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ऐसी क्या मजबूरी है, भाई? || आचार्य प्रशांत वेदान्त महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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ऐसी क्या मजबूरी है, भाई? || आचार्य प्रशांत वेदान्त महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: कॉलेज में फर्स्ट टाइम (पहली बार) मैं आपसे मिली थी एंड सात साल हो गये हैं, कॉलेज के थर्ड ईयर में मिले थे आप, जब मैं बी-टेक कर रही थी।

तो उसके बाद से मैं आपको सुन रही हूँ, ऑन एंड ऑफ़ (कभी-कभी)। बीच में ऐसे-ऐसे इनसीडेंट्स (घटनाएँ) आये जहाँ पर मुझे ख़ुद को रोकना पड़ा कि मैं न सुनूँ आपको क्योंकि बहुत चीज़ें ऐसी हो रही थीं कि जो आपको सुनते हुए करना पॉसिबल (सम्भव) नहीं था।

बट वो उस टाइम (समय) पर मुझे करनी थी जैसे जॉब (नौकरी) और वो सारी चीज़ें तो प्रॉब्लम सर ये आती है कि मेरे पैरेंट्स (माता-पिता) को पता है शुरू से ही कि मैं आपको सुनती हूँ।शुरू में मुझे हेज़िटेशन (संकोच) होती थी बताने में कि ऐसे सर हैं और मैं उनको सुनती हूँ, कॉलेज में मिले और तभी कॉलेज में बहुत प्रॉब्लम्स (समस्याएँ) होती थीं मुझे, जैसे स्टेज फियर (रंगमंच का डर) बहुत ज़्यादा था।एंड आई रिमेंबर दिस (और मुझे याद है) मैं, एक पाँच सौ लोग कुछ थे कॉलेज के सेशन में, और मैं दो घंटे का सेशन था, मैं पूछना चाह रही थी आपसे एक क्वेश्चन (सवाल) और मैं पूछ ही नहीं पा रही थी और आपने उन सब लोगों में रिकॉग्नाइज़ (पहचान) कर लिया कि ये दो घंटे से कोशिश कर रही है पूछने की बट पूछ नहीं पा रही है।

जॉब इंटरव्यू (नौकरी के लिए साक्षात्कार) था उसके बाद, मैं इतना कॉन्फिडेंस (आत्मविश्वास) था ही नहीं बिलकुल भी कि मैं जॉब इंटरव्यू भी क्लियर (उत्तीर्ण) कर पाऊँ तो मैंने आपको बहुत ज़्यादा सुना उसके बाद चीज़ें इम्प्रूव (बेहतर) हुई, कॉन्फिडेंस आया।

उसके बाद सर जो-जो चीज़ें होती रही मैं नीड बेसिस (ज़रूरत के तल) पर जो-जो मुझे प्रॉब्लम्स लगीं, उसकी वीडियोज़ सुनी और ऐसे-ऐसे एक जर्नी (यात्रा) रही। और जो-जो वो पड़ाव थे वो पार होते गये। जैसे जॉब का रहा, उसके बाद बहुत प्रॉब्लम्स आयी कि कैसे तुम लोगों को फेस (सामना) करो। चीज़ें समझ नहीं आ रही हैं, लोग ऐसे क्यों बिहेव (व्यवहार) कर रहे हैं। कैसे तुम एक्सेल (और उत्तम्) करो किसी चीज़ में तो वो चीज़ें ऐसे रहीं और तब जर्नी थी।

पैरेंट्स को कुछ टाइम पहले हिम्मत हुई क्लियरली (साफ़-साफ़) बताने की कि मैं सर को सुनती हूँ, मुझे ऐसे जाना है सेशन में, ये-वो, बट सर सपोर्ट (मदद) कभी भी नहीं है उनके एंड (तरफ़) से, आज भी नहीं है। इवन दो (चाहे) मतलब मैं ये नहीं बोलूँगी कि फ्रॉम दैट टाइम फ्रॉम माय थर्ड ईयर, फोर्थ ईयर आई हैव अचीव्ड एनफ बिट् सो दैट (उस समय से, मेरे कॉलेज के तीसरे, चौथे साल से ही मैंने बहुत कुछ हासिल किया है इसलिए)। मैं उनको ये बोल सकूँ कि ये मुझे करना है, ये मुझे सुनना है।

तो मुझे हमेशा से न वो चीज़ रही कि मुझे पहले प्रूव (सिद्ध) करना पड़ेगा ख़ुद को, तब कोई चीज़ डिमांड (माँग) करनी पड़ेगी तो मेरी जर्नी हमेशा से वही रही।

अब सर रिकॉल (याद) हो रहा है थोड़ा, तो अभी भी वो चीज़, वो एक्सेप्ट (स्वीकार) नहीं करते कि क्यों सुनना है, क्यों इस पाथ (राह ) पर जाना है। उनको लगता है कि ये एक बहुत बड़ा बैरियर (रुकावट) है। आज भी आफ्टर शोइंग देम ऑल द प्रोग्रेस बीइंग इन ए गुड कम्पनी, डूइंग हेविंग ए गुड कैरीयर, अर्निंग एनफ वेल फॉर माइसेल्फ (इतनी सारी प्रगति दिखाने के बाद भी एक अच्छी कम्पनी में होना, एक अच्छा भविष्य होना, अपने लिए पर्याप्त कमाना), तब भी उनको बस लड़की के प्रोस्पेक्टिव (दृष्टिकोण) से उनको सिर्फ़ यही लगता है कि मतलब शादी करनी है और ये सारी चीज़ें करनी है जो नॉर्मली (साधारणतया) लोग करते हैं।

तो सर समझा-समझाकर मैं थक चुकी हूँ और प्रूव (साबित) कर-करके भी मैं थक चुकी हूँ। बट मनी इंपोर्टेंट (क्योंकि पैसा आवश्यक) मुझे इसलिए ज़्यादा लगती है क्योंकि वो चीज़ें मैं नहीं कर पाऊँगी इफ आई डोंट हैव दैट काइंड ऑफ़ मनी विद मी (अगर मेरे पास उस तरह पैसा न हो)। तो बहुत टाइम पहले मुझे पता चल गया था कि फाइनेंशियली इंडिपेंडेंट (वित्तीय स्वतंत्रता) होने से ज़्यादा फ़ाइनेंशियली स्ट्रॉंग (आर्थिक रूप से मज़बूत) होना ज़रूरी है स्पेशली व्हेन यू कम फ्रॉम ए फ़ैमिली व्हिच इस फ़ाइनेंशियली वैल ऑफ देम्सेल्व्ज़ (विशेष रूप से जब आप ऐसे परिवार से आते हैं जो अपनेआप में आर्थिक रूप से धनी है)।

उनको इसके बियोंड (आगे) कुछ नहीं दिखता कि जब तक मैं… लेट मी पुट इट दैट वे (मुझे इसे इस तरह से कहने दीजिए) जब तक मैं महीने का लाख रुपए नहीं कमा लूँ, वो सुनेगें भी नहीं मुझे कि कुछ कर भी रही है ये। कुछ कर भी रही है या इसको कुछ फ़ायदा हो भी रहा है इस चीज़ से।

