प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बहुत लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपना जीवन औरों को समर्पित किया है। उन्हें हम महात्मा कहते हैं, हीरो कहते हैं, अवतार कहते हैं, महापुरुष कहते हैं। इन लोगों ने औरों को अपने आप से ऊपर रखा है। लेकिन मैंने अपने कुछ लोगों का एक दायरा बनाया हुआ है, मेरा निकट परिवार। इसके अलावा मैं किसी और के लिए संवेदना नहीं रखता, चाहे वो और लोग हों, चाहे जानवर हों या बाहर का कोई भी। क्या ये गलत है? और क्या इसको ठीक करा जा सकता है? क्या इसको ठीक करना जरूरी है? क्या मुक्ति की राह पर आगे बढ़ने के लिए संवेदनशील होना ज़रूरी है? खास तौर पर औरों के लिए, या जानवरों के लिए, या पेड़ों के लिए?
आचार्य प्रशांत: ये भ्रम है। आपको इसमें जो भेद ही दिख रहा है, अपने छोटे दायरे और बाहर की दुनिया के बीच में, ये भ्रम है। तो इस सवाल को ही अगर गौर से देखेंगे तो वहीं से समाधान निकल आएगा।
सब सवालों में ऐसा ही होता है। सवाल अगर कोई पूरी तरह सही होता तो वह सवाल नहीं होता। अगर कोई सवाल ऐसा होता जो अपने आप में कोई विरोधाभास न समेटे होता तो फिर तो वह सवाल ही नहीं होता न। सवाल का मतलब ही है कि उसमें कहीं कोई आंतरिक विरोधाभास है। उसके भीतर ही कुछ बेमेल है। उसके भीतर ही कहीं कोई चोट है, कोई खोट है, कोई खंड है, तभी तो वह सवाल है। अन्यथा वह सवाल ही क्या बन जाए? समाधान न? इसीलिए जानने वालों ने हमें कहा है कि भीतर से उठते सवालों से घबरा करके जल्दी ही बाहर उत्तर खोजने मत भाग लिया करो। सवाल में ही समाधान बैठा हुआ है। हर सवाल कुछ मान्यताओं पर आधारित होता है। हर सवाल के पीछे छुपे होते हैं कुछ बुनियादी उसूल, सिद्धांत, जो हमें प्यारे होते हैं, जिन्हें हम सत्य कह रहे होते हैं। वो होते सिर्फ सिद्धांत हैं, पर सिद्धांत एक तरह से मान्यता है। पर उन्हें हम सिद्धांत नहीं कहते, उन्हें हम क्या कहते हैं? सत्य।
अब सत्य और सत्य की तो कभी लड़ाई होती नहीं। दो सत्य होते ही नहीं। और सत्य के दो पहलू भी कभी आपस में घर्षण में नहीं आते, एक-दूसरे के खिलाफ नहीं खड़े होते। लेकिन जो हमारे सत्य होते हैं, उनको हम पाते हैं कि वो परम सत्य से टकरा रहे हैं, परम सत्य से किसी तरीके से समायोजित नहीं हो पा रहे, सामंजस्य नहीं बिठा पा रहे। इसका मतलब क्या है? आप इनके सवाल को देखिए, कह रहे हैं कि “हीरो वो है, हमें बताया गया है, संत वो है जिसके लिए ‘वसुधैव कुटुंबकम’, जिसके लिए समूचा अस्तित्व ही परिवार समान है।” ठीक? तो इस बात को मानिए कि यह एक ऊँची बात है, सत्य की उद्घोषणा है। और फिर उनका व्यक्तिगत सिद्धांत है। व्यक्तिगत सिद्धांत क्या है? कि जो लोग आसपास हैं, उनकी परवाह करनी चाहिए। अब ये जो अपना व्यक्तिगत सिद्धांत है, जिसको हम सत्य ही मान लेते हैं, ये टकरा रहा है संतों की बातों से। यह टकराव ही बताता है कि कहीं कुछ गड़बड़ है। इस सवाल में ही कहीं कुछ गड़बड़ है। अब क्या गड़बड़ है वो थोड़ा हम समझ लेंगे, आसान है। इसका अगर कोई सस्ता समाधान निकालना हो, जो समस्या आप बता रहे हैं, उसका कोई सस्ता समाधान निकालना हो तो तुरंत क्या कहा जा सकता है? कि, "नहीं भाई, तुम गलत काम कर रहे हो। तुम सिर्फ अपने परिवार की परवाह कर रहे हो। ये तो स्वार्थ हो गया, क्षुद्रता हो गई। तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें पूरी दुनिया की परवाह करनी चाहिए।”
ये सलाह मैं आपको बड़ी आसानी से दे सकता हूँ। और जब मैं ये सलाह दूँगा तो कोई नहीं कहेगा कि आचार्य जी आपने कोई गलत बात बोल दी, क्योंकि ये बात हम बचपन से ही सुनते आ रहे हैं न? कि एक अच्छा नागरिक, एक अच्छा इंसान और खास तौर पर एक अच्छा आध्यात्मिक इंसान कौन होता है? — लव दाइ नेबर — जो अपने घर के जैसा ही मानता है अपने पड़ौसी के घर को।
"दूसरों के साथ वो व्यवहार ना करो जो तुम्हें अपने लिए पसंद नहीं"। सुनी है न ये सीख?
तो ये सब बातें तो हम बचपन से ही सुनते आए हैं। उन्हीं बातों को मैं अभी दोहरा दूँ तो आप उन्हें तत्काल स्वीकार कर लेंगे। आप कहेंगे आचार्य जी ने बता दिया, क्या बता दिया?
