अकेलापन दूर कैसे करें?

Acharya Prashant

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अकेलापन दूर कैसे करें?
शरीर ने कहा कि अकेलापन है, अकेलापन है, तो जाकर के किसी को भी दोस्त बना लिया। कोई भी मिला, संयोग से कोई पड़ोसी मिल गया, उसी से दोस्ती कर ली, कि हाँ भाई गप्प हाँक रहे हैं, या शरीर ने कहा स्त्री चाहिए तो जाकर के वैश्यावृत्ति कर आये, कि स्त्री ही तो चाहिए। पर क्या ये संगति हमें उच्चतम की ओर ले जाती है? अच्छी किताबें , फिल्में , स्पोर्ट्स- इनकी संगति भी तो अकेलापन दूर करती है| फिर इनकी संगती क्यूँ नहीं? यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, आपने इस बारे में कहा था कि तुम्हारी कामनाएँ झूठ हैं, वो बाहर से आती हैं। थोड़े-बहुत आपने उदाहरण दिये थे, जैसे कि तुम्हें किसने बताया कि शादी कर लेनी चाहिए। मैनें इसमें अपना जोड़ दिया क्योंकि मेरे जीवन में अकेलापन ज़्यादा है, तो तुम्हें किसने बता दिया कि यार-दोस्तों के साथ मौज-मस्ती मार लो तो अकेलापन दूर हो जाएगा।

तो ये सारी कामनाएँ बाहर से ही आ रही हैं, तो मेरा इसमें प्रश्न यह था कि कुछ-कुछ चीज़ें हैं जो बाहर से आती हैं और कुछ; जैसे हमारा आकर्षण किसी फीमेल (स्त्री) की तरफ़ बढ़ रहा है, वो बायोलॉजिकल (जैविक) है, उसको भी यह बोल देंगे कि हमारी नहीं है, वो बायोलॉजी (जीवविज्ञान) से आ रही है।

लेकिन कुछ-कुछ चीज़ें हैं जो मुझे लगता है कि जो मुझे अगर किसी ने बतायी भी न होती, जैसे अकेलापन, जो मुझे अपने जीवन में सबसे ज्यादा इस वक़्त लगता है, मुझे कोई बोले भी न तो मुझे लगता है कि अन्दर से ही आ रहा है। वो तभी दूर हो पाता है जब मैं अपनेआप को किसी काम में लगाता हूँ, तभी दूर होता है। तो आचार्य जी ऐसी बहुत सारी चीज़ें होंगी जो शायद कोई बताये भी न, और जो बायोलॉजिकल कंडिशनिंग से भी न आये, तो इसका क्या समाधान है? आपकी मैं बहुत सारी वीडियो देख चुका हूँ, और मुझे पता है कि आप यह भी बताएँगे कि अपनेआप को सही काम में झोंक दो ताकि ये सारी चीज़ें न आयें, तो असली सोल्यूशन (समाधान) तो यही होगा अन्त में। पर ऐसी कोई चीज़ें हैं और भी जो बाहर से भी न बतायें और बायोलॉजिकली (जैविक रूप से) भी न आयें लेकिन वो असली में एक्जिस्ट करती हैं। तो क्या ऐसी चीज़ें भी हैं? और अगर हैं तो इसका सिर्फ़ एक ही समाधान जो कि है काम में झोंक देना?

आचार्य प्रशांत: समाधान वही है लेकिन आप जो अभी चाह रहे हो वो चीज़ थोड़ी सी अलग है। ठीक है, अकेलापन है। अब अकेलेपन का एक तो शरीर द्वारा सुझाया गया समाधान है, वो तो यही होता है कि या तो यार दोस्त हों, या पत्नी हो। शरीर खैर पत्नी की बात नहीं करता, पत्नी तो एक सामाजिक शब्द है। तो शरीर कहता है स्त्री हो, या फिर मन कहता है यार-दोस्त हों। तो ये हो जाता है।

