ऐसी सकारात्मकता ज़हरीली है || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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ऐसी सकारात्मकता ज़हरीली है || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता नमस्ते आचार्य जी। आचार्य जी, मेरा सवाल टॉक्सिक पॉजिटिविटी (ज़हरीली सकारात्मकता) को लेकर है। आजकल बहुत सारे मोटीवेशनल स्पीकर्स (प्रेरक वक्ता) हैं और इन्फ्लूएंसर्स (प्रभावित करने वाले) हैं। वो ये बताते हैं कि अगर आपकी लाइफ़ (जीवन) में कुछ बुरा चल रहा है, कुछ ख़राब स्थिति चल रही है या कुछ ग़लत इमोशंस (भावनाएँ) आपके अंदर उठ रहे हैं, जैसे डर, गुस्सा तो उनको समझने के बजाय या उन्हें स्वीकार करने के बजाय आप कुछ एफर्मेशंस (पुष्टिकरण) हैं, कुछ पॉजिटिव एफर्मेशंस हैं उनको आप दोहराओ। जैसे — 'आई चूज टू बी हैप्पी', 'आई डिजर्व टू बी हैप्पी' (ख़ुश होना मेरा चुनाव है, ख़ुशी मेरा अधिकार है) इस तरीक़े से उनको आप बार-बार दोहराइए तो इससे आप अपने बारे में थोड़ी देर के लिए अच्छा महसूस करेंगे। तो इसके लिए एक टर्म (शब्द) भी कहा जाता है टॉक्सिक पॉजिटिविटी।

और आपने भी इस बात पर बहुत ज़ोर दिया है कि अपनी भावनाओं को, जो उठ रही हैं, उनको एकनॉलेज (स्वीकार) करना है बल्कि गहराई से उन्हें समझना है। तो मैं बहुत कनफ्यूज्ड (असमंजस में) हूँ दोनों में। आप कृपया मार्गदर्शन करें?

आचार्य प्रशांत ये सब जो बातें हैं, 'आई चूज टू बी हैप्पी' और ये सब, इनमें यथार्थ कहीं नहीं है न। ये तो स्वयं को हिप्नोटाइज (सम्मोहित) करने जैसी चीज़ है, कि मेरी असलियत क्या है, मेरे साथ हो क्या रहा है, वो मैं जानना भी नहीं चाहता; बस मैं अपनेआप को इस नशे में रखूँगा कि मैं ख़ुश हूँ।

आप कितनी देर अपनेआप को ऐसे नशे में रख लोगे? आप कितनी देर तक अपनेआप को यथार्थ के प्रति सुन्न कर लोगे, नंब कर लोगे? अगर आप ग़लत जीवन जी रहे हो तो उसमें बार-बार पॉजिटिव थिंकिंग (सकारात्मक विचार) वग़ैरा करके हो क्या जाएगा?

आपने ही अपनी बेवकूफ़ी से, अपने अहंकार से, अपनी स्थितियाँ ख़राब कर रखी हों ख़ूब और फिर अपनेआप को आप बोलो कि बी पॉजिटिव , जिसका अर्थ बेसिकली ये होता है कि आशावान रहो। बी पॉजिटिव का लगभग अर्थ यही है कि बी होपफुल (आशावादी रहो), कुछ बेहतर हो सकता है। तुम जानते ही नहीं अभी कि ग़लत क्या हुआ है, तुम बेहतर कैसे कर लोगे! जब तुम्हें पता ही नहीं है कि अभी तुम्हारी दुर्दशा है किस कारण से। तुम अभी भी कह रहे हो कि मुझे तो एक हँसता हुआ चेहरा ही दिखाना है, मुझे मुस्कान ही पोते चलना है। तो तुम कोई सुधार ला कहाँ से लोगे?

देखो, यह कोई संयोग की बात नहीं है कि पिछले पचास सालों में ही ये पॉजिटिविटी का कल्ट इतना फैला है। ये आम आदमी की ज़बान में, व्याकरण में, मुहावरे में शामिल हो गया है। आप किसी की तारीफ़ करना चाहते हैं, अनायास ही आपके मुँह से निकल जाता है 'बड़ा पॉजिटिव बंदा है, बड़ा पॉजिटिव बंदा है।' आपको पता भी नहीं है कि आप बोल क्या रहे हैं। पॉजिटिव माने क्या?

