प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, अभी जब आपसे श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ रहा था, अध्याय तीसरा, तो उसमें आपने देवता और दानव की बात की, उसके बाद आपने यज्ञ के बारे में भी बताया। तो आचार्य जी, जब भी आपकी कोई भी टीचिंग्स को देखता हूँ, और आज श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ते समय भी, तो मुझको वो चीज़ें दोनों तल पर दिखाई देतीं हैं – एक तो भीतरी तल पर भी, और बाहरी तल पर भी।
जैसे आज की बात करूँ, तो जैसे ही आपने बोला, ‘भीतर का दानव’, तो वो एकदम साफ़ हो गया कि कौन है – जो भोग-विलासिता में डूबना चाहता है। और देवता की बात करी, तो वो भी एकदम स्पष्ट था कि किस तरफ़ हमें जाना है। फिर आपने उदाहरण दिया शर्ट का, तुरंत बाहर के दानव और बाहर का वो दिखने लगा। जैसे यहाँ आता हूँ तो एक देवत्व लगता है, कि यहाँ पर कुछ कंट्रीब्यूट (योगदान) अगर कर पा रहे हैं, और दानव भी दिखा, कि वो जो लोग भोग को प्रमोट कर रहे हैं, मतलब सबसे पहला नाम मेरे मन में कैपिटलिस्ट (पूँजीवादी) लोगों का आया।
तो आचार्य जी, इसी सम्बन्ध में ये प्रश्न था कि यज्ञ की बात जब आप करते हैं और उसमें समर्पण की बात करते हैं, तो पहले भीतर से शुरू करना है या बाहर से शुरू करना है, या दोनों चीज़ें साथ-साथ चलेंगी?
आचार्य प्रशांत: दोनों साथ-साथ चलती हैं लेकिन शुरुआत भीतर से होती है। हर चीज़ भीतर है, तो शुरुआत तो भीतर से ही होगी! शुरुआत भीतर से होती है, उसके बाद साथ-साथ चलता है। भीतर जितनी तरक्की होगी, बाहर उतनी सफ़ाई होगी; आंतरिक स्पष्टता जितनी आएगी, बाहर के निर्णय उतने बदलेंगे। (हथेली से मानवाकृति बनाते हुए) तो ऐसा है जैसे कि आप खड़े हो, ये आपकी दो टाँगें हैं, तो जो पहला कदम है वो भीतरी है, लेकिन उसके बाद साथ-साथ।
प्र: तो आचार्य जी, जब आप बड़े लक्ष्य की बात करते हैं, तो वो तो बाहरी ही ज़्यादा प्रतीत होता है, मतलब मैं अपनी बात कर रहा हूँ, कि वो बाहरी ही ज़्यादा प्रतीत होता है।
आचार्य: बड़ा लक्ष्य बनाना तो भीतरी काम है न, तो पहला कदम तो तब भी भीतरी रहा। बड़ा लक्ष्य बनाना भीतरी काम है। बनाया, ये बन गया, फिर बाहर कुछ करा, उससे भीतर भी उन्नति हुई, फिर आगे बढ़े।
कृष्ण क्या कह रहे हैं? ‘भीतर के देवता को पोषण दोगे तो वो तुम्हें पोषण देगा।‘ तुमने उसको पोषण दिया, उसने तुम्हें पोषण दिया; तुमने उसको पोषण दिया, उसने तुम्हें पोषण दिया। बाहर आप जो चुनौती उठाते हो, वो आपको भीतर से बना देती है। आप भीतर तय करते हो कि बाहर चुनौती उठानी है, तो ये आपने भीतर तय करा। फिर आप बाहर चुनौती उठाते हो, जो चुनौती आपने उठायी है वो आपको भीतर से मज़बूत बना देती है; फिर और बड़ा, फिर और बड़ा। तो इस तरह से करके चक्रीय काम आगे बढ़ता रहता है।
प्र: तो आचार्य जी, जो बड़ा लक्ष्य है, कभी ऐसा प्रतीत होता है कि अहंकार के ही केंद्र से निकल रहा है।
आचार्य: देखो, है तो अहंकार ही। जो करता है, जो भोगता है, जो देखता है, जो लक्ष्य बनाता है, वो सब अहंकार ही है। कौनसा अहंकार? एक सकाम अहंकार होता है, एक निष्काम अहंकार होता है। सबकुछ अहंकार है, अहंकार के अलावा किसका खेल है! अहंकार बोल रहा है, अहंकार सुन रहा है, सब अहंकारी हैं। आप अहंकारी, मैं अहंकारी, सब अहंकारी; प्रश्न ये है कि वो अहम् किससे जुड़ा हुआ है। एक अहम् होता है जो कहता है, ‘अहम् देहास्मि’, और एक अहम् होता है जो कहता है, ‘अहम् ब्रह्मास्मि’। है तो सब अहम्-ही-अहम्, लेकिन वो अहम् अपने बारे में क्या कह रहा है?
प्र: तो ऐसा समझ सकते हैं, अगर मैं सही समझ रहा हूँ, कि अहम् अगर निष्काम है तो वो आत्मा के निकट है।
आचार्य: हाँ, ठीक है।