ऐसे नहीं प्रसन्न होंगी देवी

Acharya Prashant

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ऐसे नहीं प्रसन्न होंगी देवी
दुर्गासप्तशती का केंद्रीय संदेश यही है — प्रकृति को भोगोगे, प्रकृति को कंज़म्पशन की चीज़ मानोगे तो देवी तुम्हारा वही हाल करेंगी जो चंड-मुंड, मधु-कैटभ और शुंभ-निशुंभ का किया था। महिषासुर कौन है? जो प्रकृति को कंज्यूम करने निकलता है। जो कहता है, मैं मौज करूँगा प्रकृति को भोगकर। वही महिषासुर है। देवी का त्योहार इसलिए थोड़े ही आता है कि हम खुद ही महिषासुर बन जाएँ। आपसे निवेदन करता हूँ आपकी मौज किसी की मौत न बने। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते! आचार्य जी, आजकल नवरात्रों के दिन चल रहे हैं और देवी की पूजा हर दिन की जा रही है। अभी रिसेंटली मैंने पश्चिम बंगाल की खबर में ये पढ़ा कि वहाँ पर सेलिब्रेशन के लिए जो वहाँ के कैदी हैं उनके खाने में कुछ बदलाव किया गया है और चिकन-बिरयानी और मटन-बिरयानी को सर्व किया जा रहा है। तो मैं ये चीज़ समझ नहीं पा रही हूँ कि ये निर्दोष जानवरों की हत्या में क्या संबंध है। हम सेलिब्रेट कैसे कर सकते हैं जानवरों की हत्या करना।

आचार्य प्रशांत: हम हमेशा एक ही चीज़ सेलिब्रेट करते हैं व्यावहारिक तौर पर, आदर्श वगैरह छोड़ो, जो ज़मीनी सच्चाई है वो ये है कि हम जैसे हैं हम अपने वैसे ही होने को बड़ी भारी, बड़ी अच्छी, बड़ी सुंदर चीज़ मानकर सेलिब्रेट करते रहते हैं। त्योहार आता इसलिए है कि आप वैसे न रहो कम-से-कम कुछ दिन जैसे आप रहते हो, कुछ बेहतर हो जाओ, कुछ ऊँचे उठ पाओ। पर हम बड़े धुरंधर लोग हैं, हमारे लिए त्योहार का मतलब होता है मैं जैसा हूँ वैसा रहे-रहे ही मौज मार लूँगा, बल्कि मैं जैसा हूँ क्योंकि अब मौज मारने का लाइसेंस मिल गया है तो अपने ही और गिरे हुए चेहरों को अभिव्यक्त कर दूँगा।

कोई मैंने जटिल बात नहीं बोल दी। साधारण मतलब ये है कि साधारण दिनों में तो फिर भी हो सकता है कि हम थोड़े तमीज़ के लोग होते हों लेकिन जब त्योहार के दिन आ जाते हैं तो हम अपनी रही-सही तमीज़ भी गायब कर देते हैं। हमें अनुमति मिल गई है धार्मिक; हमारे अनुसार हमें धार्मिक अनुमति मिल गई है, मौज मारने की।

तो आप दुनिया भर में देखिए सबसे ज़्यादा प्रदूषण कब हो रहा होगा? त्योहारों के दिनों में, हफ़्तों में। अभी पच्चीस दिसंबर से लेकर एक जनवरी तक का जो समय आएगा वो दुनियाभर में प्रदूषण के लिए और क्लाइमेट के लिए सबसे घातक समय होता है। जितनी एयर ट्रेवल उस समय होती है कभी नहीं होती, जितना कंज़म्पशन उस समय होता कभी नहीं होता, मार्केट में जितनी डील्स तब होती हैं कभी नहीं होतीं और टूरिज़म में जितनी गंदगी उस समय फैलती है कभी नहीं फैलती क्योंकि हमारे देखे दो-दो काम हो रहे हैं क्रिस्मस तो है ही धार्मिक और न्यू ईयर भी एक तरह से धार्मिक ही बात हो गई भाई, धार्मिक नहीं तो कम-से-कम सांस्कृतिक।