पॉजिटिव का अर्थ ज़्यादातर यही होता है, वो कहता है, 'छड! वो सब ठीक हो जाएगा, फ़िक्र न कर।' हो जाता है ऐसे? हो सकता है ऐसे या फ़िक्र करोगे तब ठीक होगा? ख़ुद ही आग लगा दी है क्योंकि एकदम नशे में धुत जानवर हो और फिर सब जब धूँ-धूँ करके जल रहा है तब अपनी एक पॉजिटिव मुस्कराती हुई सेल्फी खींचकर फेसबुक पर कह रहे हो, 'देखो मैं सबसे बड़ा पॉजिटिव आदमी हूँ।' कुछ होगा इससे?

अगर आशा भी रखने की बात है तो किस चीज़ की आशा रखनी है, क्या तुम ये भी जानते हो? आशा माने कामना, ठीक! आशा माने कामना। किसकी कामना करनी है जानते भी हो?

लेकिन चूँकि ये युग बर्बादी का है इसीलिए ये युग पॉजिटिविटी का है। जितने पॉजिटिव हम इधर पिछले पचास साल में रहे हैं इतने पॉजिटिव हम कभी नहीं रहे और जितनी बर्बाद यह पृथ्वी पिछले पचास साल में हुई है ये इतनी बर्बाद कभी नहीं रही।

अब देखिए कि वेदांत पॉजिटिविटी नहीं, निगेटिविटी (नकारात्मकता) सिखाता है। वहाँ पूरी प्रक्रिया ही नकार की है लेकिन हमारी तो भाषा में ही निगेटिविटी बड़ा गंदा शब्द बन गया है। आपको किसी की निंदा करनी होती है, आप कहते हैं, 'पसंद नहीं है उसके पास रहना, बड़ी नेगेटिव वाइब्स (एक प्रकार का नकारात्मक अनुभव महसूस करना) आती है।' ये वाइब्स क्या होता है, मुझे मालूम नहीं। वाइब्रेशन (कंपन) से निकला है। ये वाइब्रेशन तो फिजिक्स (भौतिक विज्ञान) की चीज़ है, तुम्हारे भीतर कौनसा (उपकरण) लगा हुआ है जो वाइब्स पकड़ता है?

हमें निगेटिव लोग चाहिए, हमें एक मन चाहिए जो निगेट ( नकार) करे, काटे। लेकिन पॉजिटिविटी बाज़ार के बहुत काम की चीज़ है, कैपिटलिस्टिक कंजूमरिज्म (पूँजीवादी उपभोक्तावाद) के बहुत काम की चीज़ है। जब आप पॉजिटिव होते हो तो आपको पता है न क्या करते हो? आप कंज्यूम करते हो, आप ख़र्च करते हो।

और भूलो नहीं कि इसी पॉजिटिविटी का दूसरा पहलू, इसका ऑबवर्स फेस, इसी के साथ चलने वाली चीज़ है डिप्रेशन (अवसाद)। अब समझो कि पिछले पचास साल में डिप्रेशन इतना क्यों बढ़ा है, क्योंकि पॉजिटिविटी इतनी बढ़ी है। तुम पॉजिटिव रहोगे-रहोगे, कुछ ही समय बाद हक़ीक़त की लाठी तो पड़ेगी-ही-पड़ेगी न। तुम रहे आओ पॉजिटिव और जब वो लाठी पड़ती है तो फिर अचानक से डिप्रेस हो जाते हो। डिप्रेस तुम हुए इसीलिए क्योंकि ये पूरी दुनिया तुमको पॉजिटिविटी का पाठ पढ़ा रही थी और तुम पॉजिटिव हुए जा रहे थे।

