे ऐसा हो नहीं सकता और इसीलिए सेल्फ ऑब्जर्वेशन बहुत खतरनाक है। आत्म-अवलोकन एकदम एक सीधी विधि है, वो विधि भी नहीं है और वो काम करके रहेगी और यही समस्या है वो काम कर जाती है। तो हम उस एक चीज़ की जगह पता नहीं क्या-क्या और चीज़ें करने को तैयार रहते हैं। आप बात कर रहे हो यूट्यूब, सोशल मीडिया, पॉडकास्टर वगैरह, ये कितने ही हैं ऐसे जिन्होंने अपना पूरा करियर ही फ़लाने तरह का अंधविश्वास ये वो, यही कर-करके बनाया हैं। और करियर नहीं बन सकता अगर आप सीधे बस ये बोल दो लुक एट योरसेल्फ, फेस द मिरर (अपने आप को देखो, दर्पण का सामना करो) और अध्यात्म इसके अलावा कुछ नहीं है।

आप लोगों को बड़ा अजीब लगता है न जब मैं बोलता हूँ , फेस द मिरर , इसके अलावा कोई आध्यात्मिक विधि होती नहीं। और आपको बड़ा अच्छा लगता है जब दुनियाभर की उटपटांग बातें बताई जाती है। पूर्णिमा की रात को शमशान में बैठ जाओ, ताजा-ताजा मरी एक जवान लड़की की चिता के बगल में, वहाँ बैठकर चरस फूंको, तत्काल मोक्ष मिलेगा। तुम्हें ही नहीं, उस लड़की को भी, जोड़े में स्वर्ग पहुँचोगे क्योंकि मुक्ति माने तो स्वर्ग ही होता है न। बड़ा ऐसा लगेगा गज़ब, बोलो इसका थंबनेल भी कैसा रंगीन होगा, ५ मिलियन का पॉडकास्ट है ये और एक छोटा-सा है ५ मिनट का उसमें बस ये बताना है फेस द मिरर और ५ मिनट का कुल ये वीडियो होगा पर ५ घंटे लगा के भी तुम इसका थंबनेल न बना पाओ। क्या बनाओगे, बात इतनी सीधी है इसमें किसी को कैसे ललचाओगे। और यही आपके थंबनेल पर एक जलती हुई चिता है, एक हसीन लड़की है, धुआ फूंकता हुआ एक जवान बैठ हुआ है वहाँ पर और जो इन्टरर्व्यूअर महोदय हैं उन्होंने खास ऐसा चेहरा बना रखा है। कितनी तकलीफ़ होती होगी फोटो ही खिंचवाने में, भाँति-भाँति के तो इन सबको रूप-रंग धारण करने पड़ते होंगे। कभी ऐसा, कभी वैसा, टेढ़ा टपड़ा, कोई सीधा मुँह तो होता ही नहीं किसी में कि सीधे-साधे खड़े हो क्योंकि सीधा-साधा मार्ग हमें पसंद नहीं है।

आप अभी ये अति दुखद घटना बता रहे हो और ये हुई है एक बिल्कुल अति शिक्षित, जवान व्यक्ति के साथ, आपने २८ वर्ष की उम्र बताई है न? और डॉक्टर थे, ये बताया न? और ऐसी एक घटना अभी हाथरस में हुई है वो बच्चा था और उसके ही प्रिंसिपल ने उसकी बलि दे दी। इन सब चीज़ों के लिए ये पिछले कुछ सालों में जो ऑनलाइन अंधविश्वास का बाज़ार फैला है, इसको ज़िम्मेदार क्यों नहीं ठहराया जाना चाहिए। हत्या का मुकदमा इन सब पर भी क्यों नहीं चलना चाहिए।

त्यौहारों का माह है ये, तो नवदुर्गा, दशहरा, दिवाली और बीच में प्रतिदिन ही कोई-न-कोई छोटा-मोटा त्यौहार होता है। हर दिन के साथ घातक अंधविश्वास जुड़े हुए हैं। इंसान को मारने की बात भले न हो पर इसमें बहुत सारे दिन हैं इसी माह में जिसमें पशुओं को मारने की बात है भारत के सब प्रांतों में, नहीं तो कम-से-कम कुछ प्रांतों में। आप यहाँ बैठे हो उत्तर में तो यहाँ पर आप कहते हो नहीं, नहीं अभी नवरात्रि है तो हम विशेषतय सात्विक भोजन करेंगे। आप बंगाल चले जाओ वहाँ नवरात्रि का मतलब ही होता है हिलसा। इस बार बड़ी समस्या आ गई है, बांग्लादेश में सब उथल-पुथल हो गई तो मछली नहीं मिल रही, वहाँ से ही आती थी, आयात होती थी, पद्मा नदी की हिलसा।

