Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
ऐसे नहीं चलेगा प्रेम || आचार्य प्रशांत, कबीर साहब पर (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
18 min
164 reads

प्रश्नकर्ता: पिछली बार चंडीगढ़ तरफ़ से आया था जी, आपसे जुड़ा था। तब मैं अकेला आया था, बिलकुल हताश, परेशान था। आज मेरी साथ श्रीमती जी भी आई हैं। मेरा प्रश्न यह है जी, जैसे संतों ने कहा है—

प्रेम-गली अति सांकरी, तामे दो न समाहिं। जब मैं था तब हरि नहीं, जब हरि है मैं नहिं।। ~ कबीर साहब

प्रेम तो दो से ही होता है, यह कैसे संभव है?

आचार्य प्रशांत: (मुस्कुराते हुए) तो समाएँगे नहीं न दो।

प्र: प्रेम तो दो से ही किया जाएगा न, सर, दूसरा तो होगा साथ में।

आचार्य: जब तक दूसरा, दूसरा है, तब तक धक्के करते रहो। कंधे से ज़ोर लगाते रहो। दोनों एक साथ तो नहीं घुस पाओगे।

वो एक पिक्चर (चलचित्र) आई थी। क्या नाम था उसका? (सोचते हुए और श्रोताओं से पूछते हुए) कॉमेडी की पिक्चर थी, जिसमें परेश रावल और….। गोलमाल?

श्रोता: हेरा फेरी।

आचार्य: हेरा फेरी, हेरा फेरी। तो हेरा फेरी में एक दृश्य था, तो उसमें बहुत सारे सज्जन — सब पंजाबी ही, चंडीगढ़ की बात है। एक टैक्सी खड़ी हुई है, पुरानी 'प्रीमीयर पद्मीनी', तो उसमें घुसने की कोशिश कर रहे हैं। कैमरा पीछे से शॉट ले रहा है। तो दिखाया जा रहा है, उसके पीछे के दोनों दरवाजे खुले हुए हैं। (मुस्कुराकर किस्सा बताते हुए) तो पहले चार इधर से घुसते हैं, तो एक उधर से बाहर गिरता है। फिर चार उधर से घुसते हैं, फिर एक इधर से बाहर गिरता है।

वहाँ तो चार थे, प्रेम-गली में यही हाल दो का होता है। (मुस्कुराते हुए) वहाँ तो चार थे! चार कैसे समाएँगे, वो भी बिलकुल चौड़े पंजाबी, चार कैसे समाएँगे उसमें? तो घुसते थे, एक इधर से निकलता था। इधर से घुसते थे, एक उधर से निकलता था।

प्रेम-गली वैसी ही है। वहाँ चार नहीं, दो के लिए भी जगह नहीं है। दो अंदर कैसे जा सकते हैं, बोलो फिर? एक हो जाएँ! एक हो जाओ, तो अंदर जा सकते हो। एक नहीं हो सकते, तो अंदर जाने की कोई संभावना नहीं।

जिस प्रेम की बात साहब कर रहे हैं वह प्रेम उससे होता है। (हाथ से ऊपर की ओर इशारा करते हुए) उससे दूरी बनाए रखोगे, तो इस गली में आगे नहीं बढ़ पाओगे, उससे एक हो जाओ तो यात्रा होगी।

और सकरी भी वो वैसी है जैसे कोई कुप्पी होती है। कुप्पी जानते हो, फनल ? वो क्रमशः सकरी होती जाती है। ऐसे, तो यह प्रेम-गली ऐसी है। (हाथों की सहायता से शंकु का आकार दर्शाते हुए) इसमें जितना आगे बढ़ोगे, रास्ता उतना सकरा होता जाएगा।