तो वो जगल (बाज़ीगरी) कांस्टेंट (लगातार) रहती है टू प्रूव माइसेल्फ (ख़ुद को साबित करने के लिए) और इस चक्कर में सर, मैं जिस फील्ड में हूँ, मैं हमेशा से ही जैसे कॉलेज में बीएससी डीयू जाने का मन था। नहीं, मैंने बीटेक की क्योंकि वहाँ से कैरियर अच्छा बनेगा।

जॉब करी, स्विच (बदलना) किया कि मनी (पैसा) बढ़ेगी। मतलब हमेशा से वही पर्सपैक्टिव रहा है। बट अब मैं जैसे साइड में सिक्योरिटी फ़ील्ड (सुरक्षा क्षेत्र) में हूँ, मुझे पता है कि कहीं-न-कहीं वो वर्ल्ड पर्सपेक्टिव (विश्व परिप्रेक्ष्य) पर एक अच्छा काम कर रहे हैं साइड में सिक्योरिटीज़ है, नीड ऑफ़ द ऑवर (समय की माँग)।

तो ऐसा भी नहीं है कि मैं कुछ ग़लत सेल (बेच) कर रही हूँ या इट्स नॉट मेकिंग सेंस, इट्स इर्रेलेवेंट, इट्स वैरी मच नीडेड (इसका कोई मतलब नहीं है, यह अप्रासंगिक है, यह बहुत ज़रूरी है)।

और काम अच्छा है बट जो मेरा मन है कि थोड़ा ह्यूमन पर्सपेक्टिव (मानवीय दृष्टिकोण) से ज़िन्दगी को जानना , थोड़ा उस फील्ड (क्षेत्र) में ज़्यादा करना है क्योंकि दिस इज टेक्निकल फील्ड (यह तकनीकी क्षेत्र है)।

यहाँ पर इन चीज़ों का कोई यूज़ (उपयोग) नहीं है, अपार्ट फ्रॉम माय ओन नीड (मेरी ज़रूरत से अलग) कि प्रमोशन्स (तरक़्क़ी) है, मैं नहीं सोचती प्रमोशन के बारे में।

ऑफिस वाली पॉलिटिक्स (राजनीति) है, मुझे पता है हॉव टू डील विद् दैट बिकॉज़ ऑफ़ स्पिरिट्युअलिटी, राइट (कैसे उससे बर्ताव करना है, अध्यात्म के कारण, ठीक)। उसका सिर्फ़ उतना ही नीड है (ज़रूरत है) देट हॉव टू सर्वाइव इन देट वर्ल्ड, हॉव टू टेकल देम (कि कैसे उस दुनिया में जीवित रहना है, कैसे उससे जूझना है)।

बट मैं कम्प्लीटली (पूरी तरह से) उस चीज़ को वहाँ नहीं कर पा रही हूँ एंड आई एम जग्लिंग बिटवीन द टू फ़ील्ड्स (और मैं दोनों क्षेत्रों के बीच में भटक रही हूँ)।

बट अब मैं इसमें कम्प्लीटली इज बीइंग शिफ्ट (पूर्णतः प्रवृत्त) तो भी हो पाती या सोच भी नहीं पाती क्योंकि वो कंडीशनिंग (अनुकूलन) उस टाइप से है कि आई नीड देट मनी ऑफ़ माय ओन (मुझे अपने लिए उस तरह से पैसा चाहिए) ताकि मैं वो फाइट (लड़ाई) कर पाऊँ।

मैं अपने पापा को खुलकर बोलती हूँ। वो मुझे अभी बोलते हैं, मेरी मम्मी तो कहती है कि इसको पढ़ाकर ग़लती करी, पहली चीज़। और मेरे पापा कहते हैं कि तुझे अपने पैसे का ग़ुरूर है। बट आई क्लियरली से (पर मैं साफ-साफ़ कहती हूँ) कि हाँ, है, बिकॉज़ दैट इज वर्किंग फॉर मी (क्योंकि वो मेरे लिए काम कर रहा है)।

मैं सोलो ट्रिप (अकेले यात्रा) पर जाने की कोशिश करती हूँ। ही इज लाइक (वह हैं जैसे), गाड़ी नहीं मिलेगी। सो ये चीज़ें होती हैं। इसलिए कभी-कभी वो पार्ट भी इम्पोर्टेंट होता है लाइफ का और मैं उसको छोड़ ही नहीं पाती हूँ बिकॉज़ देट्स मोर इंपोर्टेंट टू मी राइट नॉव एंड आई थिंक व्हाइल इट विल बी (क्योंकि वो मेरे लिए आज ज़्यादा महत्वपूर्ण है और मैं सोचती हूँ वह रहेगा भी) ।

देट्स इट फ्रॉम मी, देट्स द गर्ल्स पर्सपेक्टिव (मेरे लिए बस इतना ही है, यह लड़कियों का दृष्टिकोण है)। एक लड़की की वैल्यू (क़ीमत) लाइफ (ज़िन्दगी) में इसलिए नहीं है बिकॉज़ ये माना जाता है कि हमे लड़के के पैसे चाहिए, ये चाहिए, वो चाहिए।

मतलब आई एम स्टैंडिंग ऑन द अदर साइड, आई एम फ्रॉम देट फ़ैमिली, आई एम अर्निंग मनी स्टिल, देयर इज नो लिबरेशन (मैं दूसरी तरफ़ खड़ी हूँ, मैं उस परिवार से हूँ, मैं अभी भी कमा रही हूँ, कोई स्वतंत्रता नहीं है)। व्हाट्स आफ्टर दिस (इसके बाद क्या)? थैंक्यू (धन्यवाद)।

आचार्य प्रशांत: देखिए, एक चीज़ तो स्पष्ट हो गयी। वहाँ से जो बात आ रही थी, वो पुरुष केंद्रित थी, द मेल परस्पेक्टिव (पुरुष दृष्टिकोण)। आपने अच्छा किया अपनी बात जोड़ दी कि एक महिला, युवा महिला भी इस पारिवारिक, सामाजिक स्थिति में अपनेआप को कहाँ पर पाती है।

स्पष्ट ही है कि बात पुरुष या महिला होने की नहीं है, सबके ऊपर बन्धन लाद दिए गये हैं। आदमी हो, औरत हो, कोई हो, बच्चा-बूढ़ा कोई हो। किसी को उसकी माता जी नहीं समझतीं, किसी को उसकी पत्नी नहीं समझती, किसी को उसके पिता नहीं समझते।

इसमें ऐसा कैसे कह दें कि बात किसी लिंग विशेष की है क्योंकि लिंग को दोषी बना दिया तो हमने प्रकृति को दोषी बना दिया कि भई, एक लिंग ही ऐसा पैदा होता है। बात उसकी है ही नहीं।

बात हमारे ढर्रे की है। बात उस चीज़ की है जिसको हमने ज़िन्दगी समझ रखा है। हम सबने ज़िन्दगी का एक बहुत फ़ालतू ख़ाका खींच रखा है और चूँकि हमारे देखे वो ज़िन्दगी है तो हम वैसी ही ज़िन्दगी फिर अपने बच्चों पर थोपना चाहतें हैं या अगर शादी वगैरह हो गयी तो अपने पति या पत्नी पर थोपना चाहते हैं।

मुझे अनुमति दीजिए मैं वापस जाता हूँ उसी सवाल पर। मेरे साथ यहाँ पर राघव (संस्था के स्वयंसेवक) खड़े थे। तो इंसान हैं, आपकी तरह ही इंसान हैं। तीन साल पहले यहाँ आये थे, तब जितना कमाते थे, तीन साल बाद भी आज यहाँ शायद उसका आधा भी न कमाते हों। ये क्यों मज़े में हैं और कैसे?

