अज्ञात उतरता है निर्विकल्पता में || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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अज्ञात उतरता है निर्विकल्पता में || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

वक्ता: आशेन्द्र ने पूछा है कि जो पता भी है कि गलत है, वो भी करे जाता हूँ| ये आशेन्द्र की ही नहीं हम सब की कहानी है| ऐसा नहीं है कि आभास नहीं होता कि क्या सही है और क्या गलत, पर फिर भी करे जाते हैं|

आशेन्द्र! जब कर रहे होते हो, ठीक उस वक्त पता होता है? अभी तो पता है| अभी देखो, सब कितने ध्यान से बैठे हो, सुन रहे हो, थोड़ी ही देर में निकलोगे और फिर ऐसे नहीं रहोगे| ठीक उस वक्त पता होता है कि क्या कर रहे हो? अभी पता है तुम्हें| अभी हम बात करेंगे कि देखो बाहर जो लोग होते हैं, वो कैसे घूम रहे हैं, उन्हें कुछ पता नहीं है कि क्या हो रहा है, संस्कारित हैं| तुम कहोगे कि बात बिल्कुल ठीक है| तो अभी तुम्हें पता है| पर जब तुम बाहर निकलोगे और वैसे ही हो जाओगे तो क्या तब तुम्हें पता होगा, ठीक उस वक़्त?

तो बस यही सूत्र है| आगे-पीछे की जानकारी काम नहीं आती| तुम्हारे काम बस वही आता है जो तुम्हारे साथ उस वक्त होता है, ठीक उसी क्षण| जो ज्ञान ठीक उसी क्षण का नहीं है, वो तुम्हारे किसी काम का नहीं है| एक बात तुम साफ-साफ समझो कि जोकुछ भी तुम पढ़ते हो, जानते हो, वो इकट्ठा तो हो जाता है तुम्हारे पास, पर वो कभी भी जहाँ इकट्ठा है, उससे आगे नहीं बढ़ पाता, बढ़ सकता ही नहीं है| उस समय पर बस तुम्हारा अपना होश ही है जो काम आता है| उसके अलावा और कुछ नहीं| पुराना इकट्ठा किया हुआ सब भूल जाना है और आगे के जो सपने हैं, वो भी काम नहीं आने हैं| जब कुछ हो रहा है, उस समय बस वो ही क्षण वास्तविक है| उस क्षण में होश में हो तो बढ़िया है; मस्त रहोगे, जियोगे, जीतोगे; और इतनी सारी जानकारी इकट्ठा कर रखी है, और उस क्षण बेहोश हो गये तो जानकारी फालतू ही इकट्ठा की, समय ख़राब किया और जानकारियों से जीवन चलता नहीं है| जानकारियाँ परीक्षा में काम आ जाती होंगी क्योंकि परीक्षा लेने वालों को भी पता नहीं है कि परीक्षा ली कैसी जानी चाहिए| तो ये चल जाता है तुम्हारी परीक्षा में कि रट लो, इकठ्ठा कर लो और जा कर लिख दो| पर जीवन में ये नहीं चलता|जीवन बड़े अलग तरीकों से चलता है| बड़े सीधे तरीके हैं जीवन के| होश का खेल है, जगे रहने का खेल है| जगे हुए हो तो सब कुछ है और सो गये तो कुछ नहीं है|

तुमने कहा कि पता है कि क्या ठीक है और क्या गलत है, पर उस समय काम नहीं आता| तो उसमें एक बात और समझो कि पहले से तुम्हें ये पता हो ही नहीं सकता कि क्या ठीक है और क्या गलत है, क्योंकि जीवन में सारे विपरीतों की अपनी जगह है|जो एक जगह ठीक है, वो दूसरी जगह गलत होगा| जो एक मौके पर उचित है, वो दूसरे मौके पर अनुचित होगा| तो तुम्हें पहले से कैसे पता कि क्या उचित है और क्या अनुचित? उचित मौके पर, उचित कारण से, तो हत्या भी उचित है| तो तुम कैसे कह सकते हो कि मुझे पता था कि गलत है और फिर भी कर दिया? तुम पहले से सिद्धांत बना कर कैसे बैठ सकते हो कि ये नहीं ही करना और ये करना ही है? जिनको तुम अपने अच्छे से अच्छे काम कहते हो, वो भी किसी काम के नहीं हैं अगर गलत जगह पर, गलत समय पर उनको कर डालो| ये तो उस क्षण के होश से, उस क्षण के विवेक से ही तय होता है कि अभी उचित क्या है| तुम्हें पहले से कहाँ कुछ पता होता है| पर हम कोशिश यही करते हैं और हमारी सारी शिक्षा यही कोशिश करती है| समाज ने भी यही कोशिश की है और घरवालों ने भी यही कोशिश की है कि तुमको पहले से ही बता दें कि क्या करना है जीवन में और क्या नहीं करना है| ‘बड़ों की इज्ज़त करो’| हमेशा? करो इज्ज़त, पर ‘इज्ज़त’ का अर्थ क्या है, ये कोई नहीं बतायेगा| ‘सदा सत्य बोलो’, सदा? पर सत्य क्या है, ये कोई नहीं बतायेगा|