"नहीं भाई, अपने माँ-बाप या पत्नी या बच्चों की ही परवाह नहीं करो, तुम पूरे मौहल्ले की परवाह करो। अरे नहीं, पूरे मौहल्ले नहीं, पूरे प्रांत की परवाह करो; प्रांत नहीं, देश की परवाह करो; देश नहीं, पूरे विश्व की परवाह करो।"
और ये बात सुनने में बड़ी आकर्षक लगेगी और इसमें बड़ा पराक्रम है, कि है कोई जो अपने घर जितनी ही परवाह करता है पूरे देश की, पूरी दुनिया की। बात और ज़्यादा बहादुरी की हो जाए अगर कोई ऐसा निकल आए जो अपने घर से ज़्यादा परवाह करता है दूसरों की। और अक्सर हम इसी को आध्यात्मिक आदमी का गुण समझ लेते हैं। हम कह देते हैं, आध्यात्मिक आदमी कौन है? जो अपनों को तो त्याग देता है — अपने माने जिनके साथ पला-बढ़ा, जिनसे खून का नाता है, जिनके साथ अतीत में जुड़े रहे हो। हम कहते हैं आध्यात्मिक आदमी है ही वही जो अपनों जितनी ही बाहर वालों की परवाह करता है, या फिर वो अपनों को त्याग करके ही बाहर वालों की परवाह करता है। ये जो मैं भेद अभी ले रहा हूँ अपनों का और बाहर वालों का, ये मैं आपकी ही भाषा उधार ले रहा हूँ। क्योंकि आपने ही कहा न कि “मैं अपनों की ही परवाह करता हूँ, बाहर वालों की नहीं कर पाता, तो मेरे भीतर एक थोड़ी ग्लानि सी रहती है, एक लज्जा रहती है।” आपने कहा, ये सवाल पूछते ही आपको डर लग रहा है। वो डर लग ही इसीलिए रहा है क्योंकि भीतर से लजाए हुए हैं कि, “अरे! आध्यात्मिक हूँ, मुझे हक क्या है अपने परिवार की ही चिंता करने का?”
कौन-कौन हैं परिवार में?
प्र: माता पिता, पत्नी और बच्चे।
आचार्य: वही। कि ये तो बात कुछ शोभा नहीं देती न, कि अपने ही माँ-बाप और बीवी-बच्चे भर की परवाह कर रहे हैं, दुनियाभर की तो कोई परवाह कर नहीं रहे। और हमारे सामने आदर्श और उदाहरण भी बहुत सारे हैं। वास्तव में जो ही संत बनना चाहता है या चाहता है कि उसका नाम संत की तरह प्रचारित हो, वो अपने बारे में एक बात ज़रूर फैलाता है, क्या?
"कि ये साहब, अपने माँ-बाप की परवाह नहीं करते हैं, ये दुनिया की परवाह करते हैं, या ये दुनिया की परवाह भी कम-से-कम उतनी ही करते हैं जितनी ये अपने परिवार की परवाह करते हैं।"
ठीक है न? है कि नहीं?
संतों के बारे में यही बात हमें आकर्षित करती है। यही बात आकर्षित करती है न?
"कि, देखो ये आदमी है, इसकी अपनी बीवी मर गई कोई बात नहीं, पर ये निकला हुआ था अन्य दीन-दुखियों की मदद करने के लिए, वाह क्या बात है!"
लोचा है, कहीं कुछ गड़बड़ है।
बस आप ग्लानि में नहीं हो, पूरी दुनिया ग्लानि में है। हमें बता दिया गया है कि आध्यात्मिक होने के लिए आवश्यक है अपनों की अवहेलना करना, अपनों की उपेक्षा करना, और अपना माने? फिर मैं कह रहा हूँ, मैं आपकी ही भाषा उधार ले रहा हूँ, अध्यात्म में तो अपना-पराया कुछ होता नहीं न? पर आपकी भाषा का इस्तेमाल करते हुए कह रहा हूँ कि हमें यह लगता है कि अध्यात्म का मतलब है कि भाई अपनों पर जरा कम ज़ोर दो और बाहर वालों पर थोड़ा ज्यादा ज़ोर दो, या कम-से-कम उन पर भी बराबरी का ध्यान दो। ठीक?
और ये तो कोई कर पाता नहीं।
आप लोग जो यहाँ बैठे हुए हैं, आप सबकी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि है, कोई यूँही नहीं आ गया। सब पढ़े-लिखे लोग हैं। आप में से कई लोग बड़े संस्थानों में, कंपनियों इत्यादि में वरिष्ठ पदों पर काम भी कर रहे हैं। दुनिया सबने देखी हुई है और यहाँ पर आए हुए हैं, समय लगा रहे हैं, पैसा लगा रहे हैं, तो गंभीरता से आप अध्यात्म या आत्मज्ञान के क्षेत्र के खिलाड़ी हैं। हैं न?
उसके बाद भी मैं आपसे पूछूँ कि आपमें से कितने ऐसे हैं जो जितनी फिक्र अपने परिवार वालों की करते हैं, उसकी एक-चौथाई फिक्र भी दुनिया की कर लेते हैं तो कौन-कौन हाथ उठाएगा?
चलो, अब इसी बात को मैं ज़रा और धरातल पर ले आता हूँ, ज़मीनी बना देता हूँ। तथ्यों को जाँच लेते हैं, आंकड़ों को। अभी यहाँ पर अगर बीस लोग बैठे हैं तो चार जनों ने हाथ उठाया कि हमें ऐसा लगता है कि हम जितनी फिक्र अपनों की करते हैं उसकी चौथाई फिक्र तो दुनिया की कर ही लेते हैं। ठीक। इसको अब आंकड़ों में जाँचें। अभी चार-बटा-बीस है, मैं देखना चाहता हूँ कि ये चार-बटा-बीस भी बचेगा कि नहीं।
अपनी आमदनी में से जितना पैसा अपने ऊपर और अपनों के ऊपर खर्च करते हो, क्या उसका पच्चीस-प्रतिशत दुनिया पर भी खर्च करते हो, कितने लोग ऐसे हैं?
