वक्ता : कबीर एक न जन्या, तो बहु जनया क्या होई।
एक ते सब होत है, सब ते एक न होई।।
– संत कबीर
संतो का खिलवाड़ है। वो जो एक है –जिसके होने से सब कुछ है– वो अनादी है, वो अजन्मा है। जिसके होने से सब कुछ है वो स्वयं अजन्मा है, तो यह जितने जन्में हुए घूम रहे हैं, इनकी क्या औकात हो सकती है? बात समझ में आ रही है? जन्म पर, जीवन पर, मृत्यु पर, सब पर कबीर का कटाक्ष है यह।
एक का जन्म नहीं हो रहा तो बहुतों के जन्म की तो बात करना ही मूर्खता है न। जो वास्तविक है, जो असली है, जो परम है, जो मूल है जब उसका ही जन्म नहीं हो रहा तो तुम कौन से जन्म को गंभीर और महत्व्पूर्ण माने बैठे हो। जन्म और मृत्यु बच्चों की बातें हैं।
*“एक ते सब होत है, सब ते एक न होई ”*।
याद रखना कि अगर वास्तविक को पाना है तो तुम उसकी ओर देखो, उसे अपनी छवि में मत बैठाओ। अगर सच को पाना है तो तुम सच की ओर देखो, सच को अपने जैसा मत बनाने की कोशिश करो।
‘तू तू करता तू हुआ’ – तुम्हें उसके जैसे होना है, वो तुम्हारे जैसा नहीं हो जाना है।
*‘*जो तू चाहे मुक्त को, छोड़ दे सब आस
मुक्त जैसा ही हो रहे सब कुछ तेरे पास’।।
तुम्हें मुक्त जैसा हो जाना है, मुक्त तुम्हारे जैसा नहीं हो जाएगा। *‘एक ते सब होत है, सब ते एक न होई*’। कोशिश हमारी यह रहती है कि हम जैसे हैं हम परम को वैसा ही बना लें। हम लोभी, हम लालची, हम मूर्ख तो हमने परम की कल्पना भी कुछ-कुछ वैसी ही कर ली है। आप अपनी कहानियों को देखिए, आप अपने धार्मिक किस्सों को देखिए, उनमें जो परम की पूरी अवधारणा है ज़रा देखिये उसको कि कैसी है? सारे लक्षण जो हमारे हैं हमने उसके ऊपर आरोपित कर दिए हैं। हमने कभी उसको लालची बना दिया, कभी कामुक बना दिया, कभी चोर बना दिया, कभी वेह्शी बना दिया, भावुक बना दिया। उसको रुला रहें हैं हँसा रहे हैं, जन्म दे रहे हैं, उसकी मृत्यु भी करा रहे हैं। यह हम कर क्या रहें हैं? हम उसके जैसा होना चाह रहे हैं या उसे अपने जैसा बना रहें हैं। देख रहें है आप, आदमी का अहंकार।
कबीर कह रहे हैं – ‘एक ते सब होत है, सब ते एक न होई’। उसके होने से तुम हो, मूल वो है और यदि वो अजन्मा है तो तुम समझो कि तुम भी अजन्मे हो पर हम उल्टा चलते हैं। हम यह नहीं कहते कि वो अजन्मा है, तो हम भी अजन्मे हैं। हम कहते हैं कि हमें लगता है कि हमारा जन्म हुआ, तो उसका जन्म भी होना चाहिए। हम कहते हैं कि अगर हमारी इच्छाएँ हैं, वासनाएँ हैं, शादी-ब्याह है तो हम भगवानों की भी शादियाँ रचातें हैं। हम समाज में रहते हैं। हमारे भीतर इर्ष्या है, कलह है और द्वेष है तो हमने उधर भी समाज बसा दिए हैं और वहाँ भी इर्ष्या है, द्वेष है और बीवियाँ लड़ रही हैं आपस में। तुम लालची, तुम्हे मीठा खाना पसंद है तो तुम भगवानों को भी मीठा-मीठा खिलाते रहते हो। तुम दौड़ नहीं लगाते, तुम्हारी तोंद निकलती है तो तुम्हारे गणपति की भी तुमने तोंद निकाल दी। अब कौन किसके जैसा है?
कबीर समझाते-समझाते थके जा रहे हैं कि तुम्हें उसके जैसा होना है और तुम्हारी पूरी कोशिश क्या है? उसको अपने जैसा बना लेने की। अहंकार देख रहे हो? तुम कहते हो कि परम भी जैसा परम होगा तो होगा, पर हमसे तो नीचे ही है। तुम होगे बड़े ऊँचे, हमसे तो नीचे ही हो। हमारे सामने तो हमारे जैसे रहो। हमारी दुनिया में तुम हमारे जैसे रहो। जो तुमको खाना-पीना पसंद है वो तुम उनको भी खिला आते हो।
कबीर यहाँ बता रहे हैं कि बेटा – ‘एक ते सब होत है सब ते एक न होई’। तुम्हें उसके जैसा होना है, कैसा है वो? वो निर्वेशेष है, वो साधारण है, वो असंग है, वो पूर्ण है, वो अनिकेत है और तुमने उसी का घर बना दिया। जो अनिकेत है तुमने उसको घर में बैठा दिया। वो निर्विकार है; तुमने यह तो नहीं किया कि हम निर्विकार हो जाएँ, तुमने उसको और विकारों से भर दिया। वो असंग है; तुमने यह तो किया नहीं कि हम भी असंग होकर जीना सीखेंगे बल्कि तुमने उसका खानदान खड़ा कर दिया।
क्या न रस आता है कि बड़े-बड़े धार्मिक घरों में सुबह-सुबह शंकर विवाह सुना जाता है और बच्चों के कानों में यह ज़हर जा रहा है – ‘शंकर विवाह।’ आपको दिखाई नहीं दे रहा है कि विवाह की संस्था चलती रहे इस कारण आपके समाज ने यह षड्यंत्र रचा है कि शंकर का भी विवाह हुआ था। अब छोटे-छोटे बच्चों के मन में – कि शिव जी बिहाने चले, पालकी सजाई के, घोड़वा लगाईं के, हो राम। छोटे-छोटे बच्चे हैं, उनके मन में यह ज़हर बैठ गया कि शादी ज़रूर कोई महत्व्पूर्ण बात है। इश्वर का भी ब्याह होता है, भाई और फ़ालतू ही चिल्लाते रह गए उपनिषद कि वो पूर्ण हैं। तुम तो ब्याह रचा रहे हो उसका और इसको तुम धार्मिकता कहते हो।
‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।