ऐसे होते हैं उपनिषदों के ऋषि || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

Acharya Prashant

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ऐसे होते हैं उपनिषदों के ऋषि || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

आचार्य प्रशांत: थोड़ी विचित्र है मनुष्य की स्थिति। रहना उसे शरीर में ही है, रहना उसे जगत के साथ ही है। पर सिर्फ़ शरीर बनकर रहता है तो मौत का डर सताता है, अपने चारों तरफ़ और ऊपर और नीचे अगर सिर्फ़ जगत को ही पाता है तो बेचैन हो जाता है, न शरीर छोड़ सकता है, न दुनिया छोड़ सकता है, न शरीर और दुनिया में वो चैन पाता है। ये वो मूल समस्या है जिसे उपनिषद् संबोधित करते हैं।

'हमारी मूल धारणा क्या हो? हम अपने आप को क्या जानें? हमारा खुद से और संसार से रिश्ता क्या हो? जिएँ कैसे? ' इसका उत्तर देते हैं उपनिषद्।

तो वो कह रहे हैं कि, ' तुम्हारे ही भीतर कुछ है जो तुम्हारे जैसा बिल्कुल नहीं है। ' गौर करिएगा। 'तुम्हारे जैसा बिल्कुल नहीं है लेकिन तुमसे पराया नहीं है, तुम्हारे ही भीतर है। '

तो तुम शरीर हो, शरीर बीमार हो जाता है, बूढ़ा हो जाता है। लेकिन ये जो शरीरी है, जो देही है, जीव है, इसी के केंद्र में कोई बैठा है जो ना बीमार होता है, ना बूढ़ा होता है। और उसकी बात करना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि उसकी बात नहीं करोगे तो या तो खुद को ठगते हुए जियोगे, कि अपने आप को कभी याद नहीं आने दोगे कि तुम्हारा अंजाम क्या होने वाला है, क्योंकि अंजाम तो शरीर का एक ही है, मौत।

अगर बहुत खुशी-खुशी जीना है तो बहुत ज़रूरी हो जाता है बहुत लोगों के लिए कि वो अपने हश्र को जबरन भुलाए रहें, कि मौत को ज़रा भी याद ना आने दें, कि अपने आसपास माहौल ऐसा निर्मित कर लें जिसमें मौत की अनिवार्य स्मृति के लिए कोई जगह ही ना हो। एक तो तरीका ये है, झूठी खुशी का।

और अगर झूठी खुशी नहीं चाहिए तो दुःख मिलेगा, क्योंकि शरीर तो बने बैठे हो, अब या तो शरीर के अंजाम को भुला दो, और अगर भुला नहीं रहे तो क्या याद आयेगी तुरंत, मौत, और मौत याद आएगी तो दुःख मिलेगा। तो ये दो रास्ते हैं आपके पास, या तो दुःख झेलिए या झूठी खुशी पाइए। ऋषियों को ये दोनों ही रास्ते स्वीकार नहीं थे।

उन्होंने कहा, ' दुःख तो चीज़ ख़राब है ही, झूठी खुशी भी कुछ बेहतर नहीं है। ' लेकिन यहाँ बात अटक जाती है। शरीर तुम हो, और शरीर का हश्र है मृत्यु, और बीमारी, और बुढ़ापा, और तमाम तरह की सीमाएँ। कहीं चोट लग गई, अकड़ गए, बहुत शरीर बनाया भी तो भी एक दिन पता चला कि अलमारी खिसकानी थी और खिसक नहीं रही है, अचानक से स्पष्ट हो गया कि शरीर के सामर्थ्य की सीमाएँ हैं। शरीर को ही आधार बनाके, बुनियाद बनाकर, कुछ सुख लेने निकले थे, रात बैठे थे कि आज तो खूब शराब पिएँगे, और तीन-चार पेग (एक बार पीने की मदिरा) अन्दर गए नहीं कि लगे उलटने, तुरंत साबित हो गया कि शराब के माध्यम से भी जो सुख चाहते थे, शरीर वहाँ भी सीमित ही है। या कभी सोचा कि चलो फलानी पहाड़ी पर चढ़ कर के आते हैं, बड़ा मज़ा लेंगे, टाँगें जवाब दे गईं। कभी सोचा चलो आज खूब तैरते हैं, खूब खेलते हैं, शरीर जवाब दे गया।