इनके भी माँ-बाप हैं, शिक्षा है। जिस कैम्पस से आ रहे हैं, वहाँ बड़े महत्वाकांक्षी लड़के-लड़कियाँ और माहौल होता है तो ये कैसे मज़े में घूम रहा है और यहाँ पर है संस्था में तो ऐसा नहीं कि यहाँ कोई बहुत फूल बरसाए जा रहे हैं। मैं कैसा हूँ, इसका कुछ अनुमान आपको है ही तो जिनके साथ मैं चौबीस घंटे रहता हूँ, इतना समय गुजारता हूँ, मैं उनके साथ बहुत कोमल, मासूम, मुलायम तो नहीं रहता होऊँगा। तो ये वो सब अनुभवों के साथ भी प्रसन्न है। कैसे? अन्तर कहाँ पर आ रहा है? नहीं, इस व्यक्ति में और आप में अन्तर कहाँ पर आ रहा है। चुनाव तो मैं तो कह रहा हूँ आप भी कर लेते हैं, ये व्यक्ति चुनाव करके भी — ऐसा चुनाव जो आपको भारी लगता है — वैसा चुनाव करके भी ये व्यक्ति बहुत हद तक मस्त कैसे है?

और आपके लिए वो चुनाव इतना भारी क्यों हो जा रहा है! आप उसी चुनाव की बात पर परेशान हुए जा रहे हैं, दुखी हुए जा रहे हैं, ये व्यक्ति अपेक्षतया मौज में क्यों है।

प्र२: अपना जो उन्होंने एक स्टैंडर्ड जो बोलते हैं कि हम जो सोचते हैं कि हमारे जो प्लेज़र (खुशी) की परिभाषा है कि मज़ा लेना है।

आचार्य: नहीं, मज़े तो ये पूरे लेता है, येस्विमिंग जाता है, ये खेलेने-कूदने जाता है, ये घूम-घाम भी लेता है। मज़े में क्या कमी है, गया कहाँ (इधर-उधर राघव को देखते हुए) और मज़े ही ले रहा होगा कहीं (श्रोता हँसते हुए)।

प्र: आचार्य जी, जैसे कि लोग जाते हैं घूमने…।

आचार्य: ये दूसरे आईआईटियन भी हैं (हाथ से संकेत करते हुए)। ये जो आपके सामने खड़े हैं, ये भी आईआईटियन हैं। ये मज़े कोई कम लेते हैं, इनकी शक्ल देखिए। मैं परेशान हूँ इनके मज़ों से।

समस्या क्या है, ये कैसे मज़े में चल रहे हैं और आपको बन्धन-ही-बन्धन क्यों दिखायी दे रहे हैं? इनके पास भी परिवार है।

प्र: आचार्य जी जैसे कि घूमने का कहीं कोई प्रोग्राम बनाते हैं, पहाड़ों पर जाते हैं तो वो केवल घूमने नहीं जाते उनको फ़ोटो खींचकर डालनी होती है।

आचार्य: अपनी बताइये न। अब आप बताइये, अपनी क्या बात है? ये देखिए! (राघव के पहुँचने पर उनको देखकर)।

श्रोता: शादी हो गयी इनकी (राघव की), बाक़ी सभी हँसते हुए?

आचार्य: किनकी? नहीं। एक सेकंड रुकिए। शादी हो नहीं जाती, शादी करी जाती है। शादी हो नहीं जाती। ऐसा थोड़े ही होता है कि आप बाथरूम से निकले और पता चला मैं शादीशुदा हूँ। हो गयी (सभी ज़ोर से हँसते हैं)।

(राघव की तरफ़ इशारा करके) ये क्यों करे, कोई समुचित कारण, कोई वजह। बात करते हैं। हमारे यहाँ ऐसे भी लोग हैं जिनकी शादी हो चुकी है। ऐसा कुछ नहीं है कि शादी न करना कोई अनिवार्यता वगैरह है। शादीशुदा लोग भी हैं, उनका भी काम मज़े में चल रहा है।

अन्तर कहाँ पर है?

हम ज़रा उसकी जाँच पड़ताल करना चाहते हैं।

प्र: जो चेतना का स्तर इनका उठ गया है वो अभी हमारा उठना बाक़ी है इसलिए हम सबकुछ होकर भी खुश नहीं होते और इनके पास जितना है क्योंकि चेतना से बढ़कर तो कुछ भी नहीं है न।

अगर मेरी चेतना जाग्रत हो गयी जो सब कुछ मानती है, ग़लत भी, अच्छा भी तो वो चेतना का स्तर इनका हाई लेवल (उच्च स्तर) पर है, जो आपके साथ रहकर इनको मिला है। हम एक-दो घंटे सुनते हैं आपको, आधा घंटा सुनते हैं। ये आपके साथ रहते हैं, इनकी मूविंग माइंड (भटक रहे मन) को क्लेरिफ़िकेशन (स्पष्टीकरण) हो जाती है। अपना इनको माहौल मिलता है। इनको आपस में अपने जैसे और लोग मिलते हैं। तो ये चेतना का स्तर जो है और जो हम अपने उठाने की बात कर रहे हैं जिसके लिए हम यहाँ आये हैं।

आचार्य: ये बात आपकी मैं इससे थोड़ा सहमत हो सकता हूँ, पर मैं चाहता हूँ इसको आप और ठोस रूप में बताएँ।

आपके सामने ऐसी कौन सी दिक्क़त आ जाती है जो आपको रोक देती है और वही दिक्क़त इनको नहीं रोकती, वो कौनसी ऐसी दिक्क़त आ जाती है?