बकरीद पर जितने बकरे कटते हैं वो आम दिनों की अपेक्षा कई गुना कटते हैं। एक आम दिन दुनिया में बकरे-भेड़ ये सब… भारत में बकरों का ज़्यादा है और जगहों पर और जानवर भी काटे जाते हैं तो वो दिन ऐसा होता है जिस दिन एक स्पाइक आ जाती है कि इतने तो रोज़ कट ही रहे थे आज….। किसी भी तरह का प्रदूषण हो, किसी भी तरह की असभ्यता हो, वो हमारे त्योहारों पर ही सबसे ज़्यादा बढ़ जाती है। ये करा है हमने धर्म के साथ।

धर्म का जो उद्देश्य है वास्तविक उसको हमने बिल्कुल उलट करके रख दिया है, इन्वर्स, फ्लिप। किसी भी धार्मिक त्योहार पर प्रकृति को, पशु को, जीव को क्षति पहुँचाना धर्म के बिल्कुल विरुद्ध है और देवी के महोत्सव पर तो ऐसा करना महोत्सव के प्राण खींच लेने जैसी बात है।

जो पूरा शाक्त मार्ग ही है; देवी का जो मार्ग है उसका जो केंद्रीय ग्रंथ है उसका आप नाम जानते हैं, ठीक है न। हम बहुत बार उसकी चर्चा कर चुके हैं, क्या है? “दुर्गासप्तशती या दुर्गामहात्मय्” कई नामों से जाना जाता है सप्तशती ज़्यादा प्रचलित नाम है और सप्तशती पर मैंने इतनी बार बोला है, आप लोगों को इतनी बार समझाया है एक-एक श्लोक की विस्तृत व्याख्या करी है। वो पूरा ग्रंथ ही ये आपको बताने के लिए है कि देवी वास्तव में प्रकृति ही हैं। जिन राजा के वैराग्य और दुख से कथा शुरू होती है दुर्गासप्तशती में, वो राजा जब जा रहे हैं मेधा मुनि के आश्रम में, तो वहाँ पर क्या देख रहे हैं? शुरुआत ही कैसे होती है? राजा आकर्षित कैसे होते हैं? वो तो जंगल आए थे कि जंगल में हम अपने प्राण त्याग देंगे।

कहानी ऐसी है कि राजा बड़े अच्छे आदमी थे; मोटे तौर पर बता रहा हूँ, लेकिन उन्हीं के भाई-बिरादरों ने, मंत्रियों ने, रानियों ने, सबने मिलकर के युद्ध में उनकी हार करवा दी, दूसरे इधर-उधर के राजाओं से मिलकर के युद्ध में इनको हरवा दिया और ये अब बड़े अच्छे आदमी थे, प्रजा के लिए काम वगैरह करते थे।

तो इनके भीतर बड़ी ग्लानि उठी, बड़ा क्षोभ कि मैं अच्छा आदमी था सबके लिए ठीक किया फिर मेरे साथ ये क्यों हुआ और ये अब जंगल आ गए, बोले, ‘जान ही दे दूँगा।‘

और दूसरी ओर एक और भी सज्जन थे। उनका बड़ा व्यापार था, उनके साथ भी लगभग यही हुआ था। उनका व्यापार डूब गया, उनके घरवालों ने, बच्चों ने, भाई-बिरादरों ने, उनकी पत्नी ने, सबने मिलकर उनको भगा दिया, ‘निकलो यहाँ से किसी काम के नहीं।‘ वो भी जंगल आए थे कि और जंगल में आकर के भी वो कह रहे थे कि पता नहीं ये जो मेरे बच्चे हैं ये सकुशल होंगे कि नहीं! कहीं मेरा व्यापार ये ठीक से संभाल पा रहे होंगे कि नहीं! लालच के नाते नहीं, मोह के नाते और राजा में भी वही मोह कि जिनसे मैंने इतना अच्छा रखा वो लोग तो अच्छे थे न उन्होंने मेरे साथ बुरा क्यों किया!

तो ये दो लोग हैं अब ये जा रहे हैं मुनि के आश्रम में। जिन देवी के नाम पर हम इतनी हत्याएँ करते हैं; विशेषकर बंगाल में, जीव हत्या, तो ये उन देवी की कथा है। तो जा रहे हैं वहाँ मेधा मुनि के आश्रम में वहाँ क्या देख रहे हैं? कि वहाँ पर खरगोश बैठा हुआ और हिरन बैठा हुआ है और बतख बैठी हुई है और उसके एक तरफ़ बाघ बैठा है बीच में भेड़िया बैठा हुआ है और कोई कुछ बोल नहीं रहा और मुनि सबको ज्ञान दे रहे हैं, कहानी सुना रहे हैं और सब ऐसे-ऐसे बैठकर अपना सुन रहे हैं। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ बोले, ‘ये कैसे यहाँ पर,’ तो मुनि ने पूछा कि क्या है? क्या बात है?

