प्रश्न: आचार्य जी, प्रणाम। कल आप बोल रहे थे कि शहीद भगत सिंह के समय पर एक शत्रु था, और वो अंग्रेज़ थे। ये बात उनको पता थी। अपने शत्रु के बारे में उन्हें पता था। इन दिनों अनेक शत्रु हैं, और पता भी नहीं है कि वो हैं कौन। कृपया इशारा करेंगे कि वो कौन हैं?
आचार्य प्रशांत: नहीं, मैंने 'एक-अनेक' नहीं कहा था, मैंने 'प्रकट-अप्रकट' कहा था। मैंने कहा था कि शत्रु प्रकट था, अभी अप्रकट है।
प्रश्नकर्ता(प्र): तो वो अप्रकट शत्रु कौन है अभी इन दिनों?
आचार्य जी: उन सब चीज़ों पर ध्यान दीजिए जिनपर हमारा आज का जीवन आधारित है। उनमें बताइएगा कितना प्रकट है और कितना अप्रकट है।
कहाँ से शुरुआत करूँ? कहीं से भी कर सकता हूँ। चलिए, यहीं से कर लीजिए। सौ साल पहले अगर आप माँस खाते थे तो आपको दिखाई पड़ता था कि जानवर का वध किया जा रहा है, और जानवर खड़ा है, गला कट रहा है, वो चीत्कार कर रहा है, ख़ून बह रहा है, पंख नोचे जा रहे हैं, या हड्डियाँ हटाई जा रही हैं। ये सब दिखता था। अभी बहुत सुंदर डब्बा आ जाता है पैकेज्ड मीट का, और वो आप ऑनलाइन ऑर्डर कर सकते हैं। और नई-नई स्टार्टप्स निकल रही हैं जो आपको ऑनलाइन पैकेज्ड मीट देती हैं, और वो बड़ा सुंदर लगता है। पीछे की बर्बरता छुपा दी गई। पहले दिखती तो थी कि मारा जा रहा है, वध हो रहा है।
अब तो चाहे तुम जूते का डब्बा मँगवाओ या माँस का डब्बा, वो एक-से ही दिखते हैं। बहुत साफ़ -सुथरा मामला होगा, बड़ी सुव्यवस्थित दुकान होगी, उसपर लिखा होगा - 'फ्राइड चिकन'। और वहाँ साफ़ कपड़ों में वेटर आदि कर्मचारी घूम रहे होंगे, एयर कंडीशनिंग चल रही होगी, बढ़िया रोशनी होगी, संगीत भी चल रहा होगा, साफ़ -सुथरे सजे-सँवरे हुए लोग होंगे। उसमें कहीं ये प्रकट है कि असली धंधा क्या है? कहीं प्रकट है? आपको ख़याल भी आता है उस वक़्त क्या? बोलिए। आता है क्या?
बहुत बातें हैं, मैंने बस शुरू यहाँ से किया। अभी और बातों पर भी आ सकते हैं।
तब नहीं जाते थे इतनी छुट्टियाँ मनाने लोग, अब आप जाते हो। और आप हवाई जहाज़ पर चल देते हो। वो हवाई जहाज़ कितना कार्बन छोड़ रहा है, ये कहीं से प्रकट है क्या? प्रकट क्या है? प्रकट बस ये है कि हॉलीडे हो रहा है है; एयरपोर्ट बढ़िया था, साफ़ था, चिकना था; हवाई जहाज़ कितनी उन्नत तकनीक का लग रहा है। फिर एयरपोर्ट पर उतरे, फिर होटल पहुँच गए, सब कितना साफ़-सुथरा। और जो गंदगी की गई है, क्या वो प्रकट है? और वो गंदगी हमें बर्बाद कर रही नहीं है, कर चुकी है।
आप चिप्स खा रहे हो, चिप्स। सब अच्छा ही अच्छा है। क्या ये प्रकट है कि उस चिप्स के कारण हज़ारों ओरांगुटान मारे गए हैं? आप कहोगे, "अरे! पर ये तो आलू के चिप्स हैं, ओरांगुटान का माँस थोड़ी ही है।" ये प्रकट थोड़े ही है कि वो आलू के चिप्स जिस पाम ऑयल से बन रहे हैं, उस पाम ऑयल के लिए जंगल काटे गए। और उन जंगलों में ओरांगुटान रहता था, वो ख़त्म ही हो गया, बचा ही नहीं! आप तो कह रहे हो, "मैं तो चिप्स खा रहा हूँ।" अब प्रकट थोड़े ही है कि वो चिप्स नहीं है, ओरांगुटान का ख़ून है। प्रकट है?
