प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हर चीज के अंत में मुझे अहंकार ही दिखता है, ऐसा क्यों?
आचार्य प्रशांत: अहंकार जो आत्मा बना बैठा है। अहंकार में कोई बुराई नहीं है, पैदा हुए हो उसके साथ। या बुराई है भी तो तुम्हारी व्यक्तिगत बुराई नहीं क्योंकि तुमने चुना नहीं था कि मुझे पैदा होना है। अहंकार जब आत्मा बन जाता है न, वह अधूरा जो पूरा होने का स्वांग करता है उसमें बुराई है क्योंकि वो झूठ बोल रहा है। झूठ बोल कर अपने आप को नुकसान पहुँचाता है।
अधूरेपन को अधूरापन जानो। उसको थोड़ा मलहम लगाओ, उसे थोड़ा स्नेह दो, बस! उसे यह अकड़ मत दो कि तू तो पूरा है। तू ही है। इसीलिए ज्ञानियों ने ऋषियों ने 'मैं' की शुद्धता पर बड़ा ज़ोर दिया है। 'मैं' का प्रयोग मात्र आत्मा के लिए होना चाहिए। आत्मा माने 'मैं'। पर हम 'मैं' का उपयोग किसके लिए करते हैं, जब हम 'मैं' बोलते हैं तब इशारा किसकी ओर होता है?
प्र: अहंकार।
आचार्य: अहंकार की ओर। वो गड़बड़ हो जाती है। 'मैं' तभी बोलो जब वास्तव में आत्मा बोले। जब अहंकार बोले तो बोलो अहंकार बोला। कोई चीज़ बुरी लग रही है तो यह ना कहो कि, "मुझे बुरी लग रही है।" ऐसा बोलो कि, "यह अहंकार को बुरी लग रही है।" अब ठीक है। अगर इमानदारी से तुम यह कहा पाओ, "अहंकार को बुरी लग रही है।" दुकानदार को बोलो, "वह साड़ी खरीदूँगी क्योंकि अहंकार को बहुत पसंद आ गई है।" खरीद लो, खरीदने में बुराई नहीं। यह कहने में बुराई है कि, "यह साड़ी मुझे पसंद आई है और मेरे ऊपर लिपटेगी।"
आत्मा, सदा अनावृत है उसे कोई साड़ी नहीं चाहिए और ना वह कोई साड़ी पसंद करती है। तुमने अपने किसी शुद्र प्रयोजन से साड़ी पसंद करी है। यही कहो। 'यह साड़ी मैं खरीद रही हूँ, क्योंकि मेरे अहंकार को पसंद आ गई है'। अब ठीक है। अहंकार को अधिक-से-अधिक इतनी हैसियत दी कि कह दिया 'मेरा अहंकार'। उतनी भी नहीं देनी चाहिए थी। कह देते 'अहंकार को पसंद आई है'।
'मैं' उसी दिन बोलना जिस दिन तुम मिट जाओ और आत्मा बोले। तब 'मैं' वह बोल रहा है जिसे 'मैं' बोलने का हक़ है। कौन बोल रहा है? जो 'मैं' है। अनाधिकार 'मैं' का प्रयोग ना करो। बुरा लगा कुछ, यह ना कहो कि, "मुझे बुरा लगा", बोलो, "अहंकार को चोट लग गई।" वह पूछे, "तुम्हें कैसे पता?" तो अधिक-से-अधिक इतना कहना, "मैंने देखा।" चोट किसे लगी?
प्र: अहंकार को।
आचार्य: तुम्हें कैसे पता? "मैंने देखा।" बस!
प्र: यही राइट ऑब्ज़र्वेशन (सही अवलोकन) है?
