प्रश्नकर्ता: सर, जहाँ दुर्घटना हुआ, एयरपोर्ट के बगल में हॉस्पिटल क्यों था? ऐसा अलाउड है? या अगर हॉस्पिटल नहीं होता तो...?
आचार्य प्रशांत: इतना अच्छा है सवाल, लेकिन हम ऐसे फंडामेंटल क्वेश्चंस पूछते नहीं हैं ना। हम बहुत सारी बातों पर चर्चा करेंगे कि ड्यूल इंजन फेल्योर क्यों हो गया, कॉन्सपिरेसी थ्योरीज़ की बात करेंगे — लेकिन एक बहुत छोटा सा और बड़ा सीधा सवाल है, वो हम नहीं पूछेंगे कि एयरपोर्ट के बगल में हॉस्पिटल है ही क्यों?
दुनिया के किसी भी देश में, भारत में भी, ये अलाउड ही नहीं होता कि एयरपोर्ट की जो बाउंड्री वॉल है, वहाँ से एक हॉस्पिटल शुरू हो जाता हो। हॉस्पिटल को जो रिस्क हैं एयरपोर्ट के बगल में होने के, तो बहुत ज़ाहिर — एकदम ऑब्वियस बात है ना।
एयरपोर्ट छोड़ो, कहीं नॉर्मली भी हॉस्पिटल होता है तो वहाँ पर साइन लगा होता है — “हॉस्पिटल, डू नॉट हॉन्क” — “यहाँ पर हॉर्न नहीं बजाइए,” “यहाँ पेशेंट्स हैं, कृपया शोर नहीं करिए,” “धीरे चलिए।”
जो एक एयरक्राफ़्ट होता है ना, जो टेकऑफ़ कर रहा होता है या लैंड कर रहा होता है, वो 120 से 150 डेसिबल तक का शोर पैदा करता है। और एक हॉस्पिटल के लिए 50-60 डेसिबल से ऊपर की आवाज़ अनऐक्सेप्टेबल होती है, इंटॉलरेबल होती है। बहुत तरह के ख़तरे होते हैं वहाँ पर प्रिसीजन सर्जरीज़ हो रही होती हैं — वो डिस्टर्ब हो जाएँगी। वहाँ पर क्रिटिकल कम्युनिकेशन हो रहा है सर्जरीज़ के दौरान — वो डिस्टर्ब हो जाएगा।
पीडियाट्रिक वॉर्ड्स होते हैं — उसमें छोटे बच्चे होते हैं — वो डिस्टर्ब हो जाएँगे। जेरियाट्रिक वॉर्ड्स होते हैं — जिसमें बूढ़े लोग होते हैं — वो डिस्टर्ब हो जाएँगे। साइकेट्रिक पेशेंट्स होते हैं — जिनको इतनी ज़ोर की आवाज़ आनी ही नहीं चाहिए — वो डिस्टर्ब हो जाएँगे। जो साधारण पेशेंट भी है, उसकी जो रात की नींद है — वो ख़राब हो जाएगी।
जो अच्छे डेवेलप्ड शहर हैं, वहाँ तो शहरों के ऊपर से फ्लाइट्स पर नाइट टाइम कर्फ्यू लगा दिया जाता है — फ़्रैंकफर्ट वग़ैरह में। जो रेज़िडेंशियल इलाके हैं, वहाँ पर फ्लाइट्स के लिए नाइट टाइम कर्फ्यू होता है — कि लोगों की नींद इससे डिस्टर्ब हो जाएगी। और सोचो, हॉस्पिटल एकदम एयरपोर्ट के बगल में बना दिया गया है — तो वहाँ पर कितना भयानक शोर होता होगा, वो भी कितनी जल्दी-जल्दी, बार-बार, कितनी फ़्रीक्वेंसी से! और नॉइज़ पॉल्यूशन ही अकेली समस्या नहीं है हॉस्पिटल के लिए — अगर वो एयरपोर्ट के बगल में बना हुआ है। एयर पॉल्यूशन भी!