कैसे पाओगे सुख, अगर शरीर ही हो तुम और शरीर ही सुख पाने का जरिया है, तो अटक गए ना? यहाँ तक कि सब राग-रंग, और जो सबसे ज़्यादा आकर्षक शारीरिक सुख होते हैं, तुम पाते हो कि मन उनके लिए छटपटाता रह जाता है अक्सर, शरीर साथ नहीं देता। तो शरीर की तो बहुत प्रकट सीमाएँ हैं। क्या करें, या तो अपने आप से झूठ बोले रहें, उन सीमाओं को भुलाए रहें, या उन सीमाओं को याद रखें और निरंतर तड़पें। ये तो फँस गए, या तो कपट, नहीं तो तड़प।

ऋषियों ने कहा, 'कोई और रास्ता खोजना होगा। ' तो उन्होंने कहा, ' शरीर के ही भीतर है कोई जो शरीर की सब बीमारियों से, सीमाओं से और गुणों से मुक्त है। ' अब बनी बात। अब हमें ये झूठ भी नहीं बोलना है कि हम शरीर नहीं है, अब हमें ये झूठ भी नहीं बोलना है कि हम शरीर हैं और बड़े प्रसन्न हैं, और अब हमें ये तथ्य भी ज़हर की तरह नहीं लगेगा कि शरीर सीमित है और दुःख देता है। ब्रह्मास्त्र मिल गया बिल्कुल। ब्रह्म ही वो ब्रह्मास्त्र है, क्या, शरीर ही के भीतर बैठा है कोई, समझे, गौर करो, शरीर ही के भीतर बैठा है कोई जो शरीर जैसा बिल्कुल नहीं है।

तुम्हारे ही भीतर बैठा है कोई जो तुम्हारा ही है, जो तुम्हारी ही सच्चाई है लेकिन जो तुम्हारे जैसी बिल्कुल नहीं है। अब बन गई बात, बिल्कुल बन गई बात, सारी समस्याओं का हल हो गया। तुम्हारा ही है लेकिन तुम्हारी सब कमज़ोरियों से मुक्त है। क्या बात है, यहाँ तो हम अपने आप को थोड़ा सा बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने के लिए कितना कुछ नहीं करते। फ़ोटो (तस्वीर) आ जाती है तो उस पर फ़ोटोशॉप (तस्वीर को सुधारने का एक अनुप्रयोग) चलता है। अभी ये वीडियो की सेटिंग कर रहे थे तो कलर (रंग) उसमें सेट कर रहे थे कि कहीं नीला ज़्यादा ना हो जाए, कहीं गोरा-काला ना हो जाए।

हम थोड़े से बेहतर दिखने लगें इसके लिए हम कितने लालायित रहते हैं, रहते हैं कि नहीं रहते है? बस थोड़ा-सा बेहतर दिखने लगें। मोटा आदमी एक-किलो वज़न कम कर लेता है तो प्रसन्न हो जाता है, पतला आदमी एक-किलो वज़न बढ़ा लेता है तो प्रसन्न हो जाता है, ठीक है ना? तुम बाल अपने बनवाने जाते हो, बढ़िया कट गए तो अच्छा लगता है, नहीं बढ़िया कटे तो झुँझला जाते हो। आजकल लोग कहते हैं, 'गुड हेयर डे, बैड हेयर डे।' हम थोड़ा-सा बेहतर हो जाने के लिए कितने आकुल रहते हैं, और यहाँ ऋषि कह रहे हैं कि तुमसे अनंत गुना बेहतर कोई तुम्हारे ही भीतर बैठा है। बन गई बात।