अब चार में से तीन हो गए। और ये तब है जब अभी हम सिर्फ यह कह रहे हैं कि बराबरी की बात नहीं, बस यह बता दो कि जितना अपने और अपनों के ऊपर करते हो, क्या उसका एक चौथाई हिस्सा भी दुनिया पर लगाते हो, तो नतीजे सामने हैं। ये हाल पूरी दुनिया का है और उस हाल का फल वही है जो आपके सवाल में सुनाई दे रहा है। क्या? सब ग्लानि में जी रहे हैं।
जो ये कह भी दें कि हाँ हम चौथाई हिस्सा दुनिया पर लगाते हैं, वो भी ग्लानि में जीएँगे, क्योंकि चौथाई ही क्यों लगाते हो भाई, तिहाई क्यों नहीं लगाते? आधा क्यों नहीं लगाते? दो-तिहाई क्यों नहीं लगाते? तीन-चौथाई क्यों नहीं लगाते? साहब, पूरा ही क्यों नहीं लगा देते? अध्यात्म तो कहता है कि 'अहम' बचना ही नहीं चाहिए। जब 'अहम' ही नहीं बचना चाहिए, 'मैं' ही नहीं बचना चाहिए तो मेरी बीवी कहाँ से बच गई? 'मैं' ही नहीं तो बीवी किसकी? 'मैं' ही नहीं तो माँ-बाप किसके, और बच्चा किसका? तो फिर उन पर खर्च भी क्यों कर रहे हो? तुम्हें तो विश्वरूप हो जाना चाहिए, तुम्हें तो पूरे ब्रह्मांड में छितरा जाना चाहिए। तुम सबके हो गए, तुम्हारे खून की एक-एक बूँद दुनिया के एक-एक आदमी की हो गई, ये अपनों पर तीन-चौथाई किसलिए खर्च कर रहे हो? नतीज़ा वही होगा — ग्लानि।
और ये ग्लानि काम किसके आएगी?
ग्लानि का अर्थ क्या होता है, मैं छोटा हुआ।
ग्लानि का अर्थ है, "मैं कुछ छुटपन का काम कर रहा हूँ। मैं छोटा हो गया।" ये छोटा-बड़ा तो हमेशा तुलनात्मक रूप से होता है साहब। आप छोटे हो गए तो ज़रा गौर से देखकर बताइए, बड़ा कौन हो गया? अगर आप अपनी ही नजरों में छोटे हो गए कि “मैं तो छोटा आदमी हूँ, देखो मैं अपने परिवार से इतना जुड़ा हुआ हूँ, मैं तो छोटा आदमी हूँ।” जो परिवार से जुड़ जाए इतना, वो छोटा हो जाता है। जो परिवार से जुड़ने के कारण छोटा हो गया, उसने बड़ा किसको घोषित कर दिया? उन सब लोगों को जो परिवार इत्यादि छोड़ करके, अपनों को छोड़ करके या कम-से-कम अपनों को छोड़ने की घोषणा करके, अपनों को छोड़ने का प्रदर्शन करके, सार्वजनिक रूप से, सामाजिक रुप से प्रतिष्ठित हो गए हैं। वो बड़े हो गए न? कि ये हमारे स्वामी जी हैं या ये हमारे नेता हैं। और इनकी कीर्ति ही इसी बात की है कि इन्होंने अपने माँ-बाप छोड़ दिए या अपनी बीवी छोड़ दी, वाह! आप देख रहे हो, क्या हो रहा है? आप अपनी नजरों में गिर करके किसी और को महान बनाए दे रहे हो। ये बात समझ में आ रही है?
अब जो बात व्यावहारिक है, उसको समझिए। और मैं व्यावहारिक शब्द पर इसलिए ज़ोर दे रहा हूँ क्योंकि अध्यात्म सिद्धांतों के संकलन का नाम नहीं है। अध्यात्म इसलिए होता है ताकि जीवन में वास्तविक और व्यावहारिक उन्नति आए। आपने बस ज्ञान इकट्ठा कर लिया, कुछ उसूल, कुछ सिद्धांत इकट्ठे कर लिए तो आप आध्यात्मिक नहीं हो गये। आपकी जिंदगी में निखार आया तो अध्यात्म आपके काम आया। तो व्यावहारिक बात करेंगे। व्यावहारिक बात ये है कि आप जहाँ बैठे हो, शुरुआत आपको वहीं से करनी पड़ती है। हाड़-माँस के पुतले हो आप। समय और स्थान में अवस्थित हो आप। *यू आर लोकेटेड इन स्पेस एंड टाइम*।
जब आप समय और स्थान में अवस्थित हो, जीव होने के कारण, तो आपको समय और स्थान को दृष्टि में रखकर ही शुरुआत करनी पड़ेगी, भले ही आपका उद्देश्य हो अंततः समय और स्थान के पार निकल जाना। ये बात थोड़ा समझिएगा।
आप कौन हैं? क्या आप वो हैं जो स्पेस-टाइम (समय और स्थान) से आगे निकला हुआ है? ये सत्र शुरू हो पाया क्या जब तक कि ये हाड़-माँस का पुतला आकर के इस आसन पर नहीं बैठ गया? हो पाया क्या? तो आप तो आप, जिस वक्ता को आप सुन रहे हैं वो भी गुलाम है, किसका?
स्पेस-टाइम का।
जब तक मैं यहाँ बैठ नहीं गया, जिस समय तक नहीं शुरू हो पाया, तो किसके गुलाम हो गए हम सब? समय के।
और यहाँ पर क्या आकर के बैठी?
ये देह।
तो किसके गुलाम हो गए हम?
देह के भई।
देह माने ही स्थान होता है। स्पेस और ऑब्जेक्ट्स (वस्तुएँ) अलग-अलग नहीं होते, दोनों एक दूसरे को परिभाषित करते हैं। तो देह माने *स्पेस*।
तो इस व्यावहारिक बात को स्वीकार करना पड़ेगा कि जो जीव पैदा हुआ है, उसके ऊपर घोर सीमाएँ लगी हुई हैं। किसकी?