तो आरंभ तो कर सकते हो तुम द्वि के साथ, द्वैत के साथ। दो बने रहकर शुरुआत कर लोगे। पर जैसे-जैसे आगे बढ़ोगे तकलीफ़ होने लगेगी। आगे बढ़ने का तरीका ही यही है कि दो एक होते चलें। दो एक नहीं होते चलेंगे तो कहीं पर अटक जाएँगे, और एक-दूसरे को कंधा मारेंगे फिर। कभी यह गिरेगा और कभी वो गिरेगा। और मार रहे हैं दोनों एक-दूसरे को कंधा।

और फिर जब देखेंगे कि आगे नहीं जा सकते, तो क्या करेंगे? पीछे को लौट जाएँगे। भई या तो एक हो जाओ और आगे चले जाओ, और अगर अगल-अलग रहने का इतना शौक है तो पीछे लौट जाओ।

और यह जो प्रेम की बात है, यह उनसे की गई है। (हाथ ऊपर की ओर दर्शा कर और ऊपर की ओर देखते हुए) इसका ताल्लुक ज़मीनी, पार्थिव, जिस्मानी प्रेम से नहीं है कि प्रेम तो दूसरे ही से होता है जी।

प्र२: आचार्य जी, प्रणाम। आचार्य जी मेरा प्रश्न यह है कि एक है प्रेम और एक चीज़ है ज्ञान। तो जब से मैं आप से जुड़ी हूँ, तब से — उससे पहले दिमाग बहुत चलाती थी अपना। हर वक्त एकदम कंप्यूटर की तरह दिमाग चलता रहता था। बहुत गहराई में जाती थी हर चीज़ के कि ऐसा क्यों हुआ है? मतलब डॉक्टर ने एक दवाई भी लिखी है, तो उसके बारे में जानना कि क्यों लिखी है।

और जैसे-जैसे आपको सुनती रही, तो ऐसा घटा मेरे जीवन में जिसको आपने अभी बोला कि 'सूक्ष्म तरीके से एक चमत्कार होता है।' तो अपनेआप के मेरे जो बंधन हैं – पति से, बच्चों से और समाज से अपनेआप ही कट रहे हैं; मैं कुछ नहीं कर रही हूँ। अपनेआप ही लोग पीछे हट रहे हैं और मैं जैसे कि आपके ज्ञान के द्वारा आगे बढ़ती चली जा रही हूँ।

और जो मेरा दिमाग है, वो बिलकुल अब शांत होता जा रहा है। कुछ भी बड़े-बड़े वर्डस् या कुछ भी ज्ञान की तरफ तो दिमाग जा ही नहीं रहा है। ऐसा लग रहा है कि जो आचार्य जी कहते हैं बस वही सच है, और इसके अलावा जैसे एक बहाव होता है, वैसे एक चीज़ चल रही है बस, और बह रही है।

तो उसमें जो ज्ञान है, जैसे आप कहते हो कि स्क्रिप्टर्स (शास्त्र) पढ़ो या कुछ भी करो, तो उस तरफ भी अब दिमाग चलना बंद हो गया। अब एक तरह से एक ऐसा तल आ गया जिसमें बस प्रेम-ही-प्रेम बहता है। और उसमें फिर दिमाग नहीं चलता, आचार्य जी। उसमें ऐसा लगता है कि — कोशिश भी मैं करती हूँ, स्क्रिप्टर्स पढ़ने की भी कोशिश कर रही हूँ, जैसे आपने स्वामी विवेकानंद जी को पढ़ने को मुझे बोला था।

तो उन स्क्रिप्टर्स में भी मुझे बस यही लगता है कि जो आचार्य जी कह रहे हैं बस मुझे वही — जबकि आपने मुझे कहा था वो पढ़ने के लिए। मैं उससे कनेक्ट (जुड़) नहीं पाती हूँ, पर जो आप मुझे कहते हो मैं उससे कनेक्ट कर पाती हूँ। जैसे गीता मैं पढ़ती हूँ, मैं नहीं कनेक्ट कर पाती हूँ। मैं जब भी खोलती हूँ, कोशिश भी करती हूँ। और अगर पहले मैं गीता पढ़ती होती, तो शायद मेरा दिमाग चलता उसमें।