ये अंधविश्वास नहीं है? बस इसमें ये है कि मनुष्य की नहीं जान जा रही, दूसरे जीव की जान जा रही है। बिहार में एक जगह है बांका करके, वहाँ पर बीस हज़ार जीवों की बलि दी जाती है नवदुर्गा के दौरान। और इन सब चीज़ों को माना जाता है आध्यात्मिक महत्व की, इससे कुछ हो जाएगा।

नशा एक ही तरह का थोड़ी होता है, शारीरिक नशा भी होता है, मानसिक नशा भी तो होता है। और कुल एक बात में मैंने सबकुछ जो कहना था कह दिया। अध्यात्म तो नशा उतारने का काम है, नशा चढ़ाकर कैसे हो जाएगा। कैसे? और आप लोग तो दोनों विज्ञान की तरफ़ के हो, विज्ञान तो प्रयोग पर चलता है और प्रयोग का मतलब है कि एक बार, दो बार जिस चीज़ को देख लिया, पता है कि वही चीज़ अपने आप को दोहराएगी, कुछ नया तो हो नहीं जाएगा उसमें।

एक बार आपने कुछ कर लिया, शराब पी ली, अब आपको पता है क्या है। चलो दूसरी बार भी देख लिया, अब उसके बाद तीसरी बार की तो कोई ज़रूरत ही नहीं है न। जो चीज़ दो बार में नहीं हुई तीसरी बार में नहीं होगी, प्रयोग सफल रहा, आगे बढ़ो अब। पर बात शिक्षा से पूरी नहीं होती। बात सांस्कृतिक परिवेश की होती है, वो परिवेश मैं जानता हूँ।

जिस सैनिक स्कूल की आप बात कर रहे हैं उसमें मैंने सालों तक जॉगिंग करी है ठीक उसी कैंपस में, पढ़ा नहीं हूँ पर मैं ननिहाल अपने जाता था आई.आई.टी के समय में तो सुबह-सुबह उठकर जाता था, वहीं पर दौड़ता था। मैं परवेश से परिचित हूँ। धर्म का, अध्यात्म का मतलब ही यही है- कुछ ये कर लो, कुछ वो कर लो, असली चीज़ नहीं। और वो कल्चर (संस्कृति) इतनी ज़बरदस्त चीज़ होती है कि आप कितना भी आगे बढ़ जाओ, आप उस शहर से बाहर निकल जाओ वो कल्चर आपसे बाहर नहीं निकलता।

कल्चर के जो बाहरी तत्व हैं वो शायद बदल भी जाए, माने आप बाहर निकल गए तो आपने अलग तरीके के हो सकता है कपड़े पहनने शुरू कर दिए हो, अलग तरह का खाना-पीना शुरू कर दिया हो, लेकिन संस्कृति के मूल में या तो आत्मा होती है या अंधता होती है, अंधता माने अंधविश्वास तो संस्कृत का जो केंद्रीय तत्व है वो हमसे बाहर नहीं निकलता। हो सकता है आप तीन पीढ़ियों से अमेरिका में रह रहे हो, पर आज भी आप भारतीय टोने-टोटके को मानते होगे। सब कुछ बदल जाएगा आपका वहाँ पर जाकर के एक्सेंट बदल गया, कपड़े बदल गए, सब बदल जाएगा, टोना-टोटका अभी भी देसी रहेगा।

तो भारत से जब कोई बाबा अमेरिका पहुँचेगा तो सबसे पहले आप हाथ जोड़कर खड़े हो जाओगे, ‘बाबा जी आए, बाबा जी आए’ और समझ में नहीं आता। तीन पीढ़ियों से वहाँ रह रहे हो और भारत से ये जाहिल बाबा वहाँ पहुँच गया है और कह रहा है ‘वत्स गोबर खाओ’ और तुम हाथ जोड़कर खड़े हो गए हो। इसीलिए उपनिषद् बोलते हैं कि बाहरी शिक्षा बिल्कुल पर्याप्त नहीं होती और बाहरी परिवर्तन बिल्कुल पर्याप्त नहीं होता। भीतरी शिक्षा चाहिए, भीतरी परिवर्तन के लिए।

भीतरी शिक्षा ही वास्तविक अध्यात्म है, भीतर जो है उसको देखो, भीतर माने भीतर कोई भूत-प्रेत, जिन्न नहीं बैठा है उसको देखना है। अपने यही जो कर्म है भर के यही देखने हैं, कामना, अहम और कर्म। और क्या देखोगे, इसके अलावा कुछ है देखने को? यही अध्यात्म है।

