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अमूल्य से निकटता ही मूल्यहीन का त्याग है

Acharya Prashant

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अमूल्य से निकटता ही मूल्यहीन का त्याग है

कुत्रापि खेदः कायस्य जिह्वा कुत्रापि खिद्यते।

मनः कुत्रापि तत्त्यक्त्वा पुरुषार्थे स्थितः सुखम्।।१३.२।।

अनुवाद: शारीरिक दुःख भी कहाँ(अर्थात् नहीं) हैं, वाणी के दुःख भी कहाँ हैं, वहाँ मन भी कहाँ है, सभी प्रयत्नों को त्याग कर सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ।

~ अष्टावक्र गीता ( अध्याय -१३ , श्लोक – २)

आचार्य प्रशांत: कभी शरीर से दुख हैं, कभी वाणी से दुख हैं, कभी मन से दुख हैं। इन सब का त्याग करके, मैं पुरुषार्थ में स्थित हूं, सुखपूर्वक।

त्याग कभी पहले नहीं आएगा। त्याग तुम करोगे कैसे? तुमने जों कुछ भी आधा तिया पकड़ रखा हैं, जब वही तुम्हारी सारी संपत्ति हैं तो तुम उसे त्यागोगे कैसे? सुना हैं ना, अक्सर कहता हूं तुमने दो रूपए का सड़ा हुआ नोट भी मुट्ठी में भींच रखा हैं, तो तुम उसे कैसे तयागोगे, अगर तुम्हें यह मान्यता हैं कि दो रुपए का नोट ही मेरी पूरी संपत्ति हैं। कैसे छोड़ोगे? दो रुपए का सड़ा हुआ नोट हैं, पर क्या छोड़ सकते हो अगर तुम्हें यह लगें कि तुम्हारे पास इस दो रुपए के अतिरिक्त और कुछ नहीं - छोड़ पाओगे? अरे! यह मेरी पूरी ज़ायदाद हैं, कैसे छोड़ दूं?

तुम कुछ नहीं त्याग सकते। त्यागने के लिए ऐश्वर्य का भाव होना चाहिए। त्यागने के लिए छलछलाता ज़ाम होना चाहिए - इतना हैं, और कितना मांगे!

त्यागने के लिए विभुता होनी चाहिए। कभी त्यागा कोई त्याग जो नहीं सकता। त्यागने से शुरूआत हो नहीं सकता; त्याग का तुम्हें विचार ही नहीं आएगा। जो आदमी अपने संबंधों को, या दौलत को या किसी और पदार्थ को सीने से लगाकर बैठा हो, उसको विचार भी आएगा कि इसको छोड़ दूं? भूखे आदमी के सामने एक रोटी रखी हैं, उसको यह विचार भी उठेगा कि इसको छोड़ दूं? विचार भी उठेगा क्या? असम्भव बात हैं त्याग। त्याग की बात करते ही क्यों हो?

त्याग की बात मत करो। तुम कहोगे लेकिन शास्त्रों में और परंपरा में हमेशा से त्याग की ही तो बात की गई हैं लगातार- त्याग, त्याग, त्याग, छोड़ो।

वह त्याग की बात नहीं हैं। वो यह संदेश है कि तुम्हारे पास इससे कहीं ज़्यादा कुछ हैं जिसे तुम पकड़े बैठे हों। जो तुमसे कह रहा हैं न कि छोड़ दो, उसके होने से तुम्हें पता चल रहा हैं कि छोड़ा जा सकता हैं - क्योंकि इसनें नहीं पकड़ रखा। बात उसके शब्द की नहीं थी, बात उसके होने की थी जब उसने कहा कि छोड़ दो। उसकी वाणी में, उसकी आंखों में ऐसा कुछ था जिससे तुम्हें भरोसा आया कि हां, क्या फ़ायदा पकड़ने से, देखोना यह भी तो छोड़ें बैठा हैं और कितना प्रसन्नचित हैं।

अब उसकी हंसी तुम्हें कहीं दिखाई दे नहीं रही जिसने यह सब बोला था। तुम्हारे पास कोरा शब्द बचा हैं। और वह कोरा शब्द कहता हैं त्याग दो; कैसे त्याग दोगे?