तो जो बिलकुल शुद्धतम-उच्चतम बात है, वो यह हो गयी है कि आत्मा असंग होती है, आत्मा को किसी की संगति चाहिए ही नहीं, ठीक है? वो आख़िरी बात है, एकदम शुद्धतम, कि आप अपनेआप को बार-बार बोलो कि आत्मा असंग है, आत्मा अद्वैत है, आत्मा अद्वैत है, आत्मा को तो किसी की संगति चाहिए ही नहीं है। और सबसे नीचे की बात यह है कि शरीर ने कहा कि अकेलापन है, अकेलापन है, तो जाकर के किसी को भी दोस्त बना लिया। कोई भी मिला, संयोग से कोई पड़ोसी मिल गया, उसी से दोस्ती कर ली, कि हाँ भाई गप्प हाँक रहे हैं, या शरीर ने कहा स्त्री चाहिए तो जाकर के वैश्यावृत्ति कर आये, कि स्त्री ही तो चाहिए। शरीर ने कहा चाहिए, तो जाकर के ख़रीद लाये स्त्री।

उच्चतम हो गया कि आत्मा असंग है, निम्नतम हो गया कि जो शरीर ने करवाया सब कर डाला। आपको जो समाधान चाहिए, वो नीचे से ऊपर जाने की यात्रा का है, वो ये कि तुझे संगति चाहिए मन, तू बहुत अकेलापन अनुभव कर रहा है, चल मैं तुझे बेहतर संगति दूँगा। जैसे आपसे पहले वाला जो प्रश्न आया था, वो मूवीज (चलचित्र) पर आया था, तो मुझे उसी से उदाहरण एक याद आ रहा है, इतनी अच्छी मूवीज हैं दुनिया में। अधिकांश बाहर बनी हैं, कुछ भारत में भी हैं ऐसी देखने लायक़, भारत माने सभी भारतीय भाषाओं में। तो आपने कितनी देख ली हैं?

और आपने भी अगर कुछ पिक्चरें पसन्द करी होंगी अपनी ज़िन्दगी में, तो आपको याद होगा कि अच्छी पिक्चर में आप डूबे होते हो, तो अकेलापन नहीं लगता है या लगता है? उल्टा हो जाता है, कि आप किसी के साथ गये थे पिक्चर देखने के लिए और वो नाराज हो गया, क्योंकि गये तो उसके साथ थे और हो गये पिक्चर के साथ, और उसको भूल गये बगल वाले को। वो पॉपकॉर्न भी आपको दिखा रहा है, आप उठा नहीं रहे पॉपकॉर्न।

तो संगति — उदाहरण के लिए कह रहा हूँ, क्योंकि अभी उन्होंने उदाहरण दिया था पिछले प्रश्नकर्ता ने — आप पिक्चरों कि संगति क्यों नहीं कर सकते हो, कि फिर वही शाम वही गम वही तन्हाई है, कोई बात नहीं, बताओ आज कौन सी मूवी लगायी है। जहाँ तन्हाई आयी, वहाँ मूवी लगायी, और मस्त होकर अपने दो घंटे देखिए।

और ऐसी पता नहीं कितनी चीज़ें हो सकती हैं, कि संगति ही तो माँग रहा है न तू — जो भीतर वाला है उससे बात करिए, वो जो भीतर द्वैत वाली माऊ-माऊ चिल्लाने वाली आवाज़ है — तुझे किसी कि कम्पनी (साथ) ही चाहिए न, तो मैं तुझे दे रहा हूँ न अच्छी कम्पनी। और वो अच्छी कम्पनी , सत्संगति देने का लाभ यह होता है कि धीरे-धीरे आप वहाँ पहुँचते जाते हैं जहाँ भीतर से फिर वो आर्तनाद, चीख-पुकार नहीं उठती है, कि किसी का साथ चाहिए, किसी का साथ चाहिए। फिर आदमी अपने साथ भी अति प्रसन्न रहता है, फिर आदमी अगर दूसरे की संगति अगर करता भी है तो इसलिए कि उसको कुछ लाभ दे दे, करुणा संगति कह लीजिए आप उसको। फिर संगति इसलिए नहीं करता कि दूसरे के पास जाकर दूसरे से चिपक जाना है।

