प्रश्नकर्ता: अपूर्वा हैं, अगर कोई हमारी किसी कमज़ोरी का फ़ायदा उठाए, हमें बार-बार परेशान करे तो हम उस समय पर न्यूट्रल (तटस्थ) कैसे बने रहें?
आचार्य प्रशांत: देखो, दो-तीन तरह की परेशानियाँ होती हैं जो लोगों को लगती हैं। मान लो, तुम ट्रेन में जा रही हो, भारतीय रेल। अब एक परेशानी यही है कि प्लेटफार्म गन्दा है, स्टेशन पर सफ़ाई नहीं है, रेल देर से आ रही है किस प्लेटफार्म पर आ रही है उसका भी ठीक से कुछ बताया नहीं जा रहा, समुचित उद्घोषणा नहीं हो रही। इसको क्या परेशानी मानना? पता है न कि एक मंज़िल पर जाना है तो यही विकल्प है इसके खिलाफ़ भीतर-ही-भीतर शिकायत करने से और मन कसैला करने से क्या होगा?
ऐसा ही है। तुम कहोगे लेकिन हमेशा तो ऐसा नहीं होता। कई बार तो ट्रेन सही समय पर आ भी जाती है, कई बार प्लेटफार्म साफ़ भी होता है। हाँ, कई बार होता है, कई बार नहीं होता है, ये तो संयोग की बात है कि तुम्हें ऐसा कुछ मिल गया। तुम्हें मंज़िल देखनी है या प्लेटफार्म देखना है या प्लेटफार्म ही मंज़िल है तुम्हारी? उस प्लेटफार्म पर तुम थोड़ी देर के लिए हो, वहाँ पर मन इतना मत खराब कर लो कि जो समस्या ज़रा सी देर की थी, थोड़ी देर में हट ही जानी थी उस समस्या को तुम लम्बा बना लो और आने वाले जो पल हैं और चुनौतियाँ हैं उनसे जूझने की तुममें ऊर्जा ही न बचे क्योंकि सारी ऊर्जा तो तुमने प्लेटफार्म से उलझने में लगा दी।
जो अगला तुम्हारे सामने व्यवधान आ सकता है वो ये है कि तुम कहो कि 'मैं गई हूँ, मैं अपनी सीट पर जाकर लेट गई हूँ पर ये ट्रेन है ये न जाने इसमें कैसे कोच लगे हुए हैं, डब्बे, कि वो झटके मारते हैं और मैं सोना चाहती हूँ तो इसमें बड़ा कम्पन होता है, रॉकिंग मोशन, हिलता-डुलता है, बर्थ काँपती है।‘ भाई ! वो ऐसा ही होना है। उसके खिलाफ़ शिकायत करके कुछ नहीं मिलना है।
प्लेटफार्म गन्दा था ये तो फिर भी संयोग की बात थी, ट्रेन देर से आई ये भी संयोग की बात थी लेकिन तुम कहो कि ये जो बर्थ है ये मुझे बहुत सताती है क्योंकि ये मेरे घर के पलंग की तरह सुस्थिर नहीं रहती, ये हिलती है, डुलती है, कॅंपती है तो ये तो संयोग की बात भी नहीं है, ट्रेन की बर्थ ऐसी ही होती है उसको स्वीकार करो। उसके खिलाफ़ खड़े होने से कोई लाभ नहीं है।
जो चीज़ तुम बदल ही नहीं सकते, जो चीज़ पूर्णतया तुम्हारे नियन्त्रण से बाहर की है उसका विचार करना छोड़ देना चाहिए। मुझे बड़ा अच्छा लगे, दिन अगर अढ़तालीस घंटे का हो जाये, नहीं होने वाला न। बड़ा अच्छा लगे, अगर खाने-पीने की कोई ज़रूरत ही न रहे। नहीं, ऐसा नहीं हो सकता न। बड़ा अच्छा लगे, अगर नीन्द की कोई आवश्यकता नहीं रहे। नहीं, ये नहीं हो सकता।
