अकेलेपन से घबराहट क्यों? || (2018)

Acharya Prashant

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अकेलेपन से घबराहट क्यों? || (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या अकेलेपन से डरने का कारण अहंकार है?

आचार्य प्रशांत: तुम जब तक दुनिया के सामने रहते हो, तो अपने बारे में सोचने का, या अपने ऊपर ध्यान देने का बहुत मौका रहता नहीं। तुम व्यस्त रहे आते हो। जब दुनिया नहीं सामने होती, सिर्फ़ तुम होते हो, जीवन की ऊब, बेचैनी, छटपटाहट, ये सब सामने खड़े हो जाते हैं, इसलिए ‘अकेलेपन’ से घबराते हो।

जो स्वस्थ आदमी है, वो अकेलेपन से नहीं घबराएगा। जिसके पास भीतर सौ तरह के भूत-प्रेत, पिशाच हैं, वो घबराता है अकेलेपन से, क्योंकि उसको पता है कि अकेला हुआ नहीं कि ये सब निकल-निकल कर बाहर आएँगे, और नाचेंगे चारों ओर।

अकेले तो हम होते भी नहीं हैं न? हमारे साथ हमेशा कौन होते हैं भीतर? भूत-प्रेत, पिशाच।

जब तक दुनिया के साथ हो, काम में लगे हो, धंधे में लगे हो, बाज़ार में हो, पार्टी में हो, तब तक वो भूत-पिशाच चुपचाप बैठे रहते हैं। कहते हैं कि – “अभी तो बहुत लोग हैं, अभी हम सामने नहीं आएँगे।” और जैसे ही कोई नहीं होता सामने, तुम अकेले होते हो अपने कमरे में, तो भीतर वाले कहते हैं – “अकेले नहीं हो तुम, हम भी हैं न।” और अब तुम गए।

अगर पूरी तरह अकेले होते तो नहीं डरते, भीतर और भी लोग हैं। ये भीतर वालों को हटा दो, अकेलेपन से डर नहीं लगेगा। भीतर जो सब घुस कर बैठे हैं, उनसे कहो – “कमरा खाली करो, चलो निकलो। बहुत हो गया।” उसके बाद अकेलेपन से डर नहीं लगेगा।

हमारी हालत ऐसी है कि जैसे हमारे घर में कोई लुटेरा घुस आया हो, और उस लुटेरे ने हमारी किसी प्यारी चीज़ को पकड़ लिया है, और शाम को घर में उत्सव है, पार्टी और दावत में बहुत सारे मेहमान आए हैं। जब तक वो मेहमान घर में मौज़ूद हैं, वो लुटेरा क्या करेगा? वो छुपा हुआ रहेगा। वो भी छुपा हुआ रहेगा, और तुम्हें भी उसका ख़याल थोड़ा-सा कम आएगा। क्यों? क्योंकि अभी मनोरंजन है, बातचीत है, नशा है, गाना-बजाना है, इतने मेहमान हैं, दावत है, खाना-पीना है।

और फिर रात गहराने लगती है, मेहमान जाने लगते हैं। और ज्यों ही आख़िरी मेहमान विदा होता है और तुम अकेले हो जाते हो, कौन निकल कर आता है? वो, जो घर में घुसा हुआ है। इसलिए डरते हो ‘अकेले’ होने से।

दूसरों को बुलाने की कोशिश कम करो।

जो पहले ही भीतर बैठा हुआ है, उसको निकालने की कोशिश ज़्यादा करो।

तुम अकेलेपन से घबराते हो तो दावत दे डालते हो। तुम कहते हो, “लोग आएँगे तो रोज़ जो डर में और सूनेपन में जीता हूँ, उससे निजात मिलेगी।” ये ग़लत दिशा है। क्योंकि जो लोग आएँगे, वो वापस भी जाएँगे। और जब वापस जाएँगे तो फिर कौन निकल कर आएगा? वो जो घर में छुपा हुआ है।

तो दूसरों को बुलाना ज़रूरी नहीं है।

ये जो भीतर घुस कर बैठा हुआ है, इसको विदा करने ज़्यादा ज़रूरी है।

इसको विदा करो।

ये ग़ैर-जरूरी है, ये अनावश्यक रूप से तुम्हारे भीतर घुस कर बैठा है।

जो कुछ भी मन में घुस कर बैठा हुआ हो, समझ लो वही सताता है ‘अकेलेपन’ में।

जो भी कोई हो वो, उसको विदा कर दो।

मन में जो कुछ भी चलता रहता है, चक्रवात, उससे कहो, “धन्यवाद! आप इतने दिन यहाँ रहे, अब मियाद खत्म हुई, माफ़ी दें।” फ़र्क़ नहीं पड़ता कि मन में क्या चलता है। जो कुछ भी मन में लगातार चलता रहता है, उसी को अपना दुश्मन मानना। वही है वो जिसको तुमने नाम दिया है ‘अकेलेपन’ का।

इसीलिए ‘अकेलेपन’ से घबराते हो।

अकेलापन बराबर – ‘भीतर का चोर’, अकेलापन बराबर – ‘जो बाहर से आकर डकैत, भीतर का बन गया है’। उसी का नाम है ‘अकेलापन’। और वो भयावह है, इसीलिए दुनिया अकेलेपन से घबराती है।

तुम्हारा अकेलापन वास्तव में बहुत बाहरी चीज़ है।

ये दो मज़ेदार बातें हैं।

पहली बात – ये जो तुम कहते हो, “मेरा अकेलापन”, ये तुम्हारा अकेलापन नहीं है, बाहरी चीज़ है। ये भीतरी बनकर बैठ गई है। और दूसरी बात- अकेलेपन में तुम अकेले बिलकुल नहीं हो, अकेलेपन में तुम्हारे साथ कोई है। उसको भगा दो।

श…… कोई है। और ये सिर्फ़ तब सामने आता है जब तुम अकेले होते हो। बाकी समय वो कहाँ रहता है?

प्रश्नकर्ता: छुपकर!

आचार्य: कहाँ?

प्र: अंदर!

आचार्य: अंदर।

जब आँखों के सामने दूसरे लोग रहते हैं, तो आँखों के सामने नहीं आया। तब वो कहाँ होता है? तब वो आँखों के पीछे होता है। तब वो आँखों के पीछे बैठ कर तुम्हारी दृष्टि को भ्रमित कर रहा होता है। और जब दूसरे लोग हट जाते हैं, तो ख़ुद ही सामने आ जाता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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