जो एयरक्राफ़्ट होता है, जब वो टेकऑफ़ कर रहा होता है, उस समय वो सबसे ज़्यादा फ्यूल कंज़म्पशन करता है। तो पी.एम 2.5, पी.एम10, ये सब और NO₂ — ये सब बहुत इस वक़्त वो एमिट करता है। और ये सारे वो पार्टिकल्स हैं जो कि किसी हॉस्पिटल में पहुँचने नहीं चाहिए। जो तुम्हारी सीटी स्कैन और एमआरआई की मशीनें होती हैं ना, ये सुपर सेंसिटिव होती हैं। अगर इनमें हवाई जहाज़ का वाइब्रेशन्स पहुँच रहा है, तो ये मशीनें रॉन्ग आउटपुट दे सकती हैं। इतना ही नहीं, इन मशीनों को बार-बार री-कैलिब्रेट करना पड़ेगा।
हॉस्पिटल के पास तो एयरपोर्ट का होना बहुत ही घातक बात है।
सबसे ज़्यादा जो क्रैशेज़ होते हैं — 80% जो एयरप्लेन के क्रैशेज़ होते हैं — वो होते हैं टेकऑफ़ करते वक़्त या लैंड करते वक़्त। टेकऑफ़ करने के बाद का जो 3 मिनट का पीरियड होता है, वो बहुत क्रिटिकल होता है। लैंडिंग से पहले जो 8 मिनट का पीरियड होता है, वो बहुत क्रिटिकल होता है। उस पीरियड में हवाई जहाज़ को रेज़िडेंशियल इलाकों से जितना दूर रखा जा सके, उतना दूर रखा जाना चाहिए। लेकिन हमारी प्लानिंग ऐसी है, और हमारे तरीक़े ऐसे हैं कि हमने जहाँ एयरपोर्ट है वहीं पे सटे हुए हॉस्पिटल भी बना दिए हैं। हमने रेज़िडेंशियल इलाके भी बना दिए हैं।
इतना ही नहीं — जो रनवे है, ख़ासकर अहमदाबाद में, उसकी बिल्कुल सीध में रेज़िडेंशियल कॉम्प्लेक्सेस हैं। अब एयरपोर्ट — जो प्लेन जब लैंड करेगा तो भी वो रनवे की सीध में ही लैंड करता है, और जब टेकऑफ़ करेगा तो भी रनवे की सीध में ही उड़ता है — और उसी सीध में, उसके ठीक नीचे, वहाँ पर बिल्डिंग्स बना दी गई हैं। और ये कितना बड़ा ख़तरा है! सबसे पहला सवाल तो ये उठाया जाना चाहिए, कि वहाँ पर कोई भी रेज़िडेंशियल कॉम्प्लेक्स नहीं होना चाहिए — वहाँ पर हॉस्पिटल कहाँ से आ गया? जबकि हॉस्पिटल तो एक सुपर सेंसिटिव जगह होती है। दुनिया में कहीं पर भी ये सब अलाउड नहीं होता है।
पी.एम. 2.5 का जो कंसन्ट्रेशन होता है — वो एयरपोर्ट्स के पास बहुत हाई होता है। हॉस्पिटल में तो वो एक्सेप्टेबल ही नहीं है। लेकिन हम ये बातें करते नहीं हैं।
प्रश्नकर्ता: ऐसा विचार आता है कि अगर हॉस्पिटल नहीं होता, और सब कुछ जैसे स्ट्रिक्टली अकॉर्डिंग टू द रूल बुक बनाया जाता, तो क्या इस ऐक्सीडेंट का पूरा सीवियरिटी है, क्या वो कम होता?
