आचार्य प्रशांत: आपके जीवन में अगर कुछ भी ऐसा है जो हमेशा ठीक है तो बात बड़ी गड़बड़ है; आपके जीवन में अगर कुछ भी ऐसा है जो हमेशा गड़बड़ है तो भी बात बहुत गड़बड़ है। प्रकृति में सबकी जगह है; कभी आपको बहुत बड़ा होना है, कभी बहुत बच्चा भी होना है। बिल्कुल ठीक है।
जब कहा जाता है कि “मैं अमर हूँ,” उसका मतलब आप समझते हैं, क्या है? अमर होने का अर्थ ये है कि – “मैंने एक ही जीवन में हज़ार जीवन जी लिए।“ अमर होने का अर्थ है प्रतिपल मरना; बड़ा विरोधाभास है। अमर होने का अर्थ ही है: हर पल मरता हूँ, हर पल नया जन्म होता है; एक ज़िन्दगी में कई ज़िंदगियाँ जी ली हैं, क्योंकि मेरे एक नहीं, हज़ार चेहरे हैं।
लोग आज भी ये मानने को तैयार नहीं हैं कि कृष्ण एक आदमी था। पश्चिम में बहुत लोगों ने अनुसंधान किया है, वो कहते हैं कि भागवत पुराण का जो आदमी है वो गीता का आदमी हो ही नहीं सकता; व्यास ने ही लिख दी होगी गीता, और भागवत में भी कोई एक आदमी नहीं हो सकता। वो कहते हैं: ये सब अलग-अलग लोग हैं, इन सबको एक अम्ब्रेला नाम दे दिया गया है कृष्ण का। वो कहते हैं, “ये एक आदमी नहीं हो सकता। और अगर ये एक आदमी है तो ये पागलपन का शिकार है, पगला है बिल्कुल, इसको बहु-व्यक्तित्व विकार है। नहीं तो एक ही आदमी ऐसा भी और वैसा भी कैसे हो सकता है?”
बहुत सारे शोधकर्ता हैं जो कृष्ण को एक आदमी मानने को तैयार ही नहीं हैं। कहते हैं, “एक आदमी में कुछ तो संगति होगी। इसमें तो कुछ भी संगत नहीं है। कभी कुछ करता है, कभी कुछ करता है। अर्जुन को पगला दिया, कभी बोलता है ‘कर्म’, कभी बोलता है ‘भक्ति’, कभी बोलता है ‘कुछ नहीं, मात्र ज्ञान।’ कभी बोलता है ‘सब त्याग’, कभी बोलता है ‘श्रृंगार और ऐश्वर्य।’ कहीं साड़ी चुराता है, कहीं साड़ी देता है। अरे कुछ तो पक्की बात कर! या तो देनी है तो दे, या फ़िर लेनी है तो ले सबकी। ये चक्कर क्या है! समझ में ही नहीं आता कब क्या करेगा। इसके सामने अगर खड़े हो जाओ तो कोई भरोसा नहीं है कि क्या कर दे। अब नंगे खड़े हैं कि साड़ी दे देगा, तो साड़ी देने की बजाए और ताली बजा-बजाकर हँस रहा है। आप भरोसा ही नहीं कर सकते कृष्ण पर, वो कुछ भी करेगा, आपके अनुसार नहीं चलने वाला।“
प्रकृति ऐसी ही है। कृष्ण प्रकृति के साथ रास ही नहीं करते; कृष्ण प्रकृति ही हैं। हमने इतना तो करा था कि गोपियाँ कृष्ण बन गईं, ये भी जान लीजिए कि कृष्ण भी गोपी ही हैं। कृष्ण पूर्णत: प्रकृति ही हैं, पूरी प्रकृति, प्रकृति में सबकुछ। आप नहीं बता सकते हो कि अब क्या होने वाला है और आगे क्या होगा — इसी अनिश्चितता का नाम धर्म है, इसी असंगति का नाम धर्म है; इसी का नाम धर्म है।
एक जैसा हो जाने का नाम नहीं है धर्म, कि ये तो हमेशा ही ऐसे रहते हैं; ऐसा कोई रहेगा भी नहीं कभी। बुद्ध भी अपने सारे क्षणों में ऐसे नहीं रहते होंगे। हाँ, आपको इतना ही समझ में आया, तो आपने उनकी वो फोटो (तस्वीर) खींच ली और उसी को हर जगह चिपकाए जा रहे हो। बुद्ध भी परेशान हो गए होंगे कि, “एक ही मुद्रा मिली थी? इतना कुछ मैं और भी करता था दिन-भर, उन मुद्राओं में क्यों नहीं मेरे चित्र बनाते?”
