अन्धः तमः प्रविशन्ति ये विद्यामुपासते
ततो भूयः इव ते तमो य उ विद्यां रताः
ईशोपनिषद
आचार्य प्रशांत: ईशावास्य है, ईशावास्य उपनिषद का बहुत प्रसिद्ध मंत्र है|
अन्धः तमः प्रविशन्ति ये विद्यामुपासते
ततो भूयः इव ते तमो य उ विद्यां रताः
~ ईशोपनिषद
जो अविद्या कि उपासना करते हैं, वो गहरे अहंकार में प्रवेश करते हैं| ” ततो भूयः इव ते तमो य उ विद्यां रताः ” और उससे भी गहरे अंधकार में वो प्रवेश करते हैं, जो विद्या में ही रत रहते हैं| तो पूछा कि क्या अर्थ है? (प्रश्न पढ़ते हुए)
जैसी हमारे मन में छवि है उपनिषदों की, धर्म की, आध्यात्मिकता की, तो हमें ज़रा भी अचरज नहीं होगा मंत्र की पहली पंक्ति से| क्योंकि क्या कहती है पहली पंक्ति? जो अविद्या में रत रहते हैं, वे गहरे अंधेरे में प्रवेश कर जाते हैं| ये बात हमें वेदों की और उपनिषदों की अपनी मानसिक छवि के अनुकूल ही लगती है, कि बात बिल्कुल ठीक कही| अविद्या माने? विषयगत अनुभव, जो कुछ भी इन्द्रियों से प्रतीत होता है| मन जिसका अनुभव कर सकता है, वो सब ‘अविद्या’|
माया के बहुत समीप ही ये शब्द है — ‘अविद्या’| तो हम कहते हैं, “ठीक! ये तो हम जानते ही हैं| ये तो धर्म ने और आध्यात्मिकता ने हमेशा से हमें पढ़ाया ही है कि संसार बुरा और जो संसार में उलझेगा, वो गहरे अन्धकार में जा कर के गिर जायेगा| जो संसार में फसा वो गहरे अँधेरे में गिरा|” अब यही हम ने छवि बना रखी है कि यही तो कहते हैं धर्म-ग्रन्थ कि “संसार को छोड़ो!”, “एह लोक को छोड़ो, पर लोक का ध्यान करो|” यही हमारे मन में छवि रहती है ना? कि दुनिया बुरी, परमात्मा भला| माया मिथ्या, *ब्रह्म*सत्य| कुछ ऐसा ही सोचते हैं हम और इसीलिए आध्यात्मिकता से दूर रहते हैं, कि धर्म के पास जाने का, उपनिषदों के पास जाने का, यहाँ इस बोध-सत्र में आने का अर्थ ही यही होता है कि संसार को छोड़ना पड़ेगा| हमें लगता है ऐसा ही तो ऋषियों ने हमें सिखाया है, कि संसार कोई घृणित, त्याज्य वास्तु है| करीब-करीब अस्पृश्य है, जैसे छूत की बीमारी हो, उसकी छाया से भी दूर रहना| “तुम तो राम भजो| छोड़ो दुनिया को|”
हमें ज़रा भी अचम्भा नहीं होता है, मन्त्र की पहली पंक्ति से, असल में मंत्र की पहली पंक्ति, हमें ऐसा लगता है हमारे ही दुनिया से है| प्रतीत ऐसा होता है जैसे ऋषि ने ना कही हो, हम ही ने कही हो| लेकिन उपनिषद यूँ ही उपनिषद् नहीं हैं, वो झटका दे देते हैं| अगली पंक्ति, अगर आप ध्यान देंगे तो आपको हिला जाएगी| अगली पंक्ति कहती है, “ठीक! जो दुनिया में रत हुआ, जो दुनिया में रम गया, वो तो गया अँधेरे, तम में, गहरे अन्धकार में, लेकिन उससे भी ज़्यादा गहरे अन्धकार में वो जा के गिरा जो विद्या में रत हो गया|”, ये कैसी बात है?