आचार्य प्रशांत: सीवियरिटी कम हो सकती थी। हम ये तो नहीं कह सकते कि ऐक्सीडेंट में कोई भी मृत्यु, फेटालिटी नहीं होती, पर हाँ, कई और जानें बचाई जा सकती थीं। देखो, जब उसका इंजन फेल्योर होता है ना, तो उसके बाद वो एक ग्लाइडर बन जाता है। ठीक है? उसे कोई मिसाइल नहीं लग गई है, उसमें कोई एक्सप्लोज़न नहीं हो गया है। बस उसके पास अब पावर नहीं है — तो वो हवा में ग्लाइड कर रहा है। वो अभी भी सेफली लैंड कर सकता है। और इसीलिए दुनिया भर में नियम है कि एयरपोर्ट से दूर रखो आबादी को, और खाली जगह रखो एयरपोर्ट के पास।
जैसे कि सिंगापुर में नियम है कि एयरपोर्ट से 3 कि.मी. दूर तक खाली स्थान रखा जाएगा। दुनिया में ज़्यादातर जो डेवलप्ड देश हैं, वे अपने एयरपोर्ट्स के आसपास या तो फ्री ज़ोन्स बनाते हैं या फिर ग्रीन ज़ोन्स बनाते हैं। लेकिन लोगों को नहीं बसने देते। अगर जो प्लेन है, वो ग्लाइड भी कर रहा है और उसको खाली जगह मिल जाए — तो वो वहाँ पर रिलेटिवली सेफली लैंड कर जाए। पर अब प्लेन ग्लाइड कर रहा है और एयरपोर्ट के ठीक सामने बिल्डिंग बनी हुई है — तो कहाँ लैंड करेगा? कहाँ लैंड करेगा?
हम सब जानते हैं, वो जो मिरेकल ऑन द हडसन था — सली मूवी भी आई थी 2016 में। तो उसमें ड्यूल इंजन फेल्योर हो गया, और इसी वजह से हुआ था बर्ड हिट की वजह से। तो उन्होंने जाकर के प्लेन को हडसन रिवर पर उतार दिया — है ना? क्योंकि वो खाली जगह सबसे पहले अवेलेबल थी, वहाँ पर उतारा जा सकता था।
आप अगर खाली जगह छोड़ोगे ही नहीं एयरपोर्ट के पास, तो कोई कैसे उतारेगा? और प्लेन तो रिवर छोड़ो, रोड पर भी उतर सकता है। जैसे तुम्हारा जो यमुना एक्सप्रेसवे है ना, उसको फाइटर प्लेन्स को लैंड कराने के लिए भी यूज़ करा जा सकता है। और बहुत बार हमने देखा है कि वहाँ पर जो है तैयारी हो रही होती है — उसको बोल दो एक तरह की प्रैक्टिस हो रही होती है कि अगर जो नॉर्मल एयरफील्ड्स हैं, उन पर बॉम्बिंग हो गई और वो जो रनवेज़ हैं, वो ख़राब हो गए — तो आपके जो फाइटर जेट्स हैं, वो सीधे-सीधे एक्सप्रेसवे पर लैंड कर जाएँगे।
जो रनवे है, वो एक तरीक़े की सड़क ही तो होती है — स्पेशलाइज़्ड सड़क है, पर सड़क ही है। या अगर कोई खाली जगह भी अवेलेबल हो — घास का मैदान अवेलेबल हो, या बस ऐसे ही मिट्टी का मैदान हो, या खेत भी हो — कुछ भी ऐसा हो जो चपटा, सपाट जगह हो — वहाँ पर प्लेन को लैंड कराने की कोशिश की जा सकती है। उसमें भी कुछ जानें जाएँगी, या चोट आएँगी — लेकिन ऐसा तो नहीं होगा ना कि सारे के सारे लोग ही मारे गए। पर आप एयरपोर्ट के आसपास घनी बस्ती बसा दोगे — और ठीक उस जगह आप घनी बस्ती बसा रहे हो जहाँ पर क्रैश होने की संभावना सबसे ज़्यादा है — तो ये तो फिर आप मौत के साथ ही खेल रहे हो।
