ऐसा लालच करना अच्छा है || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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ऐसा लालच करना अच्छा है || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बचपन से या जब से भी होश सम्भालते हैं, ये ही सिखाते हैं कि काम, क्रोध, मोह, लोभ; इन सब चीज़ों को छोड़ दूँ। सीखने का लोभ सही है या गलत है, मुझे कुछ और सीखने को मिल जाए जैसे मान लो आपकी ही विडीओ हैं, और देख लूँ, और देख लूँ, और देख लूँ कुछ। और मिल जाएगा अगर देखने से तो और सीख लूँगा।

ये थोड़ा-सा लोभ अगर अन्दर जागता है तो सही है या गलत है? है तो मेरे हिसाब से लोभ ही।

आचार्य: (हँसते हुए) चलो, लोभ पर तुम्हें कुछ सुनाते हैं। ध्यान से सुनना, जो सुना रहा हूँ उसमें लोभ का ज़िक्र आएगा, ठीक है।

(आचार्य जी अपने फोने से एक गीत सुनाते हैं)

हम्म, क्या सुना लालच के बारे में?

प्र: नहीं समझ में आया।

आचार्य: गुरु साहब कह रहे हैं कि ये लालच बचा रहना चाहिए कि तेरे गुण कभी न भूलूँ। उन्हीं की बात करूँ, उन्हीं का उच्चारण करूँ।

समझ में आ रही है बात?

तो भीतर के जितने राग हों, जितनी वृत्तियाँ हों, उनको परमात्मा की ओर उन्मुक्त कर देना होता है। ‘लालच है तो लालच किसका करूँगा? (ऊपर की ओर इंगित करते हुए) उसका करूँगा।’ ‘डरूँगा तो किस बात से डरूँगा? कि राम, तुझे कहीं भूल न जाऊँ।’

‘बहुत मोह है, बहुत ममता है भीतर, तो सारी मोह-ममता किसकी ओर निर्दिष्ट कर दूँगा?‌ (उँगली ऊपर की ओर इंगित करते हुए) उसकी ओर।’

‘स्त्री हूँ, पति चाहिए, तो कृष्ण को पति बना लूँगी, मीरा हो जाऊँगी। भीतर बड़ी वृत्ति उठती है कि पत्नी तो होना ही है मुझे, स्त्री हूँ। तो अपनी इस स्त्रैण वृत्ति को कृष्ण की ओर मोड़ दूँगी।’ कृष्ण पति हो गए।

‘अनाथ सी भावना आती है। लगता है, मेरे सिर पर किसी का साया नहीं। लगता है, किसी का हाथ मिले, किसी की सुरक्षा मिले। तो (ऊँगली ऊपर की ओर करते हुए) उसको कहना शुरू कर दूँगा कि तू ही पिता है, तू ही बाप है मेरा, फ़ादर है!’

‘भीतर से जितनी वृत्तियाँ उठती होंगी, सब को उधर को (उँगली आकाश की ओर करते हुए) भेजूँगा। जाओ, उधर जाओ!’

आ रही है बात समझ में?

जब भी कुछ लगे कि काबू से बाहर हो रहा है, चित्त का कोई भी मसला जब दिखाई दे कि नियन्त्रण में आ ही नहीं रहा, तो उसे उधर भेज दो। मातृत्व भाव बहुत छलकता है, तो बाल-किशन।

हिन्दुस्तान ने तो ये बखूबी किया है न कि इस परमशक्ति को जितने रूप दिए जा सकते थे, सब दे दिए। ताकि जिधर को भी तुम्हारी वृत्ति भागे, उसी को पाए।

पेड़ में भी वही है, पेड़ की पूजा चल रही है। छोटे बच्चे में भी वही है, राम-लला को झुलाया जा रहा है, बाल-कृष्ण हैं। बूढ़े में भी वही है, ब्रह्मा जी की लम्बी-सफेद दाढ़ी देखो। जवान स्त्री में भी वही है, सब देवियों को देखो। सब युवा ही हैं,‌ सब‌ स्त्री ही हैं। सबको पूजनीय कर लिया भारत ने कि स्त्री जिधर को दिखे, उधर ही पूजा कर लो।

युवाओं के साथ होता है न, कह रहे थे अभी कि स्त्री देखता हूँ, ऐसी भावना आती है। तो ठीक है, चारों ओर तुम्हें फिर देवी ही दिखाई दे, बोलो, ‘माँ!’ सब रूप उस परमशक्ति के ही हैं। नदी में भी वही है, नदियों की पूजा हो रही है। पर्वत भी वही है, पर्वतों की पूजा हो रही है। पशुओं में भी वही है, पशुओं की भी पूजा चल रही है।

तो ये राज़ हिन्दुस्तान ने जाना है कि वृत्तियों को मारा नहीं जा सकता। उनको बस (दोबारा ऊपर इंगित करते हुए) उसकी सेवा में अर्पित किया जा सकता है। और बन्दा करे भी तो क्या? तुम कहो, ‘मेरे पास जो कुछ है, सब तुझे दिया। गुस्सा बहुत है मेरे पास, तो अब मैं गुस्सा भी तभी करूँगा, जब तुझसे सम्बन्धित कोई विषय होगा, अन्यथा ग़ुस्सा नहीं करूँगा।’

अब ये बड़ी बात बोल दी तुमने। तुमने कहा, ‘तुझसे सम्बन्धित कोई मुद्दा होगा तो क्रोध करूँगा, अन्यथा क्रोध करूँगा ही नहीं।’ अब तुम किसी छोटी बात पर क्रोध करोगे कैसे?‌ लो, क्रोध खत्म हो गया।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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