एक ओर तो वेद हमसे कहते हैं कि विद्या के अलावा और कोई सत्य नहीं| एक ओर तो ऋषि हमसे कहते हैं कि जीवन का विद्या के अतिरिक्त और कोई अर्थ नहीं| उपनिषद् हमसे कहते हैं कि विद्या माने “जो है|”
या विद्या सा विद्यते – जो विद्यमान है, उसी को विद्या जानना| तो एक ओर तो विद्या को इतने ऊंचे स्थान पे रखा और दूसरी ओर ये क्या कह दिया, कि जो विद्या कि उपासना करते हैं वो जा कर के उनसे भी ज़्यादा दुर्गति को प्राप्त होते हैं, जिन्होंने अविद्या कि उपासना की थी? कि जो माया के फेर में फसा उसका तो नाश होगा, पर उससे भी ज़्यादा बड़ा नाश उसका होगा जो सत्य के खेल में फास गया| जो अविद्या के खेल में फसा वो तो नर्क में जा कर के गिरेगा पर उससे भी गहरे और पीड़ादायक नर्क में वो जा कर के गिरेगा जो विद्या के खेल में फस गया| अब हम सब तो विद्यार्थी हैं|
विद्यार्थी माने? जो विद्या पाना चाहता हो| जो विद्या कि इच्छा रखता हो|
हम कामार्थी नहीं, हम मायार्थी नहीं, हम तो विद्यार्थी हैं| हमें तो विद्या चाहिए और उपनिषद् ने तो जैसे धमकी दे दी, “बड़ा बुरा हश्र होने वाला है तुम्हारा| तुमसे अच्छे तो वो हैं जो दुनिया को भोग रहे हैं, माया से आलिंगनबद्ध हैं| अविद्या में बेहोश हैं, वो कितने भी बुरे हैं पर तुमसे भले हैं|” तुम जो सत्यनिष्ठ हो, तुम जो विद्या के अलावा और कुछ खाते-पहनते, ओढ़ते-सोचते नहीं| ये क्या बात हुई? ये ऋषि ने दल कैसे बदल लिया? या कहीं ये अविद्या की मार तो नहीं जो ऋषि पर भी पड़ गयी है? हमारी तो अपेक्षा ये है कि ऋषि कहेंगे कि विद्या-विद्या अच्छी| अविद्या-अविद्या? बहुत बुरी!
नहीं, वो ऐसा नहीं कह रहे| थोड़ा समझना पड़ेगा बात क्या है| माया में फँसना नीयति है| उसमें कुछ विशेष नहीं है| आप पैदा होते हो, माया में ही| अन्यथा पैदा होने का प्रश्न नहीं होता| पैदा होना, माने समय की शुरुआत हो गयी और आत्यंतिक अर्थ में समय भ्रम है, तो आपका पैदा होना ही एक मायावी घटना है| ऐसा नहीं, कि आपने कोई विशेष ही पाप कर डाला है, इस कारण आप फंस गए| इस कारण अविद्या ने आपको जकड़ लिया| नहीं! कुछ अगर आपने पाप करा भी है, कोई कर्मफल यदि आप भुगत भी रहे हैं तो वो अभी का तो नहीं है| होगा कभी और का, उसके वजह से आप पैदा हुए होंगे, लेकिन पैदा होने का अर्थ ही यही है कि आप माया लोक में पधार गए, और जो पधारा है, याद रखियेगा, अभी उसके कर्मो का खाता नहीं खुला| हाँ! पहले के उसके पास संचित कर्म हों, भण्डार हो, अलग बात है, पर अभी उसने कुछ नया नहीं इकठ्ठा किया|
ये तो एक बड़ी प्राकृतिक घटना है कि बच्चे का जन्म हो और माया में ही जन्म हो| जन्मता है बच्चा और आँख खोलता है, किधर को? माया की ओर ही तो खोलता है| आँख खोलते ही उसे सत्य के दर्शन तो नहीं होते| आँख खोलते ही उसे अद्वैत तो नहीं दिखाई देता| आँख खोलते ही उसे तो द्वैतात्मक संसार ही दिखाई देता है| आँख खोलते ही उसे कुछ भी पूर्ण या अनंत तो नहीं दिखाई देता| आँख खोलता है और तुरंत उसे खंड-खंड दृश्य, वस्तुएं, चेहरे, ध्वनियाँ, यही मिलते हैं| सुनता है, तो उसे ना अनहद सुनाई देता है ना मौन| उसे तो आवाजें सुनाई देती हैं| पकड़ता है तो सद्वस्तु तो उसके हाथ नहीं आती, उसके हाथ तो दुनिया के दिए हुए खिलौने, झुनझुने और खाना, यही आता है|