आचार्य: मैंने देखा।
प्र२: आचार्य जी जब आवाज़ निकलती है तो हमेशा अहंकार से ही आती है।
आचार्य: आने दो वहीं से उसको यह बोलो कि, "तू आ। आना तेरी फितरत पर अपना सही नाम बता कर आ। सही नाम बोलने की तुझ में हिम्मत नहीं तो तू किसका नाम चोरी करता है? आत्मा का नाम चोरी करता है। आत्मा तू है नहीं पर नाम लेता है आत्मा का। बोलता है 'मैं', 'मैं'। यह तू ग़लत कर रहा है, भाई। यह अपराध है, जेल जाएगा।" दूसरे का नाम चुराना छोटा-मोटा अपराध है? वह भी किसका नाम चुरा लिया? आत्मा का नाम चुरा लिया।
फिल्मों से सीख लो। मोगैंबो क्या बोलता था? "मोगैंबो खुश हुआ" यह नहीं बोलता था, "मैं खुश हूँ"। परमात्मा कितने मुखों से बोलता है, मोगैंबो के माध्यम से भी सीख देता है। तुम भी ऐसे ही बोला करो। "अहंकार खुश हुआ।" आत्मा को क्या खुशी क्या ग़म। उसने तो बस, देखा। मोगैंबो खुश हुआ; आत्मा ने देखा।
प्र१: तो इससे उसको और बढ़ावा तो नहीं मिल गया?
आचार्य: आत्मा डरती है?
प्र१: नहीं।
आचार्य: यह डरा कौन?
प्र१: अहंकार।
आचार्य: बस! अहंकार डरा, तुम्हें कैसे पता? "मैंने देखा।"
प्र३: आचार्य जी, जैसे जब हम पूरी तरह से देखते हैं चीज़ों को तो वह ख़त्म हो जाता है।
आचार्य: यह देखते हैं। कौन देखता है?
प्र३: अहंकार।
आचार्य: अभी कहा हमने कि देखने वाला कौन है? आत्मा। देखने का हक़ और सामर्थ्य बस किस में है?
श्रोतागण: आत्मा में।
आचार्य: तो सबसे पहले कहो अहंकार जब पेड़ को देखता है तो...?
प्र३: उसमें जब हम देखते हैं पेड़ को...
(आचार्य जी व अन्य लोग ठहाका मारकर हँसते हैं)
प्र३: थोड़ा कंफ्यूजन (उलझन) है यहाँ पर, क्लियर (साफ़) करना चाहते हैं। तो जैसे आधा देखते हैं हम तो चिपक जाते हैं और रिइनफोर्स (सुदृढ़ीकरण) हो जाता है। और जब हम पूरा देखते हैं तो ख़त्म हो जाता है या हल्कापन जैसा। तो उसमें आप उसको देख रहे हैं और साथ में देखने वाले को भी देखिए। दोनों चीज़ें हैं।
तो देखने में वो धारणाएँ जहाँ बन रही हैं, जो भी कंडीशनिंग (अनुकूलन) हो चुकी है मन की इस वजह से वो चीज़ें ऐसी दिख रही हैं यानी अपने को अलग आत्मा जैसे कि हम उस जगह पर हैं। लेकिन कृष्णमूर्ति जी एक जगह जब किसी चीज़ को कहते हैं कि हटाना है तो पूरी तरह से उसको फ़ील (अनुभव) करो जब एकदम फ़ील करते हैं तब वो ख़त्म होती है।
आचार्य: कैसे फ़ील करो?
प्र३: जैसे डर आ रहा है।
आचार्य: पूरी तरह से फ़ील करो यही बोलते हैं न? तो 'पूरापन'।
प्र३: हाँ, यही बोलते हैं।
आचार्य: पूरापन।
प्र३: तो ऐसा लगता है कि उस समय तो डर और फ़ील पूरा हो जाए तो हम...
आचार्य: डर तुम्हें लग रहा है पेड़ से। यह भी देखो कि पूरी बात क्या है, पूरी बात क्या है?
