ऐसी शिक्षा चाहिए इंसान को || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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ऐसी शिक्षा चाहिए इंसान को || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं तेईस वर्षीय हूँ। मेरा नाम शैलेश है। मेरा सवाल एज्यूकेशन सेक्टर (शिक्षा के क्षेत्र) से रिलेटेड (सम्बन्धित) है। मेरे पहले के दो स्टार्टअप्स एज्यूकेशन में ही थे। उस दौरान मैंने स्पेसिफिकली (खासतौर पर) तीन से पन्द्रह साल के बच्चों के एज्यूकेशन सिस्टम (शिक्षा व्यवस्था) को ऑब्जर्व (निरीक्षण) किया। तो उसमें जो प्रचलित बोर्डस् हैं, जैसे आईसीएसई, सीबीएसई और फिर जो इन्टरनेशनल (अन्तर्राष्ट्रीय) बोर्डस् भी हैं, उनका आधार ही था कैपिटलिज़्म (पून्जीवाद) और कन्ज़्यूमरिज़्म (उपभोक्तावाद)। उसमें आध्यात्मिक मूल्यों की ज़्यादा कुछ गहराई की बात नहीं की जाती है। और ऑन द अदर साइड (दूसरी तरफ़) कुछ आश्रम हैं जैसे अद्वैत आश्रम और अर्श गुरूकुलम जो महाऋषियों के हैं, उसमें बहुत ही गहरे अध्यात्मिक मूल्यों की बात की जाती है।पर उनकी दो समस्याएँ हैं। उनके पास इतनी फन्डिंग (संसाधन) नहीं है कि बहुत लोगों तक पहुँचे और प्रचलित कैपिटलिज़्म या कन्ज़्यूमरिज़्म की शिक्षा उसमें बहुत ज़्यादा दी नहीं जाती है।

पिछले डेढ़ साल से मैं आपको सुन रहा हूँ। मैंने अपनी कम्पनी भी बन्द कर दी जो कि शिक्षा पर ही आधारित थी। क्योंकि मुझे लगा कि वो गलत आधारों पर बेस्ड (आधारित) है। मैं समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि व्हॉट डज़ रियल एज्यूकेशन मीन्स (वास्तविक शिक्षा का क्या अर्थ क्या है)। तो आपसे मैं जानना चाहता हूँ कि एज़ एन ऑन्त्रप्रिन्योर, एज़ ए ब्यूरोक्रेट, पॉलिसी-मेकर, एज़ ए गवर्मेन्ट, हाउ शुड वन थिन्क अबाउट ओपनिंग अ स्कूल और स्टारटिंग आउट अ न्यू बोर्ड विच इस डिफरेन्ट एन्ड व्हिच इनकैपस्यूलेटस् बोथ द वैल्यूज़ ऑफ टेक्नोलॉजी एन्ड अपकमिंग कन्ज़्यूमरिज़्म एंड कैपिटलिज़्म बट हैज़ कोर ऑफ वैदान्तिक वैल्यूज़ एन्ड अध्यात्म विदिन इट? ( एक उद्यमी होने के नाते, एक अफ़सर, नीति-निर्धारक, एक सरकार के तौर एक ऐसे नये स्कूल या बोर्ड को खोलने के बारे में कैसे सोचना चाहिए जिसमें नयी पीढ़ी के पून्जीवाद और उपभोक्तावाद के मूल्य भले ही हों लेकिन उसका केन्द्र वेदान्तिक और आध्यात्मिक मूल्यों से निर्मित हो?)

आचार्य प्रशांत: दो मूल्यों..हिन्दी तो समझते ही हैं न? हिन्दी में बोलूँ?

प्र: हाँ, हाँ, श्योर (ज़रूर)।

आचार्य: दो मूल्यों में सन्तुलन बैठाने वाली कोई बात नहीं है। ऐसा नहीं है कि जैसे दो मूल्य हैं, एक आध्यात्मिक, एक भौतिक। एक तरफ़ मामला मिस्टिकल (रहस्यमय) है, दूसरी तरफ़ रखी है कैपिटल (पूंजी), और इनमें क्या बनाना है? एक सन्तुलन, बैलेन्स , इक्विलिब्रीयम (साम्य), नहीं ऐसा कुछ नहीं है। हम दो हैं क्या? हम एक हैं न? हम एक हैं और उस एक की एक ही माँग है। उस माँग के कई नाम होते हैं। हमारी माँग है- बोध, मुक्ति, अन्डरस्टैंडिन्ग (समझ), फ़्रीडम या लिबरेशन (मुक्ति)। कभी उसको ट्रुथ (सत्य) भी बोल देते हैं, कभी डिज़ॉल्यूशन (विलय) बोल देते हैं।लेकिन हमारी चेतना एक ऊँचाई पाना चाहती है, जहाँ वो सब समझती हो और वहाँ बड़ी आनन्दित हो। सब समझ गयी है; सबसे मुक्त हो गयी है; बड़े प्रेम से भरी हुई है और बड़े आनन्द में है। वहाँ हम जाना चाहते हैं लेकिन पैदा हम ऐसे होते नहीं हैं। पैदा हम कैसे होते हैं? जानवर सरीखे।