प्र: वो हमारी जो वहाँ पर, जिस माहौल में हम रहते हैं, बीट कॉमन हैं, कह लो या आदत हो गयी है, बस ग़ुलाम हो गये हैं। जैसे हम लक्ज़री (विलासिता) या आराम पालते हैं…।

आचार्य: हाँ, हाँ। उसमें और ठोस (बताइए)। थोड़ा रुकिए। थोड़ा और ठोस उदाहरण दीजिए। कौन सी जगह ऐसी आ जाती है जहाँ आपको रुक जाना पड़ता है, ये नहीं रुकते।

श्रोता: जिज्ञासा, लालच। लालच आ जाता है। किसी को लालच ज़्यादा आ जाता है।

आचार्य: नहीं, लालच किस चीज़ का? आप बिलकुल ठीक कह रही हैं लेकिन मैं उसको एकदम ज़मीन पर लाना चाहता हूँ। किस चीज़ का लालच है जो आपको पकड़ ले रहा है, इनको नहीं पकड़ रहा।

प्र नहीं लोगों को ये लगता होगा कि बच्चा इस लाइन में जाने के बाद शायद शादी नहीं करे या…।

आचार्य: नहीं, ऐसी कोई मजबूरी तो होती नहीं, लोग शादी तो करते हैं। संस्था मैं शादीशुदा लोग हैं।

प्र: उन लोगों की सोच होगी शायद।

आचार्य: नहीं, नहीं। मैं थोड़ा सा और कुछ अलग पूछ रहा हूँ। मैं पूछ रहा हूँ आपने कहा था कि सन्यासी होने के अलावा, बात यहाँ से शुरू हुई थी, आपने कहा था कि सन्यासी होने के अलावा कोई विकल्प नहीं।

मैं कह रहा हूँ, ये बिलकुल सांसारिक आदमी है (अपने पास खड़े संस्था के स्वयंसेवक की तरफ़ इशारा करते हुए) और अपेक्षतया बहुत अच्छी ज़िन्दगी जी रहा है।

सन्यासी तो नहीं हो गया न तो ऐसी ज़िन्दगी जीने में आप कहाँ अटक जाते हैं।

श्रोता: फ़ीयर (डर)।

आचार्य: किस चीज़ का फ़ीयर ?

श्रोता: समाज से जो चाहिए, वो नहीं मिलेगा। सर, इट्स ए काइंड ऑफ़ कन्विक्शन, वी वांट ए लिटल ऑफ़ बोथ द साइड्स (महोदय, यह एक तरह का दृढ़ विश्वास है, हम दोनों दुनियाओं का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा चाहतें हैं)।

आचार्य: नहीं, पर आप जो कुछ भी ले रहे हैं या जिन चीज़ों को आप भोग रहे हैं, लगभग वो सब इनको भी मिल रही हैं तो ऐसा आप क्या पा ले रहे हैं घुटने टेककर के जो इनको उपलब्ध नहीं हैं, ये बताइए।

आप कह रहे हैं कि आप इस तरह के यहाँ पर समझौते कर लेते हैं, यहाँ रुक जाते हैं, अटक जाते हैं। उससे आपको ऐसा क्या ख़ास मिल जाता है जो इनकी ज़िन्दगी में नामौजूद है।

प्र: हम लोगों के मन में जो मुझे समझ में आया है, मैं बहुत सालों से अध्यात्म में हूँ, हम लोगों ने हमारे मन में चीज़ों से आइडेंटिफ़िकेशन (पहचान) कर रखा है। जो इस दुनिया में हमें चीज़ें दिखती हैं और हमें लगता है वो मैं ही हूँ। ये गाड़ी मैं हूँ, ये घर मैं हूँ। तो वो एक ईगो (अहम्) बन जाता है मन में, विचारों का एक पिंड बन जाता है मन में।

आचार्य: ये सिद्धान्त है। मुझे और ठोस बताइए कि आपको क्या खोने का डर रहता है?

प्र: तो यही खोने का डर है। जब हमें बोला जाता है कि इससे हमें दुख मिल रहा है इस आइडेंटिफ़िकेशन से क्योंकि हम दुख एक्सपीरियंस (अनुभव) करते हैं इस आइडेंटिफ़िकेशन से तो जब, हमें बोला जाता है कि…।

आचार्य: इनको हज़ार लोग इज़्ज़त देते हैं (अपने पास खड़े संस्था के स्वयंसेवक की तरफ़ इंगित करते हुए)। हज़ार कम बोल रहा हूँ। सामाजिक स्वीकृति इन्हें कम मिली हुई है? आपको मुझे नहीं पता कितने लोग प्रेम में सम्मान देते होंगे। इनको सम्मान देने वाले शायद लाखों लोग हैं। सामाजिक स्वीकृति इनको ज़्यादा है या आपको ज़्यादा है।

प्र: ये जीवन एक सन्यासी का ही जी रहे हैं।

आचार्य: सन्यासी का जीवन किस प्रकार है मुझे ये बताइए। जब आप सन्यासी बोलते हो, तो उससे आपका एक अर्थ, एक आशय होता है, एक तस्वीर होती है। ये किस तरीक़े से सन्यासी हैं? अभी ये कुर्ते में है तो आपको कुछ लग रहा होगा, अभी ये जींस टी-शर्ट में आ जाएगा तो बताइएगा सन्यासी कैसे है ये?

प्र: जी, सन्यासी का मतलब है जैसे हम नौकरी चुनते हैं, ओके। ये नौकरी क्यों की क्योंकि इससे कैरियर सबसे ज़्यादा अच्छा रहेगा, सबसे ज़्यादा पैसे बनेंगे। ये नहीं चुना कि इससे मन को शान्ति मिलेगी या इससे बोध होगा या विवेक होगा। अब होता क्या है? ये सन्यासी का ही जीवन जी रहे है बिलकुल, मेरे हिसाब से ये सन्यासी का ही जीवन जी रहे हैं।

आचार्य: (प्रश्नकर्ता को रोककर) नहीं, मैं इसमें थोड़ी आपत्ति रखना चाहता हूँ क्योंकि आप जिसको सन्यासी कह रहे हैं उससे जो छवि जाती है वो डरावनी है।

प्र: नहीं, बिलकुल छवि से मैं यहाँ किसी बुद्ध, वो शब्द मैंने इसलिएयूज़ किया, स्पेसिफ़िकली यूज़ (विशेष रूप से उपयोग) किया।

आचार्य: हाँ, शुद्धतम अर्थ में आप सन्यासी हो सकते हैं।

प्र: क्योंकि वो ट्राइड और टेस्टेड (आज़माया और परखा गया) रूप रहा है हज़ारों साल से हर धर्म में क्योंकि वो क्या कह रहे हैं …..

आचार्य: अच्छा चलिए मान लीजिए ये सन्यासी भी हैं तो ऐसे सन्यासी आप भी क्यों नहीं हो सकते?

प्र: हाँ, वही फिर बेसिकली फिर ये जो …

आचार्य: नहीं आप रुकिए, आप सीधे इसका उत्तर दें, कृपया। अगर ये सन्यासी हैं अभी, मैंने माना इन्हें बोल लो सन्यासी चलो तो ये सन्यासी आप क्यों नहीं हो सकते, आपको तकलीफ़ क्या आ जाएगी?