पर फिर उसमें बड़ी दिक्कत हो जाएगी, कि बुद्ध नहा रहे हैं और ऐसे पीठ मल रहे हैं। क्यों, तब बुद्ध में कुछ कमी आ गई है जब पीठ मल रहे हैं? अब बुद्ध की ऐसी प्रतिमा बनी हुई है कि बुद्ध बैठे हुए हैं, और बड़ा आनंद आ रहा है, कोई उनकी पीठ खुजा रहा है। आप कहेंगे, “इसमें तो श्रद्धा जैसी कोई चीज़ ही नहीं है।“ अब बुद्ध 'बुद्ध' नहीं रहे क्या, अगर उनकी पीठ में खुजली हो रही है तो? पर आपको तो उनकी एक ही प्रतिमा देखकर के अच्छा लगता है, कि वो समाधि की अवस्था में बैठे हैं।
अब बुद्ध ने खाना खाया और उनकी लार बह रही है, थोड़े-से आराम की अवस्था में आ गए। बुद्ध खाना खाएँगे तो उन्हें स्वाद नहीं आएगा? जानते हैं, अगर लार न आए तो खाना पचेगा ही नहीं? और लार उठती ही तब है जब मन में खाने की कामना उठती है; खाने का पचना लार से ही शुरू हो जाता है। और लार कैसे आएगी अगर बुद्ध में खाने को लेकर के इच्छा न हो? बुद्ध को भी इच्छा है भई, नहीं तो खाना ही नहीं पचेगा, मर जाएँगे। प्रकृति है शरीर, उसमें इच्छा का पूरा-पूरा स्थान है। बड़ी दिक्कत हो जाएगी; बुद्ध लार बहा रहे हैं, अब लार बहाता बुद्ध स्वीकार ही नहीं होगा। (व्यंग्यात्मक तरीके से) बुद्ध को तो लार थी ही नहीं। अरे, बुद्ध खाना खाते ही नहीं थे, हवा पर जीते थे। बोलिए?
या तो फिर वो कर देंगे कि बुद्ध को ऐसा विद्रूप बना दो कि इतनी बड़ी तोंद निकाल दो, या बिल्कुल इस सिरे पर बैठे हैं, या फिर उनको जोकर बना दिया; बुद्ध को बुद्ध नहीं रहने देंगे, या तो देवता बना दो या जोकर बना दो। उनके बुद्धत्व में तुम्हें बुराई दिखती है, बड़ा अस्वीकार है, जैसे हमें अपना अस्वीकार है। बुद्ध प्रकृति हैं इस बात से हमें बड़ा अस्वीकार है; ठीक वैसे ही जैसे हमें अपना अस्वीकार है।
हर्मन हेस्सी ने 'सिद्धार्थ' लिखी है। उसमें उन्होंने बड़े ज़ोर देकर के कहा—बुद्ध पर ही है, कह नहीं रहे कि बुद्ध की कहानी है, पर बुद्ध की ही कहानी है — कि बुद्ध जब बाहर भी निकल गए हैं अपना घर छोड़कर के, तो भी व्यापार भी कर रहे हैं; एक वेश्या के साथ भी रह रहे हैं, एक बेटा भी पैदा हुआ है उनका। पर आपको अगर एक चित्र दिखा दिया जाए कि बुद्ध अकेले नहीं हैं—बुद्ध हमेशा अकेले रहे हैं—बुद्ध के बगल में एक बैठी हुई है, और उनके बीच में एक बुद्धू (व्यंग्यात्मक) भी बैठा हुआ है, बड़ी दिक्कत हो जानी है। “छोटा बुद्ध, अरे ये कहाँ से आ गया?” और वो भी बगल में कोई बैठाई होती देवी तो अच्छा रहता, वेश्या, बड़ी दिक्कत है; पर जिन्होंने जाना है उन्होंने जाना है कि ये होकर रहेगा। जीवन में हर रंग है, और आप होते कौन हो किसी रंग का दमन करने वाले? उस वेश्या के साथ बुद्ध दो-चार साल रहे हैं, फिर उसे छोड़कर आगे भी बढ़ गए हैं।