तो उन्होंने अपनी दोनों ने व्यथा सुनाई तो मुनि बोले कि तुम्हें समस्या ये है कि तुम्हारी बुद्धि भी है इन पशुओं जैसी ही। तुम्हारी बुद्धि भी है इन्हीं पशुओं जैसी और यहाँ जगत में जितने लोग हैं सब पैदा तो पशु बुद्धि लेकर ही होते हैं वही पशु बुद्धि तुम में भी बैठी हुई है। तो बोले, ‘हमें बताइए फिर ये जगत क्या है, प्रकृति क्या है।‘ तो बोले, ‘हम बताते हैं कथा के माध्यम से बताएँगे होशियार हो ध्यान दोगे तो समझ लेना।‘ फिर वो कहानी बताते हैं पूरी।

कि विष्णु सोए हुए थे उनके कान के मैल से दो राक्षस पैदा हो गए तो फिर एक के बाद एक करके उसमें राक्षस आते हैं, मधु-कैटभ आते हैं, चंड-मुंड आते हैं, महिषासुर आता है। तो ये सब अपना….

समझ में आ रही बात, ये चल रही है।

बार-बार ये इंगित किया जाता है कि देवी प्रकृति ही हैं और ये जितने राक्षस हैं ये वो लोग हैं जो प्रकृति को भोगना चाहते हैं। तो देवी माने वो जो उनका संघार करती हैं जो प्रकृति के साथ हिंसा करते हैं और हम देवी के भक्त बनते हैं और देवी के ही दिनों में प्रकृति के साथ हिंसा करते हैं। शिव और शक्ति का संबंध तो समझते हैं न।

शिव और शक्ति का संबंध समझते हैं न! दोनों को साथ दिखाया जाता है पति-पत्नी के रूप में। ठीक। यही है न? और शिव पशुपति भी कहलाते हैं। पशुपति इस अर्थ में कि पशुओं के स्वामी। जो पशुओं के स्वामी हैं वही देवी के पति हैं, पति साधारण अर्थ में नहीं, दूल्हा-दुल्हन नहीं, हालांकि शिव पार्वती की कथा में दूल्हा-दुल्हन भी हैं। तो आप पशुओं को मारेंगे तो शक्ति को या शिव को ये बात सुहाएगी क्या और वो भी उन्हीं के दिनों में और इन दिनों में तो जलवा बिखरता है। जो आम आदमी कम मछली खाता होगा, वो ज़्यादा खाएगा जो कम बकरा खाता होगा वो ज़्यादा खाएगा दनदना के बलि दी जाती है।

इतनी बलि, इतनी बली कि कोई हद नहीं और जो बलि नहीं भी दे रहे हैं उनको बकरा तो ज़रूर चाहिए; विशेषकर बंगाल में और ये इसीलिए आप जो सवाल पूछ रही हैं, जो घटना बता रही हैं ये बंगाल की है कि वहाँ कैदी लोग भी हैं कह रहे हैं, ‘ये तो खास दिन हैं तो नवरात्र में कैदियों को सबको चिकन और मटन दिया जाए।‘

ये खुशी मनाने का तरीका है कि किसी की गर्दन काट दो उससे खुशी मनाई जाएगी। चलो अब मेरे सिद्धांत की बात नहीं है, मुझसे मत लड़ो। वो कहने लग जाते हैं कि देखो आप तो उत्तर भारत के वैष्णव हो न इसलिए आप शाकाहार-शाकाहार बोलते हो।

मैं उत्तर भारत का वैष्णव होने के नाते नहीं बोल रहा हूँ और मैं आपसे पूर्वी भारत, बंगाल के शाक्त से नहीं बात कर रहा हूँ। मैं भी उन्हीं देवी की दिशा से आ रहा हूँ जिन देवी की आराधना आप करते हैं। मैं दुर्गासप्तशती को आधार बनाकर आपसे बात कर रहा हूँ। दुर्गा को आप पूजते हैं न! तो मैं दुर्गा के ग्रंथ की बात कर रहा हूँ। ये आप क्या कर रहे हो?