प्र३: अच्छा, वही पूरी चीज़ है। हमें जैसे वो लग रहा था कि डर जो है वो पूरा महसूस करिए तो डर में तो फिर सेपरेट (अलग) कर ही नहीं सकते।
आचार्य: तुम पूरा कभी महसूस कर ही नहीं पाओगे क्योंकि जो डर रहा है और जो चीज़ डरा रही है तुम उन दोनों को अलग-अलग रखे हुए हो न। तो क्या करोगे तुम? आधा-आधा बाँटे ही हुए हो। इन दोनों को एक साथ देखना और एक देखना, यही तो आवश्यक है। बड़ा वो मशीन जैसा चीज़ है, तुम्हें दिखाई देगा। उधर उसने कुछ किया, इधर यह डरा। उधर फिर कुछ हुआ, यह डरा, या उसने कुछ नहीं किया, यह डरा। बिलकुल दिखाई देगा, सीधे-सीधे खेल चल रहा है। और यही कल सुबह फिर आएगा और फिर जो हो रहा होगा उससे नहीं डरेगा या कम डरेगा, किसी और दिशा में डरेगा।
प्र४: डरने वाले का स्वभाव उससे चिपक जाता है। जो डर रहा होता है न वह उससे चिपक जाता है।
आचार्य: हम उससे सिर्फ तब नहीं चिपकते जब वह डर रहा है; हम उससे तब भी चिपकते हैं जब वह नहीं डर रहा है। उससे तब भी चिपकते हैं जब वह प्रसन्नता में है, तब भी जब वह दुःख में है, तब भी जब वह संशय में है। उसकी कोई भी स्थिति हो हम तो उससे चिपके ही हैं।
तभी तो 'मैं' का अपहरण हो गया है न। 'मैं' जिसके पास होना चाहिए था वहाँ नहीं है, उसे कोई अपहरण करके ले गया। कौन ले गया उसको? अहंकार ले गया। होना मैं को किसके पास चाहिए था? आत्मा के पास होना चाहिए था। अब 'मैं' और अहंकार बिलकुल चिपक गए हैं, और चिपके ऐसे हैं कि अहंकार 'मैं' से सारी ज़िंदगी छीने ले रहा है। अहंकार की अपनी तो कोई जान होती नहीं तो 'मैं' की सारी ऊर्जा, सारा रस चूसे ले रहा है और 'मैं' छटपटा रहा है। 'मैं' को कहाँ होना है? आत्मा में होना है। ले कौन गया उसको? अहंकार ले गया है।
मैं सिखाता हूँ कि वह 'मैं' तुम हो, और तुम इतने निर्जीव नहीं हो कि तुम्हारे पास चुनाव का अधिकार ना हो। चुनाव का अधिकार अगर तुम्हारे पास नहीं है तो अपना यहाँ पर समय ख़राब कर रहे हैं। चुनाव का अधिकार तुम्हारे पास है। ठीक है, तुम्हारा अपहरण हो गया, तुम्हें अहंकार ले गया, वह तुम्हें चूस रहा है, लेकिन फिर भी तुम्हें हक़ है कि तुम वहाँ से मुक्त हो करके अपने सही घर में वापस आ जाओ। अभी भी तुम में ताक़त है, अभी भी तुम सही चुनाव कर सकते हो।
भाई, जो अपहृत व्यक्ति भी होता है वह कोशिश करे तो भाग सकता है न? सुना है कि नहीं सुना है? तो तुम्हारा भी ऐसा ही है। तुम्हें तुम्हारे घर से उठा कर के किसी और के घर में रख दिया गया है और वहाँ पर सलाखें हैं, ताले हैं। लेकिन तुम कोशिश करो तो तोड़-ताड़ कर भागो और अपने घर में आ सकते हो।
प्र५: आचार्य जी, कोशिश देखना ही हो गया एक तरह से?
आचार्य: यहाँ जो हो रहा है उसी कोशिश का हिस्सा है। सुनना, देखना, ध्यान, भक्ति यह सब उसी कोशिश का हिस्सा है। जानने वाले सिखा गए हैं कि तुम झूठ के शिकार हो। जिसने तुम्हारा अपहरण करा है वह तुमसे सब छीन रहा है। और तुमसे साथ-ही-साथ यह भी कह रहा है कि तुम अपने सही घर में हो।
ध्यान है ताकि तुम देख लो कि तुम सही जगह नहीं हो। भक्ति है ताकि तुम में श्रद्धा बनी रहे कि, "सही घर है और मुझे वहाँ पहुँचना है, मुझे वहाँ पहुँचने की प्यास है।" ध्यान और भक्ति इसीलिए कभी अलग-अलग नहीं हो सकते। इन दोनों को मैं अलग मार्ग मानता ही नहीं। एक ही बातें हैं। जब एक पक्ष को प्रधानता देते हो तो कह देते हो 'ध्यान', जब दूसरे पक्ष को देखते हो तो कह देते हो 'भक्ति'। तुम्हारे देखने के कोण में अंतर है। तुम किधर से देख रहे हो उसमें अंतर है वरना बात एक ही है।
जहाँ फँसे हो वहाँ से उठकर अपने घर में आना है। सिर्फ़ उस घर को तोड़ने की बात करोगे तो यह कहलाता है 'ध्यान'। और जो तुम्हारा असली घर है अगर उसको याद करोगे तो यह कहलाती है 'भक्ति', पर एक ही चीज़ के यह दो पक्ष हैं। इसको तोड़ना है। यहाँ पहुँचना है। ध्यान कहता है, "नेति-नेति, तोड़ डालो"; और भक्ति कहती है, "परमात्मा तुझ से मिल जाना है", यानी कि इसको छोड़ कर इस घर में आ जाना है।
प्र५: आचार्य जी, होश में होना और ध्यान में होना एक ही बात है?