आप, ये जितने पॉजिटिव वादी होते हैं, इनको पकड़ कर पूछिए कि पॉजिटिव का मतलब समझा। वो बता नहीं पाएगा। एक धुंधला सा सिद्धांत है, वेग कांसेप्ट है 'पॉजिटिविटी'। आप कहिए पैनेपन से, साफ़-साफ़, शार्पली बताओ पॉजिटिविटी माने क्या। नहीं बता पाएगा।

कोई ग्रंथ, कोई दर्शन आज तक ऐसा नहीं हुआ जिसमें ये शब्द पाया गया हो पॉजिटिविटी। अगर ये इतनी बड़ी चीज़ होती तो किसी ने इसका थोड़ा-बहुत उल्लेख तो किया होता।

ये आया कहाँ से है? ये आया है अमेरिका से, यूरोप से भी नहीं। अमेरिका एक मामले में बहुत ख़ास रहा है, उनके पास प्रोडक्शन कैपिसिटी (उत्पादन क्षमता) ज़्यादा रही है और डिमांड (माँग) कम। जो अमेरिकन इंडस्ट्री ( अमेरिकी उद्योग) है उसके पास प्रोडक्शन कैपेसिटी ज़्यादा रही है, इतनी ज़्यादा रही है, इतनी ज़्यादा रही है कि उसको वहाँ की आबादी सोख भी नहीं सकती। जितना कुछ प्रोड्यूस हो रहा है, जो उत्पाद वहाँ से आ रहे हैं उनका आबादी भोग भी नहीं कर सकती।

तो आपका माल आपको मुनाफा दे इसके लिए सिर्फ़ यही थोड़ी ज़रूरी होता है कि माल का उत्पादन हो, इसके लिए ये भी ज़रूरी होता है कि वो माल खरीदा भी जाए। तो आपको माल तैयार करने के साथ-साथ माल को खरीदने वाला भी तैयार करना पड़ता है। अब जो माल को खरीदने वाला है वो कह रहा है मुझे तेरे माल की ज़रूरत ही नहीं है। तो फिर उसका मन जो है वो मैनिपुलेट (विचार को किसी एक दिशा की ओर मोड़ना) करना पड़ता है, बदलना पड़ता है। उसके मन को विकृत करना पड़ता है ताकि वो आपके माल को खरीदने के लिए आतुर हो जाए। आपको उसके भीतर नये-नये तरीक़े के संस्कार डालने पड़ते हैं जिससे कि वो बिलकुल कूद-कूद कर कहे कि मुझे और चाहिए माल, मैं और खरीदूँगा, मैं और खरीदूँगा।

जो तीन-चार सिद्धांत इसीलिए पिछले सौ-पचास सालों में अमेरिका से निकले हैं वो ये हैं। एक तो ये पॉजिटिविटी का। एक ये लिविंग इन द मोमेंट (इस पल में जियो) का और डोंट बी जजमेंटल (तर्क वादी मत बनो फैसला वादी मत बनो), नेवर गिवअप ( कभी हार मत मानो)। और सब भी क्या हैं आजकल के कैच फ्रेसेस (आम जनमानस के मुहावरे)? और ये सब अमेरिका से आ रहे हैं और इन सबका जो ताल्लुक़ है वहाँ की इकॉनोमी से है‌। ये हमें समझ में नहीं आता, हमको लगता है जैसे कि ये कोई बड़ी गूढ़, गहरी, दार्शनिक या आध्यात्मिक बातें हैं। ये सीधे-सीधे दुकानदारी की बातें हैं बाबा, जिसमें तुमको लूटा जा रहा है।

लेकिन इनको हमने अपने कल्चर, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति में ही शामिल कर लिया है। किसी को हटाना होता है तो हम कहते हैं 'अरे! वो बंदा बहुत जजमेंटल था मैंने हटा दिया।' ये किसने तुमको सिखाया? वहीं से आ रहा है। कि भई जो कुछ भी मैं करना चाहता हूँ मुझे करने दो न, मुझे जज मत करो। और जो कुछ भी मैं करना चाहता हूँ, मैं क्या करना चाहता हूँ? मैं कोई बहुत ही गलीच काम करना चाहता हूँ।

