ऐसे करो दूसरों से अपनी तुलना || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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ऐसे करो दूसरों से अपनी तुलना || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, आपको जब से सुनना शुरू किया है लाभ-ही-लाभ है जीवन में, अब आप मेरे जीवन की प्रेरणा बन गये हैं। मेरा मूल प्रश्न ये है कि मैं तुलना बहुत ज़्यादा करता हूँ। मन हमेशा जोड़-घटाव करता रहता है। दूसरों से खुद की, अपनी अपने आदर्शों से। आचार्य जी मुझे इस विषय में मदद चाहिए, मेरा मन बहुत सताता है मुझे जोड़- घटाओ करके। क्या लाभ-हानि का, नफ़ा-नुकसान का हिसाब लगाते रहना सही है। अगर नहीं तो मुझे इससे मुक्ति का रास्ता दिखाएँ; प्रणाम।

आचार्य प्रशांत: रमन, तुलना में कोई बुराई नहीं अगर तुम तुलना करने की विधा जानते हो। आमतौर पर हम जो तुलना करते हैं वो कैसी होती है? कोई हमारे ही जैसा है मूलभूत रूप से, हमारे ही तल का है। हमसे आगे है या हमसे पीछे है, है हमारे ही तल का; हम उससे तुलना कर लेते हैं।

उस तुलना से क्या होगा? कुछ परिवर्तन आ सकता है तुममें; कुछ हो सकता है अपनेआप में जोड़ लो, कुछ हो सकता है अपनेआप में घटा दो लेकिन तुम बदलोगे अपने ही तल के भीतर रह-रहकर। वो बदलाव तुमको मूलभूत रूप से बदल नहीं देगा; सतही होगा, बाहरी होगा, मौलिक नहीं होगा।

तो इसीलिए पूरी दुनिया तुलना का खेल खेलती है। इस दुनिया की जैसे सब ऊर्जा ही तुलना और तुलना से ही आती हो। लेकिन तुलना करना अगर इतना ही लाभप्रद होता तो कोई तो दिन आना चाहिए था जब तुम कहते कि तुलना कर-करके लाभ हो गया, अब आगे कोई तुलना करनी नहीं हैं। क्या कोई ऐसा भी है जो तुलना कर-करके तुलना करने की वृत्ति से ही छूट जाए। मतलब समझो इस बात का।

एक अनन्त सीढ़ी है ‘तुलना’ जिसका न कोई ऊपरी सिरा है, न कोई निचला सिरा है। अंतरिक्ष में एक अनन्त सीढ़ी की कल्पना करो जिसका जो ऊपरी सिरा है वो भी असीम है और नीचे से भी वो अनन्त है और सीढ़ी मात्र है अंतरिक्ष में और कुछ नहीं। न उसमें नीचे से कोई सहारा है न ऊपर कोई सीमा है।

अगर सहारा होता या सीमा होती तो फिर अनन्त नहीं हो सकती थी न दोनो सिरों पर, सीढ़ी मात्र है। और हर व्यक्ति उस सीढ़ी पर किसी-न-किसी जगह मौजूद है। हर व्यक्ति सीढ़ी की ही किसी पायदान पर है और उसके पास अपनी स्थिति को बताने के लिए, वर्णन करने के लिए, ब्यौरा देने के लिए, अपनी पहचान बताने के लिए सिर्फ़ एक तरीका है कि वो ये बता पाए कि मैं ऊपर वाले छंगूमल से नीचे हूँ। ऊपर वाले का नाम अग्गूमल रख देते हैं। उससे पूछो, ‘तू कहाँ है अभी जीवन में?’ सिर्फ़ एक तरीका है जैसे उसके पास अपनी हालत को बयान करने का, वो कहेगा, ‘अग्गूमल से नीचे हूँ और पिच्छूमल से ऊपर हूँ।’ ठीक!

तुम और ज़रा ऊपर चले जाओ सीढ़ी में या और तुम नीचे आ जाओ सीढ़ी में, अन्तहीन सीढ़ी है भाई! वहाँ अब तुम्हें फिर मिले तीन-चार लोग; वहाँ तुमने एक को पकड़ा, बोले- ‘तू अपनी हालत बता।’ वो बोल रहा है, ‘अग्गूमल से पीछे और पिच्छूमल से आगे।’ तो तुमने कहा, ‘चलो एकदम नीचे जाकर के देखते हैं।’ एकदम नीचे गये वहाँ भी यही तीन लोग हैं। वहाँ तुमने एक से पूछा, ‘अपनी हालत बता।’ क्या बोला वो? ‘अग्गूमल से पीछे और पिच्छूमल से आगे।’