पर इस समय ऐसा हो रहा है, आचार्य जी, जो आप कह रहे हैं, जैसे आप चल रहे हैं, बस उसी डायरेक्शन (दिशा) में जब मैं चल रही हूँ, तब अपनेआप ही कुछ ऐसा जीवन में चमत्कार हो रहा है कि अविश्वसनीय चीज़ मेरे जीवन में हो रही हैं। जैसे सबकुछ शांत होता जा रहा है अपनेआप, अपनेआप बंधन सब कटते चले जा रहे हैं।

तो ऐसी स्थिति में — आप ही मुझसे कई बार कहते हो, इतना समय हो गया जुड़े हुए, पर फिर भी, मैं प्रश्न भी ठीक से नहीं रख पा रही हूँ। मैं किसी भी चीज़ को समझना भी ज़्यादा नहीं चाह रही हूँ।

तो मैंने अनुश्री मेम से भी यही प्रश्न पूछा था कि प्रेम और ज्ञान दोनों में से बड़ा कौन होता है, और दोनों में से क्या चीज़ है जो पहले छूटती है, और क्या चीज़ है जो रह जाती है?

आचार्य: ज्ञान आ जाता है, अपनेआप आ जाता है। आपको अगर वास्तव में प्रेम हैं, तो बताने वालों ने कहा है कि वास्तविक प्रेम होता ही उसी एक से है, (आँखों द्वारा ऊपर की और इशारा करके बताते हुए) आकाश स्वरूप से। और जो आकाश स्वरूप है, वही बोध स्वरूप भी है, दोनों एक हैं। तो ऐसा हो नहीं सकता कि प्रेम हो और ज्ञान न आए।

रमण महर्षि ने बिलकुल साफ़ रख दिया था, 'भक्ति ज्ञान की माता है।' प्रेम आया नहीं कि ज्ञान आ जाएगा। प्रेम आया नहीं कि ज्ञान आ जाएगा। बस यह मत कर लीजिएगा कि ज्ञानरहित प्रेम के उपासक बन गए। वो गड़बड़ हो जाता है। वो मोह बन जाता है। जिस प्रेम में बोध नहीं है, जिस प्रेम में विवेक नहीं है, वो फिर प्रेम नहीं है, वो मोह है। किसी तरह की आसक्ति है, आकर्षण है।

जहाँ प्रेम आया, वहाँ समझदारी अपनेआप आएगी। वास्तविक प्रेम की बात कर रहा हूँ! वो सब प्रेम नहीं कि कोई अच्छा लगने लग गया, कि कोई आदमी, कोई औरत, कोई बच्चा, कोई चीज़ अच्छी लगने लग गई, मैं उस प्रेम की बात नहीं कर रहा हूँ। सच्चाई के प्रति अगर जीवन में वास्तव में प्रेम आएगा, तो समझदारी पीछे-पीछे अपनेआप आ जाएगी। आनी-ही-आनी है।

बल्कि प्रेम की शुद्धता, प्रेम की गुणवत्ता का निर्णय आप इसी बात से कर सकते हैं कि प्रेम के साथ-साथ समझदारी आ रही है या नहीं आ रही है। सब समझ आएँगे! विवेकानंद भी समझ आएँगे, श्रीकृष्ण भी समझ आएँगे, ठीक है?

बस, कोई निर्णय मत कर लीजिएगा, धीरज मत छोड़ दीजिएगा कि इनको तो मुझे समझना ही नहीं है, इनको तो मुझे पढ़ना ही नहीं। वो सब अपनेआप खुलने लगेंगे।

प्र३: प्रणाम, जब अहंकार को समझ आ गया है कि ऊँचे से प्रेम करना है, तो फिर क्यों बारी-बारी नीचे गिर जाता है?