मुक्ति, मोक्ष, इनलाइटेनमेंट ये कोई ब्रेनकी चीज़ें थोड़ी होती हैं कि आप ब्रेन के किसी विशेष सेंटर को एक्टिवेट (सक्रिय) करके इनलाइटेन हो जाओगे। पागल, पहला सूत्र होता है, “नाहं देहास्मि,” मैं जब देह ही नहीं हूँ तो देह के किसी हिस्से को सक्रिय करके मैं मुक्त कैसे हो जाऊँगा। ये लगभग वैसी सी बात है कि मैं कहूँ कि इस हाथ को सौ दफ़ा यहाँ पटको तो तुम मुक्त हो जाओगे। हाथ बंधन में था क्या? ब्रेनहाथ है, ब्रेनभी शरीर है वैसे ही जैसे हाथ शरीर है। ब्रेनके साथ खिलवाड़ करने से मुक्ति थोड़ी मिल जाएगी, पर ये पढ़े-लिखों का अंधविश्वास हो जाता है। वो तलाशते हैं कि ब्रेनमें कोई सेंटर होगा।

द मिस्टिकल इनलाइटनमेंट सेंटर (रहस्यमय ज्ञान केंद्र), पूरा एक अध्ययन का क्षेत्र ही है द न्यूरो साइंस ऑफ मिस्टिकल एक्सपीरियंस (रहस्यमय अनुभवों का तंत्रिका विज्ञान।) वो पता करते हैं कि ये सब लोग जो दावा करा करते हैं हमारा ये मिस्टिसिजम हुआ, मैंने देखा- मैं अपना शरीर छोड़कर उड़ गया था और मैंने ऊपर से देखा अपने शरीर को और मैंने कहा, ‘ये कितना अगली (कुरूप) है!’ इन सबके फिर अध्ययन के लिए पूरा एक विभाग बना है कि इनको कैसे हो जाता है, क्या हो जाता है? कुछ नहीं है, नशा चढ़ा हुआ और क्या, कहीं भी उड़ जाओ।

अभी कहीं किसी पॉडकास्टर ने करा जिसमें बता रहे थे क्या होगा अगर शरीर में दो आत्माएँ घुस जाएँ, हँस रहे हो आप! इसकी दुखद आप परिणति सुन रहे हो न, स्क्रीन पर अभी। और कोई तांत्रिक बाबा बुलाए गए थे उन्होंने दो घंटे तक व्याख्यान दिया कि बिल्कुल हो सकता है कि एक शरीर में दो आत्माएँ घुस जाए और फिर उनमें बड़ी रेलम पेल मचती है लेकिन आपके लिए मौका है आप चुन सकते हो आपको कौन-सी आत्मा चाहिए।

ब्रेन को एक्टिवेट या सक्रिय नहीं करना, उसके साथ छेड़खानी, खिलवाड़ नहीं करना है, उसको तो जो करना है वो कर ही रहा है, आपको उसका दृष्टा होना है। आपको देखना है कि ब्रेन के पैटर्न्स कैसे होते हैं, वो कैसे काम करता है, आपको अपने ही ब्रेन की गतिविधि को समझना है। कैसे मेरे बायसेस (पूर्वाग्रह) ऑपरेट (कार्य करना) करते हैं, मैं देख रहा हूँ अपने ब्रेन को, हाँ ऐसे काम करता है ये ब्रेन। इंफॉर्मेशन (सूचना) का अभाव होता है लेकिन ये कंक्लूजन (निष्कर्ष) पर आ जाता है। कैसे आ जाता है? इंफॉर्मेशन तो पूरी थी नहीं, तो फिर जजमेंट (निर्णय) कैसे कर लिया, ये देखना और ये बहुत वैज्ञानिक बात है, इसमें कोई भी टोना-टोटका, मंबो-जंबो नहीं है और यही वास्तविक अध्यात्म है।

भारत में लहर आई हुई है ज़बरदस्त हमें सौ-दो सौ-चार सौ साल पहले की स्थिति में वापस धकेला जा रहा है। इतनी अजीब बात है कि जहाँ माँ-बाप अंधविश्वासी नहीं थे वहाँ भी जो बच्चा है वो अंधविश्वासी निकल रहा है। कितनी अजीब बात है! हम आमतौर पर कहते हैं कि जैसे-जैसे आधुनिकता आती है वैसे-वैसे अंधविश्वास पीछे जाता है, भारत में उल्टा हो रहा है; माँ-बाप कम अंधविश्वासी होंगे, जो उनका बच्चा होगा १३ साल, १५ साल का जेनज़ी वगैरह, ये ज़्यादा अंधविश्वासी होगा। क्यों? क्योंकि वो ऑनलाइन क्न्जम्प्सं (उपभोग) कर रहा है, वो पॉडकास्ट , इंटरव्यू ये सब बेवकूफ़ियाँ देख रहा है और वो वहाँ से अपना सुपरस्टिशन (अंधविश्वास) अब्जॉर्ब (अवशोषित) कर रहा है। और ऐसा-ऐसा सुपरस्टिशन जो उसके माँ-बाप को भी नहीं है। माँ-बाप भी ज़्यादा लिबरेटेड (मुक्त) हैं और बच्चा आकर के कह रहा है, माँ चली सैलून की और वहाँ पर जाकर के वो १२ साल वाला जाकर रोक रहा है, ‘नो नो दिज आर श्राद्ध डेज, यू शुड नॉट डू दिस मम्मा (नहीं, नहीं, ये श्राद्ध के दिन हैं, आपको ये नहीं करना चाहिए माँ)।’ मम्मा बोल रही है, ये सचमुच हुआ है, लिखकर तो भेजा था कि मैं जा रही थी अपने बाल कटाने के लिए, मेरा बेटा आकर मुझे रोक रहा है। कह रहा श्राद्ध के दिन चल रहे हैं इसमें ये नहीं करना, बोले ‘तुझे किसने बताया माँ तो मैं हूँ, मैंने तो बताया नहीं,’ बोल रहा है- ‘मैंने यूट्यूब पर देखा।’