तो अब शिक्षा की ज़रूरत पड़ती है। एज्यूकेशन (शिक्षा) यहाँ पर आती है कि बच्चा जिस हालत में पैदा हुआ है उससे उसको उसकी जो वान्छनीय हालत है, आखिरी, उत्तम, डिज़ायर्ड स्टेट (इच्छित स्थिति), उसे वहाँ तक ले जाना है।इसलिए हमें एज्यूकेशन चाहिए होती है और इसीलिए किसी भी जानवर को शिक्षा की ज़रूरत नहीं पड़ती। ट्रेनिंग (प्रशिक्षण) दे सकते हो, एज्यूकेशन नहीं दे सकते, क्योंकि जानवरों की चेतना को कहीं पहुँचना नहीं है।उनकी चेतना माँग ही नहीं कर रही कि मुझे मुक्ति मिले या सत्य मिले। मनुष्य अकेला है जिसे शिक्षा चाहिए और उसे शिक्षा नहीं दोगे तो वो कुछ अर्ध-मनुष्य सा रह जाएगा। आधा आदमी,आधा जानवर, वगैरह-वगैरह।

तो शिक्षा का उद्देश्य ही है चेतना का लिबरेशन (आज़ादी), चेतना की मुक्ति। अब चेतना बंधीकहाँ होती है, अगर हमें मुक्ति चाहिए? हम शिक्षा को समझना चाहते हैं। चेतना बंधी कहाँ होती है, अगर हम मुक्ति की बात कर रहे हैं?चेतना बंधी होती है दो तलों पर, एक स्वयं से, एक संसार से। वो अपने विषय में अज्ञानी होती है और संसारके विषय में अज्ञानी होती है। इन दोनों में से अपने विषय में जो अज्ञान है वो पहले आता है क्योंकि अपना ही नहीं पता तो दुनिया को देखोगे, दुनिया का क्या पता चलेगा? आँखें ही खराब हैं तो तुम जिस भी चीज़ को देखोगे, क्या तुम्हें उसका आकार-प्रकार,स्वरूप भलीभांति पता चल जाएगा? तो ये दो तरह के अज्ञान होते हैं जो चेतना को पकड़े होते हैं, बन्धन में रखते हैं।और इन दोनों अज्ञानों में भी जो मूल है वो आन्तरिक है, अन्दर वाला। लेकिन इन्हें हम दो मानेंगे। तो हमें जो शिक्षा चाहिए वो इस दृष्टि से चाहिए कि हमें दुनिया का भी तथ्य पता चले और दुनिया को देखने वाले का भी।और ये दो अलग-अलग विषय न हों, क्योंकि जब आप दुनिया को देख रहे हो और सिर्फ़ दुनिया की बात करते जा रहे हो तो आप दुनिया को भी नहीं समझ पाओगे। और जब आप अपनी बात कर रहे हो तो दुनिया की बात तो करनी ही पड़ेगी न।

आप बोलते हो, उदाहरण के लिए, ‘मैं व्यापारी।’ अब व्यापार तो दुनिया में ही होता है। आप बोलते हो, ‘मैं पिता, मैं माता, मैं शिक्षक, मैं अच्छा, मैं बुरा, मैं स्त्री, मैं पुरुष’, ये सब तो भौतिक बातें ही हैं न?तो अपनी बात तभी हो सकती है सही से, जब दुनिया की बात हो। और दुनिया को अगर कहा कि समझ गया बिना खुद को जाने तो बड़ी भूल में पड़ जाओगे।तो हमें शिक्षा ऐसी चाहिए जिसमें जब आप साइंस भी पढ़ा रहे हो तो पहले ये स्पष्ट हो कि जो जानना चाहते हो वो क्यों जानना चाहते हो। क्यों जानना चाहते हो? आज के पहले ही सवाल में मैंने कहा था कि कौन जानना चाहता है और क्यों जानना चाहते हो, ये बिलकुल अगल-बगल की बातें हैं।कौन जानना चाहते है, ये सवाल ज़रा तिलिस्मी हो जाता है, इसमें हम भटक जाते हैं कि कौन जानना चाहता है। इससे बेहतर, मैंने कहा था कि, ये पूछ लो कि क्यों जानना चाहते हो या क्यों सुनना चाहते हो या क्यों करना चाहते हो।

