आचार्य प्रशांत: अहंकार वो है, जो तुम अपनेआप को समझते हो। और माया ये है कि तुम अपनेआप को वो समझते हो, जो तुम हो नहीं। अंतर समझ रहे हो?
अहंकार वो जो तुम अपनेआप को समझ गये और माया ये मूर्खता कि तुम अपनेआप को वो समझ गये, जो तुम हो ही नहीं। जो भी तुमने अपने विषय में धारणा बनायी, वो धारणा किसकी? अहम् की। और चूँकि वो धारणा झूठ है, मिथ्या है, तो इसलिए हम उस धारणा को कह देते हैं मायावी।
माया क्या है? अहम् का ये विश्वास कि वो है। अहम् को दुनिया पर कभी विश्वास होता है, कभी अविश्वास होता है। कुछ बातों को सत्य मानता है, कुछ पर सन्देह करता है, पर अपने होने पर कभी उसे संशय नहीं होता — ये माया है। माया है अहम् का दृढ़ विश्वास कि अहम् है। छोटा है, बड़ा है, ऊँचा है, नीचा है, अच्छा है, बुरा है, जैसा भी है, लेकिन है।
तुम कभी कहते हो, ‘मैं सही हूँ’, और कभी तुममें बड़ा विनय उठा तो तुम कह देते हो, ‘मैं ग़लत हूँ’, पर ये कहने से तो अब भी बाज़ नहीं आये कि मैं हूँ। ये ‘मैं हूँ’ बड़ी मूल धारणा है। भावनाओं के पीछे की भावना है। इसको अहम् वृत्ति कहते हैं। अपनी हस्ती में यक़ीन रखना, यहीं से शुरुआत गड़बड़ हो गयी।
प्रश्नकर्ता: अगर ये कहा जा रहा है कि मैं हूँ, इस भावना पर जो दृढ़ विश्वास है यही माया है, तो अगर मैं मतलब शरीर यहाँ बैठा हुआ है, तो है ही, तो इसमें विश्वास-अविश्वास कैसे?
आचार्य: कौन कह रहा है कि अविश्वास करो कि शरीर नहीं है।
प्रश्नकर्ता: तादात्म्य नहीं है।
आचार्य: ये पकड़ी बात! ये थोड़े ही कहा है कि शरीर नहीं है, बात हो रही है कि मैं हूँ। होगा शरीर, उसके साथ रिश्ता बनाने वाला ‘मैं’ कौन है? ये कौन है जो कहता है कि मैं शरीर हूँ और इरादे क्या हैं उसके? यूँही तो वो शरीर नहीं बना हुआ है, कुछ चाहता है।
ये कहना भी पूरी तरह ठीक नहीं है कि भ्रम मात्र है अहम्। इरादतन भ्रमित है। जानते-बूझते स्वयं को भ्रम में रख रहा है, ख़ुद को छलता है, आत्म प्रवंचना में माहिर है। ये भी नहीं कह सकते कि अरे! अरे! बेचारे से ग़लती हो गयी। जेन्यूइन मिस्टेक (वास्तविक ग़लती) है! थोड़ी-सी ग़लती है और ग़लती से ज़्यादा नीयत का फेर है। शरीर इसलिए बना बैठा है क्योंकि शरीर के माध्यम से मज़े लेने हैं।
तुम किसी के घर में घुस जाओ, हो तुम आनन्दिता और वो तुमको समझ लें अरूणिमा और अरूणिमा उनके घर की बेटी का नाम है और वो तुमको अरुणिमा समझकर तुम्हारे ऊपर फूल बरसायें, फिर खिलायें-पिलायें, फिर तुमको नोटों से तोलें, तो तुम कहोगी कभी कि मैं अरूणिमा नहीं हूँ? अब तो अरूणिमा बनने में बड़े मज़े हैं न। और फिर अरूणिमा बने रहने की आदत पड़ जाती है। यहाँ तक कि जब उस घर के लोग अपनी बेटी अरूणिमा को यातनाएँ भी देते हैं, तब भी आनन्दिता खुलकर ये नहीं बोल पाती कि अरे! मैं अरूणिमा हूँ ही नहीं, मैं तो आनन्दिता हूँ। क्यों? क्योंकि अरूणिमा बनकर अब इतने मज़े मार लिये, तो अब जब दुख मिलेगा तो वो भी तो भोगना पड़ेगा न।