ये सब लोग जो समाज की मुख्य धारा से धीरे-धीरे खुद ही बाहर हो रहे थे, वो वापस से मुख्य धारा में ही नहीं, उसके केंद्र में आते जा रहे हैं। भारत में आज जो जातिवाद है वो ३०-४० साल पहले की अपेक्षा ज़्यादा हो गया है। तांत्रिक वगैरह जो सब बेरोजगार हो रहे थे वो सब करोड़पति हुए जा रहे हैं, ये हमारा नया भारत है। यहाँ आपके पास करने को अगर कुछ नहीं हो तो दो काम आपको बताता हूँ आप कर सकते हो या तो बाबा बन जाओ या पॉडकास्टर , मालामाल हो जाओगे। या पॉडकास्टर बन जाओ और बाबाओं को बुलाओ, तब तो कहना ही क्या। ये हमारा नया भारत है, ये हमारी आधुनिकता है, ये हमारा खुलापन है, ये हम तरक्की कर रहे हैं।

कहीं पर आ रहा था कि काली बकरी खोजे नहीं मिल रही है, किसी ने इंटरनेट पर ही कर दिया है कि नौमी पर या पता नहीं किसी और दिन अष्टमी पर जिस भी दिन है काली बकरी को लाल टीका जो लगाएगा अमुक-अमुक तरीके से, अमुक जगह पर, इतने बजे, वो पुत्ररत्न पाएगा। जनता लगी है बकरी के पीछे दौड़ने में, बकरे हैरान हैं, कह रहे हैं, तुम्हारे पुत्ररत्न में मेरी बकरी का क्या रोल है।

८०-९० के दशक में हम शायद ज़्यादा समझदार थे, पैसा कम था, सुविधाएँ कम थी, शिक्षा भी कम थी पर अंधविश्वास जाहिलियत, गवरई, मूर्खता भी कम थी। मैंने वो दशक भी देखे हैं और अभी का भी देख रहा हूँ, जाति जितना बड़ा मुद्दा आज बन गई है, इतना बड़ा मुद्दा ८०-९० के दशक में नहीं थी। लोगों ने जाति की चीज़ को भूलना शुरू कर दिया था। मैं रिलेटिवली (अपेक्षाकृत) कह रहा हूँ, जातिगत भेदभाव तब भी होता था, आज भी होता है लेकिन तब की अपेक्षा शायद आज बढ़ ही गया है। और कम हो रहा था, इन सब चीज़ों को पिछड़े जमाने की और पिछड़ेपन की मान करके लोग त्यागने लग गए थे, खुद ही त्यागने लग गए थे। वो सब चीज़ें वापस आ गईं, उनको लाया गया है वापस, एक साजिश ही करी गई है उन ताकतों द्वारा जो चाहते हैं कि आपको दोबारा धकेल दिया जाए, पता नहीं बहुत पीछे और ये बोल के कि यही तो सतयुग है। सतयुग कब है? पीछे था, तो आपको पीछे धकेला जा रहा है। स्थिति अभी ये है, कोई बोल रहा था कि हिंदुस्तानी लोग एजुकेशन के लिए अब्रॉड (विदेश) जाते हैं और बाहर के लोग सुपरस्टिशन (अंधविश्वास) के लिए हिंदुस्तान आते हैं।