आचार्य: नहीं समझ आया।

प्र३: नहीं आया?

आचार्य: (ना में सिर हिलाते हुए) समझ का तात्कालिक परिणाम होता है जीवन। कुछ समझ आया है कि नहीं आया है, यह अपनी ज़िंदगी को देखकर समझो। कुछ समझ आया होगा तो ज़िंदगी बहुत तेज़ी से बदलेगी। अगर सब करम पुराने जैसे ही हैं, तो समझ क्या आया है फिर? समझ, कोई सिद्धांत, कोई वक्तव्य, कोई स्मृति में रखने वाली चीज़ थोड़ी होती है। समझ तो नसों में दौड़ने वाला खून होता है। वो पूरी देह का पोषण करता है, है न?

समझ ऐसा थोड़ी है कि कोई चीज़ है, तुमने जेब में रख ली, कि समझ आ गई है, जेब में रख ली। हम वैसे ही हैं जैसे थे, बस चीज़ एक अतिरिक्त अब जेब में डाल ली। जिसको समझ में आई बात, उसका व्यक्तित्व ही दूसरा हो जाता है। उसके कर्म बदल जाते हैं।

तो समझ में कुछ भी उसी को आ सकता है जो अपना जीवन और अपना कर्म बदलने को तैयार हो। और समझ जितनी गहरी होगी जीवन में बदलाव भी उतना गहरा आएगा। जीवन में गहरा बदलाव नहीं आ रहा माने कुछ समझ नहीं आ रहा। सिद्धांत भर कुछ शायद इधर-उधर से इकट्ठा कर लिए।

जीवन को बदलने दो! वही समझ की कसौटी है और उसी से समझ को ईंधन मिलता है। जितना बदलोगे, समझना उतना आसान हो जाएगा। जितना समझोगे, उतना बदलोगे! और बदलोगे समझना और आसान हो जाएगा। ऐसे चक्र चलता है।

प्र३: पिछले छब्बीस-सत्ताईस साल तक जो अपनेआप को पर्सनालिटी (व्यक्तित्क) मानता था, उसको अब दिखा कि अब वो नहीं है। इज़ नॉट दिस पर्सन (यह वह व्यक्ति नहीं है), बोध है वो।

आचार्य: दिख गया?

प्र३: फिर भी वापस गिर जाते हैं।

आचार्य: दिख गया?

प्र३: यही सवाल है न।

आचार्य: दिख गया, मैं पर्सन नहीं हूँ, मैं तो बोध हूँ? (मुस्कुराते हुए) दिख नहीं गया है, सुन लिया है। बोध नहीं है, सूचना है, इंफॉर्मेशन।

प्र३: लेकिन सूचना भी तो कोई ग्रहण करता है।

आचार्य: हाँ, तो जो भी करो उस सूचना का, सूचना-तो-सूचना है न? उसका परसेप्शन (अनुभूति) करो, उसका डिसेक्शन (विच्छेदन) करो। तुम्हें उस सूचना के साथ जो काट-छाँट, विश्लेषण करना है, करते रहो, लेकिन सूचना तो सूचना है।

सेब सामने रख दिया मेज़ पर, उसकी बड़ी फाँक काटो, उसकी छोटी फाँक काटो, उसका छिलका उतार दो, उसका रस निकाल लो; उसका तुम जो कुछ भी कर दो, कहाँ कर रहे हो? बाहर-बाहर ही कर रहे हो। तुम्हें क्या मिला? सेब के भीतर चले जाना बिलकुल दूसरी बात होती है। और बाहर-बाहर तुम उस सूचना के साथ जो भी करो, वो तो सिर्फ़ सूचना है।