ये बातें तो बस हैं इनका कुछ कर नहीं सकते। बड़ा अच्छा लगे कि मरते आदमी को जीने के लिए दो साल बस और मिल जायें। नहीं, नहीं हो सकता न। बड़ा अच्छा लगे, तुम्हारा कद चार, पाँच इंच, छ: इंच और हो जाए। नहीं, नहीं हो सकता। जो है सो है, वही है। अब उसकी बात नहीं करनी चाहिए।
जिन चीज़ों के बारे में बिलकुल कुछ किया नहीं जा सकता उनका सोचना बस यही बताता है कि तुम उन चीज़ों के बारे में नहीं सोचना चाहते जिनके बारे में अभी कुछ किया जा सकता है। जहाँ अभी तुम्हारे पास करने की सम्भावना और अधिकार है वहाँ तुम्हें कुछ नहीं करना तो ये अच्छा तरीक़ा है।
उन चीज़ों की शिकायत करना शुरू कर दो, जहाँ पर अब सारे रास्ते अवरुद्ध हैं, जहाँ कुछ कर पाने की कोई सम्भावना है ही नहीं, उनकी शिकायत करनी शुरू कर दो। तो ये नहीं करना है।
फिर ट्रेन में एक समस्या ये हो सकती है कि भाई तुम लेटी हुई हो, लोग आ गए हैं कुछ, वो उपद्रव कर रहे हैं और शोर कर रहे हैं या परेशान कर रहे हैं, वहाँ तुम कुछ कर सकते हो। उठकर उनको चेतावनी दे सकते हो। ट्रेन में जो भी टीटी हो, अधिकारी हो, उनको सूचित कर सकते हो, वहाँ जो कर सकते हो, करो।
ये पता होना आवश्यक है कि कहाँ पर कुछ करना है, कहाँ पर कुछ नहीं करना है, कहाँ चीज़ों को बिलकुल ही छोड़ देना है। लेकिन एक चीज़ बिलकुल भी आवश्यक नहीं है कि कुछ कर भी नहीं रहे और मन में शिकायत लेकर के बैठे हुए हो, बस समय खराब कर रहे हो। जहाँ कुछ नहीं कर सकते छोड़ दो, जहाँ कुछ कर सकते हो तो जो उचित है कर डालो। पर कसमसाते मत रहो भीतर।
तुमने लिखा है, 'हम न्यूट्रल कैसे बने रहें?' न्यूट्रल कुछ नहीं होता, सम्यक होता है। तुम कह रही हो, 'हम निरपेक्ष कैसे बने रहें? निरपेक्ष तुम बन ही नहीं पाओगे, जब तक तुम वो नहीं कर रहे जो सम्यक, सम्यक माने उचित है। कोई चीज़ तुमको सता रही है, तुम चाहती हो कि तुम्हें, तुम पर उसका असर न पड़े। उसके लिए तुमने पूछा है, ‘कि हम न्यूट्रल कैसे बने रहें, हम अफेक्टेड कैसे न हों, प्रभावित कैसे न हों।‘ प्रभाव तो पड़ ही रहा है, तभी तो तुम उस घटना की बात कर रहे हो। बात ये है कि उस प्रभाव को तुम उत्तर क्या दे रहे हो? प्रतिक्रिया क्या दे रहे हो? तो ये प्रतिक्रिया देनी है, जहाँ दिखे कि जो हो रहा है वो अनिवार्य है उसको टाला नहीं जा सकता, वहाँ उसको बस होने दो।
तुम उस चीज़ पर ध्यान लगाओ, जहाँ तुम ध्यान लगा सकते हो और जहाँ कोई ऐसी चीज़ हो रही है जिसके विषय में तुम कुछ कर सकते हो तो वहाँ सोचते मत बैठे रहो, जो उचित है वो तत्काल कर डालो और मुद्दे को दिमाग़ से हटाओ। उसमें तुम्हें हार भी मिली तो भी फिर तुम्हें सोचने की कोई ज़रूरत नहीं क्योंकि तुमने वो सब कुछ कर ही लिया न जो तुम कर सकते थे। सब कुछ कर लिया जो कर सकते थे तो अब मुद्दा कहाँ आ गया? वहाँ आ गया, जहाँ उसके बारे में कुछ नहीं कर सकते। जब कुछ नहीं कर सकते तो छोड़ दो भाई उसको।