सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत। कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ।।३.२५।।
हे अर्जुन! कर्म में आसक्त होकर अज्ञानी लोग जिस तीव्रता से कर्म करते हैं, ज्ञानी को अनासक्त रहकर जगत के कल्याण हेतु उसी तीव्रता के साथ कर्म करना चाहिए।
~श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक २५
आचार्य प्रशांत: ‘अर्जुन! कर्म में आसक्त होकर माने आसक्ति से प्रेरित होकर अज्ञानी लोग जिस तीव्रता से कर्म करते हैं, ज्ञानी को अनासक्त रहकर जगत के कल्याण हेतु उसी तीव्रता के साथ कर्म करना चाहिए।‘
जितने अज्ञानी हैं, वो जान लगाकर काम करते हैं। जितने तरीके के गुण हो सकते हैं, वो सब गुणों का इस्तेमाल कर लेते हैं अपनी आसक्ति की ख़ातिर। और जो ज्ञानी हैं, ये सदा का ढर्रा रहा है कि वो तीव्रता से कर्म में नहीं उतर पाते। वो अर्जुन जैसे हो जाते हैं, वो ज्ञान बाँचने लगते हैं।
वो कहते हैं, ‘अरे! कृष्ण आप कर्म की बात क्यों कर रहे हो, करुणा की बात करो, दया की बात करो। लोगों को मारकर क्या मिलेगा? ये तो हिंसा हो गई।’
मैं कहीं पर पढ़ रहा था कि पिछले बीस वर्षों में जो यांत्रिक कसाईखाने हैं, इनकी क्षमता चालीस प्रतिशत बढ़ गई है। कुछ भी और है अच्छा-सुंदर दुनिया में, जो बीस वर्षों में चालीस प्रतिशत बढ़ गया हो? दो-चार अच्छी चीज़ों का नाम दे दीजिएगा। अच्छी किताबें, क्या अच्छी किताबों का स्तर चालीस प्रतिशत बढ़ गया है या संख्या बढ़ गई है? अच्छा जो कुछ भी है, वो या तो यथावत है या गिर रहा है।
बुराई पूरी ताक़त, पूरे अनुशासन, पूरे संकल्प, पूरी इच्छाशक्ति के साथ बेहतर-से-बेहतर होती जा रही है। कसाईघर, बूचड़खानें बेहतर-से-बेहतर होते जा रहे हैं। आप वहाँ जाएँ, आप कहेंगे ऊँची-से-ऊँची मशीन यहाँ लगी हुईं हैं, बेहतर-से-बेहतर टेक्नोलॉजी लगी हुई है। कम-से-कम समय में ज़्यादा-से-ज़्यादा जानवर काट देने हैं।
वो बेहतर-से-बेहतर होते जा रहे हैं और जिधर सद्गुण है, जिधर ज्ञान है, जिधर समर्पण है, उधर लोग हाथ-पर-हाथ धरे बैठे हैं। ये तब भी होता था और तब भी ज्ञान देना पड़ता था कि ‘बेटा! वो तो पापी है और वो मोह, आसक्ति और लालच में कर्म कर रहा है, पर उसकी तेज़ी देखो, कितना तेज़ है। और तुम अपने-आपको ज्ञानी बोलते हो और अपनी शिथिलता देखो, अपना आलस देखो, अपनी अकर्मण्यता देखो।’
इसीलिए तो गीता सनातन है न, तीसरे अध्याय का पच्चीसवाँ श्लोक उदाहरण है कि जो बात तब प्रासंगिक थी, वही आज भी प्रासंगिक है और वही आज से तीन हज़ार साल बाद भी प्रासंगिक रहेगी अगर हम तीन हज़ार साल बाद बचे रहे तो।
श्लोक दोहराएँ?