तुम्हारे हाथ में सेब आता है, तुम कभी उसका शेक बनाते हो, कभी रस निकालते हो, कभी कुछ करते हो, कभी कुछ करते हो। भीतर थोड़ी कुछ जा रहा है। भीतर अगर जाएगा, जीवन बदल जाएगा। जीवन नहीं बदल रहा, माने चीज़ भीतर जा ही नहीं रही है। और चीज़ें हैं जो भीतर जा रही है, तुम्हें उनका चस्का लगा हुआ है। और जब तक वो और चीज़ें ही तुम्हारा पेट भरती रहेंगी, तब तक सेब भीतर क्यों जाएगा? वो दूसरी चीज़ें छोड़ो पहले, तो सेब अंदर जाए।

प्र३: लेकिन प्रभु तो अकर्ता है, वो थोड़ी न अंदर जाएगा।

आचार्य: अरे बेटा, वो अकर्ता है, तुम अकर्ता थोड़ी हो। आत्मा अकर्ता है, जीव अकर्ता तो थोड़े ही है। जीव तो जीवन भर कर्म करेगा।

प्र३: कर्म तो वहीं से निकलेंगे न जो पहले वो करता आया है?

आचार्य: हाँ, पहले जैसे ही निकल रहे हैं, तो फिर पहले जैसे ही रहोगे! बोध कहाँ से आ गया?

प्र३: नहीं, थोड़ा चेंज होगा, धीरे-धीरे स्लोडाउन (रुकना) होता जाएगा।

आचार्य: वो तुम पर है, तुम्हें कितना धीरे-धीरे रखना है। मौत भी धीरे-ही-धीरे आएगी शायद, तुम्हारी गति से संतुलन बनाने के लिए कि ये भाई बहुत धीरे-धीरे बोध की ओर बढ़ रहे हैं, तो मैं भी धीरे-ही-धीरे आऊँगी, दो-चार सौ साल में।

प्र३: कर्म जैसे आप कह रहे हो, मैं उसको पूरा फॉलो कर रहा हूँ। मैं भी क्या करूँ? मतलब ऐसा मुझे लग नहीं रहा कि कोई मेरा बुरा कर्म हो रहा मुझसे।

आचार्य: अपनी नज़र में कौन बुरा होता है, बेटा!

प्र३: नहीं, जो आपने कहा, 'यह दूध छोड़ दो, विगन बन जाओ।' मतलब जिम-विम भी जाता….।

(आचार्य जी बीच में टोकते हुए)

आचार्य: इनसे कुछ नहीं होगा! हम तो जो साधारण खाना भी खाते हैं, उसमें भी आग और राख है और मरते हुए जानवरों की चीखें हैं। दूध भर छोड़ने से बहुत दूर तक नहीं चले जाओगे। वो तो पहली ही चीज़ होती है।

यह जो साधारण रोटी भी खाते हो, यह जो साधारण खेती होती है, इसमें भी गहन हिंसा है। बहुत लोग सोचते हैं, माँस खाना छोड़ दिया तो हमने हिंसा छोड़ दी। यह जो खेती हो रही है, यह खेती के लिए जगह कहाँ से आई है? कहाँ से आई है? जंगल ही तो काट कर आई है।

यह जो अमेज़न जल रहा है, वो इसीलिए तो जल रहा है कि वहाँ खेती हो सके, और तुम रोटी खा सको। तो माँस खाना छोड़ने भर से थोड़ी हो जाएगा। जब तक ये आठ सौ करोड़ों लोग हैं—तब तक मैं कह रहा हूँ—इनकी रोटी में भी अमेज़न की राख मिली हुई है।

सब्ज़ी, दाल भी लेते हो न, तो वो जो आवाज़ आती है सब्ज़ी और दाल की, वो समझ लो जो प्राणी वहाँ जल-जल के मरे होंगे जंगल की आग में, वो उनकी आवाज़ है। हिरण दौड़ रहा है आधा जला हुआ, क्यों? ताकि तुम्हें रोटी दी जा सके। तो इतना-सा करने से थोड़ी हो जाएगा कि आचार्य ने बोला, 'दूध छोड़ दो।' दूध छोड़ दिया, तो हमें बोध हो जाएगा। पूरा जीवन बदलना होता है, बेटा।