तो बड़ी यह सहज सी बात है कि व्यक्ति माया में जीये| गलत नहीं होगा, अगर आप व्यक्ति को परिभाषित ही ऐसे कर दें कि जो माया में जीता है उसी का नाम, ‘व्यक्ति’ है, और इस में कोई बड़ी खोट नहीं है व्यक्ति की| उसकी निर्मित्ति ही कुछ इस तरीके की है कि उसे माया में ही जीना है| उसे अपना भरण-पोषण मिलना ही अपने बाहर से है| स्वयं ना तो वो अपनी श्वास का निर्माण करता है, ना अपने खाने का निर्माण करता है, वो कैसे मान ले कि मैं अपने आप में अखंड, पूर्ण, अविच्छिन्न सत्ता हूँ?
उसको तो यही दिखाई देगा कि मैं हूँ और मुझसे अलग एक संसार है और उस संसार में कुछ है जो मेरे अनुकूल है, कुछ है जो मेरे प्रतिकूल है | उस संसार में, मेरे दोस्त भी हैं और दुश्मन भी हैं| सब कुछ, द्वैतात्मक ही दिखाई देगा| तो ऐसे शुरुआत होती है व्यक्ति की, और फिर, धीरे-धीरे उसका विकास होता है| वो अनुभवों की सीढ़ी चढ़ता है, समय बीतता है और यदि अनुग्रह रहा उस पर, तो एक बिंदु ऐसा आता है जब उसको ये प्रतीत होने लगता है, उसको ये चेतना होने लगती है कि मामला वैसा है नहीं जैसा मुझे दिखाई देता है, कि ये खाना-पीना, ओढ़ना-बिछाना, सो जाना, ये जीवन नहीं हो सकता| कुछ धुंधला सा है इस में| सच्चाई इसके पीछे कहीं छुपी हुई है| अब ये सम्भावना बनती है कि वो माया से आगे, अविद्या से आगे, कहीं पहुँच सकता है| पर याद रखियेगा “अविद्या से आगे”| अविद्या “में” रह कर अविद्या से आगे नहीं| क्यों कह रहा हूँ ये? वजह है|
अविद्या माने क्या? अविद्या माने वो जो इन्द्रियगत है और मानसिक है|
जो कुछ भी उसे अविद्या से आगे ले जायेगा, वो ना इन्द्रियों से देखा जा सकता है और ना वो ऐसा होगा जिसका कोई मानसिक अनुभव हो| वो आपके विचार का, धारणाओं का, अनुभूतियों का विषय नहीं हो सकता, वो कुछ और ही है| जो आपको बंधी-बंधाई दुनिया से आगे ले जाता है| हाँ! आप विचार के गुलाम हैं तो जैसे ही आपसे कहा जायेगा कि, “कुछ है जो आपको आपकी जन्म-जन्मान्तर की अविद्या से भी आगे ले जाता है”, तो आप उसके बारे में ही सोचना शुरू कर देंगे| क्योंकि इसके अलावा आप करेंगे क्या? क्योकि इसके अलावा, आप करेंगे क्या? आपके पास और कोई उपकरण ही नहीं हैं| सोचना आप जानते हैं, तो आप सोचना शुरू कर देते हैं|
लेकिन माया से आगे आपको वही ले जाता है जो स्वयं माया ना हो; मानसिक गतिविधि का दायरा वही तोड़ पाता है जो स्वयं मानसिक ना हो| एक नया विचार आपको निर्विचार नहीं बना सकता|