कोई ओशो की बात कर रहा था। ओशो ने बात को और आगे बढ़ाया है, उन्होंने कहा कि बुद्ध और महावीर, ये घर छोड़कर भागे ही इसीलिए क्योंकि इन्हें बहुत कुछ ऐसा करना था जो समाज में रहकर नहीं किया जा सकता था, उसके लिए जंगल की ज़रूरत थी। उन्हें ज़रूरी था निकलना, नहीं निकलते तो मारे जाते। तो जंगल में गए और दस-बारह सालों तक जीवन को जिया अच्छे से।
‘वाल्डन’ है ‘हेनरी डेविड थॉरो’ की; पूरी है ही यही कि वो आदमी छोड़कर चला गया था और अपनी पूरी सभ्यता से अलग हो गया—अभी सौ, दो-सौ साल पहले की ही बात है—और कह रहा है कि मुझे जीवन छककर के पीना है इसलिए मैं शहर से दूर जा रहा हूँ। बुद्ध ने भी ठीक यही करा है। वो जीवन को नकारकर के नहीं भागे हैं; वो जीवन को जीने के लिए भागे हैं कि “यहाँ ये बैठी हुई है, परेशान करती है, और मेरे कुछ काम ऐसे हैं कि…।“
महावीर ऐसे ही नहीं मौन हो गए, मौन होने से पहले दहाड़े होंगे बहुत देर तक; अनर्थक बोले भी होंगे, फिर वो मौन उपलब्ध हुआ। अब ये काम महल में करेंगे तो सब कहेंगे कि वो पगला गए हैं, बक रहे हैं। बकने का भी स्वीकार है और मौन का भी स्वीकार है; और कई बार बकना भी बहुत ज़रूरी है, बका न जाए तो मौन भी उपलब्ध नहीं होगा। उसी को तो बड़बड़ बोलते हैं। दोनों को स्वीकार करो, बकने को भी स्वीकार करो। बड़बड़ क्यों करनी पड़ती है जानते हो? क्योंकि हम बकने से अपने-आपको रोकते हैं। जिन्होंने बहुत इकट्ठा कर लिया होता है उनको करनी पड़ती है वो, जो यूँ ही बकता रहता हो उसे नहीं करनी पड़ेगी। आपको थोड़े ही करनी है। अरे, कोई ज़रूरत ही नहीं किसी विधि की।
प्रश्नकर्ता: सर (श्रीमान), मौन के लिए क्या करना पड़ेगा?
आचार्य प्रशांत: यही, कोई बुराई नहीं है बोलते रहने में, जो मन में आया बोल भी दीजिए। कितना बोलोगे, थोड़ी देर में अपने-आप मौन आ जाएगा। पर हाँ, उसको दबाओगे, कि, “बोलूँ या न बोलूँ, कहने लायक है कि नहीं है,” तो बड़ी दिक्कत हो जानी है। और है तो सबकुछ ही बड़बड़; जो भी बोला गया है वो बड़बड़ ही है।
लाओत्ज़ू ने कहा था, “तुम कह रहे हो बोलूँ, जो भी बोला जाएगा वो ही बेवकूफ़ी होगी। तुम मुझसे कह कैसे रहे हो कि सच बोल दूँ? जो बोला गया वो असत्य ही है, बेवकूफ़ी ही है। जो भी बोला गया वही बड़बड़ है। तो क्यों रोकना अपने-आपको बोलने से?” बोलने का भी स्वीकार, न बोलने का भी स्वीकार; प्रकृति में सबकुछ है।
प्रश्नकर्ता: सर , क्या प्रकृति में हमारी याददाश्त स्वाभाविक है?