और आप जितना घटिया काम कर रहे होंगे इंडस्ट्री को उतना फ़ायदा होता है। सोच कर देखिए। साधु, संत, त्यागी, संन्यासी, विवेकी से कोई फ़ायदा होता है इंडस्ट्री को? इंडस्ट्री को फ़ायदा किससे होता है? अय्याश, बदमाश, भोगी, विलासी इन्हीं से तो इंडस्ट्री को फ़ायदा होता है न, यही बाज़ार में अपना सब कुछ बेचने को तैयार रहते हैं क्योंकि इन्हें कुछ खरीदना है। बाज़ार ऐसों से ही चलता है और बाज़ार इसीलिए ऐसों को और ज़्यादा बनाना चाहता है। ऐसों को ही प्रोत्साहित करना चाहता है। ऐसों की ही छवि को वो मेनस्टरीम (मुख्य धारा) बना देना चाहता है और ऐसों को ही वो गौरवानवित कर देता है, ग्लैमराइज करता है ख़ूब।

किसी भी सॉफ्ट ड्रिंक का विज्ञापन आ रहा होगा, उसमें वो क्या दिखाएँगे कि कोई शांत, धीर-गंभीर व्यक्ति बैठा है, वो पी रहा है? ना, वो जो शांत, धीर-गंभीर व्यक्ति होगा उसको आप दिखा ही नहीं पाओगे कि वो आठवी मंज़िल से कूदा है ताकि वो पेप्सी की एक बोतल कैच कर ले; करेगा? तो आपको कोई नमूना, कोई बदमाश, कोई छिछोरा लाना पड़ेगा जो इस तरह की हरकत करे और फिर आपको उस छिछोरे को ग्लैमराइज करना होगा ताकि हर व्यक्ति कहे मुझे भी इस छिछोरे जैसा बनना है, वो छिछोरा आपका हीरो हो गया।

अपना माल बेचने के लिए उस कंपनी ने पूरे समाज को मैनिपुलेट कर दिया, क्योंकि समाज जब तक छिछोरा नहीं होगा उसका सॉफ्ट ड्रिंक बिकेगा ही नहीं। जो इंसान होश में है वह क्यों वो शक्कर और कार्बन डाईऑक्साइड, कार्बोनिक एसिड पिएगा? पैसे ख़र्च कर-करके क्यों पिएगा?

तो वो सॉफ्ट ड्रिंक बिक सके इसके लिए ज़रूरी है कि पूरे समाज को बेहोश करो और एक बहुत ही घटिया लफंगे को इस समाज का हीरो बना दो ताकि हर जवान आदमी उस लफंगे जैसा होने की कोशिश करे। तभी वो सॉफ्ट ड्रिंक बिकेगा।

इसी तरह के जो बाक़ी उत्पाद भी हैं, कोई कार हो, कपड़े हो, घर हो ज़्यादातर जो चीज़ें आपको बेची जा रही हैं उनकी आपको ज़रूरत है नहीं। वो आप खरीद इसलिए रहे हैं क्योंकि आपके मन पर कंपनियों ने कब्ज़ा करा है पहले।

वहाँ से ही ये सब पॉजिटिविटी वग़ैरा भी आ रहे हैं। आप पॉजिटिविटी की जगह अगर रियलिटी (वास्तविकता) में जीना शुरू कर दें तो कैसे चलेगा दुनिया का कारोबार? हर इंसान अगर रियलिटी जानना शुरू कर दे तो इन इंडस्ट्रीज के धंधे ठप पड़ जाएँगे। तो ये कहते हैं इग्नोर रियलिटी, ड्रीम पॉजिटिविटी (वास्तविकता को नजर-अंदाज़ करो और सकारात्मकता का सपना देखो)। और जब आप रियलिटी में जाते हो तो रियलिटी ही निगेटिविटी है वास्तव में। वो निगेटिविटी आपको आज चाहिए। निगेट करो वो सब कुछ जो आपको खिला दिया गया है, पढ़ा दिया गया है, उसको निगेट करो, उसको नकारो, हटाओ।