प्लेन को ये मत मानो कि सिर्फ़ इसलिए वो 'क्रैश' हुआ है कि उसका इंजन फेल्योर हो गया था। उसमें ये भी जोड़ो कि वो इसलिए क्रैश हुआ है क्योंकि उसको लैंड करने के लिए कोई जगह नहीं मिली।
वो ज़रा सा उठा है, और उसके बाद वहाँ पर ह्यूज कंक्रीट स्ट्रक्चर्स खड़े हुए हैं — वो कहाँ पर लैंड करे? रनवे की बिल्कुल सीध में रेज़िडेंशियल बिल्डिंग्स हैं। प्लेन कहाँ पर लैंड करेगा? और ये कोई अननोन रिस्क फैक्टर नहीं है। ये एक वेरी वेल नोन एंड रिसर्च्ड रिस्क फैक्टर है — कि जब प्लेन टेकऑफ़ करेगा, तब बहुत तरह की उसमें समस्याएँ आ सकती हैं।
वो प्लेन के लिए सबसे नाज़ुक क्षण होता है जब वो टेकऑफ़ कर रहा होता है। उसके बाद भी हम वहाँ पर ऐसा कंस्ट्रक्शन अगर अलाउ कर रहे हैं — तो वो भी, हम हॉस्पिटल जैसी सेंसिटिव चीज़ बना रहे हैं एयरपोर्ट से बिल्कुल सटा करके — फिर तो राम ही मालिक है।
इतनी ही नहीं है — प्लेन जब टेकऑफ़ कर रहा होता है, तो उसमें फ्यूल भी सबसे ज़्यादा होता है। उसमें फ्यूल भी सबसे ज़्यादा होता है। वो एक तरह का फ्लाइंग बॉम्ब है — जिसमें 200–400 लोग बैठे हुए हैं, और जिसमें 1 लाख लीटर, 2.5 लाख लीटर फ्यूल भरा हुआ है। वो एक बॉम्ब है — आप बैठे हुए हो इतने सारे फ्यूल के ऊपर, अभी-अभी टेकऑफ़ कर रहा है।
जो आज तक एविएशन इतिहास की सबसे बड़ी दुर्घटना है — वो मालूम है कहाँ हुई है? वो एयरपोर्ट पर ही हुई है। के.एल.एम. (कोनिन्कलुके लुख़्तवार्ट माख़्तापे –रॉयल डच एयरलाइंस) का एक जहाज़ था। 1977 की दुर्घटना है। के.एल.एम. का एक जहाज़ था, जिसने अभी-अभी पूरा फ्यूल भरा था और “पैन ऐम (पैन अमेरिकन वर्ल्ड एयरवेज़)” का एक जहाज़ था। वो दोनों एक ही रनवे पर थे। कोहरा बहुत था, दिखाई नहीं दिया। “के.एल.एम” का जहाज़ बिना ए.टी.सी. के अप्रूवल के टेकऑफ़ करने लग गया और वो जाकर के भिड़ गया पैन ऐम के जहाज़ से।
उसने देख लिया था अंत में कि वो है। उसने उठने की भी कोशिश की, लिफ्ट की, पर उसमें फ्यूल का वज़न इतना ज़्यादा है — क्योंकि उसने अभी-अभी एयरपोर्ट पर फ्यूल भरवाया है। उसमें फ्यूल का वज़न इतना ज़्यादा है कि वो उठ ही नहीं पाया। और फ्यूल चूँकि इतना ज़्यादा है, तो वही फ्यूल जब वो टकराया, तो बम बन गया। और उसमें क़रीब 500–600 लोगों की जान चली गई। ये आज तक की सबसे बड़ी दुर्घटना है।