देह की, स्पेस-टाइम की।
और उसे उन सीमाओं के बीच से ही रास्ता निकालना है, अगर उसे उन सीमाओं का उल्लंघन करना है तो भी। अध्यात्म का मतलब यही है कि भई! समय और स्थान की वर्जनाओं में कैद रहकर हमें दुख मिलता है, तो हम क्या करना चाहते हैं? हम इन वर्जनाओं का उल्लंघन करना चाहते हैं, हैं न? हम इनके पार निकल जाना चाहते हैं। पर साहब आप पार भी निकल जाना चाहते हैं तो आपको शुरुआत कहाँ से करनी पड़ेगी? शुरुआत तो वहीं से करोगे न जहाँ पर हो। काम भले तुम्हारा वैश्विक हो, शुरुआत कहाँ से करोगे? जहाँ तुम हो।
महात्मा गाँधी खादी का प्रचार करते थे। एक दफा किसी ने उनसे पूछा कि “खादी भी कपड़ा ही है, उसे इस देश का आम आदमी बनाएगा, और विदेशों से जो कपड़ा पहनने के लिए आता है, उसे वहाँ के बुनकर बनाते हैं। ये आप भेदभाव क्यों कर रहे हैं भाई? *वसुधैव कुटुंबकम*। आप विदेशी कपड़ों की तो होली जला देते हो। विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करने को कहते हो न आप? कहते हो, सब अपना विदेशी माल लाओ, उसको फूँक दो। और कहते हो कि यहाँ की खादी पहनो जो गाँव-गाँव में बन रही है, घर-घर में बन रही है, चरखा कातो और फिर उससे जो खादी निर्मित हो, वो सब पहनो। ये भेदभाव क्यों कर रहे हैं, गलत नहीं है क्या?”
गाँधी जी ने जो जवाब दिया वो सुनने में आपको बहुत रसीला नहीं लगेगा, पर बात में दम था, गौर करियेगा। उन्होंने कहा, "सब मेरे पड़ोसी हैं और हर पड़ोसी से मुझे प्रेम है, लेकिन मैं ये नहीं कर सकता कि जो मेरे बगल में बसा हुआ है, मैं उसके ऊपर वरीयता दे दूँ उस पड़ोसी को जो सात समुंदर पार बसा हुआ है। प्रेम मुझे उससे भी है जो सात समुंदर पार बैठा हुआ है, पर देखो साहब! हाड़-माँस का पुतला हूँ। मेरे तो देखने की भी सीमा है, सुनने की भी सीमा है, पहुँचने की भी सीमा है, जानने की भी सीमा है। तो शुरुआत तो मैं किससे करूँगा? अगर मुझे सबसे पहले किसी की भलाई करनी है तो मैं किसकीकरूँगा? जो बिलकुल बगल में है। तो मुझे अगर कपड़ा पहनना है, तो मैं सबसे पहले तो उसके माल को प्राथमिकता दूँगा जो मेरे बगल में बना रहा है और खासतौर पर अगर जो मेरे बगल में बना रहा है वो दुर्दशा में हो, गरीब हो, उसे ज़रूरत हो कि उसका माल बिके तो मैं तो उसी के माल को प्राथमिकता दूँगा। हाँ! कभी ऐसी नौबत आई कि मुझे दिखाई दिया कि वो जो दूर मेरा भाई बैठा है, वो जो दूर का मेरा, सात समुंदर पार का पड़ोसी बैठा है, उसे मेरी मदद की ज़रूरत है तो मैं उसकी भी मदद कर दूँगा। लेकिन मेरी मदद पर पहला अधिकार किसका होगा? वो जो मेरे बगल में बैठा है।"
ये बात आप समझ रहे हैं न?
ब्रह्म नहीं हैं आप, ना परमात्मा हैं, कि आपकी दृष्टि में सब बंदे बराबर हों। हाँ, अध्यात्म का उद्देश्य ज़रूर है कि आप अंततः मुक्त आत्मा हो जाएँ, लेकिन अभी क्या हैं आप? क्या आपकी दृष्टि में सब बंदे बराबर हैं? क्या आप ऐसे हो गए हैं कि आपके लिए आपका अहंकार अब मायने नहीं रखता?
तो हमें समझ लीजिए कि रस्सी पर चलना है। हमें तनी हुई रस्सी पर चलना है। एक तरफ तो हमें यह जो 'मैं'पन है, ये जो 'अपना'पन है, इससे मुक्ति की ओर प्रयासरत रहना है। दूसरी ओर हमें भूलना नहीं है कि 'मैं'पन अभी हम पर छाया हुआ है, तभी तो हम उससे मुक्ति माँग रहे हैं। वह होता नहीं तो मुक्ति भी क्यों माँगते? तो लक्ष्य यही रखना है कि पूरी दुनिया का कल्याण हो। और पूरी दुनिया में फिर पूरी दुनिया के इंसान ही नहीं आते, उसमें सब जीव-जंतु आते हैं। फिर उसमें कीड़े-मकोड़े भी आ गए, फिर उसमें नदी-पहाड़ भी आ गए। और फिर उसमें यही क्यों कहें कि पृथ्वीभर के ही जीव-जंतु आते हैं, अखिल ब्रह्मांड आ गया उसमें। लक्ष्य यही है कि सबका कल्याण हो। लेकिन, भैया, शुरुआत कहाँ से करोगे? बोलो। अमेज़न में भी आग लगी हुई है और तुम्हारे मौहल्ले में भी आग लगी हुई है, किसको बुझाने जाओगे?
प्र: मौहल्ले की।
आचार्य: क्योंकि हम गुलाम हैं। जैसे हम हैं, हम गुलाम हैं। किसके? स्पेस-टाइम , माने कि शरीर के। तो शुरुआत तो उसी से करोगे न, जो तुम्हारे आस-पास है? तो आपने कोई अपराध नहीं कर दिया अगर आप शुरुआत करते हो अपने माता-पिता से, अपने बीवी-बच्चों से, आपने कोई गुनाह नहीं कर दिया है। कृपया लज्जित अनुभव ना करें। और किससे शुरुआत करोगे भाई? एक बात बताना, मुक्ति भी माँग रहे हो तो किसके लिए माँग रहे हो? यहाँ बैठे हो तो किसके लिए मुक्ति माँग रहे हो? अपने लिए ही तो माँग रहे न? तो पहली लज्जा तो इसी बात पर आनी चाहिए, कि, "छि:छि:छि:! मैं अपने लिए मुक्ति माँग रहा हूँ।" ऐसा क्यों नहीं किया कि सहयोग राशि जमा करा दी किसी और के लिए? यह तो तुमने घोर स्वार्थ का काम करा न, कि खुद ही उठकर यहाँ पर आ गए? खुद किसलिए आ गए? ये भी तो स्वार्थ है न कि मुक्ति भी चाह रहे हो तो किसकी चाह रहे हो?