हिंदुस्तानी को जब एजुकेशन चाहिए होती है तो वो अमेरिका जाता है और अमेरिका वाले को जब सुपरस्टिशन सब करना होता है तो भारत आता है, भारत उसका केंद्र बनता जा रहा है। बहुत सारा जिसको हम बोलते हैं न रिलीजियस टूरिजम (धार्मिक पर्यटन) वो रिलीजियस टूरिजम नहीं है, वो सुपरस्टिशियस टूरिजम है। फ़लानी जगह चले जाओ और वहाँ मन्नत माँगो, मान्यता करो, ये करो, कामना पूरी हो जाएगी वो रिलीजियस टूरिजम नहीं है वो यही है। फ़लानी जगह चले जाओ तो तुम पर भूत चढ़ा है, भूत उतार दिया जाएगा। अब जो ऐसी जगह होगी वहाँ पर जो पूरा टूरिजम इंफ्रास्ट्रक्चर है वो डेवलप (विकसित) हो जाता है फिर। जैसे आपने कहा, आपने कोटा में पढ़ाई करी है, कहा न आपने शायद? तो जैसे कोटा सेंटर है वैसे ही सुपरस्टिशन के भी सेंटर हैं, जैसे कोटा में पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार हो गया है 'कमर्शियल', वैसे ही सुपरस्टिशन के भी जो अड्डे हैं वहाँ भी पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर बन गया है, 'कमर्शियल'। ये भारत की खासियत हो रही है, वो भी अपने आप में एक इकोनॉमी (अर्थव्यवस्था) है, उससे भी जीडीपी बढ़ता है भाई।

अब जिन तमीज़ की चीज़ों से जीडीपी बढ़ सकता है उनके लिए तो शिक्षा चाहिए, तो वहाँ तो हम डिसक्वालीफाई (अक्षम) हो चुके हैं, तो जीडीपी बढ़ाना है तो ऐसे ही बढ़ेगा। दुनियाभर में जिसको तामझाम, जादू-टोना करना हो, आओ हिंदुस्तान आओ रे! और अगर तुम्हें खुद नहीं भी करना तो देखने के लिए आओ। क्या गज़ब नज़ारा है! एक साथ १०० औरत बैठकर के अबुआ रही हैं ऐसे, बाल खोलकर के, विदेशी लोग आते हैं, बिल्कुल अभिभूत हो जाते हैं। तुम पर चढ़ा है भूत और वो हो गया अभीभूत। ये लंबे-लंबे टेलीस्कोपिक लेंस लगा कर के ऐसे-ऐसे वीडियो बनाते हैं, ‘देखो इंडिया, इंडिया, इनक्रेडिबल (अविश्वशनीय) इंडिया।’ ये नज़ारा कहीं पश्चिम में देखने को मिलेगा? १०० औरतें एक साथ बैठ गई हैं, उनको भूत चढ़ा हो ऐसे-ऐसे ऐसे, ये देखने के लिए खासकर पैकेज लेकर के आते हैं भारत, उससे हमारा जीडीपी बढ़ रहा है। आप तक गीता लेकर के आता हूँ, कितनी मुश्किलें हैं। ज़िंदगी २४ घंटे में से २८ घंटे का संघर्ष बनकर रह गई है और यही आप तक मैं गरुड़ पुराण लेकर आ रहा होता, आप लाखों लोग कतार बाँध के खड़े हो जाते कि हाँ, बताओ हमारी जीवात्मा की मुक्ति के लिए क्या करना है? बताओ कितने में स्वर्ग का टिकट बेच रहे हो? खटाखट टिकट कट रहे होते।

हालत अभी ये है कि आप किसी से बोलो कि आप स्पिरिचुअल हो तो उसका अर्थ ही यही लगाता है कि आप सुपरस्टिशियस हो। मेरे नाम के साथ न जाने कौन-सी बदहवासी का क्षण था जब ये आचार्य जुड़ गया, आधो को लगता है कि मैं उनका हाथ देख सकता हूँ, अध्यात्म का मतलब ही यही है। अब नहीं होता उतना, मेरा रौद्र रूप अब सार्वजनिक हो चुका है तो लोग घबराते हैं। पहले यही होता था कहीं जाकर होटल, रेस्तरां में बैठा हूँ , कुछ लिख रहा हूँ, काम कर रहा हूँ, धीरे से देवी जी आ जाएँगी, इधर-उधर की बात करेंगी और फिर मैं ऐसे अपने कीबोर्ड से सर उठाऊँगा तो उन्होंने ऐसे कर रखा होगा, क्या है? भग! अध्यात्म का मतलब ही यही है, कुंडली बता दो, हाथ देख लो, माथा देख लो, अरे बाकी सब भी दिखा दो। ये होता है जानते नहीं हो, हिप रीडिंग भी होती है। अरे, अभी गूगल कर लो। पता नहीं, कमाल का बाबा होगा, इसका तो मैं फैन हो गया जिसने ये चीज़ खोजी होगी। बाबा लोग वैसे भी अपने रसिक रंगीले होने के लिए जाने जाते हैं, पश्चिम में चला है ये, वहाँ देवियाँ आती हैं, उनसे कहता है-तुम्हारे हिप रीड करेंगे, यही है अध्यात्म।

