अलग-अलग संस्कार ही अलग-अलग व्यक्ति बनते हैं || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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अलग-अलग संस्कार ही अलग-अलग व्यक्ति बनते हैं || आचार्य प्रशांत (2013)

प्रश्न : सर, उदाहरण के लिए दो व्यक्ति हैं, दोनों भाई हैं। एक इंजीनियर बनता है और दूसरा पढ़ा-लिखा नहीं है और ऑटोरिक्शा चलाता है। दोनों ही व्यक्ति एक ही घर में पैदा हुए, दोनों भाई हैं, माँ-बाप एक ही हैं। लेकिन एक इंजीनियर बन गया और एक नहीं बना। एक रिक्शा चला रहा है, एक गाड़ी चला रहा है। इसको क्या हम इस तरह कह सकते हैं कि जो इंजीनियर बना, वो ज़्यादा समाज से प्रभावित है इसलिए वो इंजीनियर बन गया, क्योंकि उसका अपना कुछ नहीं है, इसलिए वो इंजीनियर बना और दूसरा जो रिक्शा चला रहा है या जो बेरोज़गार है उसे समाज ने कम प्रभावित किया? क्योंकि दोनों जी रहे हैं, दोनों काम कर रहे हैं लेकिन दोनों की अवस्थाओं में अन्तर है।

श्री प्रशान्त : तुम सीधे-सीधे ये पूछ रहे हो कि संस्कार हमें किस हद तक प्रभावित करते हैं?

चलो, मैं तुम्हारे सवाल को और तीखा कर देता हूँ। दो जुड़वाँ भाई पैदा होते हैं। जुड़वाँ भी ज़्यादा हो गया, तो मान लो कि दो क्लोंड भाई पैदा होते हैं। जुड़वाँ तो फ़िर भी अलग-अलग हैं। क्लोंड , उनका डी.एन.ए . भी एक है। लिंग एक, घर एक, और पूरी उनकी जो परवरिश है वो भी एक-सी। उसके बाद भी यह पता चलता है कि एक डाकू बन गया और एक साधू। तो यह तर्क दे सकते हो तुम कि संस्कारों से कुछ नहीं होता, यह तो कुछ और ही है।

श्रोता १ : पर दोनों की कोशिशों में अंतर रहा होगा।

वक्ता : कोशिश तो बहुत बाद में आती है। कोशिश से पहले आता है ‘कारण’। तुम कुछ भी कोशिश तभी करते हो जब उसके पीछे कोई कारण होता है। और कारण मतलब लालच । और तुम उसी चीज़ का लालच रखते हो जिसके लिए तुम्हें प्रेरित किया गया है। जिसके लिए तुम्हें कहा गया है कि यह लालच के योग्य है। वरना तुम लालच भी नहीं रखोगे उसका। अभी यहाँ बढ़िया, मस्त मटन रख दिया जाये तो यहाँ कई लोग हैं जिनको उसका लालच नहीं आयेगा और कई हैं जो टूट पड़ेंगे।

(सब हामी में सर हिलाते हैं)

तो तुम्हें लालच भी उसी चीज़ का उठता है जिसका तुम्हें संस्कार दिया गया है। तो तुम किसकी कोशिश कर रहे हो यह तुम्हारे संस्कारों पर निर्भर करता है। कहानी यहाँ से शुरू बिल्कुल भी नहीं होती कि एक मेहनत कर रहा है और दूसरा नहीं कर रहा। तुम बड़ी मेहनत कर सकते हो अगर अभी तुम्हें एक बड़े उपयुक्त तरीके से संस्कारित कर दिया जाये। बहुत मेहनत करोगे।

यह भी एक बहुत बड़ी भ्रान्ति है कि कुछ लोग मेहनती होते हैं और कुछ लोग आलसी। नहीं! जो मेहनती है वो दूसरी किसी दिशा में महा-आलसी बन जाएगा और जो आलसी है, उसको अगर उचित लालच दे दिया जाये तो वो महा-मेहनती बन जायेगा।

(सब हामी में सर हिलाते हैं)

श्रोता : सर, फ़िर अंतर कैसे और कब आ जाता है?

वक्ता : एक ने कोई पिक्चर देख ली थी जब वो तीसरी कक्षा में था। और वो बड़ी खतरनाक किस्म की पिक्चर थी। उससे उसकी धारा ज़रा-सी मुड़ गयी। जैसे पानी की दो धारायें जा रहीं हों। इधर भी वादी है और उधर भी वादी है। और दोनों जा रहीं हैं। उनमें से एक को बस ज़रा-सा मोड़ दिया जाये तो वो पहली वाले से बहुत दूर हो जायेगी। वो वादी में पहुँच जायेगी और ऐसा लगेगा कि वो कितनी अलग-अलग हो गयीं। एक ज़रा-सा धूल का कण आ गया था पहली वाली धारा के सामने, वो ज़रा-सी मुड़ी और पता नहीं कहाँ पहुँच गयी।

आप किन्हीं भी दो लोगों को बिल्कुल ही एक-सी परिस्थितियाँ नहीं दे पाओगे। बिल्कुल एक-सी, कभी भी नहीं दे पाओगे। मन ऐसा है कि बस ज़रा-सा उसे रास्ता मिले, वो उधर को ही बढ़ता जाता है, बढ़ता जाता है।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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