तो अगर एक इलेक्ट्रोस्टेटिक्स (स्थिर वैद्युतिकी) का भी चैप्टर (पाठ) शुरू हो रहा है तो पहले दो पन्ने में बात होगी कि ये जो चीज़ है इसमें हमारी रुचि क्यों हो? न्यूक्लियर साइंस (परमाणु विज्ञान) में आप प्रवेश नहीं कर सकते बिना इसकी चर्चा करे कि ये करना ही क्यों है।और ये झूठ तो हम बोलें ही नहीं कि देखिए साहब, ज्ञान तो उद्देश्यहीन होता है या विज्ञान उद्देश्यहीन होता है। टेक्नोलॉजी (प्रौद्योगिकी) का उद्देश्य हो सकता है, साइंस का नहीं होता। नहीं ऐसा नहीं है।टेक्नोलॉजी का तो उद्देश्य होता ही होता है, इस भूल में मत रह जाइएगा कि साइंस का नहीं होता। साइंस का भी परपज़ (उद्देश्य) होता है। अगर आपको नाभिक, न्यूक्लियस से कोई फायदा होने की उम्मीद बिलकुल न हो तो न्यूक्लियर साइंस कभी शुरू ही नहीं होगी।बहुत सारे वैज्ञानिक इस बात पर आपत्ति करेंगे, ‘नहीं,नहीं, ऐसा नहीं है, हम तो बस जानना चाहते थे कि एटम (परमाणु) के गर्भ में क्या रखा होता है, तो हमने इसलिए न्यूक्लियस को स्टडी (अध्ययन) किया।’

झूठ!आपको बिलकुल सुनिश्चित होता कि आप जो कुछ कर रहे हो उसका कभी किसी को फायदा नहीं होगा, खासतौर पर आपको फायदा नहीं होगा तो आप कभी इस तरह की किसी खोज में पड़ते ही नहीं।आदमी का चित्त ऐसा है कि वो बिना मुनाफ़े, बिना स्वार्थ के किसी दिशा में बढ़ ही नहीं सकता। और ये बात आपको साइंस में हर चैप्टर से पहले लिखनी होगी। नहीं लिखोगे तो हिरोशिमा-नागासाकी होगा। आप कहोगे, ‘अरे! हम तो बस न्यूक्लियर पॉवर जनरेट (नाभिकीय ऊर्जा उत्पादित) करना चाहते हैं।’फिर? उसमें कहीं ये भी बात कर रही है कि देखो न्यूक्लियर वेस्ट (नाभिकीय कचरा) भी होता है, उसका डिस्पोज़ल (निपटान) भी करना होता है। लेकिन हम डिस्पोज़ल नहीं करते क्योंकि हमें तो बस मतलब है कि अभी की सुविधा हो जाए, लाइट-वाइट बढ़िया आ जाए, पॉवर जनरेट हो जाए, क्यों? क्योंकि ईगो (अहम्) ऐसी ही होती है। तो जहाँ कहीं भी कोई सो कॉल्ड ऑब्जेक्टिव (तथाकथित वस्तुपरक) बात हो रही हो, चाहे विज्ञान में, चाहे भूगोल में, चाहे समाज शास्त्र में, वहाँ सब्जेक्टिविटी (व्यक्तिपरकता) को लाना ज़रूरी है।वहाँ पर जो उसका सब्जेक्टिव एलिमेन्ट (व्यक्तिपरक तत्व) है जिसमें आपकी ईगो (अहम्), आपका अहंकार शामिल है, वो लिख के बताइए बच्चे को, ईमानदारी रखिए थोड़ी। और तभी बच्चे की भी रुचि जगेगी।

आप उसको बता रहे हो,‘स्टैलेकटाइट, स्टैलेगमाइट्स क्या होते हैं’ ज्यॉग्राफ़ी (भूगोल) में, वो कह रहा है, ‘मुझे करना क्या है?’। आप उसको बता क्यों नहीं रहे हैं कि इन्हीं में से एक का इतना महत्व हो गया कि हिन्दुओं ने उसे एक बड़ा ऊँचा प्रतीक मानकर पूजना शुरू कर दिया।मैं किसकी बात कर रहा हूँ?