मैं बताता हूँ कुछ ठोस बातें, ज़रा सुनिए, बैठिए, मैं बताता हूँ। मैं नहीं कह रहा मेरी आख़िरी बात है, उसमें कोई आपत्ति हो तो ज़रूर बताइएगा, चर्चा है।

इनके सारे बैचमेट्स (सहपाठी) के पास कारें हैं। ये बाइक पर चलते हैं पर इन्हें बाइक पर मौज आती है तो बेहतर कौन हुआ! वो जिसने बारह-चौदह लाख की कार ख़रीद रखी है। इनके पास एक-लाख, डेढ़-लाख की बाइक है पर इन्हें तो बाइक में ही मज़ा आ रहा है।

उन्होंने नौकरी करी पैसे बचाये। अब दस लाख बचाने में कुछ समय तो लगता है न तो दस-बारह लाख बचाकर उन्होंने गाड़ी ख़रीद ली। इन्होंने बाइक ख़रीदी है। ये बाइक में चलते हैं। गाड़ी भी ख़रीद लेंगे, ऐसी क्या बात है। उतनी बड़ी नहीं ख़रीदेंगे छोटी ख़रीद लेंगे।

जब एकदम ज़रूरत लगने लगेगी कि भई, गाड़ी भी चाहिए तो गाड़ी भी आ जाएगी पर वो दस-बारह लाख की गाड़ी इतनी बड़ी चीज़ थी कि आप उसके लिये ज़िन्दगी बेच दो। यहाँ पर अटकते हो आप।

सामाजिक स्वीकृति वगैरह की कोई बात नहीं है। मैं तो समझ ही नहीं पा रहा हूँ इनको कौन सी सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है, कौन सी नहीं मिली हुई।

तीस साल के नहीं हैं ये और इनसे दुगनी उम्र के लोग इनको झुककर नमस्कार कर रहे हैं और कौनसी सामाजिक स्वीकृति चाहिए। इनके घरवाले, इनके रिश्तेदार तक इनको आदर से सम्बोधित करते हैं और कौन सी सामाजिक चाहिए स्वीकृति।

राघव(स्वयंसेवक): मैं इसमें एक चीज़ बोलना चाहूँगा कि बार-बार पैसे की बात आ रही है, ठीक है तो मैं बता देता हूँ कि दो-हज़ार-आठ से लेकर हम लोग किराये के घर में रहे हैं और अभी भी किराये के घर में ही हैं। तो एकदम नार्मल टू बीएचके जहाँ पिताजी-माताजी रहते हैं। तो पैसे की जो बात है कि इनके पास तो पैसा होगा या फाइनेंसियल स्टबिलिटी चाहिए, ऐसा कुछ नहीं है। बस बात इतनी थी कि घरवाले अगर बोल रहे हैं, अगेन्स्ट (ख़िलाफ़) अगर होते हैं तो मुझे पता था कि घरवाले अगेंस्ट होंगे तो मैं भी जा नहीं पाऊँगा आगे। तो वो तो मेरी ज़िम्मेदारी थी न कि मैं उनको भी कोशिश करके ले आऊँ आचार्य जी तक। तो वो एक चीज़ होती है। मेरे घरवाले, मेरे माताजी, पिताजी आ गये, अब मेरे ताऊजी हैं, चाचाजी हैं वो मुझे नहीं स्वीकार कर रहे हैं। मुझे मतलब थोड़ी न है उनसे। बस हो गई बात पूरी।

आचार्य: नहीं ताऊजी, चाचाज़ी से मिल भी क्या जाता। मैं यही तो पूछ रहा हूँ इनसे कि तुम्हारा क्या जा रहा है? वो चाचाजी, ताऊजी तुम्हें ऐसा दे क्या रहें हैं, जो तुम उनकी इतनी परवाह करते हो?

प्र: अगर आपके पेरेंट्स नहीं मानते तो आप क्या करोगे?

आचार्य: यहाँ लोग खड़े हैं ऐसे, जिनके पेरेंट्स नहीं मानते। कई ऐसे खड़े हैं। ये जो सफ़ेद कुर्ते वाले हैं इनमें कई ऐसे हैं जिनके माँ-बाप नहीं भी राज़ी होते, हर तरह के हैं। ऐसे भी हैं जिनके माँ-बाप इनसे भी ज़्यादा डिवोटेड (समर्पित) हैं। यहाँ बैठी हुई हैं माताजी, ऐसे भी हैं और ऐसे भी हैं जिनके माँ-बाप आज तक भी नहीं स्वीकार करते। चला क्या जाएगा। स्वीकार नहीं करते माने क्या बेटा, मुझे बताओ? डंडा लेकर मारेंगे, क्या करेंगे?

प्र: जाएगा कुछ नहीं, पर अब ऐसा जीवन बिताना पड़ेगा।

आचार्य: (हँसते हुए) ऐसा जीवन बिताने में तकलीफ़ क्या है, इसमें तकलीफ़ क्या है?

राघव: आपको जैसे आचार्य जी ने बोला कि कुर्ता पजामा पहनकर खड़ा है। संस्था के अन्दर आचार्य जी ने कंपल्सरी (अनिवार्य) किया हुआ है कि स्पोर्ट्स भी खेलेंगे, सब लोग अपनी पढ़ाई भी करेंगे। तो जो हम लोग जीवन जीते हैं उसमें सबकुछ वही होता है जो आप लोग करते हैं। स्पोर्ट्स भी खेलते हैं, इनफैक्ट मैं जब देखता हूँ कि मेरे बैचमेट्स हैं वो स्पोर्ट्स नहीं खेल पाते हैं, हम लोग खेल पाते हैं तो हमारा जीवन तो ऊँचा ही हुआ न।

आचार्य: संसारी तरीक़े से भी ये बेहतर जीवन जी रहे हैं संसारियों से। जिसको आप सन्यासी बोल रहे हो वो संसार के मज़े लूट रहा है। ये सबकुछ करते हैं। ये पूरा भारत घूमते हैं, ये खेलने जाते हैं, पढ़ाई करते हैं, ये मूवी भी देख आते हैं। सबकुछ करते हैं।

मैं इसीलिए ये पूछना चाहता हूँ कि आप कौनसा तीर मार रहे हो वो जीवन जीकर के, जिसमें आप कहते हो कि हम अटके हुए हैं। अटके हुए हैं, उसमें मिल क्या रहा है आपको।

प्र: सर, एक जो मेरा डर है, वो मैं बताना चाहती हूँ। सर, मेरे पैरेंट्स न फ्यूचर (भविष्य) को लेकर डराते हैं कि अभी यू आर थिंकिंग लाइक दैट व्हेन यू विल बी ओल्ड एज़ अस, यू विल रिग्रेट, यू विल बी डिप्रेस्ड, यू विल बी अलोन (तुम अभी ऐसा सोच रही हो पर जब तुम हमारी तरह बूढ़ी हो जाओगी तब पछताओगी, अवसादग्रस्त हो जाओगी, तब तुम अकेली हो जाओगी)।

आचार्य: आप कितने साल के हो।

प्र: आई एम थर्टी (मैं तीस की हूँ)।

आचार्य: ओल्ड माने क्या होता है।

प्र: आई थिंक सिक्सटी प्लस (मैं सोचती हूँ साठ या उससे ऊपर)

आचार्य: सिक्सटी प्लस, सिक्सटी के बाद पछताना पड़ेगा न।

प्र: हाँ जी।

आचार्य: साठ में मर जाना (श्रोता हँसते हुए)। तीस साल मज़े करो और मर जाओ। समस्या क्या है (श्रोता तालियाँ बजाते हुए)? साठ के बाद क्या होगा उसके लिए आप अपना पूरा जीवन और जवानी क्यों ख़राब कर रहे हो।

प्र: सर, बड़े गम्भीर होकर बोलते हैं, मतलब पछताओगे। शादी नहीं करोगे तो पछताओगे एंड आई एग्री विद इट।

आचार्य: मैं बिलकुल भी नहीं कह रहा हूँ कि शादी मत करो। मैं बेढंगी और नालायक क़िस्म की शादियों के ख़िलाफ़ हूँ।

