प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जगत और ब्रह्म में क्या अंतर है?
आचार्य प्रशांत: हमें अपनी बिखरी हुई हालत से जो अनुभव होता है, हमसे दूर, हमसे अलग, हमारे चारों ओर, हमारे अन्दर, हमारे बाहर, उसको जगत कहते हैं। हम अपनी उसी बिखरी हुई हालत को अपनी सामान्य हालत बोलते हैं। तो एक सामान्य इंसान को जो कुछ अपने इर्द-गिर्द प्रतीत होता है, जिसे वो छू सकता है, देख सकता है, सुन सकता है, जिससे वो सम्बन्ध बना सकता है, उसे जगत कहते हैं।
तो जगत और ब्रह्म की जब हम बात करें तो इससे पहले हमें पूछना पड़ेगा कि जगत और ब्रह्म, दोनों की बात करने वाला कौन है। क्योंकि ये कोई वस्तुनिष्ठ, माने ऑब्जेक्टिव (वस्तुनिष्ठ) बातें नहीं हैं कि ये (एक हाथ उठाकर) जगत है और ये (दूसरा हाथ उठाकर) ब्रह्म है और मुझे इन दोनों का अन्तर बताना है। ठीक है न? 'ये शक्कर है, ये नमक है, इनका अन्तर बता दो।' नहीं, ऐसी चीज़ नहीं है ये। जगत का सम्बन्ध सीधे-सीधे जगत का अनुभव करने वाले से है।
तो जगत क्या है? जगत वो है जो जगत के अनुभव करने वाले को प्रतीत होता है। ठीक है? और हमने कहा, जगत का अनुभव होता है अनुभोक्ता की सामान्य बिखरी हुई स्थिति में जहाँ उसका मन दस टुकड़ों में बँटा हुआ है। कभी ये इधर को भाग रहा है, कभी उधर भाग रहा है, पचास तरह की इच्छाएँ हैं, भ्रम हैं, संशय हैं, ऐसे में जो हमें फिर अनुभव होता है वो जगत।
यही जो अनुभव करने वाला है, जब इसका मन शान्त हो जाता है, ये स्थिर हो जाता है, जब ये खंडित नहीं रहता, बँटा हुआ, बिखरा हुआ नहीं रहता तो ये जो कुछ देख रहा होता है, उस देखे जाने वाले विषय में, दृश्य में और देखने वाले द्रष्टा में, विषेयता में दूरी एकदम मिट जाती है। वो जो दूरी है, उसी का नाम क्या है? कामना, डिज़ायर (इच्छा)।
हमारी बिखरी हुई हालत में कामना बहुत रहती है। हमारी सुलझी हुई और स्थिर हालत में एक पूर्णता रहती है, जिसमें कामना के लिए बहुत कम स्थान होता है। तो मैं जो हूँ, द्रष्टा और जो मैं देख रहा हूँ, इन दोनों में दूरी बहुत कम हो जाती है। जब दूरी बहुत कम हो जाती है तो कामना बहुत कम हो जाती है। आप देख रहे होंगे पर कामना की दृष्टि से नहीं देख रहे।
देखिए, दूरी का क्या मतलब है? मैं हूँ, मुझे वो चीज़ मिली नहीं है, माने मुझसे दूर है, इसी को दूरी कहते हैं। जहाँ कामना है, वहाँ पर खंड हैं दो, दोनों खंडों के मध्य की दूरी को मैं कामना कह रहा हूँ। तो जो चित्त की स्थिर अवस्था में अनुभव है, वो बँटा हुआ नहीं होता, द्वैतात्मक नहीं होता। उसमें मैं और जो सामने वाली चीज़ है, वो दो अलग-अलग नहीं होते, उनमें दूरी नहीं होती, वो अद्वैत अनुभव होता है। वो उस तरह का अनुभव होता ही नहीं जैसा कि एक सामान्य मनुष्य को होता है। ये जो अद्वैत अनुभव है, इसमें देखे जाने वाला और देखने वाला, चूँकि इन दोनों में दूरी नहीं रहती इसीलिए हम कह सकते हैं कि ये एक हो जाते हैं। तो अद्वैत, दो नहीं हैं, ये एक हो गये, ये ब्रह्म है। ये ब्रह्म है। इसको ब्रह्म कहते हैं।