श्रोतागण: अमरनाथ।

आचार्य: ये बताना पड़ेगा न? बात ऑब्जेक्टिव नहीं है। वहाँ पर कुछ पर्सनल (व्यक्तिगत) शामिल है। वो जो पर्सनल है, वो जो सब्जेक्टिव है, वो जो इगो रिलेटेड है, वो बताओ तो सही। यहाँ तक कि गणित में भी बताना होगा कि आप जो पढ़ रहे हो उसका महत्व इसलिए है।इतिहास में बता क्यों नहीं रहे हो? क्यों नहीं बता रहे हो? हमें मुगलों के बारे में क्यों पढ़ाया जा रहा है? हमें अंग्रेजोंके बारे में क्यों पढ़ाया जा रहा है? हमें गुप्त साम्राज्य के बारे में क्यों पढ़ाया जा रहा है? मैं कनिश्क के बारे में क्यों पढूँ? मुझे बताओ पहले, मुझे बताओ न इसलिए पढूँ।

बताने में लेकिन फिर बड़ी गड़बड़ हो जाएगी क्योंकि कई बार जो हम पाठ्यक्रम निर्धारित करते हैं वो हमें नहीं पता होता कि क्यों बता रहे हैं, या उस पाठ्यक्रम में ही कई बार बड़ी मिसचीफ़ (बदमाशी) छुपी होती है। अगर साफ़-साफ़ बताने लग गये कि ये चैप्टर डाला ही क्यों गया है इतिहास में, इतिहास की किताब में फ़लाना चैप्टर ,फ़लाना अध्याय मौजूद क्यों है, तो आपकी ही पोल खुल जाएगी।लेकिन हम कहते हैं, ‘देखिए, इतिहास तो ऑब्जेक्टिव चीज़ है, विज्ञान, गणित, भूगोल, ये सब ऑब्जेक्टिव है।’ कुछ ऑब्जेक्टिव नहीं है।

आप पॉलिटी (राजव्यवस्था) पढ़ा रहे हो, आप संविधान और संविधानकी जो उद्देश्यिका है, ‘प्रिएम्बल (प्रस्तावना), उसको ऐसे पढ़ा देते हो कि जैसे ये तो पत्थर की लकीर हो। नहीं, मुझे बताओ तो सही, रिपब्लिक (गणतन्त्र) होनी क्यों ज़रूरी है? आपने तो क्या दिया है, “सेकुलर, सोशलिस्ट, डेमोक्रेटिक, रिपब्लिक” (धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी,लोकतान्त्रिक गणतंत्र )।

सेकुलरिज़्म माने क्या? मैं समझना चाहता हूँ। बताओ न क्या? सोशलिज्म क्या? मैं चेतना हूँ, वहाँ से शुरू करो। मैं एक चेतना हूँ, मुझे लिबरेशन चाहिए। अब मुझे बताओ सोशलिज्म क्यों ज़रूरी है? और अगर तुम बता पाओगे तो मान लूँगा, नहीं तो ये सब बेकार की बातें मत करो। ऐसे हीसामने बस रख दिया, लो रटलो ये, ‘वी द पीपल ऑफ इन्डिया ऑन दिस डे गिफ्ट टू आवरसेल्व्स दिस कॉंन्स्टीट्यूशन’ (हम भारत के लोग आज की तिथि पर अपने आपको भेंट स्वरूप यह संविधानप्रदान करते हैं)।क्या है ये, मज़ाक? रिपब्लिक क्यों होना है मुझे? मैं समझना चाहता हूँ कि मैं एक अतृप्त चेतना हूँ, उसकी मुक्ति में जनतंत्र कैसे सहायक होता है? मुझे बताओ। बताओ न।

और अगर सब के मत की एक बराबर ही कीमत है तो मुझसे सवाल क्यों पूछ रहे हैं आप? और मैं ऋषियों से जाकर के क्यों पूछता हूँ? सबकी राय एक बराबर है। मेरी चेतना के उत्थान में, मुझे समझाओ, जनतंत्र कैसे उपयोगी है? तुम समझा लोगे, मैं मान जाऊँगा। नहीं समझाओगे, तो बताओ मत। कुछ समझ में आ रही है बात?और जब आप अहंकार की बात करें, जब भीतरी शास्त्र पढ़ाना हो, तब तो बिलकुल प्रकट ही है कि आपको बहुत सारी बाहरी बातें पता होनी चाहिए। अगर आपको ये ही नहीं पता कि किन-किन तरीकों से आपको रिझाया जाता है संसारमें, तो आप बच कैसे जाएँगे? तो अहंकार को जानने के लिए तो संसारको जानना ज़रूरी है ही।