प्र: वही करना चाहते हैं वो लोग।

आचार्य: आपको कोई(अच्छा मिले तो करो)। आप ढंग की शादी कर सकते हों बेशक करिए उसमें कोई बात नहीं है। थोड़ा एक दो बातें और बताता हूँ, आप कहाँ फँसते हो। दो-तीन चीज़ें होतीं है।

एक आप फँसते हो इस झंझट में बहुत बड़ा मकान ख़रीदना है। वो जो करोड़, तीन करोड़ वाले मकान होते हैं न, पाँच करोड़, आठ करोड़ कितना भी जाता है, आप वहाँ फँसते हो। आप उम्रभर जो उसकी किश्तें भरते हो वहाँ फँसते हो। उसके लिए फिर चाहिए होता है अकूत पैसा।

और आप जो शादियाँ करते हो जिसमें ये अनिवार्य हो जाता है कि विलासिता का प्रदर्शन किया जाए। शादी माने वेडिंग के दौरान भी और फिर आगे विवाहित जीवन में भी। आप वहाँ फँसते हो।

नहीं तो आप नहीं फँसोगे। काम चल जाएगा। हम आमतौर पर जिस (जीवन की बात करते हैं) जो हमारा लिविंग स्टैंडर्ड (जीवन स्तर) होता है वो तो जितना आप कमाते हो उससे आधे में भी चल जाए अगर आपने मोटे वाले खर्चे न पाल रखे हों।

अध्यात्म एक तरीक़े से इन मोटे खर्चों से बचने का नाम है।

मेरा जो बैच है आइआइटी का, आइआइएम का, उसकी औसत तनख़्वाह सालाना इस वक़्त दो से तीन करोड़ है। महीने का बीस लाख, पच्चीस लाख बैठ गया और उनमें से बहुत सारे ऐसे हैं जिनके पास अभी पर्याप्त नहीं है।

लालच की बात नहीं उनके पास सही में पर्याप्त नहीं है। खर्चे, आप वहाँ फँसते हो। आपने ऐसे खर्चों को अनिवार्य मान लिया है जो अनिवार्य हैं ही नहीं।

आप गुड़गाँव में फाइव बीएचके लोगे तो आपको क्या लगता है आप आज़ाद जी पाओगे। ले रखे हैं। महीने का बीस-पच्चीस लाख आता है तब भी कम पड़ रहा है, सही में कम पड़ रहा है। नहीं होता उन पर।

और बीस-पच्चीस साधारण बोल रहा हूँ और उससे ऊपर वाले भी बहुत हैं। डॉलर वाले हैं जो जिनकी तो कोई गिनती ही नहीं है, डॉलर वालों की तो।

और महीने का करोड़ों है उनका। यहाँ फँस जाते हो। कुछ खर्चों को आपने व्यर्थ ही ज़रूरी समझ रखा है। फ़िल्मों ने आपको सिखा दिया है कि दो करोड़ की शादी नहीं करोगे तो तुम इंसान ही नहीं हो, मुर्ग़ा हो तुम। अब आपको बहुत सारा पैसा चाहिए क्योंकि आपको दो करोड़ वाली शादी करनी-ही-करनी है। यहाँ पर बेचारे माँ-बाप की साँसें रुकने लगती हैं कि अगर ये कमाएगा नहीं तो दो-करोड़ वाली शादी कैसे करेगा?

दो करोड़ वाली शादी, पच्चीस लाख वाली एसयूवी और फिर अगर पत्नी घर ला रहे हो तो उसके सामने पैसे का प्रदर्शन करना भी ज़रूरी है इसीलिए तो भारतीय पुरुष की मानसिकता रहती है कि पत्नी मुझसे ज़्यादा न कमाए।

पत्नी घर आ रही है तो उसे दिखाना भी ज़रूरी है कि मैं तुझे कितने लाख का ये सब ला सकता हूँ पेंडेंट और नेकलेस। यहाँ फँस जाते हो। नहीं तो वो खर्चे जो ज़िन्दगी को बिलकुल मस्त और आनन्दमय बनाते हैं वो बहुत बड़े नहीं होते।

अभी पाँच साल पहले तक जितने भी बाहर के शिविर होते थे उनमें से आधे से ज़्यादा मैंने अपनी बुलेट (मोटर साईकिल) पर करे हैं और अभी कल भी संजय को बोला कि उसे फिर से ठीक करा दो मुझे उसे चलानी है।और आप एसयूवी में बैठकर जाते हो पहाड़ों पर। मैं आपको गारंटी से बता देता हूँ उससे ज़्यादा मज़ा बुलेट पर आता है और मैंने चार-चार घंटे भीगते हुए पहाड़ों पर चलायी है। चोकटा गये थे बर्फ़ पर एकदम स्किड कर रही है और लेकर गये उसी से वापस आ रहे हैं, बारिश भी हो रही है पूरे गीले हैं। बर्फ़ है, गीले हैं और चल रहे हैं और आप ऐसी चीज़ों पर पैसा खर्च करते हो अनिवार्य समझकर जिस पर पैसा खर्च करना अनिवार्य नहीं है।

रोहित अभी खोज रहे थे कि कहाँ पर होगा ये महोत्सव तो पहले बात करी जाकर होटलों में। तीन दिन के दस लाख रुपये से शुरुआत हुई। फिर बात करी जाकर बैंक्वेट हॉल में वहाँ भी कम-से-कम कितना आया था, तीन-चार लाख आया था कुछ ऐसे ही। फिर जाकर कॉलेजों में बात करी और यहाँ पर निश्चित करा।

वो होटल इतना सारा पैसा क्यों माँग रहा है और जैसी आपको यहाँ व्यवस्था मिली है इससे अच्छी नहीं दे पाता। वो इतना सारा पैसा क्यों माँग रहा है? क्योंकि उसकी इतना सारा पैसा खाने की आदत बन चुकी है। उसके पास ऐसा ऑडिटॉरीयम है भी नहीं फिर भी वो इतना सारा पैसा माँग रहा है क्योंकि आप उसको वो पैसा देते हैं अपनी शादियों में।

आपने उसकी आदत बिगाड़ दी है और इसी शादी की ख़ातिर आप ज़िन्दगी भर ग़ुलामी करते हो कि एक दिन में वो सारा पैसा जाकर उड़ा दूँगा, किसी होटल वाले को दे दूँगा। लड़की पैदा होती नहीं है कि बाप पैसा जोड़ना शुरू कर देता है, अपने आर्थिक स्तर के अनुसार। इतने करोड़ दहेज़ देना है और फिर आप कहते हो कि देखो, हम सही जीवन कैसे जी सकते हैं, पैसा भी तो चाहिए न।

मैं नहीं कह रहा कि पैसा नहीं चाहिए। पैसा चाहिए, मैं पूछ रहा हूँ पैसा किसलिए चाहिए। कोई आपके पास सार्थक लक्ष्य है जीवन में जिसके लिए पैसा चाहिए।

हम कहते हैं आज हमें आज बहुत सारा पैसा चाहिए। पिछले तीन-चार सालों में जीवन में मुझे पहली बार लगने लगा है कि पैसा चाहिए क्योंकि अब दिखा है एक ऐसा लक्ष्य जो पैसे के बिना नहीं मिलने का तो हम खुलेआम जाकर के बोलते हैं, पैसा दो हमें बहुत-बहुत सारा पैसा चाहिए। मैं आपसे पूछ रहा हूँ, ‘आपको पैसा क्यों चाहिए?’ आप मुझसे पूछिए, मैं बताऊँगा, मुझे पैसा क्यों चाहिए?