टेकऑफ़ के समय एक तो फ्यूल सबसे ज़्यादा है — वही फ्यूल बम बनता है। और वही समय है जब इंजन को सबसे ज़्यादा लिफ्ट की ज़रूरत पड़ती है। और कोई भी उसमें फ़ॉल्ट आ सकती है। वही समय है जब बर्ड हिट हो सकती है। इतने सारे रिस्क फैक्टर्स होते हैं टेकऑफ़ के समय। और हम वहाँ पर हॉस्पिटल बना दें, तो फिर अब तो मतलब। सोचो ना — इतनी जो जाने गईं, दुनिया की आज तक की सबसे बड़ी जो एविएशन ट्रैजेडी है, वो आसमान में नहीं हुई है, वो एयरपोर्ट पर हुई है। और एयरपोर्ट पर हुई है क्योंकि एक बड़ा कारण ये भी है कि टेकऑफ़ सबसे डेंजरस पॉइंट होता है।
प्रश्नकर्ता: सर, जब मैं कॉलेज में था, वहाँ पर सिटी का एयरपोर्ट लगभग 10–12 कि.मी. दूर था, फिर भी बहुत डिस्टर्बेंस होता था एयरपोर्ट की वजह से। फ्रीक्वेंट फ्लाइट्स की वजह से आवाज़ आता था। और मतलब — क्लासेज़ के समय भी एक डिस्टर्बेंस था। व्हेन इट इज़ ये 10-12 कि.मी. दूर था।
आचार्य प्रशांत: 10-12 कि.मी. तो बहुत गनीमत होती है। जब एक जंबो जेट — जैसे वो ड्रीमलाइनर था — वो जब टेकऑफ़ करता है, तो उसकी जो आवाज़ होती है, जब वो अभी-अभी उठ रहा है, टेकऑफ़ कर रहा है उसका कम्पैरिज़न करा जाता है, कि एक रॉक कॉन्सर्ट के एक स्पीकर के आप सामने खड़े हुए हो। उतनी ज़ोर की आवाज़ आती है उसमें या कि जैसे एक जैक हैमर होता है इंडस्ट्रियल — उसकी आवाज़ हो उतनी तेज़ उसकी आवाज़ होती है। और उतनी तेज़ आवाज़ उसकी एक हॉस्पिटल के पेशेंट्स को सुनाई जा रही है — तो उस हॉस्पिटल का क्या हाल होता होगा, राम जाने। और ये चीज़ दुनिया के और देशों में नहीं पाई जाती है। वहाँ पर बहुत क्लियर होता है कि एक एयरपोर्ट जो है — वो बहुत एक सेंसिटिव एरिया होता है और एक वल्नरेबल प्लेस होता है, कई तरीक़े से।
टेररिस्ट अटैक भी एयरपोर्ट पर ही ज़्यादा होते हैं। पॉल्यूशन भी एयरपोर्ट पर ज़्यादा होता है। क्रैश का रिस्क भी एयरपोर्ट पर ज़्यादा होता है। बहुत तरीक़े का ट्रैफिक और ऐक्टिविटी भी एयरपोर्ट पर ज़्यादा होती है। तो चाहे वो रेज़िडेंशियल प्लेसेज़ हों या स्कूल हो या कॉलेज हो या हॉस्पिटल हो — उनको एयरपोर्ट से दूर रखो। इतना ख़्याल दुनिया के सभी देश कर लेते हैं।
ये अद्भुत बात भारत में ही पाई जा सकती है — कि ये रहा 'एयरपोर्ट' और 'एयरपोर्ट' के बिल्कुल बगल में 'बिल्डिंग' है।
और जो वहाँ बिल्डिंगों में बच्चे रहते हैं — उनका पास टाइम ये है कि वो छत पर चढ़ जाते हैं और उनको ये लगता है कि बिल्कुल सर के ऊपर से प्लेन जा रहा है। और प्लेन में क्या लिखा हुआ है — वो ये भी पढ़ लेते हैं। और ये उनके लिए रोज़ की बात हो गई है, कि 120–150 डेसिबल की जो आवाज़ है — वो दिन भर और रात भर उनके कानों में पड़ रही है। चाहे उन्हें पढ़ना हो, चाहे उन्हें सोना हो, चाहे उन्हें मौन, थोड़ी शांति चाहिए हो। ये सब भारत में ही होता है। हम स्वीकार कर लेते हैं। कौन सवाल उठा रहा है? कोई नहीं।
प्रश्नकर्ता: हमारे यहाँ ऐसा क्यों होता है?