और जिस हद तक तुम्हारे कर्म बदले हैं, उस हद तक तुम्हारा अंधेरा भी मिट ही रहा होगा। जिस हद तक तुम्हारे कर्म और तुम्हारा जीवन बदले हैं, उस हद तक तुम्हारी ज़िंदगी में प्रकाश भी उतर रहा होगा।

प्र३: अभी तो हर चीज़ में हिंसा है।

आचार्य: बिलकुल हर चीज़ में हिंसा है, तो तुम बकरा ही काट कर खाओ।

प्र३: नहीं, फिर तो मैं अपनेआप को ही खत्म कर दूँ, ख़त्म?

आचार्य: नहीं, इतनी बुराई भी क्या है, भाई? देखो कैसे मुस्कुरा रहे हो। बढ़िया चुटकुला था। 'फिर तो मैं अपनेआप को ही ख़त्म कर दूँ'।

देहभाव सघन है बहुत ज़्यादा! इसीलिए यह इतनी मुस्कुराहट आ गई और यह बात चुटकुले जैसी लगी। चुटकुले का मतलब समझते हो? जो चीज़ हो नहीं सकती, उसका ज़िक्र करो तो चुटकुले जैसी लगती है न? कि हाथी और चींटी की शादी हो गई। हम ये बोलेंगे, फिर कहेंगे, चुटकुला है और हँसेंगे।

तो चुटकुले में मूल बात क्या होती है? उसमें कुछ ऐसा बताया जाता है जो असंगत है, जो हो ही नहीं सकता, तो हँसी आ जाती है। वैसे ही जैसे ही इन्होंने बोला, 'तो फिर तो मैं तो अपनेआप को ही खत्म कर दूँ' — चुटकुले की तरह हँस पड़े। इसका मतलब कह रहे हैं कि यह तो मैं कर ही नहीं सकता कि अपनेआप को खत्म कर दूँ। जैसे हाथी और चींटी की शादी नहीं हो सकती, वैसे ही यह नहीं हो सकता कि मैं खत्म हो जाऊँ।

जिसको अपनी समाप्ति को ले करके इतनी आश्वस्ति है, उसको कौनसा बोध! बेटा, बात दूध छोड़ने, न छोड़ने की नहीं है, जो ज़िंदगी तुम जी रहे हो उसके आधार क्या हैं? उनको छोड़ने की बात हो रही है। क्या काम करते हो दिनभर? रुपया कहाँ से लाते हो? पैसा कहाँ से लाते हो? किसकी संगत में रहते हो? असली चीज़ छुपाए बैठे हो! बात ही नहीं कर रहे! दूध की बात कर रहे हो।

प्र३: जी, काम मैं बिलकुल ईमानदारी से करता हूँ। मतलब एडवोकेट होने के नाते लगता है जो पे (भुगतान) कर सकता है उसी से लेता हूँ। नहीं करता है तो फ्री में भी करता हूँ। नाइंटी परसेंट (नब्बे प्रतिशत) केस तो मेरे फ्री वाले ही हैं।

आचार्य: हाँ, नाइंटी वाले फ्री वाले हैं। और जो खर्चा तुम्हारा चलता है वो कहाँ से चलता है?

प्र: खर्चा मिनिमम (कम-से-कम) है मेरा।

आचार्य: नहीं, और कहाँ से चलता है? ऐसा तो नहीं है कि मिनिमम है तो बिलकुल चल रहा है। जानता हूँ मैं, कहाँ से चलता है।

प्र३: बताओ?

आचार्य: तुम ही बता चुके हो, बेटा! तुम्हारी बात क्या यहाँ छुपी हुई है संस्था में किसी से? जब तक खर्चा वहाँ से चल रहा है, जहाँ से चल रहा है—और खर्चे में यही नहीं होता कि रुपया-पैसा ले लिया। एक आम आदमी के लिए तो बहुत बड़ा खर्चा घर का भाड़ा होता है। घर का भाड़ा दे रहे हो?