ये संस्था इस वक़्त बहुत ज़्यादा ज़रूरत में है पैसे की और हमारा पैसा इसलिए नहीं कि हम बैंक्वेट हॉल को दे देंगे या उससे महल बना लेंगे, इसका हनीमून होगा उसमें (राघव की ओर संकेत करके)।

आप पैसा जोड़ क्यों रहे हो मुझे समझा तो दो? आप होटलों के रेट हायर (मूल्य वृद्धि) करने के अलावा क्या करते हो जीवन भर। पूरा आपने मार्केट सिस्टम ख़राब कर रखा है।

छोटा सा एक हॉल होगा वो उसका कहता है दिन का चार लाख रुपया। ये तो इसकी ग़लती नहीं है, इसकी आदत तो आम मध्यमवर्ग और उच्च मध्यमवर्गीय लोगों ने ख़राब करी है। वो देते हैं वाक़ई इतना। इसके लिए आप कहते हो कि ग़ुलामी करनी तो ज़रूरी है न। नहीं तो क्या होगा? एक बड़ा मकान तो ज़रूरी है न। तुम क्या करोगे इतने बड़े मकान का, मरोगे तो साथ चिता में जलेगा वो।

आपको मालूम है दुनिया भर में रेंटल सबसे सस्ते हिंदुस्तान में हैं, आप जानते हैं इस बात को! भारत से ज़्यादा सस्ते रेंटल्ज़ दुनियाभर में कहीं नहीं है।

अमेरिका में लोग मकान ख़रीदें ये बात सेंसिबल (समझदार) होती है क्योंकि वहाँ मकान सस्ता है, किराया महँगा। भारत में आपको बड़ी-बड़ी कोठियाँ भी बड़े साधारण किराये पर मिल जाती हैं। भारत में कोई तुक ही नहीं है कि आप मकान ख़रीदो।

इतने सारे मूर्ख लोग हैं जिन्होंने बहुत बड़े-बड़े मकान बनवा रखे हैं। उन्होंने मकान बनवा दिए फिर वो करेंगे क्या? तो उसको किराये पर देते हैं। आप लो न किराये पर कौन आपको रोक रहा है?

फिर कहते हैं, ‘नहीं, किराये पर ले लेते हैं कभी मकान मालिक कहता है नहीं, अब खाली करो तो जाना पड़ता है।‘ तो चले जाओ। समस्या क्या है? ‘नहीं, सामान शिफ़्ट करना पड़ता है।‘ तो समस्या क्या है? ‘नहीं, सामान बहुत सारा है।‘ सामान क्यों बहुत सारा है?

इतना सामान क्या करोगे लेकर और अब सामान के लिए भी मूवर्स-पैकर्ज़ होते हैं। शिफ़्ट करना है तो कर लो बाबा। ‘नहीं, सामान तो ठीक है, वो परिवार बहुत बड़ा है न।‘ कितने लोग हैं? छः लोग हैं परिवार में। क्यों हैं छः लोग परिवार में? ये छः लोग कहाँ से आ गये बताओ। पहले तो तुम छः लोग लेकर आते हो फिर कहते हो अब शिफ़्ट कैसे करें इनको।

प्र: वही न सर सन्यासी के लिए आसान है।

आचार्य: सन्यासी की बात नहीं है। छः के बाद शून्य नहीं आता। छः और शून्य के बीच में बहुत संख्यायें होती है। आप बार-बार शून्य कर देना चाहते हो कि नहीं! ये तो सन्यासी है, इसका तो शून्य है।

मैं कह रहा हूँ तीन नहीं हो सकते थे। पति, पत्नी और एक बच्चा नहीं हो सकता था। ये छः कहाँ से आये? ये इतना सारा फर्नीचर है इसको काटकर के चिता की लकड़ी बनाओगे। इतना बड़ा वो बिस्तरा क्यों लेकर के आये हो।

कोई वजह? नहीं। फ़िल्मों में होता है तो हम भी करेंगे। करन जौहर ने सिखाया तो जाओ फिर उसी से उत्तर भी माँगो। ज़िन्दगियाँ आपकी बर्बाद हुई हैं, जाकर जवाब भी फिर वहीं माँगिए न कि तूने हमें ऐसा क्यों सिखाया।

अच्छी किताबें हों, अपना एक वाहन हो, छोटा ही सही लेकिन एक साफ़-सुथरा और सही जगह पर एक घर हो, ये ज़िन्दगी जीने में आपत्ति क्या है आपको।

और ज़िन्दगी पर बहुत सारे बोझ न हों, तो पढ़ने के लिए भी वक़्त हो, खेलने के लिए भी वक़्त हो, गीत-संगीत सीखने के लिए वक़्त हो, गिटार सीखो, वीणा सीखो, सितार सीखो, हॉर्मोनियम है। ये ज़िन्दगी आपको बुरी लग रही है सुनने में! तो समस्या क्या है?

नहीं, वो न वो जीजा जी की शादी हो रही है, तो उसमें जाना है। तो जीजा जी की शादी में जाना है तो कम-से-कम एक लाख रुपये का लिफ़ाफ़ा तो देना पड़ेगा न। समस्या यहाँ आ जाती है।

बेशर्म हो जाओ, जाओ खाकर आ जाओ। समस्या क्या है। लिफ़ाफ़ा दे दो लिखकर के, ऊपर ही लिख दो कि इसमें एक लाख रुपये हैं और ख़ाली दे दो (श्रोता हँसते हुए) फिर बोलो, ‘बड़े चोर आते हैं आपके यहाँ, कैसे आदमी हो आप। मेरा एक लाख रुपया चुरा लिया (हँसते हुए)।‘

नहीं, समस्या क्या है? (हँसकर) इतने गम्भीर क्यों हो रहे हो बेटा, इतनी गम्भीरता की क्या बात है इसमें। बोल रहे हो, ‘घर से गाड़ी माँगते हैं, गाड़ी नहीं देते।‘ तो ख़रीद लो न। ओला किसलिए है। घरवाले गाड़ी नहीं दे रहे तो ओला। ओला भी रोक देंगे।

प्र: नहीं, वो मेल स्पेसिफ़िक है।

आचार्य: मेल स्पेसिफ़िक क्या बात है? फ़ीमेल को ओला में नहीं घुसने देते। फ़ीमेल ओला क्या होती है? क्यों नहीं हो सकता बताओ न।

प्र: सर, अभी इंडिया अभी उस लेवल पर नहीं आया।

आचार्य: इंडिया नहीं तुम अपनी बात बताओ न। तुम अगर करोगे तो क्या हो जाएगा, अगर करोगे तो क्या हो जाएगा? उत्तर दो।