आप हजारों विचारों के दायरों में क़ैद हैं, उसमे आप कुछ और विचार जोड़ देंगे, इससे आप निर्विचार नहीं हो जायेंगे| आपके पास सौ छवियाँ यूँ ही हैं सत्य की, उसमें आपने दो-चार और जोड़ दीं, उससे आप सत्य के निकट नहीं आ जायेंगे| तो आप जिस अविद्या में फँसे होते हैं, उससे बाहर आपको वो निकालता है जो स्वयं अविद्या ना हो| दूसरे शब्दों में, आप मन के घेरे में फँसे होते हैं, पर आपको कुछ ऐसा बाहर निकालता है, जो स्वयं मन का उत्पाद ना हो|
लेकिन मन की कार्गुज़ारी कुछ ऐसी होती है कि वो ये छवि भी बना लेता है कि मुझसे बाहर क्या है? वो कहता है, “ठीक! हमें पता चला कि जो लोग अविद्या में रत हैं उनकी बड़ी दुर्गति होती है, तो हम विद्या में रत हो जाते हैं,” और
मन जिस में भी रत होगा, वो क्या होगा? मन की ही कोई गतिविधि|
वो विद्या को भी कुछ ना कुछ मानसिक बना ही लेगा| वो सत्य को भी किसी ना किसी तरीके से एक छवि में ज़रूर ढाल लेगा| अब, कौन था जो आपको अविद्या से मुक्ति दिलाता? “सत्य!”, और आपने क्या किया सत्य का?
श्रोता: छवि बना ली|
आचार्य जी: छवि बना ली! जो एकमात्र सम्भावना थी मुक्ति की, आपने उसको भी अपनी बेड़ी बना लिया| समझ में आ रही है बात? उपनिषद् आपको दिए गए, कि आप इनका पाठ कर के आप ध्यान में चले जायें, आप मिट जायें| पर आप उपनिषदों को भी पचा गए! जो कुछ भी उपनिषदों ने कहा आप उस पर भी सवार हो गए| ये नहीं हुआ कि उपनिषदों ने आपको मिटा दिया| हुआ ये कि उपनिषदों ने आपको और बड़ा कर दिया, भारी कर दिया| आपके मन में इतने सारे विषय थे, एक और विषय जुड़ गया- “सत्य”, “विद्या”| अब आपके लिए क्या सम्भावना बची? जिस मरीज़ ने दवा का भी प्रयोग नशे की तरह करना सीख लिया हो, उसके लिए अब कोई सम्भावना नहीं बचती|
साधारण मरीज़ कौन? जो साधारण संसारी है, वो माया में लिप्त है| उसके लिए अभी उम्मीद है| क्या उम्मीद है? कि क्या पता किसी दिन ये शास्त्रों के संपर्क में आये, गुरु के संपर्क में आये और तर जाए| लेकिन जो शास्त्रों के संपर्क में आया, जो विद्या के संपर्क में आया, जो ऋषि के संपर्क में आया लेकिन उस संपर्क में आने के बाद भी तर नहीं पाया! उपनिषद् हमसे कह रहे हैं कि वो और भी ज़्यादा गहरे अन्धकार में जा कर गिरेगा| इसीलिए, उपनिषद् स्वयं ही पाबंदी लगाते हैं| वो स्वयं ही घोषित करते हैं कि जो अधिकारी ना हो वो इनके पास ना आए| इसलिए नहीं, कि उनमें अहम् भाव है कि, “हम ऊंचे हैं, हमें कोई नीचा कैसे पढ़ लेगा?” ऐसी कोई बात नहीं|
उपनिषद् ब्रह्मास्त्र हैं|
वे सच्चे अर्थो में ब्रह्मास्त्र हैं| वे ब्रह्म का अस्त्र हैं| वे आखिरी अस्त्र हैं और आखिरी अस्त्र कभी निष्फल नहीं होना चाहिए, क्योंकि अगर आखिरी अस्त्र भी निष्फल हो गया तो अब आप क्या करोगे? अब तो आप बस भटकोगे जन्म-जन्म| तो आखिरी अस्त्र का प्रयोग सिर्फ तब करना चाहिए जब तैय्यारी पूरी हो, और यही हुआ है हमारे साथ| हमारा अहंकार हमें ये स्वीकार करने नहीं देता कि हमारी तैयारी पूरी नहीं है| हमने अभी ना श्रम किया है ना समर्पण और हम उपनिषदों को हाथ लगा देते हैं| ऋषि हमसे कह रहे हैं, “अब भुगतो! तुमने क्यों छुआ इनको? अब कौन बचाएगा तुमको?”