तुम तो ज़रा सा, आनुपातिक कुछ बेहतर चाहते थे, इंक्रीमेंटल बेटरमेंट (आनुपातिक बेहतरी)। उससे ज़्यादा हमारी जैसे हैसियत ही नहीं होती, हिम्मत ही नहीं पड़ती, औकात ही नहीं होती। जैसे कोई लड़का हो, चालीस नंबर (अंक) पर पास (उत्तीर्ण) होते हैं और उसके आए हैं अड़तीस, और वो गया है परीक्षक के पास, कि कुछ थोड़े अंक दे दीजिए, ठीक है? कृपा-अंक कहते हैं, ग्रेस-मार्क्स (कृपा-अंक) । तो वो जाके क्या बोलेगा, हिम्मत पड़ेगी उसकी कि बोले कि मुझे चालीस नंबर और दे दीजिए? तो ऐसे ही अस्तित्व के सामने हमारी हालत है, क्या, माँगते भी हैं तो दो नंबर , इससे ज़्यादा मांगने की भी हमारी हिम्मत नहीं पड़ती, 'अड़तीस पे हैं, दो दे दीजिए, चालीस हो जाएगा तो उत्तीर्ण हो जाएँगे। ' ठीक है ना?

अस्तित्व के सामने इंसान ऐसा ही है, भिखारी जैसा, कि माँगेगा भी तो दो रुपया, दो नंबर। बहुत ज़्यादा तो हम माँग भी नहीं पाते। हमने पिछले ही सत्र में कहा था कि ऋषि तो महत्वाकांक्षी लोग हैं, वो छोटी-मोटा तो माँगते ही नहीं कुछ। तो वो ये नहीं कह रहे कि तुम थोड़े से बेहतर हो जाओ, उन्होंने कहा, ' नहीं बेटा, जब तक तुम तुम हो, तुम थोड़े-से ही बेहतर हो सकते हो, और थोड़ी-बहुत बेहतरी हमको चाहिए ही नहीं। अड़तीस हो, चालीस हो, बयालीस हो, हमारे लिए सब बराबर है। हमको तो कुछ चाहिए जो अनंत गुना श्रेष्ठ हो हमसे। '

कैसा लग रहा है सुनने में, कैसा लग रहा है? हम तो परसेंटेज (प्रतिशत) वाले लोग हैं, किसी चीज़ का दाम प्रतिशत में कम हो जाए तो दाँत दिखा देते हैं, किसी चीज़ का दाम प्रतिशत में बढ़ जाए तो, तो मुस्कुरा देते हैं। ऐसे ही करते हैं ना? हम प्रतिशत वाले लोग हैं। और ऋषि यहाँ ऐसे हैं कि वो गुणा भी नहीं कर रहे। वो ये भी नहीं कह रहे कि, 'तुमको सौ रुपया मिल रहा था, अब सौ गुणा सौ मिलेगा ', ना। क्योंकि सौ गुणा सौ भी एक सीमित बात ही हो गई ना। वो ये तो कह ही नहीं रहे कि, 'पहले सौ रुपया मिल रहा था, अब सौ से दस-प्रतिशत ज़्यादा मिलेगा। '

प्रतिशत का हिसाब किसका रहता है, अहंकार का, 'थोड़ा-सा और दे दो ना, दो रुपया और दे दो, ' वो प्रतिशत वाला चलता है वहाँ। ऋषियों का प्रतिशत वाला भी नहीं है, गुणात्मक बढ़ोत्तरी भी नहीं माँग रहे वो, वो तो कह रहे हैं, 'अनंत गुना बेहतर होना है। ' और अनंत गुना ऐसे नहीं बेहतर होना कि अनंत गुना जो हमसे बेहतर है वो कोई दूर की कौड़ी है, तो क्या बता रहे हैं तुमको वो, ' कोई है जो तुम्हारा है, वो सब चीज़ें जो तुम अपनी समझते हो उनसे ज़्यादा वो तुम्हारा है, और वो तुमसे दूर नहीं है, वो तुम्हारे हृदय में बैठा है। ' अब बताओ कैसा लगा, कैसा लगा?