तो किताबें हो गयीं, मूवीज हो गयीं, कुछ खेलने चले गये। आप कुछ खेलते हों, अब आप किसी खेल में डूबे हुए हैं, आधा-पौना घंटा हो गया है खेलते हुए, उस वक़्त आपको याद आता है, ज़िन्दगी कितनी तन्हा है? आप क्या खेलते हैं, कुछ बताइए।

प्रश्नकर्ता: बैडमिन्टन।

आचार्य प्रशांत: आप बैडमिन्टन खेल रहे हो, ठीक है, और बिलकुल 'एडवांटेज' इधर-उधर शिफ़्ट हो रही है, वो भी तीसरा मैच चल रहा है, ठीक है? तेईस-बाईस, तेईस-तेईस, चौबीस-तेईस ऐसे चल रहा है स्कोर, उस वक़्त अचानक से याद आता है कि काश मेरी ज़िन्दगी में कोई होती?

प्रश्नकर्ता: नहीं।

आचार्य प्रशांत: कुछ भी नहीं, शटल कॉक, बस काम काफ़ी है, इतनें में हो गया।

प्रश्नकर्ता: मैं समझ पा रहा हूँ आचार्य जी। मैं इसको ये बोलना चाहूँगा जैसे किताबें बतायी आपने, मूवीज बतायी, लेकिन जब मैं सोचता हूँ इसको इस तरीक़े से, किताबें हैं, मूवीज हैं, स्पोर्ट्स हैं, ये कुछ लिमिट (सीमा) ही हो जाते हैं, मैंने मूवीज देख ली, मेरे पास कुछ बचती नहीं कि अब मैं क्या देखूँ। मैं यह बोलना चाह रहा हूँ कि मैं इंसानों को ज़्यादा अहमियत देता हूँ, अच्छे इंसान, ऐसे नहीं कि कोई भी।

आपसे उपनिषद्, श्रीमद्भगवद्गीता समझकर, आपको सुनकर अब इतना मुझे समझ आ गया है कि अब संगति कैसी करनी है, लेकिन उच्चतम संगति इंसान की मानता हूँ, किताबों के बजाय।

आचार्य प्रशांत: नहीं, आप मुझे एक बात बताइए, आप एक बहुत अच्छे बैडमिन्टन प्लेयर के साथ खेल रहे हैं, आपको उसकी संगति नहीं मिली हुई है क्या? आप 'ओपनहाइमर' देख रहे थे, आपको उसके निर्माता-निर्देशक की संगति नहीं मिली हुई थी क्या? आपको मेरी संगति कब मिलेगी, गीता में या मैं ऐसे ही इधर-उधर घूम रहा हूँ, कहीं बैठकर के कुछ कर रहा हूँ, चाय पी रहा हूँ, ब्रश कर रहा हूँ, आप बगल में खड़े हैं, उस संगति से आपको कोई फ़ायदा होगा क्या?

क्या है उनका नाम, नोलान क्रिस्टोफर यही है न? तो उनकी संगति आप कब करना चाहोगे, उनकी मूवी देखकर के, या वो कहीं पर खड़े होकर के मोमोज खा रहे हैं तब उनकी संगति करोगे?

प्रश्नकर्ता: वैसे आचार्य जी वही है, अकेलापन तो दोस्तों से ही दूर होता है, पर बीच-बीच में…

आचार्य प्रशांत: अरे भाई, आप मूवी देख रहे हैं तो आपका दुख नहीं बँटा वहाँ पर, उस व्यक्ति ने अपना दिल निकाल कर आपके सामने रख दिया है अपनी मूवी के माध्यम से। जब एक कलाकार — आप एक मूवी निर्माता को कलाकार ही तो कहेंगे न, वो एक कलाकार है — एक कलाकार जब मूवी बनाता है तो मूवी में अपना दिल निकाल कर आपके सामने परोस देता है, तो इससे अच्छी संगति क्या हो सकती है?