प्र: अपनी
आचार्य: पर ये शुभ स्वार्थ है। और इसके अलावा आपके पास कोई विकल्प नहीं है। क्या विकल्प है? क्या करोगे? तो शुरुआत अगर अपने परिवार से कर रहे हो तो बहुत अच्छी बात है, कोई इसमें गलत नहीं कर दिया।
प्रसन्न मत हो जाइए जल्दी से, बात अभी भी है आगे और।
तो यहाँ तक ठीक है कि शुरुआत अपने ही माँ-बाप से करनी है, अपने ही बीवी-बच्चों, दोस्तो-यारों से करनी है। ठीक। लेकिन पेच अब ये आएगा कि अपनों की भलाई ही तो करना चाहते हैं न आप? अपनों की भलाई आप कैसे कर लेंगे अगर आपको ठीक-ठीक पता ही नहीं भलाई का अर्थ? अब यहाँ पर कहानी मोड़ लेती है। पहले तो मैंने यह कह दिया कि कोई बात नहीं चलो अपनों की ही भलाई कर लो, तुम और करोगे भी क्या। कोई विकल्प ही नहीं। कहानी मोड़ ले रही है और मैं पूछ रहा हूँ, अपनों की भलाई करोगे कैसे? भलाई की परिभाषा कहाँ से लाओगे? अपनों की भलाई जैसे-जैसे करने निकलोगे, एक विचित्र चीज़ होगी। समझ में आएगा कि अपनों की भलाई नहीं कर सकते दूसरों की उपेक्षा करके।
एक माँ है वो अपने बच्चे की भलाई चाहती है, और अगर वो वास्तविक भलाई चाहती है, समझदार माँ है, तो उसको समझ में आएगा कि जब तक वह अपने बच्चे को और दुनिया को दो अलग-अलग इकाइयाँ समझ रही है, तब तक बच्चे की भलाई हो ही नहीं सकती। जितनी उसकी समझ बढ़ती जाएगी उतना उसको दिखने लगेगा कि अगर अपनों की भलाई करनी है तो बाहर वालों की करनी पड़ेगी। ये एक ही तंत्र, ताना-बाना है जिसमें सब जुड़े हुए हैं। हम अलग नहीं रह सकते।
प्रदूषण बहुत हो गया है हवा में, ठीक है? अपने बच्चों को सिखा दो कि तुम्हारे फेफड़े खराब हो जाएँगे, तुम्हारी उम्र घट जाएगी, तुम्हें इतनी बीमारियाँ हो जाएँगी, धुआँ मत छोड़ो, गंदगी मत करो। बच जाएँगे इससे बच्चे? और मैं आपके ही बच्चों की भलाई की बात कर रहा हूँ। आप पाते हैं आपके बच्चे को अस्थमा हो गया है, खाँसने लग गया है। और शुरुआत आप यहीं से कर लीजिए कि मुझे तो अपने ही बच्चे की भलाई करनी है। जैसे कि हर माँ की वृत्ति होती है, वो अपने बच्चे का भला चाहती है। ठीक? तो माँ ने जाकर बच्चे को सिखा दिया कि बेटा हवा साफ रखनी है। और बेटा बात समझ गया। बिलकुल! हवा साफ रखनी है। हवा नहीं साफ रखूँगा तो दम घुटेगा, खाँसूंगा, साँस नहीं ले पाऊँगा। तो उस बच्चे ने हवा साफ रखना शुरू कर दी। बच जाएगा बच्चा? बच जाएगा? क्यों नहीं बचेगा? आपने अपने बच्चे की फिक्र कर तो ली, क्यों नहीं बचेगा? क्यों नहीं बचेगा?
अरे! क्योंकि पूरा मौहल्ला गंदगी कर रहा है। अपने बच्चे को बचाना है तो किस को बचाना पड़ेगा? पूरे मौहल्ले को बचाना पड़ेगा। ठीक है? चलो पूरे मौहल्ले में हवा साफ कर देते हैं, सबको सिखा दिया। और क्यों सिखा दिया? अपने ही स्वार्थ के लिए। मेरे बच्चे को साँस की समस्या है तो गंदगी नहीं होनी चाहिए, सफाई रखनी है, धुआँ नहीं छोड़ेंगे, ये सारी बातें मौहल्ले को सिखा दीं। बच जाएगा बच्चा?
थोड़ा बचेगा। मौहल्ले की हवा थोड़ी साफ हो जाएगी। पर मौहल्ला तो मौहल्ला है। शहर के बीच बसा मौहल्ला है। बच जाएगा बच्चा? अगर अपने भी बच्चे को बचाना है तो क्या करना पड़ेगा?
प्र: शहर की सफ़ाई।
आचार्य: अरे! ये तो बड़ा काम आ गया। अपना निजी स्वार्थ भी अगर देखना है तो वैश्विक काम करना पड़ेगा। हम सब बहुत जुड़े हुए लोग हैं। अभी तो मैंने बहुत स्थूल उदाहरण लिया है उस हवा का जिसको हम अपने फेफड़ों में लेते हैं। अभी मैंने उन प्रभावों की तो बात ही नहीं करी जिनको हम अपने दिमाग में लेते हैं। तुम अपने बच्चे में बहुत अच्छे-अच्छे संस्कार भर दो और वह जी रहा है एक घटिया, लफंगे समाज में, बचा लोगे अपने बच्चे को?