बकरी, हिप, शमशान, अघोरी, अध्यात्म बोलते यही सब आता है या फिर वो साइकेडेलीक्स , परलोक। सीधी-साधी इस ज़िंदगी के दुख को हटाने की बात नहीं, इधर-उधर दुनिया भर की फ़िजूल बकवास, गीता नहीं, गरुड़ पुराण। और ये समझे बिना कि वहाँ जो लिखा है वो बात मानी ही नहीं जा सकती अगर आपने गीता को समझा है तो। अच्छे खासे पढ़े-लिखे लोग होंगे वो आकर बोल रहे होंगे देखो, इतने साल का कलयुग होता है इतने साल बीत गए अभी कलयुग है; इतना त्रेता, इतना द्वापर, इतना सतयुग, मैं कहता हूँ, थम जाओ तुम, तुम जितने करोड़ साल का ये युग बता रहे हो और कह रहे हो कि इतने करोड़ साल में हमारे सब देवी-देवता होते थे उतने करोड़ साल में तो डायनासोर भी नहीं होते थे। एकदम ही जो प्रिमिटिव लाइफ फॉर्म (प्राथमिक जीवन रूप) होते थे, वो होते थे पृथ्वी पर।

इंसान को ही इंसान बने ठीक से अभी एक लाख साल भी नहीं हुए हैं। जिसको आप कह सको द थिंकिंग ह्यूमन बीइंग (सोचने वाला इंसान) यही नहीं कि बस वो दो पांव पर चल रहा है तो इंसान मान लिया जो थिंकिंग, सेंटियंट ह्यूमन बीइंग है इसीलिए आपने नाम दिया है-होमोसेपियंस जो थिंकिंग ह्यूमन बीइंग है उसको आए अभी एक लाख साल भी नहीं बीता, उसके पहले वो कुछ और ही था, जानवर था। और तुम बताया करते हो नहीं, इतने करोड़ साल पहले ये राजा थे, उससे इतने करोड़ साल पहले ये देव कहाँ से आ गए?

हम तो एक लाख साल पहले भी नहीं थे तो इतने करोड़ साल पहले कहाँ से आ गए और अच्छे पढ़े-लिखे लोग ये सब बकवास कर रहे होते हैं वो पूछे, कहे कि इतने करोड़ साल पहले की बात है तो उनको दिखाओ कितने करोड़ साल पहले ये युग चल रहा था और उस समय ये जीव हुआ करते थे, बस यही जीव थे, इसमें कहाँ से आ गए तुम्हारे सब महापुरुष? नहीं मानना, नहीं समझना। मैं बोल दूँ वेद ढाई से साढ़े तीन हज़ार साल पहले के हैं, थोड़ा इधर खींच दो, थोड़ा उधर खींच दो तो तुम कह सकते हो कि ढाई से चार हज़ार साल इससे ज़्यादा पीछे... आग लग जाती है, नहीं-नहीं-नहीं इतने करोड़ साल पहले के हैं। उतने करोड़ साल पहले तो अमीबा भी नहीं होता था, ऋषि कहाँ से आए।

मेरे खुद के लिए बहुत चौकाने वाली और बड़े दुख की बात रही है-एजुकेटेड सुपरस्टिशन आप जैसे लोग जिस वर्ग में हैं उस वर्ग का सुपरस्टिशन , मैंने नहीं सोचा था। मैं जब छात्र था, मैं जवान था, पढ़ाई कर रहा था, भीतर एक सांत्वना रहती थी, बड़ा निश्चित सा लगता था कि जैसे-जैसे तरक्की आएगी, शिक्षा आएगी, आधुनिकता आएगी, अंधविश्वास वगैरह तो अपने आप पीछे हट जाएँगे। मैं खुद हक्का-बक्का रह गया ये देखकर के कि ऐसा नहीं होता है कि आप शिक्षित हो गए या आपके पास पैसा आ गया या कुछ आधुनिक मूल्य आ गए तो आपने अंधविश्वास त्याग दिया हो, ऐसा नहीं हो रहा है।

एक इंग्लिश स्पीकिंग सुपरस्टिशन भारत को पकड़ता जा रहा है, जो हिंदी स्पीकिंग था, जो रीजनल लैंग्वेज स्पीकिंग (क्षेत्रीय भाषा बोलने वाले) था, वो तो है ही है साथ में एक नया खड़ा हो गया है, इंग्लिश स्पीकिंग सुपरस्टिशन , औरा , वाइब्स , एनर्जी फील्ड्स कोई जेमस्टोन से हीलिंग कर रहा है, कोई एंजल हीलिंग कर रहा है। और इन सबके ग्राहक कौन है? पढ़े-लिखे लोग। अंधविश्वास अभी आखिरी बात है, बोल रहा हूँ आपको, नहीं तो ये मुद्दा मुझे इतना दुखी करता है मैं इस पर अंतहीन बोलूँ।

अंधविश्वास कोई छोटी-मोटी बीमारी नहीं है वो आपको भीतर से खा जाने वाला कैंसर है, वो आपकी ज़िंदगी के एक हिस्से को नहीं प्रभावित करता, वो आपको समूचा निगल जाता है, वो आपका कोई निर्णय जीवन में ठीक नहीं होने देगा। अंधविश्वास का मतलब होता है कि आपने अपने डर को अपना केंद्र बना लिया, आपने अपने अज्ञान को अपना केंद्र बना लिया।