मेरी भी संगति करनी है, लोग आते हैं, बोलते हैं, 'आचार्य जी, आपसे आकर कहाँ मिलना है ये-वो।’ कहता हूँ, मिल तो रहे हो, इससे अच्छा तरीक़ा क्या होगा मिलने का जिस तरीक़े से अभी मिल रहे हो। मैं थोड़ी देर पहले बैठकर के ब्रेड और मटर खा रहा था, उस समय मेरे बगल में बैठे होते, तुम्हें क्या मिल जाता?

किसी को बोल रहा, अरे नमक ला दो थोड़ा सा, कोई था शर्ट प्रेस कर रहा था, मैं कह रहा हूँ क्या कर दिया शर्ट प्रेस कर दी, जला रहे हो क्या। उस समय आप मुझे देखोगे तो आपको मुझसे क्या लाभ हो जाएगा? मटर मिल जाएगी, यही होगा। बगल में बैठोगे, मैं मटर खा रहा हूँ, बोलूँगा लो मटर खा लो भाई। अब मटर चाहिए या गीता चाहिए?

तो संगति में ये नहीं है न कि जो हाड़-माँस का है, उसको बगल में बैठा लिया तभी उसकी संगति है। अगर हाड़-माँस वाले से ही संगति होती है तो बताओ हम कैसे करें कृष्ण की संगति फिर, हाड़-माँस में तो हैं नहीं। बताओ कहाँ से फिर किसी अष्टावक्र, किसी कबीर की संगति करोगे, कोई नही है हाड़-माँस में, सब गये। हाड़-माँस वाली बहुत छोटी चीज़ होती है।

और हम संगति में यही गड़बड़ कर लेते हैं, कि कोई बिस्तर में पड़ा हुआ है, गन्धा रहा है, और जाकर उसके ऊपर कूद गये, कहा ये संगति हो रही है। अरे भाई, वो एक बहुत अच्छा वैज्ञानिक हो सकता है, लेखक हो सकता है, गायक हो सकता है, कलाकार हो सकता है, कुछ भी हो सकता है। लेकिन संगति के नाम पर आपको क्या करना है? आपको उसकी चादर के अन्दर घुसना है। वो कौनसी संगति है, इसमें काहे की संगति है!

मुझे अगर किसी व्यक्ति से रिश्ता बनाना है, एक व्यक्ति जैसे पूरा एक इन्द्रधनुष होता है, एक स्पेक्ट्रम होता है, तो मैं उसके उच्चतम बिन्दु से रिश्ता बनाऊँगा न। आप बात समझ रहे हो?

प्रश्नकर्ता: अब बात समझ आ रही है, सर।

आचार्य प्रशांत: हाँ, तो अब वो जो फ़िल्म के निर्देशक हैं, उनके उच्चतम बिन्दु से रिश्ता बनाइए, और उनके जीवन का उच्चतम बिन्दु क्या है? ये मूवी। तो आप जब उस मूवी के सामने बैठकर उसमें डूब जाते हो तो आपने बहुत सुन्दर रिश्ता बना लिया उस व्यक्ति से, और इसके अलावा नहीं कोई रिश्ता हो सकता। एक व्यक्ति है वो मेरी लौंडरी (कपड़े धोने का काम) करता है, वो क्या बोलेगा कि मेरा बड़ा अच्छा रिश्ता है आचार्य प्रशांत से? क्यों? 'उनके मोज़े साफ़ कर रहा हूँ।' ये कौनसा रिश्ता है, ये काहे का रिश्ता है?