जिसने कभी ना सुना होता, जो प्यासा भटक रहा होता, जिसके कानों में गहरी उत्कंठा होती, मन में एक उत्कट प्यास होती कि कुछ मिल जाये, जो मुझे बचा ले| “क्या दुनिया के अलावा भी कुछ है?” उसको, जब अचानक कहीं से, ऋषियों के वचन सुनाई देते, तो उसका कल्याण हो जाता| वो भटक रहा था माया में, बेहद प्यासा था और उसे मिले उपनिषद् , वो तर गया| पर तुममें अभी उतनी प्यास थी नहीं और तुमको मिल गए ये वचन, और जो मिल गए हैं ये वचन उनको अब तुमने अपने ज्ञान के दायरे में, अपने मन के दायरे में, विचार और छवि के दायरे में समाहित कर लिया है| अब ब्रह्मास्त्र ने अपना तेज खो दिया| वो एक ही बार प्रयोग हो सकता है| जितने भी दिव्यास्त्र हुए हैं, उनकी ख़ास बात यही है वे दोबारा नहीं प्रयोग होते| तुम्हें एक अवसर मिलता है ऋषि के पास जाने का, उपनिषद् भी तुम्हारे पास एक ही बार आते हैं| उस एक बार में, तीर निशाने पे बैठ गया तो बैठ गया और चूक गया तो चूक गया| और अगर चूका, तो तुम्हारी दुर्गति संसारी से कहीं ज़्यादा बुरी!
तो
विचित्र है अवस्था उनकी, जिनकी यात्रा शुरू ही नहीं हुई पर बहुत बुरी है अवस्था उनकी, जिनकी यात्रा शुरू तो हुई पर वो रास्ते में ही, थक के थम गए| रास्ते से उतर गए या वापस लौट गए| जो शुरू करे, उसे आखिरी मंज़िल तक जाना ही होगा और उस से ज़्यादा अभागा कोई नहीं, जिसने शुरू किया पर पथचित हो गया
और याद रखना जो पथचित होगा, ऐसा नहीं कि वो सत्य का नाम लेना बंद कर देगा| पथचित होने का लक्षण ही ये है कि वो सत्य में रत हो जायेगा| (हँसते हुए) वो दिन-रात सत्य की ही बातें करेगा| उसकी सारी भाषा ही बदल जाएगी, बिल्कुल नकली हो जाएगी| वो सत्य की ही बात कर रहा है, उसने सत्य को अपना विषय बना लिया है| जैसे संसार एक विषय होता है ना? वैसे ही सत्य एक विषय है| संसार की जब वो बात करता है तो उसकी भाषा अलग होती है और सत्य की जब वो बात करता है तो उसकी भाषा अलग होती है| अब वो सत्य पे चढ़ के नाच रहा है| निश्चित रूप से, ये कोई झूठा ही सत्य होगा| तुम्हारे मन में ही कैद हो गया|
सत्य मन का विषय नहीं है, कि मुझे दस बातें पता हैं, उनमें से एक बात सत्य भी है|
सत्य कोई गतिविधि नहीं है, वो कोई किताब नहीं है, वो कोई विचार नहीं है, वो कोई मंत्र नहीं है, वो आधार है| वो आसन है, बुनियाद है|
