प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं साँस भी लेता हूँ तो हवा शरीर के अंदर जा रही है, हवा कोई और है, तो ऐसे तो मैं कभी अकेला हो ही नहीं सकता।
आचार्य प्रशांत: साँस किसके अंदर जा रही है?
प्र: शरीर के अंदर जा रही है।
आचार्य: तो शरीर तो अकेला हो ही नहीं सकता।
प्र: तो अगर मैं कहूँ कि मुझे अकेले रहना पसंद है तो मैं सबसे पहले तो ख़ुद से ही झूठ बोल रहा हूँ।
आचार्य: उससे पहले तुम और बड़ा झूठ बोल चुके हो कि तुम शरीर हो। पहले ख़ुद ही परिभाषित करते हो कि ‘मैं शरीर हूँ’ और हवा मेरे साथ है, फिर कहते हो, "इससे सिद्ध होता है कि मैं कभी अकेला हो ही नहीं सकता।" जो तुम्हारे पूरे तर्क का आधार है, पहले उसको तो परख लो। शरीर कभी अकेला होता है क्या? जब हम अकेलेपन की बात कर रहे हैं तो किसकी बात कर रहे हैं?
प्र: मन की।
आचार्य: शरीर कैसे अकेला हो जाएगा? तुम्हें दिखाई पड़ रहा है कितने करोड़ जीवाणु अभी शरीर पर चिपके हुए हैं? चलो, शरीर से तुम धो भी दो, तुम्हें पता है तुम्हारी आँतों में कितने करोड़ जीवाणु निवास करते हैं? तुम पूरा एक शहर हो, एक देश हो। तुम्हारे भीतर करोड़ों की जनसंख्या बैठी हुई है, तुम अकेले कहाँ से हो गए? शरीर कैसे अकेला हो जाएगा? तुम्हारे भीतर एक घनी जनसंख्या बैठी हुई है। शरीर नहीं अकेला होता। शरीर ना अकेला होता है, ना दुकेला होता है। जब अकेलेपन की बात की जाती है तो वहाँ पर शरीर के आयाम की बात की ही नहीं जा रही। मन अगर भीड़ से घिरा हुआ है तो ‘मन’ अकेला नहीं है। मन पर अगर हावी है कुछ भी, तो ‘मन’ अकेला नहीं है।
प्र: वह चाहे कुछ भी हो?
आचार्य: कुछ भी।
प्र: आचार्य जी, अगर केंद्र मन के ऊपर है तो उस समय हम कह सकते हैं कि मन अकेला है?
आचार्य: मन में जितनी बातें उथल-पुथल मचा रही हैं, तुम उतने घिरे हुए हो, बात इतनी सीधी-सादी है।
यहाँ बैठे हुए हो तो सिर्फ कुछ लोग हैं आस-पास। स्थूल नज़र से देखोगे तो कहोगे — “यहाँ मैं एक छोटी-सी भीड़ का हिस्सा हूँ”। हो सकता है तुम वहाँ गंगा किनारे जाकर बैठ जाओ और वहाँ तुमको घर-परिवार, दफ्तर-बाज़ार, पूरा समाज — ये काम, वो काम, ये ज़िम्मेदारी, वो याद, वो लक्ष्य — सब ख्याल आ रहे हों। तो वहाँ बैठने से ज़्यादा अकेले तुम तब थे, जब यहाँ थे। आ रही है बात समझ में? यहाँ बैठे हो तो देखने से ऐसा लग रहा है कि एक दल में हो। लेकिन यहाँ पर अगर चुप हो, शांत हो, तो यहाँ ज़्यादा अकेले हो, बनिस्बत कि जब तुम गंगा किनारे अकेले बैठे थे।
जो लोग कहते हैं — ‘साहब! हमें अकेले रहना पसंद है’, वो अकसर सबसे ज़्यादा भीड़ में जी रहे होते हैं। क्योंकि उनके पास एक पूरी भीड़ होती है (अपने सर की तरफ इशारा करते हुए) और वो उससे इतने घिरे होते हैं क्योंकि उससे बाहर निकलने का मौका ही नहीं है। पहले ही भीड़ में हो, तो और लोगों को वह अपने जीवन में प्रवेश ही नहीं दे पाते। अब कमरे में बैठे हुए हैं, और उनके साथ अट्ठारह लोग हैं कहाँ पर? यहाँ पर (अपने सर की तरफ इशारा करते हुए), तो कमरे के बाहर जो लोग हैं, वह उनसे मिलेंगे ही नहीं। फिर वो क्या कहेंगे? - "मुझे अकेले रहना पसंद है।" अरे! तुम्हें अकेले रहना पसंद नहीं है। तुम भीड़ से इतना घिरे हुए हो कि अब तुम किसी से मिल ही नहीं पा रहे। तुम्हारे पास जगह ही नहीं है।
ज़्यादातर यह जो अकेलेवाद के अनुयाई होते हैं, वह यही होते हैं।
प्र: तो यह कैसे पता चलेगा कि मुझे अकेले रहना पसंद है या नहीं है? मैं किस मोड में हूँ?