आचार्य प्रशांत: यार देखो, गरीबी और आबादी — ये ना आदमी का आत्मसम्मान खा जाती हैं। वरना, जो लोग बिल्कुल एयरपोर्ट से सट कर रह रहे हैं — दिखाई, बल्कि सुनाई तो उन्हें भी प्रतिपल दे रहा है कि वो कहाँ घुस गए हैं। हर दो मिनट में भयानक तरीक़े से चीखती हुई फ्लाइट उनके ठीक सर के ऊपर से निकल जाती है। और 100 तरीक़े का पॉल्यूशन है। लेकिन क्या करें? सरकारी महकमों में करप्शन इतना ज़्यादा है, कि इस तरीक़े की कंस्ट्रक्शन को एन.ओ.सी. मिल जाता है। वरना तो ए.ए.आई. (एयरपोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया) और डी.जी.सी.ए. (डायरेक्टोरेट जनरल ऑफ सिविल एविएशन) — इन सबके नॉर्म्स हैं कि इस तरह की चीज़ नहीं हो सकती है।
आपके लिए रेज़िडेंशियल कॉम्प्लेक्स वहाँ बनाना लगभग असंभव होना चाहिए — और अस्पताल तो बिल्कुल भी नहीं। और अभी भी इस तरह के कंस्ट्रक्शन चलते रहते हैं — ऊँची इमारतें तक बन जाती हैं एयरपोर्ट के पास। मेरे ख़्याल से कोलकाता में अभी 500 ऐसी इमारतें पाई गई हैं जो कि एयरपोर्ट के बिल्कुल पास हैं और जिनकी ऊँचाई भी ज़्यादा है। वो मेजर सेफ्टी रिस्क है।
तो ये सब ले-दे कर के होता तो इसीलिए है क्योंकि जब बात सर्वाइवल की आ जाती है ना — आप इतने सारे लोग हो गए हो, और लिमिटेड रिसोर्सेज़ हैं। रिसोर्स में लैंड भी आता है। आप 150 करोड़ लोग हो गए हो — लैंड थोड़ा सा ही है। तो आप क्या करोगे? फिर आपको — मरता क्या न करता, आपको जो मिलता है, जितना मिलता है, जहाँ मिलता है — आप उसको बर्दाश्त कर लेते हो।
करप्शन भी बहुत सारा संसाधनों की कमी की वजह से ही होता है ना। हर आदमी इसी भाव में जी रहा है कि अभी उसके पास कम है, कम है। संसाधन, कम हैं और लोग बहुत ज़्यादा हैं, आबादी बहुत ज़्यादा है। घर में भी बहुत ज़्यादा सदस्य हैं। तो फिर आदमी कहीं भी बसना बर्दाश्त कर लेता है। करना पड़ता है मजबूरी हो जाती है। आदमी कहीं भी इलाज कराना बर्दाश्त कर लेता है। आदमी घूस खा के किसी भी तरह का करप्शन करना बर्दाश्त कर लेता है।
आत्मसम्मान को तो आबादी खा जाती है, गरीबी खा जाती है।
जब तक हम अपने पुराने ढर्रों पर ही चलते रहेंगे, हम समझेंगे नहीं कि, सही जीना — गरिमा, 'डिग्निटी' के साथ जीना ज़्यादा ज़रूरी है किसी भी और कन्सिडरेशन से। तब तक हम अपनी सुरक्षा, अपना आत्मसम्मान — सब बेचना गवारा करते रहेंगे।
प्रश्नकर्ता: सर, हमें लगता है कि ये जो ऐक्सीडेंट हुआ है। ये एक आइसोलेटेड चीज़ है। लेकिन जैसे अभी समझ में आ रहा है कि सब कुछ एक-दूसरे से कनेक्टेड है।