जो आपको आध्यात्मिक ज्ञान दे रहे होते हैं वो कम गलती करते हैं क्योंकि वो सांसारिकबातें भी आपको कुछ तो बताते ही हैं। उनकी बोलचाल, उनकी भाषा में सांसारिकउदाहरण आएँगे, अनिवार्य है।मैं आपसे बात कर रहा हूँ, मैं कभी इसका उदाहरण लेता हूँ, कभी कैमरे का उदाहरण, कभी कुछ भी, तो इनका अगर हमें कुछ पता नहीं होगा तो हम आध्यात्मिक चर्चा भी नहीं कर सकते न, क्योंकि उदाहरण ही नहीं ले पाएँगे, कुछ समझ में नहीं आएगा। अभी मैंने वो बोलेरो का उदाहरण लिया, तमाम तरीके के उदाहरण आते हैं, सब सांसारिक हैं।

तो आध्यात्मिक शिक्षा में तो फिर भी ये विनम्रता होती है कि वो सांसारिकपहलू को भी साथ ले लेती है, देख लेती है। लेकिन जब हमको भौतिक शिक्षा दी जाती है तो उसमें इतनी उद्दन्डता होती है, इतना अभिमान कि वो अपनेआप को ऑब्जेक्टिव ट्रुथडिक्लेयर (वस्तुपरक सत्य घोषित) कर देती है!

वो जो सब्जेक्टिव सियर (व्यक्तिनिष्ठ दृष्टा) है उसकी बात ही नहीं करना चाहती। ये बदलना होगा। और हर अध्याय से पहले, कोई फ़र्क नहीं पड़ता किस विषय का है, ये पूछना होगा, ‘मुझे बताओ, ये पढ़कर के मेरी चेतना कैसे निर्भार (भार रहित) होगी? नहीं तो पढ़ा मत देना।’जो शिक्षक ये नहीं बता पा रहा है कि इस अध्याय का मेरे जीवन से क्या सम्बन्ध है, वो शिक्षक शिक्षा लायक नहीं है। समझ रहे हैं?

वो आ गया है इकोनोमिक्स (अर्थशास्त्र) पढ़ाने के लिए और इकॉनमिक्स में वो क्या बता रहा है? बोल रहा है कि देखो, ऐसे जब डिमान्ड (माँग) बढ़ती है तो फिर सप्लाई (आपूर्ति) भी पीछे-पीछे बढ़ती है, प्राइज़ (मूल्य) भी बढ़ता है, ये सब हो रहा है।तुम पूछो, ‘ये सब क्यों पढ़ा रहे हो? तुम किस चीज़ की डिमान्ड बढ़ने की बात कर रहे हो? प्रेम की?’ ये पूरी इकनोमिक्स , इगो इकोनोमिक्स् है। यहाँ कहते हैं कि हर आदमी को इकॉनमिक्स का ऑब्जेक्टिव (उद्देश्य) क्या है, आप किसी इकोनॉमिस्ट (अर्थशास्त्री) से पूछें, तो वो कहेगा कि ‘वेल बीइंग सो दैट यू कैन हैव मोर लेज़र टाइम’ (भलाई ताकि आपको अधिक फ़ुरसत का समय मिल सके)।

ये कहाँ से आ गयी परिभाषा चेतना की वेल बीइंग की? वो कहते हैं कि इकोनॉमिक वेलफेयर (आर्थिक कल्याण) का मतलब होता है- मोर प्रोडक्शन एंड मोर कंज़म्प्शन (अधिक उत्पादन और अधिक उपभोग)। हम बहस करना चाहते हैं। हम बहस करना चाहते हैं,बाद में पढ़ेंगे इकॉनॉमिक्स। पहले बताओ कि तुमने अपने लिए जो ऑब्जेक्टिव ही सेट (निर्धारित) करा है वो बिलकुल गलत है। ये इगो इकोनॉमिक्स है, ये लिबरेशन इकोनमिक्स नहीं है।

तुम्हारी इकोनॉमिक्स हमको बता रही है, ‘और माल पैदा करो, और चीज़ें पैदा करो, और और चीजें भोगो।

कन्ज़्यूम,कन्ज़्यूम,प्रोड्यूस,प्रोड्यूस,कन्ज़्यूम,प्रोड्यूस। हम नहीं करना चाहते ये सब, तो? और ये बात हमारी इच्छा भर की नहीं है, ये हमारी अनिवार्यता है, क्योंकि ये सब जो तुम हमें बता रहे हो उसमें हमारा कोई हित है ही नहीं।अगर छ: महीने का कोर्स है इकोनॉमिक्स का तो पहले तीन महीने तो हमें इस पर बहस चाहिए। ये कौन सी इकोनॉमिक्स है? ‘अर्थशास्त्र’, हम अपना ‘अर्थ’ जानते भी हैं? अर्थ माने जहाँ हमारा हित है, अर्थ माने जहाँ तुम्हारा हित है।

हम अपना हित जानते भी हैं? अगर हम अपना हित नहीं जानते है तो हम इकॉनमिक्स कैसे जानते हैं? ये जो इकोनोमिक्स है, हमें बस ये बता रही है कि ज़्यादा फिज़िकल कंज़म्प्शन (भौतिक उपभोग) कैसे कर सकते हो तुम। बात ही मूर्खता की है। समझ में आ रही है कोई बात?