तो तुम्हारे मन में एक बात बैठा दी गयी है कि क्या उचित है|

पर कहीं पर नाचना भी उचित है और कहीं पर खड़े रहना भी| ये तुम्हें कोई कैसे बताये पहले से ही कि कहाँ नाचो और कहाँ नहीं नाचो? कभी चुप रहना बहुत अच्छा है और कभी बोलना बहुत ज़रूरी हो जाता है| तुम्हें कैसे पता कि क्या उचित है और क्या अनुचित? कभी समीप आना बहुत ज़रूरी है और कभी दूर हो जाना बहुत अच्छा है| पहले से ही कोई निर्धारित कैसे कर देगा तुम्हारे लिए? *जीवन में हर चीज़ की अपनी जगह है| बस उसका जो स्थान है, वो सम्यक होना चाहिए*| तो परवाह ही मत करो कि मुझे पहले से पता है या होना चाहिए| भूल जाओ, ख़त्म करो| जगे हुए रहो और मन पर बोझ मत अनुभव करो| जगे हुए रहो और उसी क्षण बिल्कुल जान जाओगे कि अभी क्या करना है और जब जान जाओ तो उसको होने दो, उसके सामने खड़े मत हो जाओ| हम जान भी जाते हैं तो अतीत का बोझ इतना है कि वो पत्थर बनकर कर्म के सामने खड़ा हो जाता है, उसे होने नहीं देता| तुम जान भी जाओगे कि इस मौके पर मुझे कुछ कहना चाहिए, पर अचानक तुम्हारे सामने एक दीवार खड़ी हो जायेगी और वो दीवार होगी शिक्षा की, जिसने तुम्हें बता रखा है कि बड़ों के सामने मुँह नहीं खोलते| और तुम्हारे भीतर संदेह खड़ा हो जायेगा कि बोलना चाहिए या नहीं बोलना चाहिए|

जीवन में जोकुछ भी महत्वपूर्ण है, वो पूर्व निर्धारित नहीं हो सकता| प्रेम क्या तय करके करोगे पहले से ही? पर अपने आस-पास देखो तो लोगों ने पहले से ही तय कर रखा है| तुमने कभी गौर किया लोग शादियाँ कैसे कर रहे हैं? वो जायेंगे और पहले ही भर देंगे कि ऐसा-ऐसा आदमी और ऐसी-ऐसी औरत चाहिए और उसमें एक-एक विवरण भर देंगे| ऊँचाई, आमदनी, रंग, चेहरा, कहाँ रहता है, घर में कितने लोग हैं, धर्म, जाति, गोत्र, सब भर देंगे और फिर कहेंगे, ‘ये मैंने दे दिया विवरण और अब ऐसा माल तैयार करके बताओ कि कौन सा है’| जैसे तुम दर्जी की दुकान पर जाते हो और कपड़ा देते हो और कहते हो कि ये-ये विवरण है और ये माल तैयार करके दे दो, वैसे ही तुम पूर्वनिर्धारित कर लेना चाहते हो| वर्तमान का जो रोमांच होता है, उसका जो नयापन होता है, उसका तुम क़त्ल कर देना चाहते हो और मज़ा उसी में है, जब कुछ नया मिले| पहले से ही तुमने तय कर रखा है तो उसमें फिर क्या मज़ा है और जो तय कर रखा है वो तुमने नहीं कर रखा; वो तुम्हारे संस्कारों ने तय कर रखा है| भारतीय हो तो तुम्हें पहले से पता है कि ऐसे-ऐसे रूप-रंग की लड़की होगी तभी तुम्हें जँचेगी| कोई अफ्रीकन है तो उसको बिल्कुल अलग तरीके की लड़की जँचेगी| इन दोनों ने ही तय नहीं कर रखा; दोनों को बचपन से ही इस आबो-हवा में बड़ा किया गया है कि उनके मन में ये बात बैठ गयी है कि ‘सुंदरता’ इसी का नाम है| जानता दोनों में से कोई भी कुछ नहीं है, पर निर्धारित दोनों के लिए है| जैसे तुम्हारे मन में निर्धारित है कि ऐसी-ऐसी नौकरी ही करनी है और ये-ये काम हैं जो बिल्कुल नहीं करने हैं जीवन में| तुमने तय ही कर रखा है ना कि ये अच्छा और ये बुरा, ये करने योग्य और ये करणीय बिल्कुल नहीं| देखो ना कि अभी से तुम्हारे मन में कितनी बातें बैठ गयी हैं कि ये तो होनी ही चाहिए|