सुख की चाहत में शरीर बन जाते हो, फिर जब दुख आता है तो पीछे कैसे हटोगे? पीछे हटोगे तो और पिटोगे। कहेंगे, ‘अच्छा! तू अरूणिमा थी ही नहीं। छः महीने यूँही छक करके मज़े मारती रही। अब सूद समेत वापस कर।' तो अब क्या करोगी? छः महीने अरूणिमा बनी हुई थी, अब छः महीने और बनोगी।
छः महीने के बाद वापस लौटना और मुश्किल। क्योंकि जब छः ही महीने रूकने के बाद लौटना मुश्किल था कि आरोप लगेगा कि छः महीने तक इसने धोखा दिया, धाँधली करी, तो अब तो और बड़ा आरोप लगेगा। क्या आरोप लगेगा? ‘एक साल तक धोखा दिया, धाँधली करी।’
तो फिर कहते हो, 'अरे! नहीं-नहीं, वापस लौटना ठीक नहीं।' एक साल और बीत जाता है। अब जब एक ही साल में वापस लौटना मुश्किल था कि धोखा दिया, धाँधली करी, तो दो साल में और मुश्किल हो जाएगा। अब तो वापस लौटने का कोई सवाल नहीं।
जो ग़लत जीवन जितना ज़्यादा जी गया, उसके लिए वापस लौटना उतना मुश्किल होता जाता है। इसीलिए जिस क्षण जानो कि भूल हो रही है, तत्क्षण क़दम रोक दो। उसी समय वापस लौट पड़ो। जितनी देर तक अपनेआप को भ्रम में निवेशित रखोगे, उतना मुश्किल होता जाएगा भ्रम से वापस लौटना।
करते थे कॉलेजी लड़के, इन्होंने भी करा होगा। अब जैसे ये जहाँ पढ़ती थीं, उसके बगल में एक शादी का अड्डा है, ब्याह का। जिस कॉलेज में पढ़ती थीं, वो उसी कॉलेज वालों का ही हैं। वहाँ शादियाँ होती हैं। ये कॉलेजी लड़के क्या करते थे? वहाँ शादी है तो वहाँ घुस गये। जितने भी इनके पास थोड़े-बहुत अच्छे कपड़े होते थे, कॉलेजी लड़कों के पास ज़्यादा कपड़े होते नहीं, पर जो कुछ भी मिला पहन लिया, किसी से उधार माँगकर पहन लिया और घुस गये कि छक के भोजन करने को पाएँगे। और अन्दर घुस गये।
और किसी ने पूछा — कौन हो? तो बोले, 'वो हम दुल्हन की तरफ़ से हैं।' तो बोले, 'अरे आओ, आओ! फिर कढ़ाह उठवाना है। दुल्हन की तरफ़ से हो तो अब कुछ योगदान भी करो, कुछ सेवा भी दो। तुम्हारी बहन लगती है दुल्हन, भाई!' और ले गये। आये तो थे उधार का कोट पहनकर कि आज बढ़िया तर माल पर साफ़ होगा हाथ और कर क्या रहे हैं पीछे? हलवाई की मदद कर रहे हैं।
अब अगर बता दें कि हमें छोड़ दो, तो हलवाई, हलवाई का तेल और तुम्हारा सिर! कि बेटा झूठ बोलकर अन्दर घुसे थे। पहला झूठ तो ये कि अन्दर घुस आये और दूसरा ये कि बता दिया कि दुल्हन की तरफ़ से हैं। तो अभी तो इतना ही तुमसे कह रहे हैं कि चलो, हलवाई का हाथ बटाओ, कढ़ाह उठवाओ, बर्तन लगवाओ, खाना परोसो, बता दिया अगर कि मूल झूठ क्या था, अगर मूल झूठ का ख़ुलासा हो गया तो और पिटोगे।
अध्यात्म इसी बिन्दु पर सही चुनाव करने का नाम है। या तो मूल झूठ को स्वीकार कर लो या बर्तन मांजते जाओ, मांजते जाओ, मांजते जाओ। मूल झूठ को स्वीकार कर लोगे तो एक बार बहुत पिटोगे, पर उसके बाद मुक्ति है। और नहीं स्वीकार करोगे मूल झूठ को तो दुल्हन की तरफ़ के बने रहो और बर्तन मांजते रहो। अभी तो खाना ही परोस रहे हो, उसके बाद बर्तन भी तो मांजोगे!