क्यों? क्योंकि उसमें ‘आई’ कहीं आता नहीं। ये सब कुछ किसके लिए है? मेरे लिए है, पर इस पूरे में ‘मैं’ कहीं आता नहीं। ये पूरी इकोनोमिक्स मेरे लिए है, मुझे बताया जा रहा है, ‘ये आपकी वेलफेयर (बेहतरी) के लिए हो रहा है सब कुछ।’ ये मेरी वेलफेयर के लिए हो रहा है तो ‘मैं’ इसमें कहीं आता क्यों नहीं? किसी..यहाँ कितने लोगों ने इकोनामिक्स पढ़ी है? किसी चैप्टर में कहीं पर लिखा हुआ था इफेक्ट ऑन द सेल्फ (स्वयं पर प्रभाव)? कहीं लिखा हुआ था? लेकिन वो जो पूरी इकॉनमिकस् है, है तो मेरे ही लिए। और उसका मुझ पर असर क्या पड़ रहा है, वो बताया नहीं जा रहा।

फैक्टर्स ऑफ प्रोडक्शन, लेबर, सप्लाई, डिमान्ड (उत्पादन के कारक, मजदूरी, आपूर्ति, माँग), ये मॉडल , वो मॉडल। बाबा कीन्स ने कभी भी ईगो की बात करी थी? फिर? ये तो गड़बड़ हो गयी। हम ही गड़बड़ हो गये।

मेडिकल साइंस में भी यही है। समाज में नालायकी फैलाने में डॉक्टरों का कम योगदान नहीं है। उनको बता दिया गया है कि उनके पूरे शास्त्र, उनकी पूरी शिक्षा का उद्देश्य है शरीर को निरोग और दीर्घायु रखना। हम शरीर हैं? हम शरीर हैं? अगर हम शरीर नहीं हैं तो चेतना की बात कौन करेगा?

हाँ, ये बात बिलकुल ठीक है कि शरीर अगर निरोग रहे तो उसका एक अनुकूल असर चेतना पर भी पड़ता है, माना। लेकिन अगर आप शरीर को ही निरोग रखने के लिए हमें ऐसी बातें बताओ जो चेतना को खराब करती हों, तब? घर हो सकता है शाकाहारी हो लेकिन घर के बच्चे को माँसाहारी बनाते हैं डॉक्टर। ‘अरे,अरे,अरे,अरे! आपका नुन्नू तो साठ ग्राम अन्डरवेट (कम वज़न) है, इसको चिकन सूप पिलाओ।’ अब पन्डितों का खानदान, नहींजैनों का, लेकिन नुन्नू से बड़ा मोह और डॉक्टर साहब अपने पूरे रुतबे, पूरी अथॉरिटी (प्राधिकार) के साथ बोल रहे हैं ‘अगर आप एक अच्छी माँ हैं तो अपने हाथों से मुर्गी की गर्दन मरोड़ कर नून्नू के गले में ठूँस दो।’

ये कौन सा एमबीबीएस है जिसमें उनको पता ही नहीं कि वेलबीइंग का असली अर्थ क्या है और किस की वेलबीइंग की बात हो रही है। अगर हम शरीर होते तो ठीक था, पर हम चेतना हैं। शरीर के थोड़े से लाभ के लिए, वो लाभ भी विवादास्पद है, हम नहीं जानते वो लाभ होगा कि नहीं। मान लो थोड़ा-बहुत होगा भी तो शरीर के थोड़े से लाभ के लिए तुमने मुर्गे को, बकरे को मार दिया, तुमने नुन्नू को माँसाहारी बना दिया, तुम कैसे डॉक्टर हो? कैसा था ये एमबीबीएस का पाठ्यक्रम?