उसका नाम नहीं लिया जाता, क्योंकि नाम तो विषयों के ही लिए जाते हैं| वो, वो मौन है, जो सारे नामों के पीछे मौजूद रहता है| पर जिन्हें उस मौन कि उपलब्धि नहीं हुई होती है, वो सत्य का नाम खूब लेते हैं| सत्य कुछ ख़ास नहीं है, वो तो बहुत आम है क्योंकि वो लगातार हर जगह है, हर समय, मौजूद, तुम्हारे साथ है| पर जिन्हें निर्विशेष सत्य कि उपलब्धि नहीं हुई होती है, वो सत्य को खूब विशेष बना लेते हैं| और सत्य की विशेषता, उनकी अपनी विशेषता बन जाती है| “”हम कौन?”, “हम सत्य को जानने वाले|””
ऐसे लोगों के कुछ बहुत स्पष्ट लक्षण होते हैं| वो सच के सामने नहीं झुकते| वो ये नहीं कहते, “कि अब तो जो तू कराएगा, करेंगे!” वो सत्य के बारे में योजनायें बनाते हैं| वो अपने अनुरूप ढालते हैं सत्य को| वो तय करते हैं कि कितना चाहिए और कब चाहिए| आज मैंने दोपहर में ये बात प्रसारित करी कि दस तारीख को दो दिन के लिए छोटा सा शिविर लगेगा, छोटा सा, दो दिन का| तो, दो तरह की प्रतिक्रियाएं आयीं| पहली, “हमें नहीं मालूम था कि आप इस तारिख को शिविर आयोजित कर रहे हैं| पर शिविर हमसे बड़ा है| जब भी आयोजित होगा, हमें तो आना ही है| क्या फर्क पड़ता है कि दस को है, कि सात को है कि पंद्रह को है? आपने जब भी रखा, हमें आना है|” जिन्होंने कहा, उन्होंने ये शब्दों में नहीं कहा| उन्होंने तो एक वाक्य में कुछ छोटी सी बात कही, उन्हें पता भी नहीं था वो क्या कह रहे हैं| मैं आपको वो बता रहा हूँ, जो मैंने सुना| उन्होंने कहा, “ठीक! आप कोई भी तारीख तय कीजिये, तय हो गयी तो हमें आना ही है| हम समर्पित हैं|” कुछ दूसरी प्रतिक्रियाएं भी आयीं, जिन्होंने कहा. “हाँ! बहुत अच्छा है कि हो रहा है| पर ये तारेखें हमारे अनुकूल नहीं हैं| हम तब आयेंगे जब हमारे अनुकूल तारीखें होंगी|”
समझो बात को| ये दो मन हैं, एक कहता है कि हमें सत्य के अनुकूल होना पड़ेगा और दूसरा कहता है सत्य को हमारे अनुकूल होना पड़ेगा| अंतर समझ में आ रहा है? पहला कहता है, “वो बड़ा, हम छोटे!”| दूसरा कहता है, “हम बड़े! हमारी सुविधा बड़ी| हमारी योजनायें बड़ी, हमारे कार्यक्रम बड़े| हम तय करेंगे कि हमें कब ठीक लगता है|” ऐसों के लिए ही ऋषि ने कहा है कि, “संसारी जितने कष्ट को प्राप्त होता है, तुम उससे ज़्यादा कष्ट को प्राप्त होगे| भला होता तुम्हारे साथ कि तुम्हें ज़रा भी इन मंत्रो का, इन शब्दों का, पता ही ना लगता|”
दुनिया में बड़े से बड़ा नर्क सामान्य गृहस्थों ने नहीं खड़ा करा| उनकी तो जैसे हर चीज़ छोटी-छोटी, सीमित, दायराबद्ध है, वैसे ही उनके नर्क भी छोटे- छोटे, सीमित, दायराबद्ध होते हैं| लिटिल हेल्स (छोटे नर्क)| बड़े विशाल नर्क उन्होंने खड़े करे जो धर्म को जानते थे| वो कोई प्रचलित धर्म भी हो सकता है या कोई ऐसा धर्म जो उनका अपना हो, “कि मैं अपना धर्म, कर्तव्य जानता हूँ|” उनके नर्क महाविशाल थे|