आचार्य प्रशांत: सब कुछ ही जुड़ा हुआ है दूसरी चीज़ से। और इसीलिए जब आप किसी घटना का बड़ा आइसोलेटेड एनालिसिस करते हो, तो उससे आपको कोई समाधान नहीं मिलने वाला ना, रूट कॉज़ तक तो आप पहुँचोगे ही नहीं। ये ऐसी सी बात है कि जैसे फल सड़ा हुआ है, तो आपका सारा एनालिसिस बस उस डाल तक सिमट कर रह गया, जिस पर फल लगा था। अगर फल सड़ा हुआ है, तो उसमें डाल का बहुत एनालिसिस करके आपको क्या मिल जाएगा? तो आपको जड़ तक जाना पड़ेगा ना, तब कोई बात पता चलेगी। आपको मिट्टी तक जाना पड़ेगा, तब कोई बात पता चलेगी।
हम जब भी पाते हैं कि हमारा कोई फल सड़ा निकला, तो हम बहुत एनालिसिस करते हैं, तो डाल का कर लेते हैं। कई बार तो डाल का भी नहीं करते, तो उसी फल का कर लेते हैं कि इस फल में ही कोई खोट होगी। जड़ों में खोट आ गई है, मिट्टी में खोट आ गई है। जड़ों को ताक़त देनी पड़ेगी, मिट्टी को सफ़ाई और पोषण देना पड़ेगा। तब जाकर के इस देश में ताज़े, साफ़, सुंदर फल लगने शुरू हो पाएँगे।
नहीं तो हम बस यही सोचते रहेंगे कि वो समस्या थी, उसका वो कारण था, और वो दूसरी समस्या थी, उसका दूसरा कारण था, और तीसरी समस्या थी, उसका तीसरा कारण था। नहीं। हमारे देश के सामने जितनी दुर्घटनाएँ होती हैं, जितनी समस्याएँ होती हैं, उन सब के कुछ कॉमन, साझे कारण हैं। पर उन साझे कारणों की ओर हम देखना नहीं चाहते, क्योंकि उन कारणों का रिश्ता हमारे दिल से है, हमारी मान्यताओं से है, हमारे ढर्रों से है।
हमने बहुत व्यर्थ की चीज़ों को बहुत इज़्ज़त दे दी है, और हम उन चीज़ों को चुनौती नहीं देना चाहते। वही चीज़ें जो व्यर्थ की हैं, वो हमारी सब समस्याओं का कारण है। चाहे वो कोई एयरक्राफ़्ट की दुर्घटना हो, चाहे वो समाज में कोई और गड़बड़ बढ़ रही हो, वो बात हो। चाहे वो चुनावी धांधली हो, चाहे वो अर्थव्यवस्था की खोट हो। चाहे ये बात हो कि ओलंपिक्स में आपके मेडल क्यों नहीं आते, चाहे ये बात हो कि आप साइंस में इनोवेशन क्यों नहीं कर पाते, चाहे ये बात हो कि आपकी आर्ट्स क्यों इतना पिछड़ती जा रही हैं, आपके पेटेंट्स कहाँ हैं, आपके ट्रेडमार्क्स कहाँ हैं, एआई में आपकी कोई जगह क्यों नहीं है।
देश के सामने जितनी भी समस्याएँ हैं, ये सब अलग-अलग समस्याएँ नहीं हैं। इनके सबके कुछ मूल कारण हैं, और उन मूल कारणों की ओर देखने से हमारा देश बहुत बच रहा है। क्योंकि वो जो मूल समस्याएँ हैं, हमारे लिए वो बहुत आदरणीय चीज़ें बनी हुई हैं। और जब तक हम वास्तविक समस्या से आँखें चार नहीं करेंगे, चुनौती नहीं देंगे, तो वो समस्या दूर कैसे होगी?