मैं डॉक्टरों की सलाह पर चल रहा होता तो आपके सामने नहीं बैठा होता। मैं जाना नहीं चाहता उनके सामने। कोविड ने धकेल दिया उनकी तरफ़ और तब भी जा करके पछता रहा हूँ। पता नहीं क्या दे दिया, बज रहा हूँ अभी तक अन्दर से।कोई मेरे शरीर का हिस्सा नहीं है जिसमें वो खोट नहीं निकाल देते, ‘अरे! तुम्हारा ये भी कम है, तुम्हारा ये भी ज़्यादा है, ऐसा, आप एक काम करिए, सब कुछ छोड़ दीजिए’ तो यहाँ शिविर में कौन आयेगा? ‘नहीं, वो तो…’, उनकी मानूँ तो दस बजे सो जाऊँ, छ: बजे उठ जाऊँ, काम कौन करेगा फिर? और दम कुछ नहीं इन डॉक्टरों में। अभी पहलवानी करा दो तो सबको पटक के मारूँ। फिर निकल आएगी एमबीबीएस। पर मुझे बताते रहते हैं मैं बहुत बड़ा रोगी हूँ। ये मत खाओ, ये कर दिया, ऐसा-वैसा…। विटामिन डी ठूँस रहे थे, अब वो आता है उससे, मछली के तेल से या पता नहीं किन चीज़ों से। और पूछो तो बताते भी नहीं है।

उनको बोलो, ‘वेजिटेरियन (शाकाहारी) हूँ’, तो ऐसे (मुँह बनाते हैं), और वीगन बोल दो तो फिर तो अपराध कर दिया। और तथ्य ये है कि विटामिन डी का सप्लीमेंट (पूरक) भी प्लान्ट-बेस्ड (पौधों से निर्मित) उपलब्ध होता है। सब कुछ होता है। आपको शायद पता न हो लेकिन विटामिन बी-ट्वेल्व (B12) तक प्लान्ट-बेस्ड उपलब्ध होता है। प्लान्ट-बेस्ड, फैक्टरी-मेड (पौधों से निर्मित, कारखानों में बनाया गया), किसी जानवर को कोई क्षति नहीं।

यहाँ संस्था के लोग जाते हैं वहाँ पर, ‘अरे! तुम मिल्क प्रोडक्ट्स (दूध उत्पाद) नहीं लेते? तुम्हारी नर्व डैमेज (तंत्रिकाएँ क्षतिग्रस्त) हो जाएगी, तुम्हारा बी-ट्वेल्व कम हो जाएगा।’ नर्व डैमेज तुम्हारी हुई है, पागलों जैसी बातें कर रहे हो। ये सब जो संस्था के लोग आपको दिख रहे हैं, खड़े होना परिणय, यहाँ पर सामने आना। ये देखिए, ये है हमारा नमूना, ये आपको…सामने आओ बीचोंबीच, ये आपको किस कोण से बीमार लग रहा है? हट्टा-कट्टा गबरू नौजवान। नहीं, और भी है माल। उदित, खड़े हो जाओ बेटा। ये देखिए, ये आपको बीमार लग रहा है? कौन सी एमबीबीएस है, ये कौनसी शिक्षा है? देह केंद्रित शिक्षा। देह चमकाओ, पैसा बनाओ, देह चमकाओ, पैसा बनाओ।

कार्टोग्राफी (मानचित्रण) जो होती है, मैप्स (मानचित्र) बनाने की कला, नक्शे बनाने की कला, उसमें सबसे ज़्यादा तरक्की किन ने करी थी? यूरोपियन्स ने। कब करी थी? कब करी थी? क्यों करी थी? (श्रोताओं के उत्तर पर सहमति जताते हैं) हाँ, इंडिया नहीं, पूरी दुनिया, इंडियाका तो उन्हें शुरू में पता ही नहीं था।अगर आपको ये नहीं पता है कि आप जो ज्ञान इकट्ठा कर रहे हो वो किस लिए कर रहे हो तो ज्ञान बहुत भारी पड़ेगा। हमेशा पूछो, ‘चाहिए क्या?’ ये क्यों मैंनक्शा बना रहा हूँ? तुम वो नक्शा इसलिए बना रहे थे क्योंकि तुमको भारत को, चीन को, अफ्रीका को लूटना था।तुम्हारा इन्डस्ट्रियल रिवोलूशन (औद्योगिक क्रान्ति) हुआ, तुम्हारी प्रोडक्शन कैपेसिटी (उत्पादन क्षमता) बढ़ गयी क्योंकि तुम्हारे पास अब स्टीम (भाप) आ गयी थी। तुम बहुत आउटपुट निकाल सकते थे तो अब तुम्हें क्या चाहिए? इनपुट चाहिए, रॉ मटीरियल (कच्चा माल) चाहिए।