जल्दी से प्रतिवाद मत करने लग जाना कि सर ये न करें तो क्या करें| पूछो अपने आप से कि शिक्षा क्यों ज़रूरी है| क्यों करे जा रहे हो?पर तुम्हारे मन में बात है कि ये तो होनी ही चाहिए| नौकरी क्यों ज़रूरी है? पर तुम्हारे मन में पक्का है कि होनी ही चाहिए| बंधी हुई आमदनी क्यों ज़रूरी है? पर तुम्हारे मन में पक्का है कि ये तो होनी ही चाहिए| तुमने कभी पूछा नहीं कि क्यों? कोई और तरीका नहीं हो सकता? खोजें, शायद कोई और तरीका हो| कम से कम कोशिश तो करें खोजने की, क्या पता मिल ही जाये कोई तरीका| तुम्हारे मन को पहले ही पता है कि शादी तो होनी ही चाहिए| अच्छा, क्यों? ये तुम्हें नहीं पता क्योंकि तुमने कभी सोचा नहीं| शादी हो जाये तो अब बच्चे तो होने ही चाहिए| अच्छा, क्यों? उसका तुम्हें कुछ पता नहीं| जीवन में एक मकान तो होना ही चाहिए, इतना पैसा तो होना ही चाहिए| क्यों? पर तुम्हें पता है कि अच्छे जीवन में ये सब होना ही चाहिए और मैं कह रहा हूँ कि इससे बुरा जीवन कोई हो नहीं सकता, जिसमें पहले से ही पता है कि क्या अच्छा है|

तुमने अनपेक्षित के स्वागत के लिए दरवाजे बिल्कुल ही बंद कर दिए हैं| अनपेक्षित को तुम ज़िन्दगी में आने ही नहीं देना चाहते| नये को तुम बिल्कुल सहमी हुई नजर से देखते हो कि नये में खतरा ही खतरा है| तो सब पहले ही तय कर लो कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है और तुम्हारा ये अच्छा बुरा चुनना तुम्हारे किसी काम आता नहीं, आ सकता भी नहीं है क्योंकि ये अस्तित्व के नियमके ही खिलाफ है| अस्तित्व में ऐसा होता ही नहीं| वो तो कहता है कि ‘इस पल में रहो और जो ठीक है वो होने दो’| सब अपने आप होगा, तुम्हें क्यों अपने ऊपर इतना बोझ डालना है कि तय करूँ, याद करूँ और फिर स्मरण करूँ| हल्के रहो, उड़ते रहो| जब होगा तो विश्वास रखो कि इतनी काबिलयत है कि जवाब दे पाओगे| जब भी, जो भी पल आयेगा; जब भी, जो भी घटना घटेगी| कहो, ‘हाँ मैं काबिल हूँ, मैं उस घटना के लिए प्रस्तुत हूँ’| पर तुम कहते हो, ‘नहीं सर, हम कहाँ प्रस्तुत हैं? हम कहाँ काबिल हैं, हममें कहाँ इतनी योग्यता? हमें तो पहले से तैयारी करनी पड़ती है| हम तो साँस लेने की भी तैयारी पहले से ही करते हैं| एक साँस अभी लेते हैं और आने वाले बीस साँसों की तैयारी पहले से करके रखते हैं’|

(सभी हँसते हैं)

वक्ता: अरे! तुममें काबिलयत है| क्यों तैयारी करके बोझ बढ़ा रहे हो इतना? जब मौका आयेगा तो साँस ले लेना, पर वही ना – नकलीपन है| तुम्हें किसी को “आइ लव यू” भी बोलना हो तो दस बार पूर्वाभ्यास करके जाते हो| उसको भी बहने नहीं देते कि जब कहने का मौका आयेगा और जब लगेगा कि है तो तब अपने आप कह देंगे| इसमें क्या पूर्वाभ्यास करना? और फिर पूर्वाभ्यास करके होता क्या है? अच्छे से जानते हो क्या होता है|

(सभी हँसते हैं)

वक्ता: कुछ तो जीवन में बिना तैयारी के होने दो| एकदम ही डर जाते हो बिना तैयारी के|

एक बात याद रख लेना कि जो अनपेक्षित है, वही असली है| सत्य के लिए एक शब्द इस्तेमाल होता है- अननुमानेय, जिसका अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता| तुमने जिसका अनुमान लगा लिया पहले से ही, वो बस नकली है| जो असली है, वो हमेशा बिल्कुल ताज़ी हवा के झोंके की तरह आयेगा | तुम कहोगे कि ये क्या आ गया? उसी में आनंद है, उसी में जीवन है बाकी सब तो सड़ा-गला, पहले से ही डब्बा बंद है |

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हे तु हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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