मान लो तुम बिलकुल साधारण माँ-बाप हो, साधारण माँ-बाप कौन होते हैं? जिन्हें सिर्फ अपने बच्चों से मतलब होता है। कहते हैं “मेरी दुनिया कायम रहे, और बाकी सब जाएँ भाड़ में।” तुम्हें अगर अपनी दुनिया भी कायम रखनी है तो बताओ कैसे कायम रख लोगे अगर ये जो बाहर बड़ी दुनिया ये भाड़ में जा रही है? बाहर पूरी जो दुनिया है अगर जा रही है रसातल में, राक्षसी होती जा रही है, लुच्ची होती जा रही है, तुम्हारा बच्चा बचेगा? बचाकर दिखा दो।
तो आप यही इरादा रख लो, आपने कोई अपराध नहीं कर दिया अगर आपका यही इरादा है कि मेरे परिवार की बेहतरी हो, लेकिन अगर आपका ये इरादा भी है कि आपके परिवार की बेहतरी हो तो आप पाएँगे कि आपको पूरी दुनिया की बेहतरी करनी पड़ेगी क्योंकि आपका परिवार और दुनिया बड़ी गहराई से आपस में जुड़े हुए हैं। नहीं तो आप अपने परिवार को बचाते रह जाओगे जैसे कि किसी घर में आग लगी हो और एक आदमी उसी घर के एक कमरे में अपने परिवार को समेटे हुए दरवाजा बंद करके सोच रहा है — मैं तो बच गया। घर में आग लगी हुई है और आपने अपने परिवार को समेट के एक कमरे में बंद कर लिया है। और उसमें ए.सी. चला दिया भई, आप अपने परिवार के बड़े प्रेमी हो। दीवारें तप रही थीं तो आपने क्या करा? ए.सी. चला दिया। उसमें आप हैं, धनिया है, नुन्नू है, चुन्नू है, अम्मा-पापा हैं, ये इतने लोग हैं पाँच-सात, और सब आपस में बिलकुल गले मिलकर के बैठ गए हैं, बच जाओगे क्या? बोलो। पर हम ऐसे ही सोचते हैं। जब दुनिया में आग लगी हुई है तो तुम्हारा परिवार कैसे बच जाएगा? मानो अगर अपने परिवार को भी बचाना है तो क्या करना पड़ेगा?
प्र: दुनिया की आग बुझानी पड़ेगी।
आचार्य: दुनिया की आग बुझानी पड़ेगी न? तुम इसी नाते दुनिया की आग बुझाओ। नि:स्वार्थ होकर नहीं, अपने स्वार्थ के कारण ही। अगर अपना स्वार्थ भी हम समझेंगे तो हमें दुनिया की आग बुझानी पड़ेगी। स्वार्थी होना कुछ गलत नहीं है, स्वार्थ न समझना बेवकूफी है। हमारी समस्या यह नहीं है कि हम स्वार्थी लोग हैं, हमारी समस्या यह है कि हमें यह पता भी नहीं है कि हमारा असली स्वार्थ कहाँ है। अगर आप असली स्वार्थ जान जाएँ अपना, उसके बाद स्वार्थी हों तो आपका स्वार्थ परमार्थ हो जाएगा, पूरी दुनिया के लिए शुभ हो जाएगा।
अभी तो हमको ये लगता है कि पूरी दुनिया को डुबोकर हम बच जाएँगे। हम इस बात को समझते ही नहीं सब मामला जुड़ा हुआ है। हमें बल्कि उल्टा लगता है, हमें लगता है दुनिया को जितना दबा देंगे उतना ऊँचा उठेंगे। हमें ये लगता है कि मुझे अपना घर अगर भरना है तो दुनिया से छीन-छीनकर भरना होगा मुझे। दुनिया से छीनो, घर को भरो। हम ये समझते भी नहीं हैं कि दुनिया से छीन कर अगर घर को भर लिया तो ये जो घरवाले हैं इन्हें जीना तो इसी दुनिया में है न? जिस दुनिया से बहुत कुछ छिन चुका हो, वो दुनिया कैसी हो जाएगी? उग्र, हिंसक, भूखी, हत्यारी। तुम जिस मौहल्ले में रहते हो, उसी मौहल्ले के लोगों की रोटियाँ छीन करके अपने घर में भर लो और खूब खाओ और अपनों को भी खिलाओ और सब चुन्नू-मुन्नू इतने मोटे-मोटे हो गए। और मौहल्ला पूरा कैसा हो गया है? जैसे सोमालिया। दो हड्डी के घूम रहे हैं वो, पन्द्रह-पन्द्रह किलो के। पूरी दुनिया से छीन करके मैंने क्या भर लिया? अपना निजी व्यक्तिगत घरौंदा। तो ये जो तुम्हारे चुन्नू-मुन्नू हैं जब ये बाहर निकलेंगे तो वो सब क्या करेंगे मौहल्ले वाले? क्या करेंगे? इन्हीं को खा जायेंगे। क्योंकि जिस आदमी का बहुत कुछ छिन गया हो वो बड़ा हिंसक हो जाता है। अगर अपनों की भी सुरक्षा चाहते हो तो एक सुरक्षित दुनिया खड़ी करनी पड़ेगी न?