सारे तुम्हारे दुख और सारे तुम्हारे झूठ इसलिए हैं क्योंकि एक मूल झूठ बोला हुआ है, उसको पकड़ लिया है। और वो मूल झूठ तुमने विवशता में या भ्रमवश ही नहीं बोल दिया था। याद रखो कि वो मूल झूठ भी तुमने लालचवश बोला था। इसीलिए बताने वाले बता गये हैं कि लालच ही जन्म लेता है। कामनाएँ ही जन्म लेती हैं।
ये जो शरीर का जन्म है, आकस्मिक नहीं है। शरीर के जन्म से पहले ही तुमने कामना कर ली कि आज ज़रा रबड़ी-जलेबी का सेवन करना है, इसलिए तुम्हारा जन्म हुआ। बात सांकेतिक है, पर है बिलकुल सही। उस ब्याह में तुम घुसे ही इसीलिए क्योंकि तुम पहले ही कामना आतुर थे। और फिर घुस गये तो उसके बाद एक झूठ के बाद पचास झूठ, और जितने झूठ बोलोगे, उतने बर्तन मांजोगे।
ब्याह में जो भी कुछ बने बैठे हो, सबको बता दो, तुम वो नहीं हो। ‘हमने लालच किया, हमने झूठ बोला, हमने चोरी करी, हमें अब माफ़ कर दो। हमसे जो तुमको अब सज़ा वसूलनी हो, वसूल लो। हम ज़र्माना अदा कर देंगे, हम माफ़ी माँग लेंगे, जो भी दंड मिलेगा, भोग लेंगे। पर वो जो झूठ हमने बोला था, वो अगर बोलते ही रह गये तो फिर तो जीवन ही व्यर्थ है।
अध्यात्म कहता है — सही चुनाव कर लो! मान लो कि इस पूरे मेले में तुम्हारा प्रवेश ही तुम्हारे झूठ की वज़ह से हुआ है। मान लो, माफ़ी माँग लो। सज़ा भुगत लो और मुक्त हो जाओ।
तब उस पर भी हमारा तर्क है, हम कहते हैं, 'देखो न हम कितने होशियार हैं। हम सबसे झूठ बोल रहे हैं, कोई हमें पकड़ नहीं पा रहा। कोई हमें पकड़ थोड़ी पा रहा है कि हम झूठ बोल रहे हैं।
वो चुटकुला है न जो मैं बीच-बीच में सुनाता हूँ कि संता आया। फटे हुए कपड़े, मुँह लाल, आँख नीली और काली, शरीर पर जगह-जगह निशान। लोगों ने कहा– क्या हुआ? बोला — पिटा हूँ, और खिलखिला कर हँसने लगा। बोले — हँस क्यों रहा है जब इतना पिटा है? बोले — वो सब मूरख! पागल बना दिया मैंने उन्हें। वो मुझे बंता समझकर पीट रहे थे। बंता तो मैं हूँ ही नहीं! इतने लोगों को मूरख बनाया आज मैंने।
ऐसी हमारी हालत है। हम पिट भी रहे होते हैं तो हमें इस बात का बड़ा गर्व होता है कि तुम मुझे जो समझकर पीट रहे हो वो तो मैं हूँ ही नहीं! मैंने तो झूठी पहचान पकड़ रखी है। पत्नी पति को ताना मार रही है — 'कहाँ गया तुम्हारा प्यार? पहले तो मेरे लिए इतना कुछ लेकर आते थे, अब कुछ लेकर नहीं आते। पहले तो इतनी मीठी-मीठी बातें करते थे, अब कुछ नहीं करते। कहाँ गया तुम्हारा प्यार?'
अब पति वैसे तो बाहर-बाहर परेशान हो रहा है, भीतर-ही-भीतर मुस्कुरा रहा है। वो कह रहा है, 'पगली! ये सोचती है, कभी प्यार था। अरे! कभी रहा होगा तब न कहीं गया होगा? मूल झूठ ये है कि कभी भी प्यार था। प्यार तो कभी भी नहीं था। तब मैंने बुद्ध बनाया था तुझे और आज मुझे ताना मार रही है कि तब था, अब नहीं है। देख! तू अभी भी बेवकूफ़ बन रही है मुझसे। तू अभी भी यही सोच रही है कि आज से दस साल पहले प्यार था। प्यार तो कभी भी नहीं था।'
अब पति मुस्कुरा रहे हैं। कह रहे हैं, अभी भी बेवकूफ़ ही बनी हुई है। सोच रही है, पहले प्यार करता था। दुर्गति हो रही है पति देव की, लेकिन अन्दर-ही-अन्दर मुस्कुरा रहे हैं।