उस रॉ मटेरियल (कच्चा माल) के लिएतुमने क्या किया? तुमने कॉलोनीज़ (उपनिवेश) बनायीं। उन कॉलोनीज़ में तुमने ज़बरदस्ती अपने रॉ मटीरियल की खेती करवायी।फिर उसी रॉ मटेरियल को लेकर तुमने मेकेनाइज़्ड (यन्त्रीकृत) तरीके से आउटपुट निकाला और उसी आउटपुट को ला कर के तुमने उन्हें कॉलोनीज़ में बेच कर और मुनाफा बनाया।

ये तुम्हारी साइंस है, ये तुम्हारी प्रोग्रेस (उन्नति) है, क्योंकि तुमने कभी पूछा ही नहीं कि ये साइंस मुझे चाहिए क्यों। इरादा क्या है? ये सवाल कौन पूछेगा?नेवल टेक्नोलॉजी (नौसेना प्रौद्योगिकी) में बहुत तरक्की की, क्यों की? क्यों की? क्योंकि इधर-उधर जाकर के सबको लूटना था। तो बड़े-बड़े जहाज बनाये। भारत के पास नहीं थे। नहीं थे ‘स्पेनिश अरमाडा’ का नाम सुना है? वो किस लिए बना था? शान्ति के पुष्प बरसाने के लिए? वो क्यों बना था? वो पूरे तरीके से वैपनाइज्ड (हथियारबन्द) है।

आपको पता है इनोवेशन (नवाचार) में, साइंस में, टेक्नोलॉजी में, पिछली शताब्दी में सबसे ज़्यादा प्रगति किस काल में हुई है? विश्वयुद्धों के दौरान। ये है विज्ञान।नीयत ही खोज के पीछे ये है कि खोज के शोषण करूँगा। शान्तिकाल में खोज मद्धम पड़ जाती है क्योंकि बहुत सारी खोज ऐसी हैं जिसकी वास्तव में आपको कोई ज़रूरत नहीं है। आप उसके बिना भी चैन से हो। बाकी ऐशो-आराम का तो कोई अन्त नहीं हो सकता। लेकिन अगर आप चेतना हो तो आपकी चेतना उस तरह की खोज के बिना भी बहुत चैन से है। मैं खोज के खिलाफ़ नहीं हूँ, मैं कह रहा हूँ पहले खोजी का पता होना चाहिए। पहले खोजी का पता हो।

जिस रॉकेट से सेटेलाइट ऑर्बिट में रखा जाता है वही रॉकेट बनता है इन्टर कॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल (अतर्महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल) भी। जो रॉकेट जाकर के ऊपर स्थापित कर देता है सेटेलाइट को। पहले मैं पूछूँगा ये सब जो हम पढ़ रहे हैं, क्यों पढ़ रहे हैं? ये जो एक्सपेरिमेंट (प्रयोग) चल रहे हैं, क्यों चल रहे हैं?

कोविड बड़ी सम्भावना है कि एक रिसर्च लेबोरेटरी (अनुसन्धान केन्द्र) से आया है। जानता कोई नहीं पूरे तरीके से, प्रमाण कुछ नहीं है, पर बहुत सम्भावना है कि एक रिसर्च लैब से आया है।वहाँ पर क्यों हो रही थी रिसर्च इस वायरस पर? और उस वायरस के साथ जानते हैं न रिसर्च क्या हो रही थी? उसको और पोटेन्ट बनाने की रिसर्च हो रही थी कि किस तरीके से इस वायरस को वेपनाइज़ किया जा सकता है।नहीं तो करना क्या है? एक वायरस है वो जंगल में चमगादड़ के पास पड़ा हुआ है। आप क्यों गये चमगादड़ को पकड़ने? चमगादड़ भी परेशान होगा कि ये गुफा में आकर मुँह दिए दे रहे हैं। करना क्या है तुम्हें?

यही है कहानी। दूर जंगलों में वहाँ गुफाएँ हैं चमगादड़ों की, वहाँ घुसे, वहाँ से चमगादड़ लेकर के आए, उनसे वायरस निकाला और फिर उस वायरस को और ज़्यादा विषैला बनाया, और ज़्यादा संक्रामक बनाया। और ये सब कर रहे थे, उसी में बीच में असावधानीवश वो वायरस बाहर ही निकल आया।ये खोज करनी क्यों है? मुझे बताओ। इसके पीछे इरादा ही खराब है। जिस चीज़ के पीछे इरादा खराब हो, वो क्यों करें? फिर कह रहा हूँ, इरादा तय कर लो, अच्छा है, उसके बाद जो खोज करनी है करो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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