और प्रेम में एक बड़ी खास बात होती है। जब वो गहराता है तो फिर वो देह देखना बंद कर देता है। शुरुआत उसकी देह से ही होती है, क्योंकि हम देह से बंधे हुए लोग हैं। इसीलिए हम जब भी किसी से प्रेम करते हैं तो शुरुआत तो देह से ही होती है। लेकिन जब प्रेम गहराता है तो देह देखना बंद कर देता है या कम कर देता है। और जैसे ही प्रेम देह देखना कम करता है, वैसे ही देह के आधार पर भेद करना कम कर देता है। उसके बाद आप यह नहीं कहते कि मुझे इस देह से प्रेम है। देह का महत्व घटता जाता है। उसके बाद आप नहीं कहते मुझे इस देह से प्रेम है, आप बस कहते हैं मुझे प्रेम है। और जब प्रेम है और देह नहीं देखी जा रही तो प्रेम किसके लिए हो जाएगा? सबके लिए हो जाएगा। जब देह देखी जा रही है प्रेम में, तो ये प्रेम निश्चित रूप से कैसा रहेगा? सीमित रहेगा। किसके लिए? उस एक देह के लिए जिसको वो देख रहा है। लेकिन करोगे क्या? शुरुआत तो देह वाले प्रेम से ही करनी पड़ेगी। प्रक्रिया की शुरुआत तो किसी एक देह से ही करोगे, कहोगे मुझे फलाने से प्रेम हो गया, वो फलाना तुम्हारा अपना छोटा बच्चा भी हो सकता है। मुझे फलाने से प्रेम हो गया, शुरुआत ऐसे ही होगी लेकिन अगर प्रेम के पीछे नियत साफ है और प्रेम गहरा रहा है तो उसमें देह का स्थान कम होता जाएगा, कम होता जाएगा, कम होता जाएगा। शुरुआत हुई थी —’ देह से प्रेम हो गया’ और आगे बढ़ते जाओगे तो क्या बचता जाएगा? ‘प्रेम हो गया।’ देह दिखनी कम, कम और कम होती जाएगी। और जब देह दिखनी कम होती जाएगी तो प्रेम अब किसी एक खास देह के लिए नहीं हो सकता, अब प्रेम किसके लिए है? अब वो बढ़ता जाएगा, दायरा व्यापक होता जाएगा। अब ये नहीं कहोगे कि उससे प्यार करता हूँ, अब बस कहोगे प्यार करता हूँ। अब कैसे तुम बर्दाश्त कर लोगे कि तुम्हारा बच्चा रबड़ी-मिठाई खा रहा है और बाहर वाले जो हैं वो भूखे मर रहे हैं, तुम्हें तो प्रेम है। और अब ये बात साहस की नहीं रह जाएगी, ना बलिदान की रह जाएगी, और ना अध्यात्म की रह जाएगी, यह बात सहज हो जाएगी कि वो जो बाहर है, उसका भी ख्याल करना ही करना है।
अब ये नहीं कर पाओगे कि घर में कुत्ता पाला है और उसको मुर्गा खिलाते हैं। बहुत लोग होते हैं जो अपने पालतू कुत्ते को पेडिग्री लाकर देते हैं। और वो पेडिग्री किससे बनती है? मुर्गे से बनती है। अब ये नहीं कर पाओगे कि एक जानवर पाला हुआ है जिसको कह रहे हो ये मेरा निजी जानवर है और उस जानवर को क्या खिला रहे हो? दूसरा जानवर। अब ये नहीं कर पाओगे। अगर तुम अपने जानवर को दूसरा जानवर खिला रहे हो तो इसका मतलब समझना, कोई बड़ी बात नहीं कि तुम एक दिन अपने जानवर को खा जाओ, क्योंकि अभी तुम्हें प्रेम नहीं हुआ है। इसी बात को इंसानों की तरफ लेकर के आओ।
जिनका प्रेम अभी सीमित है और देह के तल पर ही है, कुछ खास विशिष्ट व्यक्तियों तक ही केंद्रित है, सीमित है, उनका प्रेम उन चंद खास सीमित व्यक्तियों पर भी भारी पड़ेगा। इसीलिए आमतौर पर जो हमारा प्रेम होता है वो किसी को भी फलता नहीं, किसी के लिए भी अच्छा होता नहीं। बाहर वालों की तो हम उपेक्षा कर ही देते हैं प्यार में। "मुझे प्यार हुआ है!" किससे हुआ है? "तीन लोगों से है।" तो जो बाहर वाले हैं, उनकी तो उपेक्षा करनी ही है। उपेक्षा ही नहीं करनी है, इन तीन लोगों के हित के लिए अगर ज़रूरत पड़ी तो मैं बाहर वालों से छीना-झपटी भी कर लूँगा। अपना परिवार चलाने के लिए मैं बाहर वाले को लूट लूँगा। "अपनी बीवी को गहने देने हैं, लड़के को विदेश भेजना है, बिटिया को डॉक्टर बनाना है, तो दफ्तर में मैं सबसे घूँस लूटूँगा।" पूरी दुनिया को लूट रहा हूँ, किन लोगों के लिए? तीन-चार लोगों के लिए।
जो ऐसे जी रहे हैं, उनका समझ लेना कि वो उन तीन-चार लोगों के लिए भी अच्छे नहीं होंगे। जो आदमी दुनिया को लूट करके अपना घर भरता है, वो आदमी अपने भी घर का दुश्मन है। ये बात सुनने में विरोधाभासी लगेगी। आप कहेंगे, "कैसे? वो तो दुनिया को लूटकर अपना घर भर रहा है न?"
उसका घर चलेगा नहीं।
उसको अगर हित वास्तव में पता होता और प्रेम वास्तव में पता होता, तो दुनिया को नहीं लूटता। अगर वो दुनिया को लूटकर अपना घर भरता है, इसका मतलब वो अँधेरे में है, अज्ञान में है और प्रेम वो जानता नहीं। जब प्रेम वो जानता नहीं तो अपने लोगों से भी उसका रिश्ता कैसा है? प्रेमहीन, प्रेम से खाली। जब अपने लोगों से भी उसका रिश्ता प्रेम से खाली है, तो अपने लोगों को भी वह किस अंजाम तक पहुँचा देगा? किसी बुरे अंजाम तक ही पहुँचा देगा। जो लोग दुनिया को लूट करके अपना हित या अपने परिवार का हित करते हैं, उनका परिवार भी बर्बाद होता है, डूब जाता है।
तो दो बातें कही मैंने। एक ओर तो मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि हीरो बन जाओ, तथाकथित संत-महात्माओं जैसे हो जाओ, कि, "घर का परित्याग कर दिया और अब हम निकले हैं विश्व कल्याण के लिए", छोड़ो बेकार की बात! शुरुआत वहीं से कर लो जहाँ पर हो, क्योंकि और कोई विकल्प है भी नहीं। वहीं से शुरुआत कर लो जहाँ पर हो। परिवार से ही शुरुआत कर लो। लेकिन जब परिवार से शुरुआत करोगे परिवार के भले के लिए, तो निःसंदेह क्या पता चलेगा? कि सब आपस में संबंधित हैं और अगर परिवार का भला करना है तो दुनिया का भी भला करना पड़ेगा। मैंने कहा कि जब प्रेम गहराता है तो किसी विशिष्ट व्यक्ति की ओर केंद्रित नहीं रह जाता, वह निर्विशेष हो जाता है। ये गहरे प्रेम की पहचान है।
उथले प्रेम की पहचान समझना। उथले प्रेम की पहचान है — मुझे सिर्फ और सिर्फ तुझी से प्यार है। जैसे ही कोई मिले जो कहे, "मुझे सिर्फ और सिर्फ तुझी से प्यार है", समझ लो ये बड़ा घातक आदमी है, ये तुम्हारी भी जान लेगा। हाँ हमें ऐसा ही प्यार अच्छा लगता है। फिल्मों वाला प्यार यही होता है, क्या? "मुझे सिर्फ और सिर्फ तुझी से प्यार है!" पर अगर तुमने कह दिया 'मुझे सिर्फ और सिर्फ तुझी से प्यार है' तो जिससे तुम कह रहे हो 'मुझे सिर्फ और सिर्फ तुझी से प्यार है' — याद रखना, उसका खून तुम्हीं बहाने वाले हो। और खून ऐसे ही नहीं बहता, गोली मार दी तो खून बह रहा है, कई बार खून ऐसे भी बहाया जाता है कि तुझे सौ साल तक जिंदा रखूँगा और सौ साल तक तेरा खून पीऊँगा। सौ साल तक तुझे हट्टा-कट्टा रखूँगा और भीतर ही भीतर सौ साल तक तेरा खून पीता रहूँगा। तो इस तरह की बातों से बहुत बचना कि, "मेरी जिंदगी तो सिर्फ तेरे लिए है!"