आचार्य प्रशांत: देखो, प्रकृति में समय है, और जहाँ समय है वहाँ पर स्मृति भी है। प्रकृति में चिपकना काफ़ी कम है; चिपकना ज़्यादातर सामाजिक है। याददाश्त है, क्योंकि समय है।
प्रश्नकर्ता: एक उदाहरण है। जैसे कि किसी ने मुझे एक कलम दिया और वो मुझे इस्तेमाल करने में अच्छा नहीं लगा। पर मैं जब भी उस कलम को देखता हूँ तो मुझे याद आता है कि जिसने मुझे ये कलम दिया है वो अच्छा इंसान नहीं है, वो बहुत चालाक है। और अगर किसी ने मुझे एक पृष्ठ दिया, और उस पृष्ठ पर मैं जो लिखना चाहता था मैंने लिखा। पर अब मैं जब भी इस पृष्ठ को देखूँगा तो मुझे याद आएगा कि जिसने मुझे ये पृष्ठ दिया था वो बहुत अच्छा इंसान है।
आचार्य प्रशांत: पर इसमें स्मृति कहाँ है?
प्रश्नकर्ता: इसमें स्मृति है, क्योंकि अब ये सिर्फ़ एक कलम या पेज (पृष्ठ) नहीं रह गए।
आचार्य प्रशांत: स्मृति का अर्थ तो ये है: अतीत में घटना घटी, वो याद है। ये तो कुछ और ही हो रहा है।
प्रश्नकर्ता: घटना की तस्वीर जो मेरे पास है, वो याद है। अब उसने सिर्फ़ एक कलम दिया है मुझे।
आचार्य प्रशांत: घटना के याद होने में या घटना को—जैसे कह रहे हो—स्मरण करने में बड़ा अंतर है।
प्रश्नकर्ता: उस घटना का कुछ अंश स्मरण हो रहा है।
आचार्य प्रशांत: याद होने में और इस तरीके से उसका स्मरण करने में बड़ा अंतर है। किसी की स्मृति होना उसकी स्वचालित याद नहीं है।
हम यहाँ बैठे हुए हैं, हम सबको कितनी बातों की स्मृति है? असंख्य। पर क्या आप सबकुछ रिकॉलिंग कर रहे हो अभी? क्या कभी-भी ऐसा होता है कि जो-जो आपको याद है वो सब आप रिकॉलिंग भी कर रहे हो? नहीं होता न?
प्रश्नकर्ता: हम उस घटना को किसी के साथ जोड़कर रिकॉलिंग करते हैं।
आचार्य प्रशांत: उस स्मरण की प्रक्रिया बिल्कुल अलग है, उसका स्मृति से बिल्कुल कोई लेना देना नहीं है। उसको हम स्मृति न समझें।
स्मृति तो अपने-आप में एक डेटाबेस है, वो होगा; क्योंकि हमारा मस्तिष्क, जो प्राकृतिक है, उसका काम है रिकार्डिंग करना। तो वो तो प्राकृतिक बात है, पर ये जो रिकॉलिंग हो रहा है, ये कोई दूसरी चीज़ है। ये जो आप रिकॉलिंग कर रहे हो न, ये प्राकृतिक नहीं है, प्रकृति में ये नहीं आता; ये तो एक सामाजिक छेड़-छाड़ है, एक तरीके का भ्रष्टाचार है ये।
प्रश्नकर्ता: जो याद आ रहा है वो उस वस्तु से आ रहा है?
आचार्य प्रशांत: ये याद आ नहीं रहा, ये याद करने की कोशिश कर रहे हैं।
प्रश्नकर्ता: अगर वो वस्तु हट जाएगी, तो न वो अच्छा रहेगा न बुरा।
आचार्य प्रशांत: अगर वो वस्तु नहीं होगी तो तुम कोई दूसरी वस्तु बना लोगे। तुम्हारे लिए प्रमुख ये नहीं है कि अपने-आप याद आ गया धीरे से।
प्रश्नकर्ता: अगर मेरे आस-पास कोई ऐसी वस्तु न हो जिससे मैं सम्बन्ध जोड़ सकूँ?