आज दुनिया को बहुत ज़्यादा ज़रूरत है निगेटिव लोगों की। और पॉजिटिव लोगों से बचना, वो जो आते हैं न कि हालत कैसी भी हो हम तो हाई स्प्रिट्स (बड़े जोश में) में रहते हैं। ये पी रखी है, कुछ नहीं और बात है, हाई स्प्रिट्स में रहते हैं! कोई भी स्थिति हो, हाई रहते हैं! इन्होंने अपने घर की टंकी में मिलायी है, इन्हें पीने की ज़रूरत नहीं पड़ती अलग से, पानी में ही काम हो जाता है।

कृष्ण कहते हैं न अर्जुन को कि समाज अनुकरण करता है। तुम जिस किसी को भी ऊँचे मंच पर बैठा दोगे, ग्लैमराइज कर दोगे, समाज वैसा ही बनने की कोशिश शुरू कर देता है। आज हमने ग्लैमराइज कर दिया है एक ख़ास तरह के व्यक्तित्व को — दिलदार, यारों-दा-यार। तो हर जवान आदमी वैसा ही बनना चाहता है क्योंकि वही चीज़ अब कूल है, इन है, इन। आइ जस्ट वान टू फील इन (मैं सिर्फ़ महसूस करना चाहता हूँ कि मैं अलग नहीं हूँ)।

ज़्यादा बोलने वाला बक-बक, बक-बक, बिना बात की बक-बक; उसमें से तुम ढूँढोगी कंटेंट (सामग्री) कुछ है, कुछ नहीं। उसको पता ही नहीं है वो बोलना क्या चाहता है। तो इसीलिए अगर वो आधे घंटे बक-बक करेगा और उसमें से 'आइ मीन', 'मतलब', 'लाइक' हटा दो तो डेढ़ मिनट बचेगा। (श्रोतागण हँसते हैं) ये 'लाइक-लाइक' क्या होता है? यह यही है, पर बोलना बहुत ज़रूरी है और कॉन्फिडेंस (भरोसा) के साथ बोलना बहुत ज़रूरी है।

इसी से मिला-जुला है पब्लिक स्पीकिंग (भीड़ में बोलने की कला)। पब्लिक स्पीकिंग के विज्ञापन आते होंगे, उसमें आप देखते होंगे पाँच साल, सात साल के बच्चे खड़े करे जाते हैं। पाँच-सात साल में आप पूरे तरीक़े से अज्ञानी होते हो। पर वो जो बच्चा खड़ा किया गया है विज्ञापन में, आप उसकी शक्ल देखना, आत्मविश्वास से भरपूर और वो ऐसे करके (पूरा भरोसा के साथ) बोल रहा है।

यह आज के युग का आदर्श है — भीतर से ख़ाली और बाहर पूरा-पूरा आत्मविश्वास। एक बहिर्मुखी व्यक्ति, एक्ट्रोवर्ट , जिसको अंदर क्या चल रहा है, न जानना है न जान सकता है। हाँ, बस मुँह बहुत चलाता है और कॉन्फिडेंस के साथ खड़ा हो जाता है। तो बाक़ी लोग प्रभावित हो जाते हैं लगता है कुछ होगा। और जब मुँह चलाता है तो कैसी बातें करता है? पॉजिटिविटी से भरपूर, 'दुनिया फोड़ देंगे, ये कर देंगे, वो कर देंगे।' ये अमेरिकन आदर्श है। 'क्रांति कर दूँगा, मम्मी जल्दी से बोनबीटा पिला दो फिर क्रांति करनी है।' (श्रोतागण हँसते हैं) और ये भीतर से इतने कमज़ोर, पंगु, लाचार होते हैं कि खट से फिर डिप्रेशन होता है। क्रांति हुई नहीं ठीक से। (श्रोतागण हँसते हैं)

'क्यों नहीं हुई बेटू?' 'निगेटिव वाले अंकल मिल गये, डाँट दिया।'

मम्मी फिर कॉन्फिडेंस उसका बढ़ाती है। अब उसी मिली-जुली चीज़ ये आ गयी, क्या? कौनफिडेंस (आत्मविश्वास)। कॉन्फिडेंस इन व्हाट? व्हाट डू यू हैव टू फील कॉन्फिडेंट अबाउट ? (किस बात में आत्मविश्वास? आपको किस बारे में आत्मविश्वास महसूस करना है?) तुम्हारे पास कुछ ऐसा है जिसको लेकर के तुम भीतर से बहुत विश्वासी अनुभव करो? है भीतर से कुछ नहीं, लेकिन बाहर से ऐसे स्वैग ! ये भी आज का शब्द है, स्वैग। किस बात का?