प्र: कुछ नहीं होगा।

आचार्य: कुछ नहीं होगा। यही तो बोल रहा हूँ।

प्र: सर, बल्कि अच्छा होगा।

आचार्य: मैं यही तो बोल रहा हूँ।

प्र: सर लेकिन मैं और वाइडर प्रोस्पेक्टिव (बड़ा दृष्टिकोण) पर बोलना चाह रही हूँ कि सर, आपने बोला चलो बाइक की बात हटा देंगे, हम लड़कियाँ होतीं हैं, हमें घर का नहीं प्रेशर होता है कि हमें घर बनाना है।

आचार्य: ठीक है।

प्र: शादी की बात रही तो मैंने तो अपने पापा मतलब ज़्यादा खर्चना चाहते हैं उनका सपना ही यही है कि मैंने जो जोड़ा है वो खर्च करूँ, इतना करूँ। मेरी लड़ाई सिर्फ़ ये है कि मैं करने नहीं दूँगी।

आचार्य: ठीक है।

प्र: तो मुझे नहीं करना है।

आचार्य: तो मत करो।

प्र: सर, वो सर, मैं इसलिए यही जानना चाहती हूँ कि मैं खर्च नहीं करती ज़्यादा, जितना सर, नॉर्मल लड़कियाँ करती हैं क्योंकि मेरा प्रोस्पेक्टिव है नहीं करना।

आचार्य: मत करो। समस्या कहाँ है।

प्र: सर, फिर भी यही मैं पूछना चाह रही हूँ, मेरा ब्लॉकेज कहाँ है?

आचार्य: कही नहीं है।

प्र: मैं क्यों नहीं कर पा रही?

आचार्य: इसी को तो माया कहते हैं। इसे मा या, माया जो है ही नहीं, इसी को तो माया कहते हैं। कोई ब्लॉकेज नहीं है।

प्र: सर, जो सिक्योरिटी का जो…

आचार्य: सिक्योरिटी माने क्या?

प्र: मैं अपने पैरों पर खड़ा होना ताकि मुझे न पापा से न मुझे किसी लड़के से कुछ नहीं मँगाना पड़े।

आचार्य: आप पढ़े-लिखे हो, आपके पास वर्क एक्सपीरियंस (अनुभव) है, आप भूखे नहीं मरने वाले। आप कौनसी सिक्योरिटी की बात कर रही हो। तुम कौन सी सिक्योरिटी से डरती हो।

प्र: सर, आजकल हर अच्छी चीज़ पर एक प्राइस टैग (क़ीमत) है।

आचार्य: ठीक है। बोलो एक चीज़ बताओ न कौनसी ऐसी चीज़ है जो तुम्हें चाहिए प्राइस टैग है, नहीं है।

प्र: सर, लेट्स से आर्गेनिक फ़ूड इट्स ए बेसिक थिंग (सर, जैसे कि जैविक भोजन एक बुनियादी चीज़ है)

आचार्य: ठीक है उसके लिये एक आदमी का आर्गेनिक फ़ूड एक महीने में कितने का आता है?

प्र: सर, मैं एक इंसान की बात नहीं कर रही।

आचार्य: तुम एक इंसान हो, तुम दो नहीं हो।

प्र: चलो सर, मेरी बात भी करते हैं हर ईच आर्गेनिक फ़ूड।

आचार्य: एक इंसान का आर्गेनिक फ़ूड एक महीने का कितने का आता है कि तुम नहीं ख़रीद पाओगी।

प्र: सर, पाँच सौ रुपए का।

आचार्य: महीने का।

प्र: सर, हज़ार, मैंने नहीं ख़रीदी सर सब्ज़ियाँ।

आचार्य: यही तो दिक़्क़त है न।

प्र: सर, मैं जब ऑनलाइन ऑर्डर करती हूँ तो आर्गेनिक फ़ूड महँगा आता है।

आचार्य: आता है महँगा। महीने का पाँच-हज़ार, आठ-हज़ार एक आदमी का इससे ज़्यादा का नहीं आएगा। तुम्हारे पास इतने पैसे नहीं होंगे। एक आदमी के खाने के पैसे नहीं होंगे तुम्हारे पास। तुम डरे किस बात से हुए हो वो तो बता दो।

प्र: सर, एक चीज़ की बात नहीं होती है और बहुत चीज़ें भी होती हैं जो करनी होतीं हैं।

आचार्य: और बताओ। और, और, और…। जैसे, जैसे खाने के अलावा और क्या बात है, बोलो।

प्र: जैसे कहीं जा रहे हैं ट्रिप पर जा रहे हैं….।

आचार्य: ठीक है, जोड़ते हैं हम पैसा जोड़ लेंगे, तुम्हारी सारी अनिवार्य आवश्यकता, ठीक है।

प्र: मैंने फर्स्ट टाइम एक सोलो ट्रिप लिया। मेरे को बहुत डर था उस चीज़ का। इसका मुझे बाइक तो भूल जाओ मुझे कार में ही जाना था।

आचार्य: ठीक है। कार में जाएँ।

प्र: दूसरी चीज़ सर होटेल्स जो होते हैं, तुम कोई, कहीं भी नहीं रुक सकते हैं।

आचार्य: अरे! मैं जान गया होटल में, आप पाँच हज़ार वाले होटल में चले जाओ। मैं पूछ रहा हूँ ये सब मिलाकर भी कितना खर्चा बैठ जाएगा, बताओ।

प्र: सर, पचास हज़ार तो महीने का मिनिमम तो चाहिए सबकुछ मिलाकर ।

आचार्य: पचास हज़ार कमाने के लिए अपनेआप को बेचना आवश्यक है। पचास हज़ार इतना बड़ा अमाउंट है।

प्र: सर, मैं अगर सोचती हूँ तो लाख के नीचे होता नहीं है कुछ आज की डेट में।

आचार्य: अरे! अभी पचास बोला, अब कहती हैं, ‘लाख चाहिए।‘

प्र: सर, वो चीज़ मैं वो बोलना चाह रही हूँ कि वो बिलकुल बेसिक (बुनयादी) चीज़ें हैं और वो ….।

आचार्य: बिलकुल बेसिक के ऊपर का क्यों चाहिए तुम्हें। एक सेकंड थमो, बेईमानी हो रही है अभी ये। हमने कहा, ‘पाँच हज़ार का कमरा तब क्या करके बात पचास हज़ार तक पहुँची। अब बोल रही हो बेसिक है तुम्हें कितने हज़ार का कमरा चाहिए?

प्र: सर, सेव भी तो करना है कल के लिए।

आचार्य: कल के लिये सेव करना है, कल कमाना छोड़ दोगी, तुम्हें क्या हो जाएगा कल?

प्र: सर, कल कुछ भी हो सकता है, राइट। एक बेसिक सेविंग तो सब को चाहिए होती है न।

आचार्य: बेटा, सेव हो जाता है उतना। उतना तो तुम्हारी कंपनी पीएफ ही काट लेती होगी। कौन कह रहा उतनी सेविंग नहीं हो रही।

तुम्हारे पास कोई वजह नहीं है तुम वजह ढूँढोगे तो बस कुतर्क ही निकलेंगे। कोई वजह नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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