आचार्य: हाँ।
प्र५: और अगर यह एक ही बात है तो क्या यह मानसिक प्रक्रिया ही है? माने ध्यान में होना भी एक मानसिक प्रक्रिया ही है?
आचार्य: चुनाव है, मन चुनाव कर सकता है। ध्यान मानसिक नहीं है लेकिन ध्यान में बने रहना मन का चुनाव है। इस चीज़ को बहुत सूक्ष्मता से समझ लो अच्छे से। ध्यान मन के बस की बात नहीं, पर ध्यान में उतरना मन का चुनाव है। तुम यह चुन सकते हो बिलकुल कि, "मैं ध्यानस्त ना रहूँ।" तुम विक्षेप चुन सकते हो, तुम विचलन चुन सकते हो।
तुम बिलकुल चुन सकते हो कि तुम कहो कि, "अब भूख लग रही है यहाँ से उठ कर चला जाऊँगा", और ध्यान टूट गया। यहाँ जो हो रहा है वह तुम्हारे बस की बात नहीं, वह तुमसे आगे की बात है। जो घटना घट रही है यह अति मानवीय है। यह मानसिक नहीं है, यह किसी के करे नहीं हो सकती। लेकिन इस घटना में मौजूद रहना या ना रहना, यह तुम्हारा चुनाव है।
मन का इतना ही काम है कि वह चलकर मंदिर तक चला जाए, यह तो चुनाव है उसका कि जाना है कि नहीं। मंदिर में क्या होगा यह मन नहीं चुन सकता। और अगर मन मंदिर में मौजूद है समर्पण के साथ लंबे समय तक तो फिर एक अवस्था ऐसी आती है जब मन अपने चुनने के अधिकार को ही समर्पित कर देता है, वह निर्विकल्प होता है। मन कहता है, "अब चुनना भी नहीं है। एक ही चुनाव बचा। जब दो दिखते थे तो चुन लेते थे। जब सच-झूठ दोनों दिखते थे तो सच को चुन लेते थे। अब झूठ बहुत दूर हो गया, दिखाई ही नहीं पड़ता तो अब चुनना भी छोड़ते हैं।"
लेकिन तुम तो वहाँ पर हो जहाँ तुम्हारे पास दोनों राहें होती हैं। यहाँ बैठने का भी विकल्प होता है और यहाँ से जाने का भी विकल्प होता है। तुम सही चुनाव करो। जब तक दो रास्ते दिख रहे हैं तुम सही रास्ता चुनो। फिर सही रास्ता चुनते, चुनते, चुनते, चुनते एक स्थिति आती है जब दो रास्ते दिखने बंद हो जाते हैं। तब फिर जो चुनना हो चुनना, एक ही है।
जब सिर्फ एक रास्ता हो, तो फिर मनमौजी हो जाना। कहना, "अब हम बिलकुल मनचले हो चुके हैं! जो मन कहता है करते हैं!" बड़ा मज़ा आएगा। जो मन कहेगा तुम्हें सब करने का अधिकार होगा तब। करो। विचारना ही नहीं है कि परमात्मा की क्या मर्ज़ी है। कहो, क्या? कोई दूर का होता तो सोचते उसकी क्या मर्ज़ी है! अब वह हम में घुस गया, हम उस में घुस गए। उसकी हमारी मर्ज़ी अलग है क्या? हम जो चाहे वही उसने चाहा। वही तो चाह रहा है हमारे माध्यम से। हम तो कब के मिट गए, ख़त्म हो गए हम।
पर वो मुक़ाम बिलकुल आख़िरी है। उसकी बात सिर्फ़ तुम्हें ललचाने के लिए कर रहा हूँ। अभी तो तुम चुनोगे। तुम्हें पचास रास्ते दिखाई देंगे। तुम सही रास्ता चुनना। निर्विकल्पता तुम्हारे लिए दूर की कौड़ी है। अभी तो बहुत-बहुत सतर्क रहो कि क्या चुनना है।