यही हालत हमारी है — दुर्गति हो रही है हमारी, अन्दर-ही-अन्दर मुस्कुरा रहे हैं कि इन्होंने तो मुझे बंता समझकर पीट दिया, बंता तो मैं हूँ ही नहीं। इन्होंने तो मुझे दुल्हन की तरफ़ का समझकर बर्तन मंजवा लिये, मैं तो दुल्हन की तरफ़ का हूँ ही नहीं। देखो मैं कितना होशियार हूँ! तो अहंकार वो जो अपनी ही बेवकूफ़ियों पर इतराये। जो अपनी ही दुर्गति पर गर्वाये। उसकी जितनी दुर्गति होती है उसका गर्व उतना बढ़ता है।
अब समझ में आ रहा है कि क्यों हम दुर्गति झेलने को तैयार रहते हैं, सुधरने को नहीं? क्योंकि हमारी दुर्गति में भी बड़ा गुरूर है, बड़ा अहम् है। दुर्गति यूँही थोड़ी हो रही है, हमने जान-बूझकर करवायी है। हमारी होशियारी है हमारी दुर्गति होना। तो कितनी भी दुर्गति होती चले, भीतर-ही-भीतर हम मुस्कुराते हैं। हम कहते हैं, देखा, कितना बुद्धू बनाया। एक घूँसा और पड़ा मुँह पर — भड़ाक! बोले, ‘ये लो, ये भी बेवकूफ़ बन गया। इन्होंने भी बंता ही समझा हमको। एक और को बेवकूफ़ बनाया।’ जितने घूँसे पड़ रहे हैं, जितनी लातें पड़ रही हैं, उतना जान रहा है कि एक और को बुद्धू बना दिया।
अब चुनाव तुम्हें करना है। बुद्धू बनाने में दुनिया को रस हो, तो बनाये चलो और अगर देख लो कि दुनिया को बुद्धू बनाने में सबसे ज़्यादा बुद्धू तुम ख़ुद बन रहे हो, तो बाज आओ। हाथ जोड़कर माफ़ी माँग लो। बता दो कि मै बंता नहीं हूँ, मुझे मत पीटो! बस ये है कि जैसे ही बताओगे कि बंता नहीं हो, और पीटेंगे, पर एक बार पीटेंगे फिर सदा के लिए छोड़ देंगे।
मैं कॉलेज में था तो सब लड़के बात कर रहे थे। उन दिनों यही बहुत बड़ी बात होती थी कि किसी लड़की से आकर बोल दो ’आइ लव यू’। सब बात कर रहे हैं। बोल रहे हैं, आइ लव यू बोलना बड़ा मुश्किल होता है, बड़ा मुश्किल! जब सामने नहीं हो तो फिर कुछ भी कल्पना कर लो, सोच लो, रिहर्सल (पूर्वाभ्यास) कर लो। जब सामने आती है, तो ज़बान ऐंठ जाती है, बोला नहीं जाता है आइ लव यू। बहुत मुश्किल काम है आइ लव यू बोलना।
मैं भी तब लड़का ही था। ज़्यादा नहीं पता रहा होगा पर एक बात मैंने उनको बोली थी। मैंने कहा था, आइ लव यू बोलना मुश्किल है पर उससे भी ज़्यादा मुश्किल है आइ लव यू बोल देने के बाद ’आइ डोंट लव यू’ बोलना। आज़मा कर देखना!
इसीलिए मुक्ति नहीं हो पाती। बड़ा मुश्किल है किसी से कह देना कि तुमसे प्रेम है, पर एक बार कह दिया किसी से, ‘तुमसे प्रेम है’, फिर उससे ये कह पाना कि तुमसे प्रेम नहीं है, पहले मैंने झूठ बोला था, ये और मुश्किल है। फँस जाते हो। अपनी ही झूठ के गिरफ़्तार हैं हम।
अहम् वो जो ख़ुद अपना क़ैदी है। वो अपने ही झूठ के गिरफ़्त में है। वो कैसे मान ले कि वो है ही नहीं! उसने अपनी सारी दुनिया ही इसी बुनियाद पर खड़ी कर रखी है कि वो है। मान लिया कि वो नहीं है, तो फिर उसकी दुनिया का क्या होगा?
अब सोचो कि यदि तुम दुल्हन वाले बने ही रह गये और बर्तन मांज ही रहे हो और मांजते ही गये और मांजते ही गये तो वहाँ तुम्हारे रिश्ते-नाते भी बन जाएँगे, बहुत कुछ हो जाएगा। और जैसे-जैसे घंटे बीतेंगे, फिर दिन बीतेंगे, वहाँ तुम्हारे रिश्ते और प्रगाढ़ होते जाएँगे। अब कैसे स्वीकारोगे कि तुमने झूठ बोला था?
कुछ समय के बाद भीतर द्वन्द्व और ग्लानि इतने बढ़ जाते हैं कि तुम कहते हो ‘हटाओ सच और झूठ! हम वास्तव में लड़की वाले ही हैं।’ संता कहता है, 'मैं बंता ही हूँ।' वो अपनेआप को ही ये भरोसा दिला लेता है कि मैं बंता ही हूँ। फिर ठीक है।
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