तो ये फ़र्क़ है आज से सौ साल पहले और आज के समय में। आज सब कुछ ऊपर-ऊपर से चिकना-चुपड़ा है। आपको दिखाया ही नहीं जा रहा कि आप कितना क्रूर, बर्बर, और घटिया जीवन जी रहे हो!
आप किसी दफ़्तर में काम करते हो। आपको लगता है कि मैं तो सॉफ्टवेयर फर्म में काम करता हूँ। और बढ़िया, सब ऐसे ही चिकना-चुपड़ा, सुंदर-सुंदर, साफ़-साफ़। बड़े सभ्य तरीके से काम हो रहा है। कोई भी आपसे चिल्लाकर बात नहीं कर रहा, आपके सब अधिकारों की सुरक्षा की जा रही है। आपको लग रहा है कि मैं तो बड़ी उन्नत, कटिंग एज इंडस्ट्री (अग्रणी व्यवसाय) में काम करता हूँ; ब्लीडिंग एज। आपको पता भी है आप जो सॉफ्टवेयर लिख रहे हो उसका उपयोग किस काम के लिए हो रहा है? पता है? अप्रकट है न। छुपा हुआ है! आप तो मौज में अपनी तनख़्वाह लेकर घर आ गए। आपको पता भी है आप जो आप कर रहे हो, वो दुनिया को बर्बाद करने के काम आ रही है चीज़?
सब अप्रकट है।
सौ साल पहले, दुनिया के शीर्ष दो-प्रतिशत अमीरों के पास जितनी दौलत थी, आज उससे हज़ार गुना ज़्यादा है। जिसे 'गिनी गुणांक' कहा जाता है, वो बद-से-बदतर होता जा रहा है। पर आप तो जाकर के अपने मालिकों के लिए दफ़्तर में काम कर आते हो न, बिना ये देखे कि आप जो काम कर रहे हो वो किसी अमीर आदमी को और अमीर बना रहा है। आप तो कहते हो, "नहीं, मेरी तो बड़ी प्रोफेशनल और रिस्पेक्टबल वर्कप्लेस है। बड़ी मॉडर्न कंपनी है मेरी। और जितने भी लिबरल प्रिंसिपल्स होते हैं, सबका पालन करती है।"
ये आपने कभी देखना चाहा कि कुल मिला-जुला करके आपके सारे काम का नतीजा क्या निकल रहा है? ये निकल रहा है कि दुनिया की सारी ताक़त कुछ चंद हाथों में केंद्रित होती जा रही है।
सब अप्रकट है।
जो प्रकट है, वो छल है, छलावा है, धोखा है।
प्रकट ये है कि बहुत सुंदर मंदिर बनाया गया है। अप्रकट ये है कि वहाँ पहले जंगल हुआ करता था जिसको काटकर वो मंदिर बनाया गया। लेकिन आप गुरुदेव की पूजा करे ही जा रहे हैं।
हमारे पास वो आँखें ही नहीं हैं जो उसको भी देख पाएँ जो बताया नहीं जा रहा, जो छुपा हुआ है। हम बस उतना ही देखते हैं, उतना ही सुनते हैं जितना हमारे कानों में मीडिया डाल देता है, जितना हमारी आँखों को दिखाई पड़ जाता है। हम ऐसे मूर्ख हो गए हैं कि अपनी छोटी दुनिया, अपने छोटे स्वार्थों के आगे कुछ देख-सुन ही नहीं पाते।