जो अंधविश्वासी है उसको सौ तरह की और बीमारियाँ लगी होंगी वो झूठा होगा, वो पाखंडी होगा, आप देखना आमतौर पर ऐसा नहीं हो सकता कि आदमी अंधविश्वासी हो और जातिवादी न हो। ये दोनों साथ-साथ चलेंगे, आप देखना आमतौर पर ऐसा नहीं होगा कि जो अंधविश्वासी हो रूढ़िवादी न हो और देखना कि अंधविश्वासी हो और झूठा न हो ये हो नहीं सकता। घर में पुरुष अगर अंधविश्वासी है तो महिलाओं की तरफ़ हेय दृष्टि से न देखता हो, उन्हें नीचा न मानता हो, ऐसा नहीं हो सकता। महिला अगर अंधविश्वासी है तो दूसरी महिला की दुश्मन न हो ये नहीं हो सकता।

भारत के मर्म को ये दीमक चाटे जा रही है और इसको बहुत व्यवस्थित तरीके से बढ़ाया जा रहा है। मेरे जैसों की विवशता ये है कि ये पहाड़ इतना बड़ा है, काटे कैसे? न सिर्फ़ बड़ा है बल्कि उत्तरोत्तर और बड़ा होता जा रहा है। ये जो आपकी नई पीढ़ी है ब्रेकअप हुआ नहीं कि ये एस्ट्रोलॉजर (ज्योतिषी) की शरण में पहुँच जाती है, हाउ डू आई गेट माय बेबी बैक? (मैं कैसे अपने बेबी को वापस पा सकती हूँ?) और वहाँ बाकायदा ब्रेकअप स्पेशलिस्ट बैठे हुए हैं, वो ये तक बता रहे हैं कि सेक्स करने का सही मुहूर्त क्या है, निब्बा-निब्बी उनसे पूछ करके ओयो बुक कर रहे हैं। और मैं जब ये बातें बोलूँगा तो मालूम है क्या बोलेंगे, ‘दिस मैन, यू नो इज टोटली मैटेरियलिस्टिक, ही डज नॉट बिलीव इन द मिस्टिकल।’ ये तुम्हारा चक्रा, मंडला, औरा, वाइब ये सब मिस्टिसिजम हैं? कौन-सी किताब पढ़े हो, कौन-सा ज्ञान है ये, कौन-सा तुमने ज़िंदगी को अपनी आँखों से देखा है, ये क्या बता रहे हो।

पहले बोल देते थे सीधे-सीधे भूत, अब बोलते हैं डिसइमबॉडीड बीइंग्स (देहविहीन प्राणी), डिसइमबॉडीड बीइंग्स ये क्या होता है? क्या सूंघकर आए हो? अभी श्राद्ध वाला चला, उस पर एक के बाद एक बाबाओं ने झड़ी लगा दी हाउ टू यूटिलाइज द एनर्जी ऑफ़ द डेड फॉर योर बेटरमेंट (मृतकों की ऊर्जा का उपयोग अपनी बेहतरी के लिए कैसे करें।) उनके हिसाब से वो जो मर गए हैं वो सब एनर्जी फील्ड में इधर-उधर घूम रहे हैं, एंड देयर एसिस्ट स्पेशल मेथड्स वो बताएँगे मेथड क्या है, कहेंगे उसके लिए हमारे पास आओ। 'एंड देयर एसिस्ट स्पेशल मेथड्स थ्रू विच यू कैन चैनलाइज द एनर्जी ऑफ द डेड' ज़बरदस्त बात लग रही है, वो जो मर गया है वो अपनी एनर्जी लेकर कहीं घूम रहा है और आप उसकी एनर्जी का इस्तेमाल कर सकते हो और उसका उदाहरण देते हैं वो लगभग ऐसी ही बात है जैसे घर में लाइट हो लेकिन सॉकेट में प्लग लगाना पड़ेगा न, तो मैं आपको बताऊँगा कि वो एनर्जी चैनलाइज कैसे करनी है और फिर आपकी ज़िंदगी रोशन हो जाएगी, एनर्जी आ जाएगी। पूछे, कैसे? बोले, ‘देखो जो हम बोल रहे साइंटिफिक (वैज्ञानिक) है बिल्कुल। कैसे? बोले एनर्जी कैन नॉट बी डिस्ट्रॉयड (ऊर्जा को नष्ट नहीं किया जा सकता ) बोले हाँ, बोले जो मर गए इसका मतलब उनकी एनर्जी कहीं-न-कहीं होगी। क्या लॉजिक दिया है? कितने नंबर आए थे फिजिक्स (भौतिकी) में?