‘हे अर्जुन! कर्म में आसक्त होकर अज्ञानी लोग जिस तीव्रता से कर्म करते हैं’ – तीव्रता माने गति कह सकते हैं या गहनता कह सकते हैं – ‘ज्ञानी को अनासक्त रहकर जगत के कल्याण की इच्छा से उसी तीव्रता से, बराबर की तीव्रता से कर्म करना चाहिए।‘
तुम्हें उनका मुकाबला करना ही पड़ेगा। तीव्रता में तुम्हें मुकाबले में खड़ा होना पड़ेगा, वहाँ बराबरी होनी चाहिए। बराबरी कहाँ नहीं होनी चाहिए? बराबरी नीयत में नहीं होनी चाहिए। उनकी नीयत आसक्ति की, मोह की, लालच की है, शोषण की है; तुम्हारी नीयत अनासक्ति की, ज्ञान की, करुणा की होनी चाहिए। नीयत में बड़ा अंतर रहे, तीव्रता में अंतर नहीं होना चाहिए।
ये नहीं होना चाहिए कि रावण के बाणों की तीव्रता राम के बाणों की तीव्रता से कहीं ऊपर की है, ये नहीं हो सकता। हाँ, नीयत में अंतर होना चाहिए। बाणों में तो बराबरी का दम होना चाहिए, कम-से-कम बराबरी का। हो सके तो ये हो कि राम के बाणों की तीव्रता थोड़ी ज़्यादा ही हो, कम न हो।
ये कितनी सुंदर, कितनी ऊँची बात है। सिर्फ़ कर्म देखोगे तो ऐसा लगेगा राम-रावण एक ही तो काम कर रहे हैं। दोनों क्या कर रहे हैं? धनुष लिए बाण चला रहे हैं एक-दूसरे पर। नीयत देखनी पड़ेगी। सिर्फ़ कर्म देखोगे तो कुछ समझ नहीं पाओगे।
निष्काम कर्मयोग का यही अर्थ है, कर्म तो घोर करो, पीछे की नीयत निष्काम होनी चाहिए।
पर हमारी शिक्षा ही ऐसी नहीं है कि हम कर्म के पीछे के कर्ता को देख पाएँ और उसका सही मूल्यांकन कर पाएँ। हम कर्म देखते हैं बस।
अभी किसी ने एक संदेश लिखकर भेजा था, 'आचार्य जी आपमें और केएफ़सी में क्या अंतर है? क्योंकि मैं यूट्यूब खोलता हूँ, उसमें केएफ़सी का भी विज्ञापन आता है, आपका भी विज्ञापन आता है। तो दोनों एक ही तो हो गए?'
तर्क लाजवाब है!
बोल रहे हैं, ‘मैं वीडियो देखता हूँ, विज्ञापन आपका भी आता है और उनका भी आता है, तो दोनों बराबर हो गए।’
अभी बराबर नहीं हुए हैं पागल!
बराबर होना है, अभी उनके ज़्यादा आते हैं। बराबर तो हम करके दिखाएँगे। इतना प्रचार करेंगे, इतना प्रचार करेंगे कि तुम छुपोगे कहाँ! तुम्हें देखना पड़ेगा। एक-एक रुपया जो हमारे पास है, प्रचार में खर्च कर देंगे। चाहे भूखा सोना पड़े, चाहे नंगा होना पड़े। ये प्रचार युद्ध है, यही कुरूक्षेत्र है आज का; करेंगे प्रचार। अभी बराबरी कहाँ हुई केएफ़सी से!
कृष्ण कह रहे हैं, ‘ये दुष्ट जिस तीव्रता से कर्म कर रहे हैं, अर्जुन! तुम उतनी ही तीव्रता से कर्म करके दिखाओ।’ बस केन्द्र दूसरा होना चाहिए, नीयत दूसरी होनी चाहिए। वो अधर्म की ख़ातिर विज्ञापन दे रहे हैं, तुम धर्म के ख़ातिर दो। वो पैसे कमाने की ख़ातिर कर रहे हैं, तुम विज्ञापन दे-देकर अपने सारे पैसे लुटा दो। पर कर्म तो तुम्हें बराबरी का ही करना पड़ेगा।
वो विज्ञापन में कमाते हैं, तुम विज्ञापन में लुटाओ। जितना कुछ है तुम्हारे पास, सब लुटा दो!