पहले तो दुश्मन सामने था और दुश्मन में इतनी ईमानदारी थी कि बता देता था कि — "मैं तुम्हारा दुश्मन हूँ"। आज तो जो आपका दुश्मन है, वो आपके घर में घुसकर बैठा हुआ है, आपका हितैषी बनकर बैठा हुआ है। आप उसी का पानी पी रहे हो, उसी की नौकरी कर रहे हो, उसी की रोटी खा रहे हो, उसी को टी.वी. में देख रहे हो, उसी का बनाया टी.वी. खरीद रहे हो। आप पूरे तरीक़े अपने दुश्मन की गिरफ़्त में हो।
और तो और, खौफ़ होगा आपको, उसी के अनुसार आप जीवन जी रहे हो, उसी के अनुसार शादी कर रहे हो, उसी के अनुसार बच्चे पैदा कर रहे हो, जी भी उसी के मुताबिक रहे हो, मर भी उसी के कहे रहे हो। तुम्हारा खाना-पीना तुम्हारा दुश्मन निर्धारित करता है। तुम्हारे पति-पत्नी तुम्हारा दुश्मन निर्धारित कर रहा है। तुम्हारी एक-एक साँस पर किसी बाहरी ताक़त का कब्ज़ा है जो तुम्हें बस लूट रही है, और तुम्हें पता भी नहीं।
इसलिए धर्म-युद्ध चाहिए।
इसलिए कह रहा था कल कि आओ और साथ दो। और मैं ये भी समझता हूँ कि साथ देना उन लोगों के लिए थोड़ा मुश्किल हो जाता है जो जीवन के तमाम तरह के बंधनों और तथाकथित ज़िम्मेदारियों में बंध गए हैं। इसलिए मैंने कहा था, युवाओं का आह्वान किया था कि तुम आओ।
प्र 1: जब हमको ये चीज़ें समझ आ जाती हैं, दिखने भी लग जाती हैं, और हम हेल्पलेस (असहाय) महसूस करते हैं इन्हीं सब चीज़ों की वजह से...
आचार्य जी: हेल्पलेस इसलिए महसूस करते हो क्योंकि भोगना है। हेल्पलेस तुम इसलिए थोड़ी महसूस करते हो कि दुश्मन ताक़तवर है। हेल्पलेस इसलिए महसूस करते हो क्योंकि तुम्हारे स्वार्थ बड़े हैं, तुम्हें सुविधाओं की लत लगी है; उन्हें तुम छोड़ नहीं सकते। तुम्हें वही सब उत्पाद चाहिए, पैसा चाहिए, रुपया चाहिए, सुविधाएँ चाहिए, इसलिए हेल्पलेस हो। अपने हाथों मजबूर हो।
प्र २: अगर कुछ भी करना चाहें, छोटे-से-छोटा...
आचार्य जी: तो उसकी क़ीमत अदा करो। क़ीमत अदा करने से क्यों डरते हो?
प्र २: क्या इस समस्या के केंद्र में उपभोक्तावाद है या उससे भी ज़्यादा कुछ जटिल है?