हम समाधान खोजने लग जाते हैं बिना समस्या को समझे। तो ऐसे में फिर क्या होने वाला है? हाँ, आप कोई सतही इलाज कर लोगे, उस सतही इलाज से थोड़ा बहुत फायदा भी हो जाएगा, और आपको ये भ्रम हो जाएगा कि आपने सचमुच इलाज कर लिया पर आपने इलाज कर नहीं लिया है। आपने एक तरफ़ से समस्या को रोका, वो दूसरी तरफ़ खड़ी हो जाएगी, जब तक आप उस समस्या के मूल कारण को पहचान कर उसका इलाज नहीं करते।
बड़ी से बड़ी समस्या यही है कि हम चीज़ों को समझना नहीं चाहते। हमारे लिए समझदारी से बड़ी चीज़ है — हमारे पूर्वाग्रह, हमारी मान्यता। अगर हमें दिखाई देता है कि कोई चीज़ अगर हमने समझी, तो उससे हमारी कोई मान्यता, कोई विश्वास टूटेगा, तो हम पहले ही समझने से इंकार कर देते हैं।
हमको दिखाई देता है कि हमने थोड़ा भी बात की गहराई में अगर प्रवेश करा, तो बात हमको किसी असुविधाजनक बिंदु तक ले जाएगी, तो हम उस बात को शुरू ही नहीं होने देते। ये हमने कर रखा है। और इसी कारण हमारी समस्याएँ बढ़ती जा रही हैं, और हम किसी भी समस्या का अंतिम इलाज निकाल नहीं पा रहे हैं।
इस देश को हिम्मत चाहिए, सच्चाई चाहिए। इस देश को समझदारी में जीने की आदत डालनी पड़ेगी। हमने भावना में जीने की आदत डाल ली है।
हमारे लिए भावनाएँ बहुत बड़ी चीज हो गई हैं। तथ्य कुछ हो, यथार्थ कुछ हो, हम कहते हैं — “साहब, हम तो भावुक लोग हैं।” भावना भी क्या है, हम ये भी नहीं समझते। देख नहीं रहे हो, अभी जितना मीडिया और सोशल मीडिया में इस हादसे की कवरेज हो रही है, एयरप्लेन क्रैश की, उसमें भावना ही भावना बह रही है।
वो बेचारे जो मृतक हैं, उनके संबंधियों का पीछा किया जा रहा है, और उनकी फुटेज डाली जा रही है कि — “देखिए ये मृतक की माँ है और ये कैसे रो रही हैं। ये मृतक के बच्चे हैं, ये पत्नी हैं, देखिए इनका क्या बुरा हाल है।” यही सब चल रहा है। लेकिन वास्तव में दुर्घटना क्यों हुई, उसके मूल कारण क्या हैं, ये कौन समझना चाह रहा है?
बल्कि लोग और झूठे कारण लेकर के खड़े हो रहे हैं। एक जगह तो कोई बोल रहा था कि शायद जो लोग प्लेन उड़ा रहे थे वो सुसाइडल थे! कैसी ये अपमानजनक बात है। कोई तमाम तरह की साजिशों की अटकल लगा रहा है, कोई कुछ, कोई कुछ।
इंसान वो है जो जिज्ञासा करे और समझना चाहे। जो जिज्ञासा नहीं कर सकता, जो समझ नहीं सकता, उसमें और जानवर में क्या अंतर है? जो अपनी भावनाओं का, अपने मतों का, अपने पूर्वाग्रहों का गुलाम है, वो अपने आप को मनुष्य कैसे बोल सकता है? जिसे सवालों से डर लगता हो, वो आदमी कैसा है?
हमारे देश को एक बहुत मौलिक, बड़ी, गहरी, आध्यात्मिक क्रांति चाहिए। और आध्यात्मिक से मेरा आशय है सच्चाई के लिए प्रेम।
हमें अपने बच्चों को परवरिश में, स्कूलों में, कॉलेजों में सिखाना होगा कि सत्य से बड़ा कुछ नहीं होता। तुम्हारा कोई भी सरोकार, स्वार्थ — सच से बड़ा नहीं होता।