साधारण दिनों में जितने माँस की खपत होती है उससे कई गुना ज़्यादा माँस आप इन दिनों में खा रहे हो। और खाने का मतलब; खाने में नहीं बुराई है कि आप अशुद्ध हो जाओगे। एक बार तो वो मर गया तो अब खाओ कि फेंको वो तो गया ही जान से। आपके खाने के लिए ही तो कत्ल किया जाता है। आप ही के हाथ खून में रंगे हुए हैं।

शुंभ-निशुंभ, चंड-मुंड ये सब जब साफ़ हो जाते हैं तो अंत में मालूम है क्या होता है? कितनी गजब बात है मैं जितनी बार सोचता हूँ, लोमहर्षक बात है बिल्कुल, रोमांच हो जाए सोचकर। क्या नतीजा होता है जब देवी सब असुरों का सफाया कर देती हैं? बोलते हैं, ‘जितनी प्रकृति में गड़बड़ थी वो ठीक हो गई। नदियाँ संकुचित हो गईं थीं, अपने रास्ते से विचलित हो रही थीं, नदियाँ वापस मार्ग पर आ गईं और पूरी धार के साथ बहने लग गईं, स्वच्छ हो गया उनका जल। आसमान पर धूल के बादल छाए हुए थे वो हट गए, सूर्य की प्रभा अपने ओज के साथ बिखरने लगी, अंधड़ -तूफ़ान आते थे, अंधड़-तूफान आने रुक गए।

माने जो लोग प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहे थे उनका नाश करना ही देवी का काम है और ये सारे राक्षस क्या कर रहे थे? देवी किसकी प्रतिनिधि हैं? प्रकृति की। ये सारे राक्षस एक ही काम करते थे, ये देवी के पास प्रस्ताव भेजते थे भोग का। जो तीसरा उसमें चरण है वो सबसे विस्तृत है उसमें वही तो है, देवी वहाँ पर्वत पर बैठी हुई हैं और एक के बाद एक उनके न्योते भेजे जा रहे हैं कि आओ हमारी रानी बनो हम विश्व-विजेता हैं। सारे देवताओं को हरा दिया है और सारे जो अमूल्य रत्न हैं वो हमारे पास हैं और तुम भी तो एक अनुपम सुंदरी हो, तुम्हें हमारे पास होना चाहिए।

और देवी कहती हैं, ‘मैंने तो तय करा है कि जो मुझे आकर जीत लेगा मैं उसकी पत्नी बन जाऊँगी। कह दो जाकर अपने मालिकों से कि आकर मुझे जीत लें।‘ और मालिक आते हैं जीतने के लिए और दे थप्पड़, दे थप्पड़। माने जो भोग करने आएगा वो बहुत थप्पड़ खाएगा देवी से। जो भोग करने आएगा वो बहुत थप्पड़ खाएगा।

एक बिंदु पर एक असुर देवी को ताना मारता है, बोलता है क्योंकि वहाँ पर क्या होता है कि जो विवरण ऐसा है कि सहस्त्रों देवियाँ प्रकट हो जाती हैं, अलग-अलग रूप-रंग में। देवी की सहायता करने के लिए न जाने कितनी देवियाँ वहाँ इकट्ठी प्रकट हो जाती है कोई कहीं से कोई कहीं से, कोई किसी से उठती हैं, कोई किसी देवता से आती है, कोई किन्हीं के शरीर से निकल आती हैं और वो सब प्रकट हो जाती है और राक्षसों को दनादन-दनादन पीट रही हैं, मार रही हैं।

तो वो जो असुर है ताना मारता है, वो बोलता है, ‘इतनी सारी ले आकर के क्या तुम बहुत वीरांगना बन रही हो, दम है तो अकेले लड़ो।‘ तो देवी मुस्कुराकर बोलती हैं, ‘तू पागल मैं अकेली ही तो हूँ।‘ कितना ज़बरदस्त और गहरा वक्तव्य है ये — मैं अकेली ही तो हूँ, ये पूरा ब्रह्माण्ड मैं ही तो हूँ। और जितनी वहाँ पर देवियाँ होती हैं वो सब आकर के उनके शरीर में समा जाती हैं, बोलती हैं, ‘ले देख मैं अकेली ही तो हूँ ये सब मेरे ही रूप हैं।‘

माने जितने रूप है ब्रह्माण्ड में वो सब देवी के ही रूप हैं तभी तो नवदुर्गा, नौ का जो आंकड़ा है वो आपको यही बताने के लिए है कि जहाँ, जहाँ, जहाँ, जहाँ प्रकृति में जो कुछ है, जितनी विविधताएँ हैं उन सबको देवी ही मानना। उनको अगर देवी ही मानना है तो उनका गला काटकर के खा कैसे सकते हो?