श्रोतागण: असम्भव-सा।

आचार्य: असम्भव-सा लगा? अरे मज़ा नहीं आया? तो इस मज़े का नाम है उपनिषद्।

इसलिए कहा करता हूँ, 'उपनिषदों के पास जाओ। ' और इसलिए जानता हूँ कि उपनिषद् सबके काम के हैं, क्योंकि जब हम वो लोग हैं जो दो रुपया का लाभ करके प्रसन्न हो जाते हैं, तो जब हमें अनंत लाभ होगा तो हमारी खुशी का कोई ठिकाना होगा? वो जो अनंत खुशी है वो हमें यहाँ ( उपनिषदों के पास) मिल सकती है।

बात कुछ समझ में आ रही है?

इस चीज़ को पियो, भीतर आने दो और अपने, क्या, ' कोई है जो तुमसे अनंत गुना बेहतर है और बिल्कुल तुम्हारा है, तुम्हारी असलियत है वो, और वो तुम्हारे ही भीतर बैठा है। ' तुम बूढ़े होगे, वो बूढ़ा नहीं होगा। तुम बीमार होगे, वो बीमार नहीं होगा। तुम झूठे हो सकते हो, वो झूठा नहीं होगा। तुम्हारा मान हो सकता है, अपमान हो सकता है, उसका नहीं होता। तुम कुछ चीज़ें जानते हो, कुछ चीज़ें नहीं जानते हो, वो सर्वज्ञ है। तुम कितना भी बड़े हो जाओ, कितनी भी तरक्की कर लो, कुछ होए, तुमसे ऊपर होगा, उससे ऊपर कुछ नहीं होता।

कैसा लग रहा है? और वो जो है वो बिल्कुल तुम्हारे भीतर ही बैठा हुआ है। बात आ रही है समझ में?

श्लोक को दोबारा पढ़ते हैं। जब भी श्लोकों पर आओ, पूछा करो अपने आप से, कि, 'देखो ये मुझे बोला तो गया है मेरी मदद के लिए ही, मुझे बोला गया है मेरी मदद के लिए ही। ' तो शुरुआत ठीक किया करो, पूछा करो अपने आप से कि, 'कैसे ये मेरी मदद करना चाह रहे हैं? क्या मैं इनकी सहायता कर सकता हूँ? क्या मैं इनकी सहायता कर सकता हूँ कि ये मेरी मदद करें? ' क्योंकि अगर तुम मदद करने में इनकी सहायता नहीं करोगे तो ये भी तुम्हारे आगे मजबूर-से हो जाएँगे।

तुममें और कोई ताकत हो ना हो, इतनी ताकत ज़रूर है तुममें, क्या? कि तुम्हारी मदद के लिए आती बड़ी-से-बड़ी ताकत को तुम बेअसर कर सकते हो। बाकी हर मामले में हम बहुत कमज़ोर होते हैं, एक मामले में बड़े ताकतवर होते हैं, किस मामले में? कि हमारी मदद के लिए कोई बड़ी-से-बड़ी ताकत आ रही हो, हम उसको विफल कर सकते हैं कि वो हमारी मदद ना कर पाए, इतनी ताकत हममें ज़रूर होती है। कुछ अच्छा अपने लिए कर पाने की ताकत हममें कम होती है थोड़ी, लेकिन अपना सत्यानाश कर लेने की ताकत हममें पूरी होती है।

बात समझ में आ रही है?

तो यहाँ पूछना चाहिए कि, ' ऋषिवर क्या बताना चाह रहे हैं, ऐसी कौन-सी व्यावहारिक बात है जो रोज़मर्रा की ज़िंदगी में मेरे काम की है? ' उन्होंने यूँ ही कुछ नहीं बोल दिया। ऋषियों को तो मौन बहुत पसंद होता है, एक भी शब्द अगर बोल रहे हैं तो कुछ बात है, वो बात समझो, और वो बात तुम्हारे काम की है। क्योंकि उनका अपना तो कुछ स्वार्थ है नहीं, ये मान के चला करो, उनका अपना स्वार्थ नहीं है। तो पूछो, कि मेरी मदद कैसे की जा रही है?