त्यागने के लिए, जिसे तुम त्याग रहे हों, उससे कहीं बड़ा अवलंबन चाहिए; सहारा। जब तक वह सहारा नहीं मिला तब तक छोटे सहारे को कैसे त्यागोगे? त्यागने की बात नहीं करो। उस बड़े को पाने की बात करो। छोड़ना नहीं हैं, पाना हैं। अनेक मौकों पर कहा है न कि छोड़ा-छोड़ी की बात न किया करो।

तुम्हें छोड़ने की प्रेरणा ही नहीं मिलेगी। छोड़ना कभी यूहीं नहीं घटित होता। छोड़ा जाता हैं, निश्चित रूप से छोड़ा जाता हैं, पर छोड़ना अपने आप में एकाकी घटना नहीं होती। छोड़ने के पीछे यह भावना होती हैं कि इतना मिल गया हैं, इतना विराट उपलब्ध हैं कि शूद्र को क्या पकड़े रहें। तुम्हें पकड़ना बेतुका लगता हैं, पागलपन लगता हैं; तुम यूहीं छोड़ देते हो - गया।

जो अरबपति हो, वह दस रुपए के नोट के पीछे भागेगा क्या? दस रुपए का नोट अगर मिल भी गया उसे, तो हर्ष मनाएगा? और दस रुपए का नोट अगर खो भी गया उससे तो शोक मनाएगा? अरे हम अरबपति हैं! और वह अगर दस रुपए का नोट किसी रेस्टोरेंट में छोड़ कर आता हैं, वेटर को टिप दे दी, तो तुम कहोगे - बड़ा त्यागी था? त्यागा हैं, त्यागा हैं क्या?

इतना है कि छोटे को पकड़ने में हमारी कोई रुचि नहीं रही - चला गया। त्यागा नहीं हैं; त्यागने का अर्थ हैं कि अब हमें छोटे में रुचि नहीं रहीं। क्योंकि जो भी कुछ छोटा है, जो भी छोटा हैं, वहीं आपको दुखी करता हैं। छोटे को त्यागने का अर्थ हैं, दुख को छोड़ते चलना। पूर्ण आनंद मिल गया हैं, हम सुख-दुःख को पकड़ने में उत्सुक नहीं हैं। उपनिषद् कहता हैं - यो वै भूमा तत्सुखं। जो बड़ा हैं, उसी में सुख हैं, शुद्रता ही दुख हैं; क्षुद्रता ही दुख हैं। त्याग का अर्थ हैं, अपनी क्षुद्रताओं को छोड़ते चलना क्योंकि विराट की उपलब्धि हो गई हैं; याद रखना, विराट की उपलब्धि पहले आती हैं। विराट की उपलब्धि पहले आती हैं। छोड़ने वाले, ग़लती क्या करते हैं? विराट का पता नहीं, छोड़ने पर उतारू हैं। अब जिसको छोड़ते हो अभी, उसको छोड़कर दो कदम आगे बढ़ते हो, फिर मुड़कर उसको फिर उठा लेते हो।

कुल दस ही रुपया हैं तुम्हारे पास, उसको तुमने छोड़ा और बड़ी हिम्मत करके दो कदम बढ़ते हो और फिर लपक कर फिर उठा लेते हों। और फिर कहते हो देखिए बड़ी साधना की ज़रूरत हैं; मन बार बार फिसल जाता हैं; कई बार छोड़ते हैं और फिर उठा लेते हैं। उठाओगे नहीं तो फिर क्या करोगे? तुम और कर क्या सकते हो? कंगला आदमी, और करेगा क्या! करेगा क्या! पाओ, पाओ। सहज पाओ और छोड़ने-वोड़ने के ख्याल के बिना ही छोड़ना हो जाएगा।अपने आप हो जाएगा। तुम्हें याद भी नहीं आएगा, अरे छूट गया! कई दिनों बाद कहोगे,अरे छूट गया। कोई और आकर याद दिलाएगा, छोड़ आए; तुम कहोगे हां, छोड़ आए। वह कहेगा, ज़रा भी ख्याल नहीं किया; बीवी ने दिया था, गाड़ी में छोड़ आए; बोलेगा, बीवी ने दिया था! मुझे तो यह भी ख्याल नहीं। छोड़ आए! कैसे पाए? यहीं प्रश्न बचा; कैसे पाए? जब भी कहोगे कैसे पाए, तो अपनी क्षमता पर यकीन करोगे। हम कुछ करेंगे तो पा लेंगे। तुम जब भी पूछते हो कैसे पाए, तुम कहते हो ऐसा रास्ता बताएं जो हमारे लिए हो; और तुम्हारे लिए क्या रास्ता होगा?

तुम अपने आप को माने बैठे हों कि हम लंगड़े हैं, तुम्हारे पास टांगे नहीं। और तुम कह रहे हों, हमें अनंत तक जाना हैं, रास्ता बताइए। अब तुम्हें क्या रास्ता बताया जाए? और तुम्हें जो भी रास्ता बताया जाए, तुम्हारे अनुकूल ही तो होना चाहिए। तुम्हें रास्ता बताया जाएगा, रेंगो। और तुम रेंगते रेंगते अनंत तक पहुंचोंगे? पंख तुम्हारे पास हैं और टांगे तुम्हारे पास हैं, उड़ तुम अभी सकते हो, मान्यता तुम्हारी क्या हैं? हम लंगड़े हैं। तुम जब कहते हो, कैसे जाए तो तुम अपनी मान्यता के अनुरूप ही तो कोई रास्ता मांगते हो न? बात को समझो।

तुम पूछो, अभी तुम्हें कोई बिमारी हों, तुम पूछो डॉक्टर से, मैं कैसे ठीक हो जाऊं। डॉक्टर कहे, बिल्कुल ठीक हो सकते हो, बस सत्तर मीटर ऊंची छलांग मारो। तुमने पूछा कैसे ठीक हो, उसने कहा सत्तर मीटर ऊंची छलांग मारकर, तो तुम क्या कहोगे; कि यह विधि बेकार हैं – क्यों? क्योंकि यह मेरे अनुरूप नहीं हैं न, यह मेरी क्षमता के भीतर नहीं हैं। अब तुम्हारी क्षमता कितनी हैं, इसका निर्धारण तो तुम पहले से करे बैठे हों। तुम्ही ने तय कर लिया हैं कि हम पंगु हैं। अब तुम्हें जो भी विधि बताई जाएगी, अपनी क्षमता के भीतर ही चाहिए तुमको। तुम्हें अपनी क्षमता के भीतर की ही विधि चाहिए न? तुम्हारी क्षमता के भीतर की विधि तुम्हें कभी परमात्मा तक ले नहीं जा सकती, बात खत्म हो गई। तो तुमने जब भी पूछा कैसे पाएं, तो बेवकूफी का ही सवाल पूछा न? क्योंकि, कैसे का जो भी उत्तर आएगा, वह तुम्हारे लिए होगा; और तुम्हारा इतना नहीं है फैलाव कि तुम उस तक पहुंच सको।

तो कैसे पाएं? यह सवाल पूछना बंद करो, कैसे पाएं। बड़ा अहंकार जनित सवाल हैं; वहीं पूछता हैं कैसे। हम बचे रहें और पा भी ले, हम बचे रहें और पा भी ले।

सवाल करो अपने आपसे कि मैंने कैसे मानना शुरू किया कि कोई कमी हैं; बस यह पूछो। जैसे यह माने बैठे हो न कि कोई कमी हैं, वैसे ही एक बार को, यह कल्पना ही करके देखो कि कोई कमी नहीं हैं। और उस कल्पना को ही, मात्र कल्पना हैं; कल्पनाओं में ही तो जीते हो ना; जो कल्पना में जीता हो, उसे तो एक नई कल्पना ही देनी पड़ेगी। जैसे अभी कल्पना करे बैठें हो कि नहीं हैं - पाना हैं, वैसे ही एक बार को यह भी कल्पना करके देखो कि हैं, और इस कल्पना को आधार बना कर सवाल पूछो, मैंने यह कैसे मानना शुरू किया कि कमी हैं? किसने मुझे सिखाया कि मानो कि कमी हैं? किसने मुझे सिखाया कि पाना हैं, अर्जित करना हैं? और याद रखना, इस मुद्दे पर जो रोशनी पड़ रही हैं, वह तुम्हारी रोशनी नहीं हैं। वह ठीक उसी की रोशनी हैं, जिसे तुम पाना चाहते हों।