पर हम अपनी संस्कृति को धर्म से ऊपर रखते हैं। हमारे देखे संस्कृति पहले आती है और धर्म को हम रूपांतरित करेंगे संस्कृति में फिट होने के लिए। हमारा ऐसा कल्चर है तो कल्चर के हिसाब से हमारा रिलीजन चलेगा और जबकि बात बिल्कुल उल्टी होनी चाहिए।

धर्म के आधार पर संस्कृति को बदलना चाहिए। वास्तविक धार्मिकता तय करेगी कि संस्कृति का साफ़-शुद्ध रूप क्या होगा, पर नहीं। क्योंकि संस्कृति हमारी आदत की बात होती है संस्कृति हमारे व्यवहार की, बिहेवियर की, परंपरा, ट्रेडीशन की बात होती है तो हम संस्कृति से चिपके रहते हैं क्योंकि हमें उसकी आदत लग गई होती है, हैबिचुएटेड होते हैं। और फिर हम धर्म को तोड़-मरोड़ देते हैं ताकि वो जाकर के संस्कृति के खाँचे में किसी तरह फिट हो जाए।

हमने अपनी आदतों को धर्म का नाम दे दिया है। तो ठीक उस समय जब उत्तर भारत में शाकाहारी थाली चलती है और कहते हैं, ‘नहीं, नहीं, अभी तो नवरात्रि स्पेशल थाली है,’ ठीक उसी समय बंगाल में मारा घाट चलती है। मैं ये नहीं कह रहा उत्तर भारत श्रेष्ठ हो गया पूरब से। इससे ये ही पता चलता है कि दोनों जगह बस आदतों के गुलाम हैं लोग।

ये शाकाहारी हैं तो कहते हैं, ‘अभी नवरात्र हैं तो मुझे और शाकाहार करना है।‘ वो माँसाहारी हैं तो कहते हैं, ‘अभी नवरात्र हैं तो मुझे और माँसाहार करना है।‘ दोनों में से कोई भी दूसरे से श्रेष्ठ नहीं है। दोनों बस अपनी आदतों, परंपरा, व्यवहार, संस्कृति के गुलाम हैं और धर्म को वो संस्कृति का अनुगामी बना रहे हैं। धर्म पीछे-पीछे चलेगा।

हमारे लिए कल्चर बहुत बड़ी बात है। बार-बार कल्चर, कल्चर, कल्चर करेंगे। कल्चर क्या है? तुम्हारी आदत का नाम कल्चर होता है भाई! बदलो अपने कल्चर को जैसे आदतें बदली जाती हैं। एंड सिंस मोस्ट ऑफ़ आवर हैबिट्स आर बैड हैबिट्स हेंस मोस्ट ऑफ़ आवर कल्चर इज़ बैड कल्चर (क्योंकि हमारी ज़्यादातर आदतें गलत आदत हैं इसलिए हमारी ज़्यादातर संस्कृति गलत संस्कृति है)। सीधी सी बात नहीं है क्या ये! इतना क्या गौरव करते हो कल्चर पर।

जो कुछ पीछे से चला आ रहा है, जो कुछ तुम्हारे व्यवहार में है, बिहेवियर में, उसको ही कल्चर बोलते हैं न- तुम्हारा बैठने उठने का तरीका, तुम्हारे खाने-पीने का तरीका, तुम्हारी भाषा, तुम्हारी पसंद-नापसंद, यही सब तो कल्चर होता है। बार-बार अभी भी मैं ये कर रहा हूँ भारी विरोध आएगा ही इज़ स्पीकिंग अगेंस्ट बंगाली कल्चर, एम आई? ही इज़ स्पीकिंग ऑन बिहाफ़ ऑफ नॉर्थ इंडियस, एम आई ?