आचार्य: मैंने कहा था न जब भी कभी कर्म को आँकना हो, तो एक विधि लगा लेना, जान लेना कि — कर्म की मंशा क्या है? चाहते क्या हो? सिर्फ उसी से निर्धारण हो जाना है। जो तुम्हारा लक्ष्य है, वही तुम्हारा केंद्र है — दोनों एक साथ चलते हैं बिलकुल। जो तुम चाह रहे हो, वहीं से चाहत उठती है। जो करने जा रहे हो, उसी ने पहले तुम्हारे भीतर आकर के तुम्हारे कर्म को ऊर्जा दी है।
तुम भागे जा रहे हो किसी लड़की से मिलने। शारीरिक तौर पर तो ऐसा लगेगा कि अभी मिलोगे भविष्य में कुछ देर के बाद — हुआ यह है कि उसने पहले तुम्हारे ख्यालों में आकर के तुम्हारे पाँवों को ऊर्जा दी है। पहले वह तुम्हारे भीतर आयी है (मन के भीतर), अब तुम उसकी ओर शारीरिक रूप से भाग रहे हो। तो जो तुम्हारा लक्ष्य होता है, वही तुम्हारा केंद्र होता है। लक्ष्य को पकड़ लो, केंद्र को जान जाओगे।
प्र: आचार्य जी, जो लोग अपने लक्ष्यों को निर्धारित करके चलते हैं, क्या वह केंद्रित होते हैं?
आचार्य: तुम भागे जा रहे हो रोटी की तलाश में, तो अभी तुम्हारा केंद्र क्या है? शरीर। क्योंकि रोटी किसको चाहिए? शरीर को। तो जो लोग रोटी के लिए बहुत तड़पते हैं, वह समझ जाएँ कि उनके केंद्र में क्या बैठा हुआ है? शरीर भाव।
प्र: आचार्य जी, आप जितनी भी बातें बताते हैं, उनको हम सुनते हैं, समझते हैं। अगर उनमें से सर्वाधिक एक-दो बातें निकाली जाएँ, तो मुझे लगता है सबसे ज़्यादा ‘ईमानदारी’ की ही बात आएगी। तो ‘ईमानदारी’ जो शब्द है, जिसको अन्यथा या अन्य तरीकों से हम प्रयोग करते हैं, यह वह ईमानदारी तो है नहीं जो आमतौर पर प्रयोग में आती है कि सौ रुपए लिए तो सौ रुपए लौटा दिए। तो मुझे धीरे-धीरे कुछ दिनों में यह बात खुली कि ईमानदारी होती क्या है — समझ को कार्य में परिणित करो। परंतु वह बहुत ऊर्जा माँगती है।
वास्तव में मैं यह पूछना चाह रहा हूँ कि ईमानदार रहना इतना मुश्किल क्यों है?