ये श्लोक पढ़ते हैं, ' उसे हम जानते हैं जो जरा आदि से मुक्त, सदा नित्य है। ' पहली ही बात में, देखो, कष्ट की झलक मिल रही है तुम्हें, जरा याद आ रही है, अमुक्ति याद आ रही है, अनित्यता याद आ रही है। चित्त ऐसा चाहिए, संवेदनशील, जिसको अपनी हर खोट लगातार स्मृत रहे, वो भूले नहीं। चूँकि अपनी खोट याद है इसीलिए फिर उत्साहित होकर के तुमको बता रहे हैं, कि, 'देखो निराश मत हो, हम उसे भी जानते हैं जो जरा से मुक्त है, जो नित्य है, जिसपर कोई बंधन नहीं है। '

फिर, ' वह सबसे पुरातन पुरुष सबमें आत्मा रूप से समाहित है '। और खुशखबरी ये कि वो तुम्हारे ही भीतर मौजूद है। सिर्फ़ इतना ही तुम्हें नहीं बता रहे हैं कि तुम्हारी कमज़ोरियाँ कहीं पर जाकर खत्म होती हैं, हम तुमसे ये भी बता रहे हैं कि वो, जिसमें तुम्हारी कोई भी कमज़ोरी लेश-मात्र भी नहीं होती वो तो तुममें ही है, तुममें ही है। अपनी ताकत को पहचानो, सामर्थ्य को पहचानो, संभावना को देखो।

बात आ रही है समझ में?

और हम इधर-उधर भागते रहते हैं कि छोटा-मोटा कहीं से उत्साहवर्धन मिल जाए, कोई थोड़ी प्रेरणा दे दे, कोई हममें थोड़ी ऊर्जा भर दे, कोई पंप (उत्साहित करना) मार दे, मोटिवेशन (प्रेरणा) दे दे। और ये (उपनिषद्) क्या है, ये क्या है, यहाँ तुमसे क्या कहा जा रहा है? कि, वो जो पूर्ण है, निर्दोष है, अंतिम है, असीम है, एब्सोल्यूटली परफेक्ट (पूरी तरह से सही) है, वो तुम्हारे भीतर मौजूद है। आगे 'वह सर्वत्र विद्यमान और अत्यंत व्यापक है, उसे ब्रह्मवेत्ता जन जन्म-बंधन से मुक्त तथा सदा नित्य रहने वाला बताते हैं। '

और जब तुम सीमित होकर के संसार को देखते हो, तो संसार में भी तुम्हें सब सीमाएँ ही सीमाएँ दिखाई देती हैं। संसार में तुम्हें फिर कुछ ऐसा दिखाई भी नहीं पड़ेगा जो तुम्हारे काम का हो। काम का क्यों नहीं है, क्योंकि भीतर ही भीतर अकुला तो रहे हो तुम कि कुछ असीम मिल जाए, खुद क्या बने बैठे हो?

श्रोतागण: सीमित।

आचार्य: सीमित। दुनिया में क्या दिखाई देगा?

श्रोतागण: सीमित।

आचार्य: सीमित। लो, तुम भी सीमित, दुनिया भी सीमित, और चिल्ला रहे थे कि, 'असीम, असीम। ' अब सीमित और सीमित मिलकर के असीम तो हो नहीं जाएँगे, कि हो जाएँगे? सीमित में सीमित को चाहे जोड़ दो, चाहे घटा दो, चाहे गुणा करदो, कुछ भी कर दो दोनों का, असीम तो नहीं हो जाएँगे ना, कि हो सकते हैं?

दो संख्याओं को ले लो, दो सीमित संख्याओं को ले लो और उनके मध्य तुम्हें जो भी प्रक्रिया, जो भी ऑपरेशन (संक्रिया) करना है कर लो, और मुझे बताओ कि क्या तुम असीम तक पहुँच सकते हो, किसी भी तरह से उत्तर आ सकता है अनंत, इनफिनिटी (अनंत)? कोई भी दो संख्याएँ ले लो, शून्य नहीं होनी चाहिए एक संख्या बस, क्योंकि हम बात कर रहे हैं सीमित की, शून्य की नहीं। सीमित का मतलब होता है शून्य से ज़्यादा या कम लेकिन पूर्ण नहीं, तो बीचों-बीच का, त्रिशंकु जैसा, लटका हुआ, उसको सीमित बोलते हैं। कोई भी दो सीमित इकाइयाँ ले लो, और उनको जिस भी तरीके से तुम्हें तोड़ना, मरोड़ना, जोड़ना, जो करना है करो। अनंतता तक पहुँच सकते हो, इनफिनिटी ला सकते हो उत्तर? नहीं ला पाओगे।