आप जब स्थिर हैं तो चारों ओर जो है वो ब्रह्म है। लेकिन आप जब स्थिर हैं तो आपका वो केंद्र ही नहीं है जिसको मध्य में रखकर चारों ओर देखा जाता है। ठीक है? तो इसीलिए ब्रह्म कोई अनुभव करने वाली बात नहीं है।
ब्रह्म कोई अनुमान लगाने वाली बात नहीं है कि कैसा होता होगा ब्रह्म। आप जब तक हैं तब तक तो अहम् है और जगत है। और यही अहम् जब परिशोधित हो जाता है, इसे आत्मा कहते हैं, तब जगत ब्रह्म है।
और तब आपमें और जगत में कोई दूरी नहीं है; इसी को वेदांत फिर कहता है कि आत्मा ही ब्रह्म है। आप साफ़ हो जाइए तो जगत ब्रह्म है। आत्मा के लिए चारों तरफ़ ब्रह्म है और आत्मा के लिए कोई दूसरा नहीं है चारों तरफ़, माने आत्मा और ब्रह्म एक हैं। लेकिन जब तक अहम् है तब तक चारों तरफ़ जगत है। और अहम् में और जगत में लगातार दूरी बनी हुई है, उसी दूरी को पाटने के लिए अहम् दिनभर और जीवनभर दौड़ता रहता है। उस दूरी का नाम कामना है; कामना अहम् को लगातार नचाती रहती है।
प्र: तो ये जो "अहम् ब्रह्मास्मि" बोलते हैं, "मैं ब्रह्म हूँ", "मैं ही सबकुछ हूँ", तो ये किसने जाना?
आचार्य: ये अहम् की साधारण अवस्था ने नहीं जाना। अहम् की साधारण अवस्था में अहम् और ब्रह्म एक नहीं होते। “अहम् ब्रह्मास्मि” बोलने का अधिकार उसको ही है जिसका अहम् आत्मा बन गया हो, जिसका अहम् शुद्ध होकर के आत्मा हो गया हो, सिर्फ़ वो कह सकता है, ‘अहम् ब्रह्मास्मि’। नहीं तो अहम् में और ब्रह्म में तो बहुत दूरी है। उतनी ही दूरी जितनी सपने और जागृति के बीच में होती है। उतनी ही दूरी जितनी झूठ और सच के बीच में होती है। और बड़ी विडम्बना हो जाती है जब साधारण अहंकार अपनेआप को ब्रह्म समझने लगता है और घोषित करने लगता है, ‘अहम् ब्रह्मास्मि’।
उपनिषदों के सूत्र अहम् की साधारण अवस्था पर लागू नहीं होते। हाँ, वो जो बातें अहम् की सहायता के लिए कह रही हैं, वो बातें सहायक हो सकती हैं लेकिन आत्मा की ओर या स्वास्थ्य की ओर बढ़ने के लिए सहायता लेना एक बात है और ये कल्पना कर लेना कि मैं तो स्वस्थ हूँ ही, बिलकुल दूसरी बात है। अहम् ब्रह्म हो सकता है यदि उसे सही निर्देश और सहायता मिले; ये एक बात है पर अहम् तो ब्रह्म है ही, ये बिलकुल दूसरी बात है।
अगर साधारण मन अपनेआप को ब्रह्म मानना ही शुरू कर देगा तो गड़बड़ हो जाएगी बहुत क्योंकि वो वैसा ही होगा कि अहंकार आत्मा का नाम ओढ़कर घूमने लग जाए। है वो अहंकार और अपना नाम बता रहा है, ‘आत्मा’। अब तो वो और अडिग और अटूट अहंकार हो जाएगा। अब तो वो और ज़्यादा ठोस और पुख़्ता हो जाएगा। अब तो वो और कहेगा, ’मैं नहीं मिटूँगा क्योंकि मैं तो आत्मा हूँ, आत्मा तो मिटती नहीं।' तो इन चीज़ों में थोड़ी सतर्कता आवश्यक होती है।