आचार्य प्रशांत: ये मदद करेगा, पर एक हद तक। कभी तुम्हारे साथ ऐसा नहीं होगा कि तुम्हारे आस-पास ऐसी वस्तु हो जिससे तुम सम्बन्ध न स्थापित कर पाओ।
प्रश्नकर्ता: सर , अगर वस्तु से सम्बन्ध ही न जोड़ा जाए तो क्या ये सच में मदद करेगी? क्योंकि जो मेरा वास्तविक स्वभाव था, मस्त जीने वाला, उसमें तो इस वस्तु ने खलल डाल दिया।
आचार्य प्रशांत: वो अवश्य ही मदद करेगा, पर कुछ हद तक। तुम वस्तु को भी हटा सकते हो, जिससे कुछ उपचार हो जाएगा, पर ये स्थायी नहीं है क्योंकि असली मामला कुछ और है, वो इसको हटाने से दूर होगा नहीं। थोड़ी-सी मदद मिल जाएगी, पर असली मामला कुछ और है, उसकी ओर ध्यान देना होगा।
प्रश्नकर्ता: यदि मस्त जीना ही हमारा वास्तविक स्वभाव है, तो हमें उन वस्तुओं को जमा करने की क्या ज़रूरत है जो हमें अतीत के बारे में याद दिलाती रहें?
आचार्य प्रशांत: ये जिसको हम पुरुष कह रहे हैं न, उसका स्वभाव सिर्फ़ देखने का है, और देखने का मतलब होता है पूर्ण मुक्ति; पूर्ण मुक्ति उससे जिसे तुम देख रहे हो, जिसका अवलोकन कर रहे हो। ये देख पाए इसके लिए ज़रूरी है कि इसके पास पूरी मुक्ति हो ही। पर पूर्ण मुक्ति आने से उसमें एक मुक्ति और भी आ जाती है— वो है सो जाने की आज़ादी। अगर मैं पूर्णत: मुक्त हूँ, तो मैं इस बात के लिए भी मुक्त हूँ कि मैं मुक्ति से भी मुक्त हो जाऊँ; ये गड़बड़ हो जाती है। एक तरीका है उसको कहने का कि ये पूर्ण मुक्ति का उपोत्पाद है।
आप अगर एक चौकीदार हो, तो आप मुक्त नहीं हो, आपके ऊपर एक कर्तव्य का बोझ है; तो आप रात भर जागोगे भी। पर अगर आप पुर्णतः मुक्त हो, तो आप रात में चाँद-तारे देखने के लिए भी मुक्त हो, हवा का मज़ा लूटने के लिए भी मुक्त हो, और सो जाने के लिए भी मुक्त हो। तो पूर्ण मुक्ति में एक ये घटना कई बार घट जाती है कि आप सो जाते हो।
तो जब आप सो जाते हो—जब राम सो गए तो उस पत्थर को कौन जगाएगा? कोई नहीं जगा सकता न? — तब प्रकृति भी अपना तारतम्य खो देती है, उसका जो नाच है वो रुक जाता है, वो भी पत्थर समान हो जाती है—मुर्दा। तब हर तरीके की बीमारियाँ उठती हैं। तब बस इतना ही करना है कि वो जो सो गया है पुरुष, उसको थोड़ा-सा किसी तरीके से जगा देना है, कि भाई उठ जा। वो उठा नहीं कि प्रकृति भी उठ जाएगी; दोनों का एक साथ है उठना। और इसीलिए हमने कहा था कि दो तरीके हो सकते हैं: प्रकृति को भी जगा दो तो भी वो जग जाएगा, और सीधे-सीधे पुरुष को उठा दो तो भी वो उठ जाएगा।
हमारे लिए इसका क्या अर्थ है? हमारे लिए इसका ये अर्थ है कि आपके सामने एक विद्यार्थी बैठा है, उसको ध्यान में लाने के दो तरीके हो सकते हैं: पहला, आपकी बात में इतना वज़न है कि वो ध्यान में आ जाए, और दूसरा तरीका जिसको हम कम इस्तेमाल करते हैं वो ये है कि आप उसको कोई शारीरिक व्यायाम करा दो; उसकी प्रकृति को उठा दो। शरीर प्रकृति है, उसको उठा दो तो भी वो ध्यान में आ जाएगा। उसको नींद आ रही है। नींद जा सकती है ऐसे भी कि आप उसको कोई ऐसी बात बोल दो जो उसके मन को बिल्कुल भेद दे; और नींद ऐसे भी जा सकती है कि आप कहो कि चलो अब थोड़ा-सा नाचकर दिखाओ।