बोल रहे हैं, “एनर्जी कैन नाईदर बी क्रिएटेड नॉर डेस्ट्रोएड” तो जो मर भी जाते हैं उनकी एनर्जी ब्रह्मांड में तैर रही हैं। तो उनकी एनर्जी को हम यूज करेंगे, सर्किट तो है ही हमें बस क्या करना है उस सर्किट में? प्लग लगाना है और फिर उनकी एनर्जी तुम्हारे काम आ जाएगी। अंधविश्वास की इंतहा बताऊँ? कॉस्मेटिक प्रोडक्ट (प्रसाधन उत्पाद) हैं जो इस बात पर बिक रहे हैं कि ये जब प्रिपेयर (तैयार) होता है तो हमारे फैक्ट्री वर्कर्स (कारखाने के मजदूर) मंत्रोच्चारण करते हुए प्रिपेयर करते हैं तो इसमें विशेष एनर्जी आ गई है। देवी जी इसको लगाएँगी तो एकदम गोरी हो जाएँगी, पति को लुभा लेंगी खट से। इस बात पर वो जो क्रीम है वो ५००० की बिक रही है कि हमारे जो वर्कर्स हैं वो फैक्ट्री में मंत्रोच्चारण के साथ इस क्रीम को तैयार करते हैं तो इसमें विशेष वाइब्स और विशेष एनर्जी आ गई है। और सोचिए वो लोग कौन से होंगे जो ५००० रूपया दे सकते हैं, ये बहुत पैसे वाले लोग हैं, शायद पढ़े-लिखे लोग भी हैं पर ये इस बात के पैसे दे रहे हैं। और जो हमारी पैकेजिंग होती है वो बरगद के पेड़ के नीचे होती है, ये है आधुनिक भारत।

एक बार को ज़िंदगी में चोर आ रहा हो, लुटेरा आ रहा हो, भ्रष्टाचारी आ रहा हो तो मजबूरी में उसको स्वीकार कर लेना, हालत ऐसी बने तो। पर ज़िंदगी में अगर अंधविश्वासी आ रहा हो, पलटकर भागना। सबको भूत से डर लगता है न आप लोगों को? आपने कभी सोचा ये डर क्या है? ये अहंकार है, ये अज्ञान है जो मानता ही नहीं कि तुम पूरे तरीके से कंडीशन्ड (संस्कारित) हो। वो मानता है कि नहीं, मेरा कुछ हिस्सा कंडीशन्ड है बाकी तो ट्रुथ (सत्य) है न? बाकी कुछ ऐसा जो कंडीशन्ड नहीं है तो वो मौत के बाद भी बच जाता है, वो मौत के बाद बच जाता है और अंधेरे कमरे में घूम रहा है वही भूत है।

तुम अगर अपने यथार्थ को विनम्रता से स्वीकार कर लो कि मेरा कुछ भी ऐसा नहीं है जो संस्कारित नहीं है, कुछ फिजिकल कंडीशनिंग है, कुछ सोशल, मेंटल कंडीशनिंग है और जो मेंटल भी है वो बैठी तो ब्रेन में ही है तो ले-देकर वो भी फिजिकल ही हो गई। तो जब फिजिकल है सब तो फिर मर जाने के बाद क्या बचेगा, तो भूत कहाँ बचा बताओ फिर! पर ईगो है, अहंकार जो ये बात हमें मानने नहीं देती। वो कहती है नहीं, मेरा कुछ हिस्सा कंडीशन्ड है बाकी हिस्सा तो ट्रुथ है न? मैं ईगो थोड़ी हूँ, मैं तो ट्रुथ हूँ और अगर मैं ट्रुथ हूँ तो मैं मर तो सकती नहीं तो मैं वहाँ कमरे में भूत बनकर डोल रही हूँ।

आप भी अपने आप को प्रमाण पत्र मत दे दीजिएगा कि आप अंधविश्वासी नहीं हैं। सब-के-सब जब रात में, कह रहे, ‘अच्छा ठीक है, थोड़ी देर बाद पेशाब कर लेंगे, थोड़ा सवेरा हो जाने दो।’ कोई नहीं यहाँ बैठा होगा जो घंटा दो घंटा बाँधकर न इंतजार कर लेता हो।अजीब सी आवाज़ भी आई थी वहाँ बाथरूम की तरफ़ से, अरे संयम बड़ी चीज़ है आचार्य जी ने ही बताया था देह पर थोड़ा नियंत्रण करना सीखो, बाँध लो पेशाब को, दो घंटे बाद जाएँगे। कुछ बात नहीं है, जाड़े की रात है सुनसान और बिल्कुल घुप अंधेरा है, सबको उठने से डर लगता है। और जो आपको डर लग रहा है वो और कुछ नहीं है, वो अहंकार है और ये अहंकार आपकी ज़िंदगी को बहुत खराब कर देता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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