आचार्य जी: देखो, उपभोक्तावाद कोई नई चीज़ नहीं है।
भोगने की वृत्ति तो आदमी में सदा से थी। अभी तो बस इतना हुआ है कि ज्ञान संचित होते-होते उस अवस्था में पहुँच गया है जहाँ तुम जितना चाहो भोग सकते हो। आदमी भोगना सदा से चाहता था, पर मजबूरी थी, पूरा भोग नहीं पाता था। जो कुछ चाहिए, उतना उपलब्ध ही नहीं था। अब पहले भाप आ गई, स्टीम आ गई, इंडस्ट्रियल रिवॉल्यूशन हो गया, फिर इंटरनेट आ गया। अब इतनी वस्तुएँ हैं भोगने के लिए कि, जितना चाहो उतना भोग सकते हो।
ये जो दुनिया की इतनी आबादी बड़ी हुई है, ये भोगने का ही तो परिणाम है, और ये भोगने के लिए ही पैदा हो रही है। समझना बात को। ये जो आठ सौ करोड़ लोग हैं, ये भोगने से ही आए हैं और भोगने के लिए ही आए हैं। क्यों? क्योंकि विज्ञान ने और तकनीक ने न जाने कितनी सम्भावनाएँ पैदा कर दी हैं।
लेकिन वो सम्भावनाएँ, भूलो मत, कि बहुत बड़ी क़ीमत पर आ रही हैं। तुम जो चिप्स भोग रहे हो, याद रखना अभी क्या बताया था, वो किसी की लाश से आ रहा है। ये जो तुम चीज़ खा रहे हो, ये यूँ ही नहीं आ जा रहा है। इसको तुम तो देखते हो और कहते हो कि चीज़ ही तो है, उसके पीछे क्या है, ये तुम्हें पता ही नहीं चलता। ये जो जूता पहन लेते हो, कहते हो कि जूता ही तो है, उसके पीछे क्या है, ये तुम्हें पता ही नहीं चलता।
हम स्वयं को भी बर्बाद कर चुके हैं, इस पृथ्वी को भी बर्बाद कर चुके हैं, आने वाली पीढ़ी तो बर्बाद कर ही दी पूरी।
पहले एक बात और होती थी, आदमी की भोगने की वृत्ति पर धर्म अंकुश लगाता था। आज के समय में एक और ऐसी घटना हुई है जो इतिहास में हैरतअंगेज़ है, एकदम अनूठी है: आज के धर्मगुरु भोग को प्रोत्साहन दे रहे हैं। उनकी हिम्मत ही नहीं है कि खुलकर कह पाएँ कि — "तुम्हारा भोगना तुम्हें बर्बाद कर रहा है।" लोग भोगने को इतने आतुर हैं कि उन्हें पता है कि भीड़ जुटेगी ही नहीं अगर हमने भोग के ख़िलाफ़ कुछ बोल दिया। तो वो लोगों के भोग को ही प्रोत्साहित करते हैं। कोई बताता है कि, "इतना संभोग करो, इतना संभोग करो कि तुम्हें मुक्ति मिल जाए।" कोई बताता है कि, "नहीं, जो कुछ चल रहा है, दुनिया बिल्कुल ठीक चल रही है। इसी दुनिया के दायरे में रहकर के और आगे बढ़ो, तरक़्क़ी करो, उन्नति करो।"
जब धर्मगुरु ही भोग के समर्थन में खड़े हुए हैं, तो फिर अब भोग पर अंकुश कौन लगाएगा? विज्ञान भोगने के अवसर दिए जा रहा है, और धर्म भोगने को प्रोत्साहित कर रहा है। विज्ञान भोगने के लिए तुम्हें वस्तुएँ दिए जा रहा है। वास्तव में विज्ञान भी नहीं दे रहा। विज्ञान का तुमने जो दुरुपयोग किया है, जो टेक्नोलॉजी लगाई है, वो दे रही है। तो वस्तुएँ आई जा रही हैं, आई जा रही हैं। और उस भोग को रोकने का जो ऐतिहासिक तरीक़ा रहा है, वो तरीक़ा आज विफल हो गया।