यही हाल अहंकारी जीव का होता है,वो भी सीमित, उसके संसार भी सीमित, लेकिन वो अपने और संसार के बीच हज़ार तरह के जोड़-तोड़ करता रहता है। पचासों तरह के रिश्ते बनाएगा, ये पकड़ेगा, वो छोड़ेगा, सब।

और नतीजे में हमेशा क्या मिलती हैं, और ज़्यादा?

श्रोतागण: सीमाएँ।

आचार्य: सीमाएँ। असीम मिलता नहीं है। ठीक है?

इसके उलट, अभी यहाँ क्या बात बोली गई? पहले कहा गया कि वो जो अनंत है वो कहाँ मौजूद, और फिर अगली ही साँस में कहा गया कि वो जो अनंत है वो सर्वव्यापक भी है। तुम अगर आत्मा हो तो जगत ब्रह्म है। बात समझ में आ रही है? अहं जब आत्मा है तो संसार ब्रह्म है, और अगर आत्मा नहीं है (अहं), तो अहं के लिए सिर्फ़ क्या है, सीमित संसार। अहं के लिए संसार है, और आत्मा के लिए ब्रह्म है।

दोनों ही स्थितियों में देखी तो अपनी ही छवि जाती है। अहंकार की बराबर की छवि क्या होती है, संसार, और आत्मा की बराबर की छवि क्या होती है, ब्रह्म। अहं और संसार एक हैं, और आत्मा, बोलो, और ब्रह्म एक हैं। अहं और संसार एक हैं, आत्मा और ब्रह्म एक हैं। अहं होकर के इधर-उधर देखोगे तो यही सब छिटपुट, चिल्लर नज़र आएगी, दो-पैसा, पाँच-पैसा। और जो आत्मस्थ हो गया, वो दुनिया को देखता है तो पूर्ण ही पूर्ण, सब पूर्ण।

क्या याद आया इससे, इधर देखा, उधर देखा, सब पूर्ण ही पूर्ण नज़र आया? 'पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। ' सबके लिए नहीं है वो, किसके लिए है वो?

श्रोतागण: जो पूर्ण हो।

आचार्य: जो स्वयं पूर्ण होके देख रहा है, बोल रहा है, 'पूर्णमदः पूर्णमिदं, ये भी पूर्ण, वो भी पूर्ण, ' क्यों, क्योंकि, इधर, हम पूर्ण। आ रही है बात समझ में?

तो मनुष्य की जो अस्तित्वगत समस्या है, उसका उत्तर देते हैं उपनिषद्। जो मूल समस्या है, इंसान होने में ही जो समस्या है, हमारे शरीर में ही जो समस्या बसी हुई है, उसका उत्तर देते हैं उपनिषद्।

मनुष्य नहीं पैदा होता, क्या पैदा होती है, एक समस्या पैदा होती है। हमारे शरीर में ही समस्या बैठी हुई है, उसी का नाम अहंकार है। और उसका उत्तर नहीं मिल रहा तो बाकी सब उत्तर व्यर्थ हैं, क्योंकि हमारी बाकी सब समस्याएँ निकलती किस समस्या से हैं, अहं से निकलती हैं। भले ही वो समस्या तुम्हें कितनी भी दूर की लगे या किसी भी क्षेत्र की लगे, लेकिन अगर होशियारी से देखोगे तो ये पाओगे कि ले दे के हर समस्या अहं की समस्या है। तो उपनिषद् उस मूल समस्या का समधान करते हैं जिसको अगर काट दिया, तो बाकी सब समस्याएँ अपने आप ठीक हो जाती हैं।

आ रही है बात समझ में?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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