तुम खोज उसे रहे हों पर जिस टॉर्च को लेकर के उसको खोज रहे हों उसमें बैटरी उसी की हैं। तुम जिस रोशनी को खोज रहे हों, उसी रोशनी का उपयोग करके खोज रहे हों। तो खोजने कि ज़रूरत हैं? नहीं समझी? तुम सोलर लेनटर्न लेकर के सूरज को खोजने निकलें हों। हाथ में हैं तुम्हारे, हाथ में हैं। वह न होता तो यह सोलर लेनटर्न कहां से आती? नहीं समझी बात को? तुम्हारे भीतर सत्य को जानने कि प्रेरणा ही कहा से उठती, यदि सत्य न होता। प्रेरणा और कहां से आ रहीं हैं।

अभी गोवा में एक यूनिवर्सिटी हैं, वहां पर गया था, वहां पर एक खड़ा हो गया - वह कह रहा है। "सर, आज़ादी कुछ नहीं होती हैं"। तो मैंने कहा, "फिर यह सवाल कौन पूछ रहा हैं?" उसे समझ में नहीं आया। वह बड़ी देर तक अलझा रहा, उसे समझ में नहीं आया कि मैं क्या कह रहा हूं। पर सर, आज़ादी नहीं हो सकती है।" मैं उसके बाद, "फिर सवाल कौन पूछ रहा हैं? कहां से आ रहा हैं यह सवाल?"

जिस सत्य को खोजने निकलते हो, जिसे कहते हो पाना है, पाना है, पाना है, उसको पाने की प्रेरणा देने वाला कौन है? वह सत्य स्वयं ही तो है न। इसलिए तो भारत ने गुरु को परमात्मा बोला -

बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाए

जिस गोविंद को पाने निकले हों, वह गोविंद ही तो प्रेरणा देता हैं कि मुझे पाओ। परम को पाने की प्रेरणा, परम के अलावा कोई दे सकता हैं? तुम दुकान में जाते हो, दुकान में चीज़े रखी रहती हैं, वह तुम्हें प्रेरणा देती हैं न? क्या प्रेरणा देती हैं? हमें पाओ। बीवी भी प्रेरणा देती हैं, किसे पाओ? मुझे पाओ। पति भी प्रेरणा देता हैं, क्या प्रेरणा देता हैं? मुझे पाओ। तो अगर कोई परमात्मा दे रहा हैं, अगर कोई यह प्रेरणा दे रहा है कि परमात्मा को पाओ, तो परमात्मा के अतिरिक्त और कौन हो सकता है? वह बैठा ही तो हुआ हैं तुम्हारे भीतर। वह न होता तो कहां से प्रेरणा उठती? इसलिए पाना, हैं ही नहीं। यह प्रश्न बिल्कुल न करो, कैसे पाएं। खोजा हुआ हैं; वह न मिला होता तो तुम यहां मौजूद कैसे होते? कौन तुम्हें यहां लेकर के आया? उसके अलावा कौन है जो तुम्हें यहां ला सकता है? तो क्यों पूछते हो कि कैसे पाएं? जेब में रख कर घूम रहे हो, पूछ रहे हो कैसे पाएं। या तो बड़े खिलाड़ी हो, या बड़े बेवकूफ।

आ रही है बात समझ में?

पहली बात - त्यागने की बात व्यर्थ हैं, पाना।

दूसरी बात - कैसे पाना? यह प्रश्न व्यर्थ हैं। हद्द से हद्द, यह सवाल कर सकते हो कि मैंने खोने का भाव कब सीखा। और यह प्रश्न भी तुम उसी की प्रेरणा से करोगे, जिसे पाने निकले हो। जब उसकी प्रेरणा मौजूद ही हैं तो पाना किसे हैं? वह तो है ही उपलब्द न। उपलब्ध ही हैं। बस मस्त रहो, जियो, खुश रहो। दुखी भी रहो तो भी खुश रहो। उसी को तो आनंद कहते हैं। जो दुख में भी मस्त रखता हैं, उसी का नाम आनंद हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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