अब ये जो बिलकुल नीचे था ये मान लो काफ़ी ऊपर आ गया, बहुत ऊपर आ गया, बहुत ऊपर आ गया, बहुत तरक्की की, बहुत ऊपर आ गया। तुमने फिर पूछा इससे, ‘कहाँ पर हो तुम भाई?’ इसका क्या जवाब है? ‘अग्गूमल से पीछे और पिच्छूमल से आगे।’ हाँ, अग्गूमल और पिच्छूमल के चेहरे बदल गये हैं। अग्गूमल पहले थे ‘अग्गूमल एक’, अब वो हैं ‘अग्गूमल नम्बर दो’। पहले जो पिच्छूमल थे वो थे ‘पिच्छूमल नम्बर एक’, अब वो हैं ‘पिच्छूमल नम्बर दो’। पर ले-देकर के जवाब तो वही पुराने-का-पुराना है, क्या? अग्गूमल से पीछे और पिच्छूमल से आगे, ठीक।

तुमने कहा एकदम ऊपर जाकर देखते हैं सीढ़ी में। हालाँकि उस सीढ़ी में एकदम ऊपर कुछ होता नहीं, क्यों? क्योंकि अनन्त सीढ़ी है, उसमें तुम जहाँ भी खड़े हो सीढ़ी के बीचों-बीच ही खड़े हो। अनन्तता का मतलब ये होता है कि तुम जिस भी बिन्दु पर हो उसके दायें तरफ़ भी अनन्त फैलाव है और बायें तरफ़ भी अनन्त फैलाव है। इन्फिनिटी का अर्थ ये होता है कि तुम जहाँ कहीं भी हो वही सेन्टर है।

तुमसे दायें तरफ़ भी बराबर की दूरी है और बायें तरफ़ भी तुमसे उतनी ही दूरी है और दोनों तरफ़ अनन्त है, तुलना नहीं कर सकते। लेकिन ये पक्का है कि ऐसा नहीं हो गया कि तुमने कुछ यात्रा पूरी कर ली है तो अब तुम दायें तरफ़ का जो अन्त बिन्दु है उसके निकट आ गये हो और बायें तरफ़ की सीमा से ज़रा ज़्यादा दूर आ गये हो, तुम जहाँ भी हो अभी बीचों-बीच ही हो। तो तुम सीढ़ी में बहुत ऊपर पहुँच गये,(एक बहुत ऊँचाई का संकेत) तो भी तुम अभी कहाँ पर हो? सीढ़ी के बीचों-बीच ही हो।

यहाँ तुम्हें फिर मिले तीन और तुम्हें याद आ आया, ‘अरे ये तो वही थे जो आज से दस साल पहले मुझे मिले थे सीढ़ी में उधर नीचे, बहुत नीचे।’ तुमने फिर इनसे पूछा, ‘हाँ भाई तुमने बड़ी तरक्की करी है। दस साल तुमने जान लगाकर मेहनत करी है, बताओ तुम पहुँचे कहाँ?’ उस बेचारे की मज़बूरी ये है कि वो अभी भी कोई और तरीका इस्तेमाल कर ही नहीं सकता अपनी हालत बताने को। वो फिर बोलेगा, ‘अग्गूमल से पीछे और पिच्छूमल से आगे।’

हाँ, अब अग्गूमल का चेहरा फिर बदल गया, अब ये हैं ‘अग्गूमल नम्बर तीन’ और पिच्छूमल भी हैं ‘पिच्छूमल नम्बर तीन’। तुलना का खेल खेलने में ये दिक्कत है; अग्गूमलों के चेहरे बदलते रहते हैं, अग्गूमल नहीं बदलते। पिच्छूमल के चेहरे बदलते रहते हैं, पिच्छूमल नहीं बदलते। और तुम हमेशा अग्गूमल और पिच्छूमल के बीच के सैंडविच होते हो।

अगर जब भी तुमसे पूछा गया जीवन भर और तुमने जवाब एक ही रखा है तो तुम मुझे बताओ तुमने ज़िन्दगी में तरक्की क्या करी, तुम चालीस साल पहले भी कहाँ थे? ‘अग्गूमल से पीछे, पिच्छूमल से आगे।’ तुम चालीस साल जी तोड़ मेहनत करने के बाद भी कहाँ हो? ‘अग्गूमल से पीछे, पिच्छूमल से आगे।’ तो तुम्हारी ज़िन्दगी में बदला क्या भाई?

हाँ, तुलनात्मक दृष्टि से कुछ बदल गया होगा, मौलिक दृष्टि से कुछ नहीं बदला। लटके हुए हो सीढ़ी पर, उसी तल पर, उसी डायमेंशन में हो जहाँ हमेशा हुआ करते थे। वो तुलना का आयाम है, वहाँ कभी कोई कहीं पहुँचता नहीं। सबको यही लगता है पहुँच गये हैं, वास्तव में कोई कभी कहीं पहुँचता नहीं।

एक साधारण व्यक्ति की और दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति की चिन्ताएँ मौलिक रूप से एक ही हैं। तुम खुद को ही देख लो; जब तुम पन्द्रह वर्ष के थे, जब तुम पच्चीस के थे, पैंतीस के थे, फिर पैंतालीस के। यहाँ पर तो प्रश्नकर्ता युवा हैं तो शायद इन्हें पैंतालीस का कुछ पता नहीं होगा, पर और लोग जो हैं शिविर में वो इस बात को ज़्यादा समझ पाएँगे। जब आप पन्द्रह के थे तब भी आपको चिन्ताएँ होती थीं, पच्चीस के थे तब भी, पैंतीस तब भी, पैंतालीस तब भी।

ऊपरी तौर पर वो चिन्ताएँ बदलीं; पन्द्रह के थे तो आपको शायद अपने बोर्ड एग्जाम के परिणाम की चिन्ता रही हो। पच्चीस के थे तब आपने किसी नौकरी का साक्षात्कार दिया हो उसके परिणाम की चिन्ता रही हो। पैंतीस के थे तब आपने व्यवसाय में जो पैसा लगाया उसके परिणाम की चिन्ता रही हो और पैंतालीस के थे तब आपको अपने बच्चे के बोर्ड के परिणाम की चिन्ता रही हो। दिखने में तो ऐसा लगेगा जैसे कि आपकी चिन्ताएँ, आपके विचार बदल रहे हैं पर ये सब बदलाव सतही है न? थोड़ा गहरा जाकर के देखें तो हमारी चिन्ताएँ, हमारे विचार, हमारा केन्द्र वही है जो पन्द्रह की उम्र में था।

पन्द्रह की उम्र में भी शायद आप तुलना करते होंगे कि आपका सहपाठी है कोई उसकी तुलना में आपके कितने अंक आये। पैंतीस में भी आप तुलना करते होंगे कि आपके बगल में जिसकी दुकान है या जिसका मकान है उसकी तुलना में आप कितना कमा रहे हैं। कुछ बदला कहाँ वास्तविक रूप से?

इसी को मैं कह रहा हूँ, ‘अन्तहीन सीढ़ी है, उस पर आप कितना भी ऊपर चले जाओ, कितना भी नीचे चले जाओ, रह तो सीढ़ी पर ही गये न?’ अपने ही तल वाले किसी से तुलना करके अपनेआप को बस धोखा दिया जा सकता है, अपनेआप को बस झूठ-मूठ बहलाया जा सकता है कि तरक्की हो गयी या नुकसान हो गया। दोनों ही झूठ बातें होंगी। पर साथ-ही-साथ अपने उत्तर के आरम्भ में ही मैंने कहा था कि तुलना अपनेआप में कोई बुरी बात नहीं हैं। ध्यान से सुन रहे होंगे तो समझ रहे होंगे फिर कि मैं किस तुलना की बात कर रहा हूँ।

तुलना भाई अगर करनी ही है तो अपने जैसों से मत करो न, किसी ऐसे से करो जो तुमसे बिलकुल ही दूर का हो। और दूर माने ये नहीं की सीढ़ी पर दूर का, कि सीढ़ी पर जो बहुत ऊपर का था उससे तुलना कर ली।

सीढ़ी पर तुम जहाँ भी हो, तुमसे ऊपर जितने भी हैं उन सब के लिए एक सामूहिक, कलेक्टिव नाम है; क्या? ‘अग्गूमल’। तो तुमसे ठीक ऊपर वाली पायदान पर जो है उसका भी नाम क्या है? ‘अग्गूमल’, और तुमसे दस हज़ार पायदान जो ऊपर है उसका भी नाम क्या है? ‘अग्गूमल’। तो जब मैं कह रहा हूँ किसी बहुत दूर वाले से तुलना करो अपनी तो मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि निकट वाले अग्गूमल को छोड़कर दूर वाले अग्गूमल से अपनी तुलना कर लो। वो तो दोनों एक ही हैं। दोनों क्या हैं?

श्रोतागण: अग्गूमल।

आचार्य: न मैं ये कह रहा हूँ कि पीछे वाले किसी को पकड़ लो। एकदम पीछे जो लगा है तुम्हारे, एकदम पीठ से चिपका हुआ है उसका भी क्या नाम है? ‘पिच्छूमल’। और जो इतना दूर है, इतना दूर है कि दिखायी भी नहीं देता। उसका भी क्या नाम है? सब ‘पिच्छूमल’। इस सीढ़ी पर बस तीन ही लोग हैं, तुम, अग्गूमल और पिच्छूमल।

किसी बहुत दूर वाले से तुलना करनी है। अग्गूओं-पिच्छूओं से नहीं तुलना करनी है। भले ही अग्गू बहुत दूर का हो तो भी नहीं, उससे नहीं करनी है तुलना। किसी दूसरे आयाम वाले से करनी है।

तो क्यों न हम किसी ऐसे से तुलना करें जो सीढ़ी पर हो ही न। तब शायद कुछ बात बनेगी भाई। सीढ़ी पर कौन नहीं हैं, कैसे पता लगाएँ? सीढ़ी की प्रकृति है तुलना। सीढ़ी की क्या प्रकृति है? तुलना। जो सीढ़ी पर है वो सीढ़ी चढ़ता हुआ ही नज़र आ रहा है। या तो वो चढ़ रहा है या गिर रहा है, माने वो तुलना के ही खेल में है। बोलते हो न “ क्लाइम्बिंग द कॉर्पोरेट लैडर।”

जो कोई सीढ़ी पर है वो तुलना का खेल खेलने के लिए मज़बूर रहेगा, विवश रहेगा, उसे खेलना ही पड़ेगा। वहाँ चल ही यही रहा है, सीढ़ी पर वरना और क्या कर रहे हो। तुम्हें न चढ़ना है, न उतरना है, तो सीढ़ी पर क्या घर बना रहे हो? जो सीढ़ी पर है उसे मज़बूर होकर या तो चढ़ना पड़ेगा या उतरना पड़ेगा, सीढ़ी कोई बसने की जगह तो है नहीं।

तो अगर किसी ऐसे से तुलना करनी है जो कहीं और का हो, किसी ऐसे से तुलना करनी है जो सीढ़ी के आयाम का न हो तो तुम्हें किसी ऐसे से तुलना करनी पड़ेगी अपनी जो तुलना के पार चला गया हो। किसी ऐसे से तुलना करनी पड़ेगी अपनी जो ‘अतुल्य’ हो गया हो। जिसने तुलना करना छोड़ ही दिया हो और न अब उसकी तुलना किसी से की जा सकती हो। उसको पैमाना बनाकर अपनेआप को तुम्हें जाँचना और नापना पड़ेगा। ‘ये कैसी बात कर दी आचार्य जी ने, यहाँ तक तो ठीक है कि भाई किसी और से तुलना करनी है, पर ये कौन हैं महाशय जिनसे अपनी तुलना करनी है?’

दोनों तरीकों से बताए देता हूँ, ‘साकार’ और ‘निराकार’। किससे तुलना नहीं करनी है ये तो मैंने समझा ही दिया; अग्गूलाल-पिच्छूलाल से तुलना? नहीं करनी है। भले अग्गूलाल तुमसे दस हज़ार गुना मालदार हो, भले उसकी कीर्ति तुमसे दस हज़ार गुनी ज़्यादा हो तो भी उससे तुलना नहीं करनी है। क्योंकि है तो वो तुम्हारी ही सीढ़ी पर, बिलकुल तुम्हारे ही जैसा है अन्दर-ही-अन्दर वो भी। क्या करोगे उससे तुलना करके, कोई प्रगति नहीं होगी। तो ये समझा दिया किससे तुलना नहीं करनी। किससे करनी है, उसके बारे में मैं कह रहा हूँ; ‘साकार’ और ‘निराकार’ दो तरीकों से बताए देता हूँ। साकार तौर पर ये वो लोग होंगे जिन्होंने वो सब कुछ जो तोला जा सकता है उसके पार कुछ अर्जित करना चाहा। तुलना समझते हो न? तुला माने जानते हो क्या होता है? ‘तराजू’, तुला माने ‘तराजू’।

क्या-क्या है जो तोला जा सकता है? हर वो चीज़ जो संख्या में अभिव्यक्त की जा सकती है, हर वो चीज़ जो छुई जा सकती है, हर वो चीज़ जो भौतिक है, वो तुलना के आयाम में आती है। उनको पकड़ो फिर जिन्होंने किसी ऐसी चीज़ को महत्व दिया जो तराजू में नहीं रखी जा सकती। वो तुलना के पार के लोग थे न, तुला के पार के, तराजू के पार के लोग थे।

‘क्या है भाई जो तोला नहीं जा सकता, कौन थे वो लोग, क्या-क्या है जो तोला जा सकता है?’ ज़िन्दगी में जो कुछ है सब तोला ही जा सकता है। हाँ, कुछ महीन चीज़ें हैं जो आप भी जानते हैं कि तोली नहीं जा सकतीं। कौनसी हैं वो चीज़ें?

(एक श्रोता धीरे से प्रेम बोलते हैं)

सामने यहाँ बैठे हैं अभिषेक बोले, ‘प्रेम’ धीरे से बिलकुल यही। महीन चीज़ है न सूक्ष्म, धीरे से ही बोली जा सकती है; ‘प्रेम’। तो देखो किसी को जानते हो क्या? चेहरा न जानते हो तो कहानी ही जानते हो जिसने तोले जाने वाली चीजों से ज़्यादा कीमत दी हो प्रेम को? ये जो भी भाई है ये सीढ़ी से ज़रा दूर का लगता है। क्योंकि प्रेम में तो सीढ़ियाँ वगैरह होती नहीं कि ‘भाई अब मैं पिच्छू से थोड़ा ज़्यादा प्रेम करता हूँ, लेकिन अग्गू का प्रेम को-एफिसिएंट (कुछ गुना) अभी भी मुझसे ऊपर का है। अग्गू ज़्यादा प्रेम वाला है पर पिच्छू को तो मैंने पछाड़ ही दिया। पिच्छू कुल पौने दो-सौ ग्राम प्रेम कर पाता है और मैंने अभी पिछले हफ़्ते नापा था, तीन-सौ छः ग्राम प्रेम। तो पिच्छू को तो पछाड़ दिया, बड़ा स्याणा (सयाना) बनता था। ऐसा प्रेम निकाला मैंने कि पिच्छू के कसम से होश उड़ गये।’

प्रेम ऐसी तो कोई चीज़ होती नहीं न भाई कि नाप लो कि जेब में डाल लो। देखो, अगर ऐसों को जानते हो जिन्होंने प्रेम और करुणा और आनन्द और मुक्ति इनको ज़्यादा कीमत दी हो, ऐसों से करो न तुलना। तुलना उससे करो जो तुला के पार का हो। अपनेआप को उसके समकक्ष नापो जिसने अब नापना-जोखना छोड़ दिया हो। ऐसों के नाम बहुत मिल जाएँगे; धर्म की दुनिया में भी मिलेंगे, विज्ञान की दुनिया में भी मिलेंगे और हो सकता है अनजान लोग हों पर तुम उन्हें जानते हो।

आवश्यक नहीं है कि वो सारे लोग जो तुलना के पार निकल गये, वो इतिहास में प्रसिद्ध भी हुए हों। हो सकता है कि वैसा कोई शख्स तुम्हारे ही दायरे में हो कहीं पर तुम उसे जानते हो; उससे करो न तुलना। और ये भी मत समझना, फिर कहे दे रहा हूँ कि वैसा कोई व्यक्ति आवश्यक रूप से ऋषि-मुनि, सन्त-महात्मा, पीर-फ़कीर ही होगा। विज्ञान में भी हो सकता है, खेल में भी हो सकता है, राजनीति से भी हो सकता है, अन्य क्षेत्रों में उसके होने की सम्भावना थोड़ी कम है लेकिन फिर भी सम्भावना तो है ही। ऐसे उदाहरण खूब मिल जाएँगे जहाँ पर लोगों ने जान से भी ज़्यादा कीमत किसी इन्टेन्जिबल को दी है। किसी ऐसी चीज़ को दी है जो नापी नहीं जा सकती उसके साथ करो न तुलना। ये हुए साकार पैमाने, ये हुए वो लोग जिनसे अपनी तुलना करनी चाहिए। लेकिन अगर थोड़ा ज़्यादा दम-खम है आपमें और तुलना करने की बुद्धि थोड़ी और ज़्यादा सूक्ष्म है आपकी, तो फिर आपको अपनी तुलना उससे करनी चाहिए जो सर्वथा अतुल्य है। वो जो तत्व है जो सर्वथा, सर्वदा अतुल्य है। उसी को उपनिषदों ने कहा है ‘आत्मा’। आत्मा मात्र अतुल्य है, सत्य मात्र अतुल्य है उसके अलावा कुछ अतुल्य नहीं, बाकी हर चीज़ तराजू में तोली जा सकती है।

आत्मा से अपनी तुलना करिए। आप कहेंगे, ‘ये खतरनाक बात हो गयी आत्मा से कैसे तुलना कर लें भाई अपनी?’ बिलकुल की जा सकती है। आत्मा वैसे तो अनुपम है, अनुपम माने जानते हैं? जिसको कोई उपमा नहीं दी जा सकती, जिसको कोई नाम, कोई उपाधि, कोई संज्ञा, कोई विशेषण, कोई एट्रीब्यूट (गुण) नहीं दिया जा सकता उसको कहते हैं ‘अनुपम’।

आत्मा को किसी भी तरीके से किसी उपाधि से अलंकृत नहीं करा जा सकता, ऐसी है आत्मा। लेकिन फिर भी जानने वाले लोगों ने हमारी मदद के लिए आत्मा को नकारात्मक तरीकों से वर्णित करा हुआ है। वो जो वर्णन हैं, वो हमारे बड़े काम के हैं। तो वो जो वर्णन हैं उनको सामने रखकर के अपनी तुलना कर लीजिए। उदाहरण- “आत्मा अनासक्त है।”

अब अपने जीवन को देखिए, हम तुलना कर रहे हैं न। आत्मा के बारे में कहा गया है कि आत्मा अनासक्त है। आत्मा का ही दूसरा नाम है ‘अनासक्ति’। तो आत्मा तो अनासक्त है फिर अपनी ज़िन्दगी को देखिए, अपने मन को देखिए। वहाँ कितनी आसक्ति है देखिए, कर लीजिए तुलना। ये हुई सही तुलना, अब आएगा मज़ा। कि भाई अब उससे तुलना कर रहे हैं जो अतुल्य है और जो अतुल्य है उसी का दूसरा नाम है ‘अनासक्त’ और मैं अपने जीवन को देख रहा हूँ तो आसक्ति भरी हुई है।

इस तुलना में तो हम कहीं के नहीं रहे, बिलकुल फेल हो गये। अब आयी न बात। टक्कर लेनी ही है तो बादशाह से लीजिए, ये छोटे-मोटों से उलझकर के क्या मिलना है। आत्मा बादशाह है, तुलना उससे करिए। ‘तुलना उससे क्यों करनी है?’ तुलना उससे इसलिए करनी है क्योंकि आप वही हैं और वो हुए बिना आपको चैन मिलना नहीं है, वही मंज़िल है, वही आपका सत्य स्वभाव है। तो भाई जब वही होना है मुझे, वही हूँ मैं वास्तव में, वहीं तक जाना है मुझे तो फिर तो ये बात बिलकुल तार्किक लगती है कि तुलना भी उसी से करूँ न और किसी से काहे को करूँ।

भई, “अहम् ब्रह्मास्मि” का क्या अर्थ है? तुम वही हो और तुम परेशान इसलिए हो क्योंकि तुम वो होकर भी कुछ और बने हुए हो। तो जब मुझे वही होना है तो मैं अपनी प्रगति और अगति भी ऐसे ही नापूँगा कि मैं उससे कितना पास और कितना दूर हूँ। उसके अलावा तो और कोई तार्किक, युक्तिसंगत, लॉजिकल कम्पेरिजन हुआ ही नहीं न। यही एक मात्र तरीका है नापने-जोखने, तोलने का।

मैं उसी से नापूँगा, उसको सामने रखूँगा और पूछूँगा इसकी तुलना में मैं कहाँ खडा हूँ। तो भाई, आत्मा मैं हूँ पर मैं परेशान हूँ क्योंकि आत्मा होते हुए भी मैं कुछ और बना बैठा हूँ। तो शान्ति का और मुक्ति का, आज़ादी का तरीका भी एक ही है कि आत्मा ही हो जाऊँ। लेकिन आत्मा तो अनासक्त है और मैं क्या हूँ? अति आसक्त। तो ये तो गड़बड़ हो गयी। तो चलो भाई अब साधना करनी पड़ेगी आसक्तियों को थोड़ा पीछे छोड़ने की, ये हुई मस्त तुलना!

आत्मा और क्या है? आत्मा तो ‘निरंजन’ है। एक और नकारात्मक तरीका आत्मा को वर्णित करने का, ‘निरंजन’। ‘निरंजन’ माने जिस पर कोई दाग इत्यादि नहीं लग सकता, माने जिसको अपने से अलग किसी रंग में रंगा नहीं जा सकता। और मैं तो जहाँ जाता हूँ वहीं के रंग में रंग जाता हूँ। मुझे तो जहाँ मिले वहीं रंजना बड़ी अच्छी लगती है, सबसे ज़्यादा तो मुझे मनोरंजना अच्छी लगती है। और आत्मा है निरंजन, मुझे चाहिए मनोरंजन; ये तो गड़बड़ हो गयी भाई।

अब करो न तुलना, जितनी बार मनोरंजन करने भागो उतनी बार कहना, ‘आत्मा तो है निरंजन और मैं कर रहा हूँ मनोरंजन।’ ये तुलना बड़ी भारी पड़ जाएगी। मुझे बताते हुए भी थोड़ा सा दर्द सा हो रहा है कि क्या बता दिया। बिलकुल जैसे पहाड़ से टक्कर ले लेने की सलाह दे रहा हूँ। बात समझ में आ रही है?

और क्या है आत्मा का, अब ‘निरंजन’ बोल ही दिया है तो ‘अलख निरंजन’ भी बोल देता हूँ। आत्मा ‘अलख’ है, अलख माने ‘अलक्ष्य’, न उसका कोई लक्ष्य है न उसको लक्षित किया जा सकता है। न तो आत्मा का कोई लक्ष्य होता है और न आत्मा की कोई जान-पहचान, चेहरा-मोहरा, पता-ठिकाना होता है तो आत्मा को लक्ष्य बनाया भी नहीं जा सकता। आत्मा अलख है।

हमारा जीवन लक्ष्यों से भरा हुआ है। जितनी बार भौतिक लक्ष्य बनाओ; ये पाना है, ये जेब में डाल लेना है, इसका संग्रह कर लेना है। उतनी बार तुलना कर लो अपनी आत्मा से कि उधर तो है मामला ‘अलख निरंजन’ और यहाँ पता नहीं क्या चल रहा है, ‘चोरी का दन्त मंजन’। अब बड़ी असुविधा हो जाएगी, अब बड़ी दिक्कत हो जाएगी उन्हीं तरीकों पर जीते रहने में जिन पर आज तक जीते आये हो। क्योंकि हमारी एक-एक हरकत, हमारी हर वृत्ति, हमारी हर करतूत आत्मा के खिलाफ़ ही है।

आत्मा तो है ‘असंग’, असंग माने? उसको कोई अकेलेपन से तकलीफ़, घबराहट होती नहीं, वो कहीं नहीं जाती चिपकने, न ये कहने कि मैं बहुत मायूस और लोनली हूँ, मुझे संगति चाहिए। आत्मा ‘असंग’ और जितनी बार तुम भागो संगति के लिए चाहे शारीरिक तौर पर, चाहे मानसिक तौर पर। उतनी बार कह लेना कि गड़बड़ है कि तुलना तो भारी पड़ी, इस तुलना में हम कहीं के नहीं रहे। इस तुलना में तो पता चल रहा है कि हम अभी तुलना के योग्य ही नहीं हैं। समझ में आ रही है ये बात?

आत्मा है मुक्त सदा, ‘निर्बन्ध’ और हमें बन्धनों से ही बड़ा अनुराग है। जितनी बार देखो कि न सिर्फ़ बन्धनों से चिपक रहे हो बल्कि अपने लिए नये-नये बन्धन तैयार भी कर रहे हो, उतनी बार आत्मा से तुलना कर लेना कि वहाँ तो मामला निर्बन्ध है और हम नये-नये अपने लिए बन्धन तैयार कर रहे हैं। इस तुलना में तो हम कहीं नहीं ठहर रहे। समझ में आ रही है बात?

इसी तरीके से तमाम और भी तरीकों से आत्मा को चित्रित किया गया है। वो सब तरीके बड़े काम के हैं। आत्मा किसी का सहारा नहीं लेती, आत्मा किसी का अवलम्ब नहीं लेती, ‘निरालम्ब’ है आत्मा। और हम बिना किसी सहारे के दो कदम चल नहीं पाते। जितनी बार देखो कि तुम्हें मानसिक सहारों की ज़रूरत पड़ रही है, उतनी बार कहना कि वो तो वहाँ निरालम्ब हैं और हम सदा अवलम्बित ही रहते हैं, टिके ही रहते हैं किसी और पर, सहारे ही लिए रहते हैं, कैसे काम चलेगा?

एक पूरी सूची बना लो उन शब्दों की और वो सब ‘नकार’ के ही शब्द हैं। किसको नकारा गया है? हमारी स्थिति को, हमारी साधारण स्थिति को नकारा गया है। हमारी साधारण स्थिति का जो नकार है, वही आत्मा की स्थिति है।

‘हम जो नहीं हैं वो आत्मा है’ तो इसलिए जो भी शब्द आमतौर पर हमारी स्थिति को बताने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं, उनमें बस ‘न’ जोड़ दो तो फिर वो शब्द किसका जिक्र करने लग जाते हैं? आत्मा का। कोई शब्द तुम्हारी स्थिति का उल्लेख करता पता चलता हो, बस उस शब्द में क्या जोड़ दो? ‘न’। वो आत्मा की स्थिति हो जाएगी।

तुम्हें घर में रहना उदाहरण के लिए बहुत पसन्द है, ‘घर जाना है, घर जाना है।’ पगलाये रहते हो, ‘रात हो गयी, घर तो पहुँचना ही है। मेरा घोंसला, मेरा नीड़।’ और आत्मा का नाम है ‘अनिकेत’। तुम बिना निकेतन के रह नहीं सकते, तुम हो ‘सनिकेत’ और आत्मा है ‘अनिकेत’। ‘निकेतन’ माने घर। हम हैं सनिकेत, आत्मा है अनिकेत।

तो ये जितने भी तरीके हैं उनका प्रयोग करते चलो। ये सही तुलना होगी, ये तुलना अगर तुमने ईमानदारी से कर ली तो फिर तुलना के पार निकल जाओगे। ये तुलना अगर तुमने कर ली तो सीढ़ी छूट जाएगी। भूलना नहीं कि ये सीढ़ी छलावा है, धोखा है। कोई इस सीढ़ी पर चढ़कर कभी कहीं पहुँचा नहीं। न इसमें चढ़ने में कुछ रखा है, न इसमें नीचे उतरने में कुछ रखा है। ये भ्रम मात्र है, ये तुम्हें भरोसा भर देती है, वादा भर करती है कि चढ़ते रहो-चढ़ते रहो, कहीं पहुँच जाओगे, कुछ मिल जाएगा, कोई ऊँचाइयाँ हैं।

यहाँ कोई ऊँचाइयाँ नहीं हैं इसमें, कोई निचाइयाँ नहीं हैं इसमें। ऐसा है जैसे एक गोलाकार सीढ़ी हो। लेकिन वो जो वृत्त है, वो जो गोला है वो इतना विशाल है कि किसी भी बिन्दु पर तुम्हें समझ में नहीं आता कि ये सीढ़ी गोल-गोल है भाई। अनन्त इसीलिए तो है क्योंकि गोल-गोल है।

गोले का, वृत्त का तुमने कभी अन्त होते देखा है? तो जब हम कहें कि सीढ़ी अनन्त है माने सीढ़ी वास्तव में तो गोलाकार है। लेकिन बहुत बड़ी है तो जो जहाँ पर है उसको यही लग रहा है कि अभी तो आगे है। ठीक है, जैसे तुम तुलना करो कि पाँच-सौ किलोमीटर व्यास की कोई सड़क हो, कोई सड़क हो जिसका जो रेडियस है वो सैकड़ों किलोमीटर का हो। तुम उस सड़क में कहीं भी होगे तो तुम्हें सड़क कैसी दिख रही होगी? सीधी या गोलाकार? सीधी।

तुम्हें तो यही लग रहा होगा कि मैं सीधा-सीधा जा रहा हूँ। तुम्हें तो यही लग रहा होगा कि मैं सीढ़ी चढ़ रहा हूँ सीधी-सीधी। जैसे तुम्हें सड़क पर लगेगा कि मैं सीधा-सीधा जा रहा हूँ पर वो वास्तव में गोल है भाई। लेकिन वो इतना बड़ा रेडियस है और उसका जो पूरा परिमाण है, जो उसका पूरा परिधि है, जो पूरी उसकी सरकमफरेन्स है, इतनी बड़ी है कि आम आदमी को अपनी आम दृष्टि से समझ में नहीं आता कि यहाँ गोल-गोल घूमना और कुछ नहीं करना। कोई इसमें मुक्ति नहीं हैं, कोई इसमें प्राप्ति नहीं हैं। तो तुलना करने के लिए फिर सही लोग वही हैं जो तुलना के पार निकल गये। और अगर निराकार आत्मा से अपनी तुलना कर सको तो फिर तो पूछो ही मत, मज़ा आ जाएगा।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=Kwh0mdek_c0

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