अल्पसंख्यक

Acharya Prashant

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अल्पसंख्यक

मुश्किल है

खाने की मेज़ पर, बस के अन्दर

या बस टहलते हुए

बतियाना

दिशाओं से फूट-फूट पड़ते

अंधेरों की चर्चा में

आँख यूँ चमकाना

जैसे

हमने (बस तुमने और मैंने)

इन्हें अभी-अभी पकड़ा हो ।

कभी मायूस होना

और चर्चा को गंभीरता के साथ

मौका देना

आपसी निगाहों को

जानने का

थोड़ा बहुत अँधेरा

स्याह कर चला है

हमारे चेहरों को भी,

सच, मुश्किल है ।

और मुश्किल है

सम्पादक को पत्र लिखना

सर्वोच्च संस्थाओं से गुहार मारना

ग्रोथ रेट के आकड़ों के ऊपर

मुस्कुराकर चाय का घूँट पीना ।

मुश्किल है

जज़्ब करना

जब हमारी आँखें चमकी थीं

अँधेरा थोड़ा और बढ़ गया था

और और मुश्किल हो गया था

पृथक करना

अँधेरे से तुम्हारे चेहरे को।

पीड़ा हुई थी

क्योंकि मेरा चेहरा भी…

मुश्किल है

समझाना

यदि तुम और सभी

उस के बारे में

मौसम के हाल और चुनावों के नतीजों

जितना ही जानते हो

तो न जानना कि

सारी तीलियाँ डिब्बी में ही हैं

और डिब्बी चाय की टेबल से

महज कुछ गज़ दूर ।

मुश्किल है

ज्वार में चढ़े आते

काले समुद्र में

बदराई अमावस्या की रात

अकेले टापू पर खड़े हो

निहारना

कि

मछलियाँ अभ्यस्त हो चुकी हैं

रात के पक्षी शौक के उड़ रहे हैं

और

चैन से जीवन व्यतीत करते

इतने जीवों के बीच

तुम मनुष्य हो

अल्पसंख्यक…।

~ प्रशान्त (०१.१०.९८, दशहरा दोपहर ०३:४५)

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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