हमें तो ये बताया गया है कि फलों से लदा वृक्ष नीचे झुकता है, "विद्या विनयं ददाति।" और तुम्हारे पास विनय, हुमिनिटी की जगह स्वैग है, वो भी खोखला! कुछ नहीं है भीतर, स्वैग पूरा है।

दस साल पहले की बात है जब कॉलेज के छात्रों से ज़्यादा बात करता था तो ऐसे ही एक था, वह बिलकुल पीछे बैठा हुआ था। बाद में पता चला वो उस कॉलेज का सबसे स्वैग वाला इंसान था। तो ढाई घंटे का सत्र था मेरा, संवाद बोलते थे उसको, पूरा हुआ। तो वह पीछे से खड़ा होता है और आसपास वालों ने सबने उसको कहा दिखा भई कि तू कुछ है, और सब रिकॉर्डिंग वग़ैरा भी हो रहा था तो कैमरे को दिखाने को मिलेगा। तो उसने कहा ये सब जो आपने बोला कुछ ख़ास नहीं है, ये तो कोई भी बोल सकता है, वग़ैरा-वग़ैरा।

तो मैंने कहा हाँ, मैं भी मानता हूँ कुछ ख़ास नहीं है, कोई भी बोल सकता है। हज़ारों लोगों ने ये बात बोली भी है। अब एक काम करो, तुम भी बोलो। अब मैं उतर गया स्टेज से मैं वहाँ जाकर खड़ा हो गया जहाँ वो था। उसकी कुर्सी पर मैं खड़ा हो गया। मैंने कहा अब तुम मेरी कुर्सी पर जाओ, वहाँ जाकर बोलो।

'नहीं नहीं नहीं!' मैंने कहा 'जाओ।' 'नहीं, ठीक है, वो तो टाइम भी हो रहा है।' मैंने कहा, 'जाओ!'

उसने देखा बात ज़्यादा आगे बढ़ गयी है। वो आया यहाँ खड़ा हो गया, उसने पेशाब नहीं कर दी मंच पर यही ग़नीमत थी। (श्रोतागण हँसते हैं) बस इतना ही रह गया था। वो भी वो कर देता अगर एक घुड़की मैं और दे देता उसको। और ये सब रिकॉर्ड हो रहा था।

मैंने कहा, 'बोल ना तू, आ बोल!' साफ़!

टीनेज सेंसेशन (युवा वर्ग में हीरो बनने) का ज़माना है, हम भी टीनएजर थे, हमें पता है कि टीनेज में कितनी स्पष्टता, कितनी क्लैरिटी होती है। तो फिर ये स्वैग किस बात का? ये ओवरफ्लोइंग कॉन्फिडेंस (हद से ज़्यादा आत्मविश्वास) किस बात का?

ह्यूमिलिटी (विनम्रता) कहीं नहीं है, लर्नेबिलिटी (सीखने की ललक) कहीं नहीं है, रिसेप्टिविटी (ग्राह्यता) कहीं नहीं है, लिसनिंग (सुनने की ललक) कहीं नहीं है। डूड (छोकरा) बनना है बस।

प्र२ सर, इसका सॉल्यूशन (समाधान) क्या है?

आचार्य कर तो रहे हैं। सर्जरी के बीच में पेशेंट उठकर पूछता है मेरा इलाज़ कब होगा? (सभी हँसते हैं)

अब एनेस्थीसिया (बेहोश करने की दवा) देकर बात करूँगा अबसे। ये और क्या हो रहा है, वही तो है, यही इलाज़ है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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