जितने कुकर्म धार्मिक लोगों ने करे, उतने अधार्मिक लोगों ने कभी नहीं करे| और अधार्मिक व्यक्ति का धार्मिक बनना सरल होता है| पर जो मंजा हुआ धार्मिक ख़िलाड़ी है, जिसका धंधा ही यही है| जो धर्म को खुराक के तौर पे लेता है| जो चढ़ के बैठ गया है सत्य पे, कि मुझे तो पता है| मैं और ज़्यादा बड़ा हूँ| समर्पण की कोई बात नहीं! क्या समर्पण? “हम समझ गए हैं बात को, बात हमसे छोटी| अब हम तय करेंगे हमें इस बात का करना क्या है|” ये बड़ा खतरनाक है| इसके नर्क की कोई सीमा नहीं होती| वो तो निकल पड़ेगा दुनिया से असत्य को मिटाने के लिए| वो कहेगा, “सत्य हम जान गए हैं| अब असत्य हम मिटायेंगे, और ये सब लोग हैं जो असत्य के पुजारी हैं, इनको मारो सब को| ख़त्म करो|” जो सामान्य गृहस्थ है वो तो अपनी छोटी-छोटी झंझटों में, उलझनों में उलझा रहता है| सब्जी के दाम बढ़ गए हैं, बीवी परेशान कर रही है, बच्चे की फीस देनी है| उसकी इतनी ही दुनिया है| यही उसका नन्हा सा नर्क है| काम चल जायेगा| छोटू नर्क! पर
जिसको उपनिषद मिल गया, और जिस पर उपनिषद् बेअसर गया, उसका नर्क होता है भीमकाय!
मैं प्रार्थना करता हूँ कि आपको मिले ही ना, जब तक आपकी तैयारी पूरी ना हो| मैं प्रार्थना करता हूँ कि आपके कान में उपनिषदों के वचन पड़ें ना, जब तक आपका समर्पण पूरा ना हो| मैं प्रार्थना ही कर सकता हूँ| हम जैसे सत्य को पचा जाते हैं, वैसे समर्पण को भी पचा जाते हैं| आप बेशक दावा कर सकते हैं, आप पूरी तरह समर्पित हैं| जैसे आप ये दावा कर सकते हैं कि आप सत्यानिश्ठ हैं, वैसे ही आप ये भी दावा कर सकते हैं कि आप समर्पित हैं| अद्भुत खेल हैं अहंकार के| तो आखिरी निर्णयता तो आप ही हैं| आपके अलावा तो कोई जानता नहीं है कि कितना झूठ और कितना सच है आपके समर्पण में|
*सत्य* के पास, ऋषि के पास, उपनिषद् के पास, गुरु के पास तब आइये जब आपने जाँच-पड़ताल पूरी ख़त्म कर ली हो| संदेह की कसौटी पे नहीं कसा जाता है| जो संदेह ले कर के आएगा वो संदेह में ही रह जाएगा|
जो ज्ञान इकठ्ठा करने आएगा, वो ज्ञान इकठ्ठा खूब कर पायेगा| (हँसते हुए) ऐसा नहीं कि उसे ज्ञान मिलेगा नहीं| आप लोग यहाँ बैठे हैं, आप में से कई बड़े ज्ञानी हो गए| महिनों- महिनों, सालों-सालों, ये सब पढ़ के, सुन के, बड़े ज्ञानी हो गए| इससे बड़ा क्या दुर्भाग्य होगा कि आप इतने ज्ञानी हो गए|