तो इसी तरह इंसानों से भी आपको मिलना है तो ये रूमानी और बिलकुल फ़िल्मी एक हमें अवधारणा मिल गया है कि दोस्तों के साथ बैठो और बिलकुल फ़िज़ूल की बातें करो, और जाम छलकाओ और मौज-मस्ती करो और उससे पूछो और तेरी वाली का क्या हुआ। और वो बोले, 'वही भाई तेरी वाली के साथ भाग गयी। दोनों अभी लेस्बियन (समलैंगिक) हो गये हैं। तब हाहाहा ठहाके चल रहे हैं, आधे घंटे तक, हँस रहे हैं, आधे घंटे तक हँस रहे हैं, ऐसा लग रहा है कि वाह, अब जाकर तन्हाई दूर हुई। ये कौनसी संगति है! मेरी वाली तेरी वाली के साथ भाग गयी, हाहाहा, इसमें चुटकुला भी क्या है? अरे उन दोनों की ज़िन्दगी है, भाग गयी, अच्छी बात है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं समझ पा रहा हूँ, ग़लती मैं यह कर रहा था कि मैं एंटरटेनमेंट (मनोरंजन) और हँसी-मजाक़ और अपने दुख-सुख को बाँटने को ज़्यादा महत्व दे रहा था, इसकी तुलना में।

आचार्य प्रशांत: दुख-सुख कहाँ बँट जाता है, ये तो बता दीजिए।

प्रश्नकर्ता: नहीं बँटता वो, बस अपने को लगता है ऐसा।

आचार्य प्रशांत: हमें नहीं लगता — रुकिए, रुकिए ज़रा — आज के सत्र में क्या था? आपको जो भी कुछ लगता है वो आपको नहीं लगता, वो आपको बता दिया गया है। ये आपको फ़िल्मों ने बता दिया है कि खूब जमेगी महफ़िल जब मिल बैठेंगे तीन यार, मैं, आप और बैगपाईपर। तो ये फ़िल्मों ने और विज्ञापनों ने आपको बताया है ये सब, जहाँ चार यार मिल जाएँ वहीं रात हो गुलज़ार, अमिताभ बच्चन ने गाया था। और वो वहाँ नीचे अपना पाँच हैं अपना सड़क पर, ऊपर लड़की है उसको छेड़ने के लिए गा रहे हैं नीचे। और आप बहुत छोटे थे, आपने पिक्चर देख ली, वो बात मन में बैठ गयी है कि यही तो है सुख-दुख का बाँटना।

प्रश्नकर्ता: मेरे हिसाब से, आचार्य जी, मेरा सुख-दुख का बाँटना है कि मैं अकेला हूँ, मैंने अपने दोस्त को बता दिया, मैं अकेला फील कर रहा हूँ, चलो जो मूवी मैं अकेला देख रहा हूँ, साथ में देख लेते हैं।

आचार्य प्रशांत: अच्छा, साथ में आप उसका मुँह देखेंगे या मूवी देखेंगे? साथ में, साथ में कैसे देख सकते हैं मूवी? जो ये हमारी स्पीशीज (प्रजाति) है न, वो एक ही दिशा में देख सकती है, कुछ स्पीशीज ऐसी होती हैं, जैसे गिरगिट होता है, उसकी एक आँख एक तरफ़ को देखती है, और एक आँख दूसरी तरफ़ को देखती है। हमारी स्पीशीज में दोनों आँखें या तो परदे को देखेंगी या उसका मुँह देखेंगी बगल वाले का।

तो आप या तो उसको देखो या मूवी को देख लो। उसको देखना है तो फिर उसी को देखो, फिर देखो क्या होता है। कैसा अजीब लगेगा, पॉपकॉर्न खा रहे हो, किसी का मुँह देख रहे हो!

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मुझे ये समझ आया कि संगति का मतलब ये है कि हम उसे जो उच्चतम दे सकते हैं।

आचार्य प्रशांत: और क्या! और इसी तरीक़े से कुछ होते हैं जो एकदम न्यूनतम श्रेणी के लोग होते हैं, उनकी सारी जो नज़र है, वो निम्नतम पर रहती है। तो उदाहरण के लिए, वो पता करेंगे अब जाकर के कि इसमें जो अभिनेता है, इसका जो निर्देशक है, उसकी ज़िन्दगी में सबसे नीचे वाली चीज़ें क्या हैं। जैसे जो पपाराजी (स्वतन्त्र फोटोग्राफर) होते हैं ये क्या करते हैं? ये सेलिब्रिटीज (प्रसिद्ध व्यक्ति) के पीछे लगते हैं और कुछ भी पता लगाएँगे उनकी ज़िन्दगी का, और फिर उसको जाकर छाप देंगे और वो चीज़ खूब चलती है, खूब बिकती है। ये आपको तय करना है न कि आप कोनोसियर (विशेषज्ञ) हो या पपाराजी हो, किसी भी व्यक्ति के उच्चतम को देखना है या उसके निम्नतम को देखना है।

जिन्हें नीचे की चीज़ देखनी हो, वो तो कृष्ण को भी नहीं बक्शते, श्रीकृष्ण का आप देखेंगे, आप खोजिए इंटरनेट वगैरह पर तो खूब अपमान करते हैं लोग। कहते हैं, 'वोमैनाइजर (व्यभिचारी) है, इसकी क्या बात सुनें, सोलह हज़ार के साथ एकसाथ था, इसकी नहीं सुनेंगे हम।' और जितनी पौराणिक कहानियाँ बना दी हैं कृष्ण को लेकर के, उनका सबका उद्धरण देकर सिद्ध करते हैं कि ये आदमी बेकार है, इसकी बात नहीं सुनो।

तो जिन्हें खोट निकालनी हो, वो तो कहीं भी निकाल लेते हैं। आपका काम है देखना एक व्यक्ति को और जो उसकी उच्चाई है, उससे अपना रिश्ता बनाना, और वही अच्छी संगति है, वही सत्संगति है। तो अब सत्संगति, सुसंगति, और कुसंगति, की ये परिभाषा समझ लीजिए। सुसंगति और कुसंगति ऐसे नहीं होती कि इधर जो आदमी बैठा है इससे करी तो सुसंगति, और उधर जो बैठा है इससे करी तो कुसंगति। इधर ही जो आदमी बैठा है उसके उच्चतम बिन्दु से करी तो सुसंगति, और इधर ही जो यही आदमी बैठा है इसी के अगर निचले बिन्दु से करी तो कुसंगति। एक ही आदमी, एक के लिए सुसंगति हो जाएगा, एक के लिए कुसंगति, अन्तर इस बात का है कि आपने उस व्यक्ति के किस तल से अपना रिश्ता बनाया। बात समझ में आ रही है?

अब उसी फ़िल्म में ऐसे भी चरित्र थे न, एक महिला थी जो कह रही है कि हाँ मुझे भी अकेलापन लगता है, आई नीड यू (मुझे तुम्हारी ज़रूरत है)। वो आये नहीं, वो आत्महत्या करके जान दे दी उसने, जाने आत्महत्या से, जाने डिप्रेशन से, किसी वजह से। अब वो जो व्यक्ति है वो ओपनहाइमर के उच्चतम बिन्दु से थोड़ी अपना रिश्ता बना रहा है, उसने रिश्ता ही कहीं नीचे की चीज़ से बनाया है। तो ये बिलकुल हो सकता है कि एक ही व्यक्ति हो, और आप उसके किसी ऐसे बिन्दु से रिश्ता बना लें कि वो व्यक्ति आपके लिए कुसंगति बन जाए, जबकि वो व्यक्ति उपलब्ध है कि आप उसके?

प्रश्नकर्ता: सबसे ऊँचे बिन्दु से रिश्ता बना लें।

आचार्य प्रशांत: हाँ, सबसे ऊँचे तल से भी सम्बन्ध अपना आप बना सकते हैं, व्यक्ति उपलब्ध है। तो ये सुसंगति-कुसंगति हो गये।

प्रश्नकर्ता: ठीक ठीक, काफ़ी कुछ समझ आया आचार्य जी। बहुत ज़्यादा कन्फ़्यूजन (भ्रम) थी, आपने बहुत ज़्यादा आज स्पष्ट कर दी। अब से मैं इस चीज़ का ध्यान रखूँगा। बहुत-बहुत शुक्रिया जी।

आचार्य प्रशांत: जी, आभार।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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