देखो न, अभी सब जो गुरु लोग हैं उनको। वो इस बात में शान समझते हैं कि दिखाएँ कि हम भी तो भोग सकते हैं न। ये रहा हमारा हेलीकॉप्टर, ये रहा हमारा प्लेन, ये रही हमारी एडवांस्ड मोटरबाइक। हमारे चश्मे देखो, अँगूठियाँ देखो, हमारे महल देखो। और इतना ही नहीं, उनकी व्यापारियों से गहरी सांठ-गांठ हो गई है।
शरीर के तल पर देखो तुम किसको भोगते हो? शरीर के तल पर तुम भोगते हो रूप को, सौंदर्य को। तो तुम पाओगे कि धर्मगुरु सिनेमा के अभिनेता और अभिनेत्रियों के साथ नज़र आ रहे हैं। अगर वो चर्चा सात्विक हो तो बढ़िया बात है, पर अक्सर उस चर्चा में सिर्फ़ ये संदेश होता है कि धर्मगुरु भी देखो भोग को, रूप को, लावण्य को मान्यता दे रहा है। ये संदेश ग़लत है। इसी तरीके से धर्मगुरु नज़र आ रहे हैं व्यापारियों के साथ, राजनेताओं के साथ। ये बड़े-से-बड़ा पाप है।
धर्म का काम था समाज को दिशा देना, सही दिशा देना। धर्म का काम था अर्थ पर, काम पर अंकुश लगाना। है न? पर जो लोग कामवासना को भड़काते हों, धर्म अगर उनके बगल में बैठा नज़र आए तो? जो अर्थ-पशु हों, पैसा ही कमाना जिनका प्रयोजन हो, धर्मगुरु उनके बगल में बैठा नजर आए तो? धर्म अब कैसे अंकुश लगाएगा वासना पर और लोभ पर?
नतीजा ये हुआ है कुल मिला-जुला के, कि भोग को अब एक नैतिक स्वीकृति भी मिल गई है। न संयम बचा है, न लज्जा बची है। अब तुम्हारा अहंकार खुलेआम अपना नंगा-नाच दर्शा सकता है, कोई रोक नहीं है।
इस सब से लड़ना ज़रूरी है, भले ही हार मिले। इस समय और कोई काम करा भी नहीं जा सकता है, यही काम करना है। ये काम होगा, नतीजा चाहे जो निकले।
प्र १: आचार्य जी, जैसे दूध है और दूध से बने जो प्रोडक्ट (उत्पाद) हैं, उनके कारण पशुओं का शोषण हो रहा है और वो हमारे लिए इतने लाभकारी भी नहीं हैं। गांव में या किन्हीं जगहों पर पशुओं को बड़े प्यार से रखते हैं, उनके खाने-पीने का ध्यान रखते हैं, उनकी पूरी सेवा करते हैं, उनके बच्चों का ध्यान रखते हैं, और उससे जो दूध मिलता है उसको अपने लिए इस्तेमाल कर लेते हैं। क्या वो भी ग़लत है, या ये ठीक है?
आचार्य जी: कम ग़लत है, पर ग़लत फिर भी है। तुम पशु का इस्तेमाल व्यावसायिक दोहन के लिए करोगे, उसका दूध इधर-उधर बेच रहे हो, वो ग़लत है। उससे ज़्यादा ग़लत है कि उसका वध ही कर डालो। और उससे कम ग़लत ये है कि पशु को रखा हुआ है, और उसको दाना-पानी दे रहे हो, और उसके दूध का ख़ुद इस्तेमाल करते हो। ये कम ग़लत है, पर ग़लत तो ये भी है।
कोई तुमको क़ैद में रख ले और तुम्हें खूब दाना-पानी दे, लेकिन तुमसे कहे कि तुम रहो वैसे ही, जिओ वैसे ही जैसा हम चाहते हैं, तो स्वीकार करोगे? वो कहेगा कि दाना-पानी खूब देंगे। मानोगे?
प्र 1: नहीं
आचार्य जी: पशु की जगह जहाँ है, पशु को वहीं होना चाहिए। प्रेमपूर्वक तुमने किसी को रख लिया, ये एक बात है। दूध के लिए किसी को रख रहे हो, ये बिल्कुल दूसरी बात है।