इस प्रेम में निश्चित रूप से किस का अभाव है? गहराई का।
क्योंकि प्रेम जब गहराता है तो निर्विशिष्ट हो जाता है। किसी एक की ओर नहीं रह जाता। एक माने देह, और क्या? किसी एक इंसान से बँधा हुआ नहीं रह जाएगा प्रेम, अगर प्रेम गहरा है।
आप अगर पाते हों कि आप खासतौर पर किसी एक को ही प्यार करते हैं। अगर आपको अपने जीवन में ऐसा अनुभव है, ऐसी स्थिति है आपकी कि आप किसी एक को ही खासतौर से प्यार करते हैं, समझ लीजिए कि मामला गड़बड़ है। जिस एक को आप खासतौर से प्यार करते हैं, उसकी गर्दन काटेंगे आप, और काट रहे होंगे। ये खास वाले प्यार से बचना कि तुम मेरे लिए खास हो। लेकिन मजबूरी ये है कि शुरुआत तो यहीं से करनी पड़ेगी। हम ऐसे ही हैं। स्पेस-टाइम का मामला है। जीव हैं, देह से ही शुरुआत होती है। हर काम की शुरुआत कहाँ से? देह से; तो प्यार की शुरुआत भी कहाँ से होगी? देह से ही होती है।
शुरुआत हो गई देह से, कोई गुनाह नहीं हो गया; पर शुरुआत हुए भाई अब कई साल बीत गए, अभी भी देह पर क्यों अटके हुए हो? शुरू कर लिया था देह से, कोई बात नहीं, वैसे ही शुरू होता है; अभी भी? अब नहीं।
प्यार में भी कुछ प्रगति होनी चाहिए न? जब जिंदगी में हर चीज में तरक्की माँगते हो, दफ्तर में भी कहते हो कि प्रोन्नति हो, पदोन्नति मिले, तो प्यार में पदोन्नति नहीं चाहते? प्यार में प्रोन्नति का यही मतलब होता है कि पहले हमें तुममें क्या दिखाई देती थी? (देह) वो एंट्री-लेवल (आरंभिक स्तर का) प्यार था, जैसे एंट्री-लेवल जॉब (प्रवेश स्तर वाली नौकरी) होती है न — स्थूल, ग्रॉस और फिर तरक्की होती गई। अब देह ज़रा कम दिखाई देती है। फिर प्यार कैसा हो जाएगा? व्यापक, *एक्सपांसिव*। और जब तक वो एक ही देह की तरफ लक्षित था, तब तक वो कैसा रहेगा? — क्षुद्र, सीमित।
तो जो पुराने प्रेमी हों, उन्हें खासतौर पर अपने-आप से ये सवाल करना चाहिए कि अब तो बेटा दस साल का हो गया है या पन्द्रह साल का हो गया, और जानेमन से इश्क़बाजी भी अब बीस साल की हो गयी; अभी तक ऐसा कैसे है कि यही कहते रहते हैं, कि, "तेरे सिवा कोई दूसरा नहीं हमारा"? बीस साल तक आपकी कंपनी में पदोन्नति ना हो, कैसा लगेगा आपको? अब बीस साल तक आपके इश्क की पदोन्नति नहीं हो रही, लाज नहीं आती? दफ्तर में पदोन्नति नहीं होती तो इस्तीफा दे देते हो, प्यार में पदोन्नति नहीं हो रही तो कुछ नहीं करना चाहोगे?
अपने-आप को दोष देना भी है तो इस बात का मत दीजिए कि आपको अपने माँ-बाप से, बीवी-बच्चों से प्यार है, ये कोई गुनाह नहीं कर दिया आपने। प्रकृति का उसूल है भाई ये। और जो जन्म लेता है वो तो एक प्रकृतिगत जंतु ही होता है न? जो बच्चा पैदा होता है वो कोई बुद्ध तो होता नहीं।
क्या होता है? प्रकृति का एक उत्पाद।
नाम मात्र की चेतना होती है उसमें।
बाकी सब क्या होता है उसमें?
कुछ नहीं — रोना, पीटना, दूध दे दो, हग देगा, मूत देगा; यही सब कर रहा है, इसमें क्या बुद्धत्व है?
तो शुरुआत तो देह से ही होगी। छोटा बच्चा ही देह मात्र होने भर से शुरुआत करता है, यही तो करता है। तो कोई दोष नहीं है कि अगर आपने शुरुआत करी है अपने परिवार से। लेकिन दोष इसमें ज़रूर है कि जहाँ से शुरुआत करी वहीं अटके रह गए, ये दोष की बात है। अगर आप ये हरकत कर रहे हो तो फिर आप उत्तरदाई हो। जवाब दीजिए। शुरुआत आपने देह से करी, देह माने उन सबसे करी जिनसे देह का आरंभिक रिश्ता था, शुरुआत उनसे करी कोई अपराध नहीं कर दिया, पर शुरुआत करे तो साहब कितने साल बीत गए।
कितने बीत गए?
अरे! पता नहीं कितने बीत गए, आप जानिए।
जितने भी बीत गए, उनके बाद भी शरीर पर ही किसलिए अटके हुए हो? अब तो, बहुत आगे बढ़ जाना चाहिए था न? कि नहीं बढ़ जाना चाहिए था?
आगे बढ़ो।