प्र३: जो इन्हेरीटेड (वंशानुगत) है उसका?

आचार्य: इन्हेरीटेड का क्या होता है, बेटा? यही सबसे बड़ा करम है जो लिए बैठे हो। जो चीज़ें तुम्हें ज़िंदगी में नहीं बदलनी क्योंकि उनसे तुम्हें बहुत सुख-सुविधाएँ मिल रहीं हैं। जब तक वो चीज़ें नहीं बदलेंगी, यह बोध वगैरा की बातें हैं कि बोध हो गया है, उनको हटाओ! और वो तुम बदलोगे नहीं क्योंकि उनसे तुम्हारी सुविधाएँ जुड़ी हुई हैं। उनसे तुम्हारा आराम जुड़ा हुआ है।

नहीं तो कौन ऐसा होगा पच्चीस-तीस साल का नया-नया वकील जो कहे कि मैं तो नब्बे प्रतिशत काम मुफ़्त में करता हूँ? नब्बे प्रतिशत काम तुम मुफ़्त में कर ही इसीलिए पा रहे हो। यह जितनी तुम आध्यात्मिक यात्राएँ कर रहे हो, यह है ही इसीलिए क्योंकि पीछे इन्हेरीटेड मामला बैठा हुआ है। अभी वो ख़त्म हो जाए, तुम्हारा अध्यात्म तत्काल खत्म हो जाएगा।

पीछे से तुमको जो सब विरासत में मिल रहा है लगातार, मुफ़्त में, वो रुक जाए तो अध्यात्म ख़त्म हो जाएगा। फिर साधना हो कहाँ रही है, बेटा? साधना में तो कुर्बानी देनी पड़ती है। कुर्बानी दे कहाँ रहे हो? बिना कुर्बानी के कौनसा बोध मिल जाएगा तुमको? यह बात मैंने तुमको पिछली बार भी समझाई थी जब तुमने घंटे भर मुझसे अलग से चर्चा करी थी।

प्र३: वो घर तो बस यूटिलिटी (उपयोगिता) के पर्पज़ (उद्देश्य) के लिए है। बस रह रहे हैं! मैं तो उनके लिए…।

आचार्य: बस-बस! यूटिलिटी है, और क्या? वो यूटिलिटी मतलब छोटी सी ही चीज़ है न। तो वो छोटी सी चीज़ है। जैसे वो छोटी सी चीज़ है वैसे ही वो छोटी सी चीज़ छोड़ भी दो।

प्र३: छोड़ देते हैं।

आचार्य: छोड़ देते नहीं, बेटा! जब छोड़ देना तब आगे का शब्द बोलना। आटे-दाल का भाव पता चलेगा, ज़रा धूप खाओ, ज़रा सड़कों की धूल झेलो, तब फिर बताओ कि अध्यात्म अभी बचा हुआ है। उसके बाद भी अगर बचा रह जाए अध्यात्म, तो कुछ दम है तुम्हारी साधना में। विरासत के पैसों पर बैठकर के साधना नहीं करी जाती। तपश्चर्या करनी होती है। अपने दम पर गलाना होता है।

सारी साधना ही है अतीत को त्यागने की। है न? कि पीछे मेरे जो है, उसको त्याग दूँ, यही साधना है। और जो पीछे की विरासत पर बैठकर ही साधना कर रहा हो, उसकी कौनसी साधना?

अब बस अगला शब्द कब बोलना है, बता दिया। बहुत हल्का समझ रहे हो तुम पूरी चीज़ को। इधर-उधर घूम गए, यहाँ बैठ आए, यहाँ सुन लिया, तो काम हो जाएगा। ऐसा नहीं होता! खून-पसीना एक करना होता है, तब होता है। चलो।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles