ऐसे इंसान धोखा खाते हैं (बचना!) || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)

Acharya Prashant

10 min
46 reads
ऐसे इंसान धोखा खाते हैं (बचना!) || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)

आचार्य प्रशांत: दुनिया की चीज़ें आपको भ्रमित करने, धोखा देने नहीं आतीं; दोष आपकी आँखों का होता है। आपकी आँखें साफ़ हों तो दुनिया में कुछ ऐसा नहीं है जो आपको धोखा दे सकता है, क्योंकि भीतर धोखा खाने के लिए कोई रहेगा ही नहीं। लुट वही सकता है न जो कुछ माल लेकर के चल रहा हो? हमारे पास भीतर बहुत माल होता है, कैसा माल? मल, हमारे पास इतना मल होता है भीतर कि हम मालामाल होते हैं; तो फिर हम लुटते हैं।

दुनिया का सबसे बड़ा टैंक भी अगर फायर करे और उसको भेदने के लिए कोई चीज़ ही न मिले, कुछ हुआ? दुनिया की सबसे बड़ी मिसाइल (प्रक्षेपास्त्र) भी इतना रास्ता तय करके आती है, रास्ते में जितनी चीज़ें होती हैं वहाँ तबाही क्यों नहीं मचाती? आठ हज़ार मील का रास्ता तय करके आयी है इंटर कॉन्टिनेंटल बैलेस्टिक मिसाइल (महा द्वीपांतर प्रक्षेपास्त्र)। ठीक है? आठ हज़ारवें मील पर उसने तबाही मचा दी; आठ हज़ार मील तक तबाही क्यों नहीं मचायी? बोलो! मिसाइल तो वही है जो चली थी शुरू से। आठ हज़ार मील चलती रही उससे किसी को कोई नुक़सान ही नहीं हुआ। आठ हज़ारवें मील पर उससे बहुत भारी तबाही हो गयी, ऐसा क्यों हुआ?

श्रोता: क्योंकि उससे पहले उसे कुछ मिला ही नहीं।

आचार्य: हाँ। तो दूसरा कोई तुम्हारा नुक़सान तब करेगा न जब उसे कुछ मिलेगा नुक़सान करने के लिए। वरना बहुत बड़ी मिसाइल भी आएगी वो नुक़सान ही नहीं कर पाएगी। कुछ मिला ही नहीं, नष्ट किसको करते; कोई मिला नहीं। आठ हज़ारवें मील पर कोई मिल गया मारने के लिए, वो मारा गया। तुम मिलते क्यों हो, तुम उपलब्ध क्यों हो?

यह जो उपलब्ध होता है चोट खाने के लिए इसको अहंकार बोलते हैं, वो जो मिट गया उसको ब्रह्म बोलते हैं।

समझ में आ रही है बात?

अब पूछा इन्होंने कि मैं अंतर कैसे करूँ विषयों में। तो अभी तो कलम का और उपनिषद् का उदाहरण दिया। जो विषय इस दृष्टि से ही निर्मित हैं कि आपको विषयों से मुक्त कर दें, उनको सिर माथे रखिए। संगति का विशेष ख़्याल रखिए। बार-बार देखिए कि आपके जीवन में किन चीज़ों की, किन लोगों की, किन विचारों की या किताबों की संगति है जो आपको और ज़्यादा लिप्त कर देती है दुनिया से — भोग की दृष्टि से — और कौनसी ऐसी चीज़ें हैं जिनकी संगति आपको मुक्त कर देती है।

यही पूछना होता है बार-बार — 'इसके साथ लिप्त हो रहा हूँ या मुक्त हो रहा हूँ?' संगति नहीं छोड़ सकते, संगति बड़ी प्यारी चीज़ है। जगत में होना माने संगति में होना। आप लगातार किसी-न-किसी के साथ तो रहेंगे ही। बाहर कोई नहीं होगा तो भीतर विचार होंगे; विचार भी एक बाहरी चीज़ ही होते हैं, चल रहे होंगे। विचारों को लेकर के भी यही प्रश्न किया करिए — 'यह विचार मुक्तता देगा या लिप्तता देगा, यह सुलझाने आया है मुझे या उलझाने आया है मुझे' — और विचार सुलझाने में भी मददगार हो सकते हैं।

जो विचार सुलझाव की ओर बढ़ रहा हो उसके साथ रहें और जो विचार है ही इसलिए कि उलझे रहो, उलझे रहो, सालों तक उलझे रहो; उसको त्यागें। कहें यह तो है ही इसीलिए कि मुझे परेशान रखे, इसमें क्या बात!

उलझने से क्या अर्थ है? उलझने से और कोई मतलब नहीं होता, बस यही होता है कि किसी चीज़ से सम्बन्ध बना रहे। अहम् को किसी-न-किसी से सम्बन्धित रहना है। जब कोई नहीं मिलता उसको पकड़ने के लिए तो वो किसी विचार को ही पकड़ सकता है। क्या कर रहे हैं? सोच रहे हैं। ये अभी सोच रहे हो, तुम दो साल पहले भी यही सोच रहे थे। इस सोच की नीयत क्या है? यह सोच कहीं पहुँचना भी चाहती है? क्या यह सोच सुलझना चाहती भी है या यह सोच सिर्फ़ बने रहना चाहती है?

जो विचार तुम्हारे साथ इसलिए हो कि स्वयं भी बना रहे और तुम्हें भी बनाये रखे; वह विचार अच्छा नहीं। अंततः विचार का काम है मिट जाना। अंततः विचार का काम है अहम् को निर्विचार कर देना। अहम् को निर्विचार कर देना माने अहम् के पास अब कोई साथी नहीं बचा। अहम् सविचार था। अहम् किसके साथ था? विचार के साथ था, तो उसको एक साथी मिला हुआ था और बढ़िया जोड़ा चल रहा था। विचार मिट गया तो निर्विचार कौन हो गया? कौन होता है निर्विचार?

अहम् ही निर्विचार होता है। निर्विचार हो जाने का मतलब होता है कैवल्य, वास्तविक एकांत, अब साथ कोई नहीं है। जब साथ कोई नहीं होता तो साथ परिपूर्णता होती है। ऐसा विचार भला जो निर्विचार की ओर बढ़ता रहे। इस तरीक़े से चुनना होता है, ऐसे ही सब साथी चुनने होते हैं, ऐसे ही करने के लिए काम चुनने होते हैं।

आप ज़िंदगी में जो काम उठा रहे हो उसकी कभी कोई निवृत्ति होनी भी है या काम जो ले रहे हो, पूछ लो अपनेआप से कि यह काम अब सुरसा के मुँह की तरह खुलते ही जाएगा, खुलते ही जाएगा।

जिस काम में प्रवेश कर रहे हो — दो तरह के काम होते हैं। एक काम ऐसा होता है कि मैंने कुल्हाड़ी उठायी और उससे अपनी ज़ंजीरें काट रहा हूँ, एक यह भी काम है। और एक यह भी काम है कि ख़ुद को ही खड़ा कर लिया और अपने चारों ओर दीवार, ईंटों की चुनाई कर रहा हूँ, दीवार खड़ी कर रहा हूँ। काम तो दोनों हैं। पूछो अपनेआप से यह जो मैं काम कर रहा हूँ यह मुझे ले किधर को जा रहा है, इस काम का परिणाम मुक्ति होगी या और बंधन, और बंधन।

देखो, कोई भी काम मुक्ति नहीं देता है, लेकिन काम बंधन काट तो सकता है न। तो पूछा करो मेरे काम मेरे पुराने बंधनों को काटते हैं या नये बंधन पैदा करते हैं। और मामला बहुत तयशुदा होता है, क्योंकि यह जो प्रकृति का खेल है न वो एकदम ढर्रे में चलता है। कुछ करने जा रहे हो, जो तुम करने जा रहे हो वो एक ढर्रे की बात है, वो एक रास्ते की बात है। उस ढर्रे पर तुमसे पहले दो लाख लोग चल चुके हैं। उस रास्ते पर तुमसे पहले दो लाख लोग चल चुके हैं, तो तुम्हारे लिए इतना मुश्किल क्यों है शुरुआत में ही देख लेना कि जो तुम करने जा रहे हो उसका अंजाम क्या होना है? जो तुम करने जा रहे हो उससे तुम्हें दस और तरह के बंधन मिलेंगे या बंधन मिटेंगे — यह अभी से देख लेना मुश्किल क्यों है?

एक तरीक़े से भविष्य अनिश्चित नहीं होता, बिलकुल नहीं होता। अब जैसे यह घड़ी चल रही है इस घड़ी का भविष्य अनिश्चित है क्या? कुछ भी अनिश्चित नहीं है। जो कुछ भी यंत्रवत है, ढर्राबद्ध है वहाँ कुछ भी अनिश्चित नहीं है।

अनिश्चितता का दूसरा नाम होता है मुक्ति। वो तो सिर्फ़ उसको मिलती है जो शुद्ध चेतना के साथ जी रहा है। बाक़ी लोग अगर कहें कि फ्यूचर इज़ अनप्रेडिक्टेबल (भविष्य अप्रत्याशित है), तो झूठ बोल रहे हैं। ज़्यादातर लोगों का भविष्य तो पूरे तरीक़े से पूर्व निर्धारित होता है जैसे घड़ी के काँटे। घड़ी के काँटों में क्या कुछ भी कभी अपूर्व हो सकता है जो पहले नहीं था, अप्रत्याशित हो सकता है जिसका अनुमान नहीं था, हो सकता है? नहीं हो सकता न!

ज़्यादातर लोगों की ज़िंदगी ऐसे ही होती है। आप जो करने जा रहे हो वो आपसे पहले दो लाख लोग कर चुके हैं, तो उनकी ज़िंदगी ही देखकर समझ जाओ कि अंजाम क्या होने वाला है। उम्मीदों की बहार क्यों खड़ी कर रहे हो कि नहीं-नहीं सब के साथ हुआ, मेरी घड़ी, मेरी घड़ी ख़ास है इसमें पंद्रह बजेंगे, इसमें अट्ठाइस बजेंगे। मेरी घड़ी में अठारह काँटे होंगे। मेरी घड़ी में काँटे होंगे नहीं फूल होंगे।

समझ में आ रही है बात?

कर्म से पहले ही कर्मफल देख लो न। क्योंकि अधिकांश हमारे जो कर्म होते हैं वो प्रकृति के बने-बनाए साँचों और ढाँचों के भीतर होते हैं। जैसे तुम चल रहे हो, तुम अभी बैठे-बैठे ईमानदारी से अगर चाहोगे तो बिलकुल जान जाओगे कि बीस साल बाद तुम्हारा क्या होना है। किसी ज्योतिषी की ज़रूरत नहीं है। जो तुम्हारे बड़े भैया का हुआ वो ही तुम्हारा होना है, क्योंकि तुम्हारी और उसकी ज़िंदगी बिलकुल एक ही तरीक़े से संस्कारित रही है — तो अंतर कितना आ जाएगा? आप अगर बिलकुल अपने पिताजी के नक्शे-कदम पर चल रहे हैं, तो आपको फिर इतना अचंभा क्या है कि अरे! क्या होगा — बैठकर के कयास लगा रहे हैं — बीस साल बाद। जो तुम्हारे पिताजी की आज हालत है वही तुम्हारी बीस साल बाद होगी, क्योंकि तुम बिलकुल वैसे ही हो। तो क्यों बहुत मुश्किल है सही कर्म चुनना?

आप जो चुनाव करने जा रहे हो उसमें से निन्यानवे प्रतिशत कर्म तो ऐसे हैं जिनकी नियति आज ही आपको पता होती है। आगाज़ के समय ही अंजाम एकदम साफ़ होता है। उसके बाद जब अंजाम आता है तो आप ऐसे चौंकते हो — 'अरे! हम तो भौंचक्के रह गये, हमें तो धोखा हो गया, *सरप्राइज, सरप्राइज*। काहे का सरप्राइज ? जो तुम्हारे साथ हुआ है वो रोज़ दो लाख लोगों के साथ होता है, इसमें चौंकने की क्या बात है? बनी-बनायी बात थी, तयशुदा था सबकुछ। जो तुम करने जा रहे थे उसका अंजाम यह होना ही था। ये रास्ते और कहीं को जाते ही नहीं।

दिल्ली से जयपुर की तरफ़ चले, रास्ते में गुड़गाँव मिल गया, 'हॉ! ये कहाँ आ गये हम?' तो और कहाँ जाओगे, यह तो आना ही था, उसके आगे नीमराना आएगा, अभी से बता देते हैं। 'नहीं, पेरिस नहीं आएगा?' नहीं। ' मार्स (मंगल ग्रह) नहीं आएगा?' नहीं! जब तुम्हारी मम्मी चली थीं दिल्ली से जयपुर, तो उनको भी यही आये थे, तुमको भी यही आएँगे और तुम्हारी औलादों को भी यही आएँगे। सारी कहानी पहले ही लिखी जा चुकी है। कुछ नया नहीं तुम्हारी कहानी में, क्योंकि नया करने की तुममें हिम्मत नहीं है।

'जानू, कैसी होगी हमारी लव स्टोरी (प्रेम कहानी)?' (अंग्रेज़ी लहज़े में कहते हैं) जैसी तेरी अम्मा की है। क्योंकि तू बिलकुल अपनी अम्मा जैसी है। तो इतनी अदाओं से क्या पूछ रही है, 'कैसी होगी हमारी *लव स्टोरी*। अपने ससुर जी का सिर्फ़ मुँह देखता तो हूँ मैं, पूरी लिखी हुई है वहाँ पर — लव स्टोरी — चू रही है एकदम।’

क्या इतने विस्मय से पूछते हो, 'कैसे, आचार्य जी, फैसला करें कि कौनसी राह मुक्ति को जाएगी, कौनसी बंधन को जाएगी।' मुक्ति की तो राह पता नहीं, बंधन की राहों पर तो ऐसे ठप्पा लगा रहता है कि ये बंधन की राहें हैं। तुम ही कैसे अनभिज्ञ हो मुझे ताज्जुब है। यहाँ तो बंधन बाज़ार में अपनेआप को घोषित करके, चिल्ला-चिल्ला कर बिक रहा है — 'मैं बंधन हूँ।' और जो जितनी ज़ोर से चिल्लाता है 'मैं बंधन हूँ', तुम उतनी ज़ोर से भागते हो उसकी ओर — ‘हाँ मुझे चाहिए, मुझे चाहिए!’

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=7zUZAMQK1Yo

GET UPDATES
Receive handpicked articles, quotes and videos of Acharya Prashant regularly.
OR
Subscribe
View All Articles