उत्तर भारत की संस्कृति पर तो मैं इतने ताने मारता हूँ कि उत्तर भारतीय मेरे पीछे पड़े हैं। और देश के किसी और हिस्से के लोगों को समझाने जाओ तो वो मुझे फिर उत्तर भारतीय की तरह देखें ये कहाँ से बात आ गई।

सीधे-सीधे क्यों नहीं बोलते हो तुम्हें माँस-मसाला पसंद है! जानवर कोई देवी के लिए थोड़े ही है! देवी थोड़े ही जानवर खाएँगी! खाते तो तुम हो। हम मे कितनी बेईमानी है कि हम सीधे-साधे सच को भी स्वीकार नहीं कर सकते। अपनी ज़बान के स्वाद के लिए काट रहे हो उसको धर्म का उसमें नाम ले रहे हो, धर्म क्या है यहाँ? और वो भी ऐसी देवी के त्योहार में तुम जानवर काट रहे हो जो स्वयं सब पशुओं की रक्षक हैं। वो प्रकृति की देवी हैं।

सब पशु, सब जीव, सब प्राणी उनके बच्चे ही नहीं हैं, उनका अपना रूप हैं। हम ये भी नहीं कह सकते कि वो देवी हैं और ये सब छोटे-छोटे जो हैं उनके बच्चे हैं। बच्चे भी नहीं हैं वो देवी के रूप हैं। वो देवी के सजीव रूप हैं। देवी के सजीव रूप को देवी की प्रतिमा के सामने काट रहे हो, ये कहाँ की होशियारी है।

अभी तो मैं इस पर आ ही नहीं रहा हूँ कि धार्मिक आधार हटा भी दो तो पर्यावरण की दृष्टि से और क्लाइमेट चेंज की दृष्टि से जानवरों को मारना कितना बड़ा गुनाह है। अभी तो मैं इस पर आ भी नहीं रहा हूँ कि क्लाइमेट चेंज का दूसरा सबसे बड़ा कारण माँसाहार है, कि डिफॉरेस्टेशन का और बायोडायवर्सिटी एक्सटिंक्शन का सबसे बड़ा कारण माँसाहार है अभी तो मैं इस पर आ ही नहीं रहा हूँ, कि फ्रेश वाटर स्केरसिटी का सबसे बड़ा कारण माँसाहार है, इसकी तो अभी मैं बात ही नहीं कर रहा हूँ। अभी तो मैं बात बस धर्म और संस्कृति की कर रहा हूँ।

हमारे धर्मग्रंथों का अगर सही अर्थ किया जाए तो बड़े ऊँचे हैं, बड़े प्यारे हैं ग्रंथ हमारे, पर हमें बस त्योहारों पर धूम मचानी है। ग्रंथ से कोई लेना-देना नहीं। त्योहार अगर ग्रंथ पर आधारित नहीं है तो वो त्योहार एक ऑर्डिनरी पार्टी से बढ़कर कुछ है क्या? बुरा लग रहा होगा सुनने में पर मुझे बताओ न अगर त्योहार के आधार में धर्म नहीं है तो त्योहार में और एक वीकेंड पार्टी में क्या अंतर है? और धर्म क्या होता है? तुम्हारी मान्यताओं को, बिलीफ़्स को कल्चर को धर्म नहीं बोलते।

धर्म का मतलब होता है सबमिशन टू द ट्रुथ। आदत की अपेक्षा सत्य को सम्मान देना धर्म है। हम मौज मारते हैं हम कहते हैं, ‘हमारा त्योहार आया’ और सोचो ये करोड़ों बेजुबान छोटे प्राणी इनके लिए क्या आया। हमारे लिए मौज आई इनके लिए मौत आई।

दुर्गासप्तशती का केंद्रीय संदेश यही है — प्रकृति को भोगोगे, प्रकृति को कंज़म्पशन की चीज़ मानोगे तो देवी तुम्हारा वही हाल करेंगी जो चंड-मुंड, मधु-कैटभ और शुंभ-निशुंभ का किया था। महिषासुर कौन है? जो प्रकृति को कंज्यूम करने निकलता है। जो कहता है, ‘आई विल हैव फन एट द एक्सपेंस ऑफ प्रकृति (मैं मौज करूँगा प्रकृति को भोगकर)। वही महिषासुर है। देवी का त्योहार इसलिए थोड़े ही आता है कि हम खुद ही महिषासुर बन जाएँ। आपसे निवेदन करता हूँ आपकी मौज किसी की मौत न बने।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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