आचार्य: वह ठीक उस वजह से मुश्किल मालूम पड़ता है, जिस वजह से तुम कह रहे हो कि एक-दो सारगर्भित बातें। जब तुम कह रहे हो कि सारी बातों में से एक-दो बातें सारगर्भित हैं, तो तुम देख रहे हो कि तुम क्या कर रहे हो? तुम अपने ऊपर ज़िम्मेदारी ले रहे हो कि इस शब्दों के पूरे झुंड में से मैं एक-दो बातें अपने लिए चुनूँगा। अब मेहनत करनी पड़ेगी न, अब अपनी ही बुद्धि पर निर्भर हो गए। लगा दी अकल! जितना अपने ऊपर लोगे, उतना मुश्किल होता जाएगा।
प्र: कुछ ऐसे भी क्षण होते हैं, जब मन यह तर्क रखता है कि क्यों?
आचार्य: अच्छी बात है कि मन यह तर्क रखता है कि “क्यों?” तो जितनी शक्ति हो, उसका पूरा इस्तेमाल करके उत्तर दो न। ऐसा नहीं है कि तुम जानते नहीं। जैसे यह बता रहे हो कि मन सवाल करता है — “क्यों?”, वैसे ही यह भी बताओ कि जवाब मौजूद है। सवाल हमें बता देते हो, जवाब भी तो बता दो। नहीं तो फिर सिर्फ सवाल की बात करना तो समस्या मात्र को प्रोत्साहन देना है। समस्या बता दूँगा और समाधान जो मेरे सामने है, उसको छुपा दूँगा।
प्र: सवाल जो मन का होता है, वह यह होता है कि, "ईमानदार क्यों होना है?" ईमानदारी है जो बुला रही है, कुछ करना है, लेकिन वह इस सिस्टम को तोड़ रही है। मन कहता है कि, "ठीक है न रहने देते हैं", लेकिन आप कह रहे हैं कि उसको जवाब भी दो। वह जवाब बहुत ज़रूरी होता है, लेकिन वह बहुत धीमा होता है। और जो सवाल होता है, वह बड़ा स्थूल होता है कि “ऐसा क्यों?”
आचार्य: जो यह धीमा जवाब होता है, वह सवाल के ऊपर का होता है। अंतर नहीं पड़ रहा है कि उसकी आवाज़ कितने ज़ोर की है। वह ऊपर के तल का है, वह नीचे वाले को ख़ुद निर्धारित कर देगा। लिखा हो 'उन्नीस' (१९), अगर ग़ौर से नहीं देखोगे तो तुम्हें क्या दिखेगा? उन्नीस में ज़्यादा बड़ी कीमत किसकी है — ‘एक’ की या ‘नौ’ की? तुम कह दोगे ‘नौ’ की। पर अगर ग़ौर से देखोगे तो तुम्हें पता चलेगा कि जो छोटा सा ‘एक’ है, उसकी ज़्यादा बड़ी कीमत है ‘नौ’ से। क्योंकि वह ऊपर के तल पर बैठा है। ‘एक’ बड़ा कि ‘नौ’? तुम कह दोगे ‘नौ’। बात ग़लत है! उस छोटे से ‘एक’ को किसी बहुत बड़े का सहारा है। उसे शून्य का सहारा है। जब ‘एक’ को ‘शून्य’ का सहारा मिल जाता है, तब वह ‘नौ’ से बड़ा हो जाता है। इसी लिए शून्यता के क़रीब जाना चाहिए।
इसमें कोई बड़ी बात नहीं हो गई कि वहाँ सिर्फ एक नदी थी। अगर सिर्फ एक नदी थी और उसमें छप-छप कर रहे हो, गोते खा रहे हो, तो वह भी अपने-आप में ‘पवित्र’ बात है, उसमें भी एक ‘ सैक्रेडनेस * ’ है। * सेक्रेडनेस यही नहीं होती कि जाकर आरती उतार रहे हो और कह रहे हो — “माँ गंगा! माँ गंगा!” जल के साथ आनंद में हो, यह अपने-आप में बड़े प्रेम और सम्मान की बात है। उसके लिए कोई मंत्र नहीं पढ़ने पड़ते, कोई पूजन नहीं करना पड़ता। आनंद अपने-आप में पूजन है।
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